मेरा 'चौथा खड्डा' नवभारत टाईम्स पर

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चौथा खड्डा
19 Nov 2007, 1446 hrs IST

बंता: संता सिंह जी... ये खड्डा किसलिए खोदा जा रहा है?"

संता: ओ...कुछ नहीं जी मुझे अमेरिका जाना है ना...इसलिए"

बंता: अमेरिका जाना है?"

संता: हां जी!.."

बंता: अमेरिका जाने के लिए खड्डा खोदना जरूरी है?

संता: ओ...कर दी ना तूने अनाड़ियों वाली गल्ल

बेवकूफ पासपोर्ट बनवाने के लिए फोटो चाहिए होती है कि नहीं?

बंता: फोटो तो चाहिए होती है लेकिन...फोटो से खड्डे का क्या कनेक्शन है?

संता: अरे बेवकूफ...पासपोर्ट फोटो में कमर के ऊपर का हिस्सा आना चाहिए...

इसलिए कमर तक गहरे खड्डे खोद रहा हूं, ताकि नीचे का हिस्सा कैमरे में न आए

बंता: लेकिन यहां तो आप ऑलरेडी 3 खड्डे पहले ही खोद चुके हो...फिर यह चौथा क्यों?

संता: बेवकूफ पासपोर्ट में 4 फोटो लगानी पडती हैं।


राजीव तनेजा

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"ये इंडिया है मेरी जान"

"ये इंडिया है मेरी जान"

***राजीव तनेजा***

"और सुनाएँ शर्मा जी कैसे मिज़ाज़ हैँ आपके?"...

"बढिया!...धान की नवीं-नकोर फसल के माफिक एकदम फस्स क्लास"...

"गुड...वैरी गुड".....

"लेकिन आपके चेहरे के हाव-भाव....आवाज़ की 'टोन'...'पिच'...'रिदम और 'लय'  तो कुछ और ही धुन गुनगुना रही है"...

"क्या?"...

"यही कि आपके बैण्ड बजे हुए चौखटे से आपकी पर्सनल लाईफ कुछ डिस्टर्ब्ड सी दिखती प्रतीत हो रही है"...

"नहीं!..ऐसी तो कोई बात नहीं है"...

"अपनी लाईफ तो एकदम से चकाचक और टनाटन चल रही है"...

"अच्छा?"....

"शायद!..मेरे ही दिल का वहम हो फिर ये"....

"अरे यार!...एक आज्ञाकारी...सुन्दर...सुशील एवं सुघड़ अर्धांगिनी के साथ बोनस स्वरूप चार गठीली...सुरीली और नखरीली सालियाँ मिल जाएँ...(वो भी बड़ी नहीं...छोटी)...तो और क्या चाहिए मेरे जैसे निहायत ही ठरकी और बेशर्म इनसान को?"...

"ही...ही....ही..."...

"जी!...ये तो है"...

"एक आम आदमी को भरपेट थाली के साथ-साथ कुँवारी साली मिल जाए तो कहना ही क्या"...

"अजी!...आप आम कहाँ?..इतनी सालियों के होते हुए तो आप अपने आप ही खासम-खास हो गए ना बिलकुल 'अभिनव बिन्द्रा' की तरह?"...

"अच्छा?...तो क्या उसकी भी चार सालियाँ हैँ?"....

"अजी कहाँ?...मेरे ख्याल से तो वो अभी तक 'अनमैरिड' है और अपने 'कुँवारेपन' को खूब तसल्ली से एंजॉय कर रहा है"...

"ऊपरवाला उसकी वर्जिनिटी को नेक व सलामत रखे"...

"अजी!...आज के युग में भी भला कोई इस उम्र तक वर्जिन होगा?"...

"अगर ऐसी बात है तो खुदा उसके  कुँवारेपन को खूब बरकत दे"...

"ये क्या?..आपका खिला हुआ चेहरा अचानक मुर्झा कैसे गया?"..

"कहाँ?...कहीं भी तो नहीं"...

"दाई से भला कहीं पेट छुपाया जाता है शर्मा जी"...

"तनेजा साहब...कसम से...कुछ भी तो नहीं हुआ है"...

"लेकिन आपकी ये बुझी-बुझी सी...दबी-दबी सी आवाज़ तो कुछ और ही कहानी कह रही है"...

"अब क्या बताऊँ तनेजा जी?"...

"मैँ तो अपने इस ब्लॉग की वजह से दुखी हो परेशान हो गया हूँ"...

"क्यों?...क्या हुआ है आपके ब्लॉग को?"....

"ब्लॉग को क्या होना है?"...

"जो होना है ...सो तो मुझे ही होना है"...

"कभी बैठे-बिठाए 'बी.पी' हाई हो जाता है तो कभी 'कोलैस्ट्राल' लो"...

"अरे भई!...साफ-साफ बताओ ना कि...बात क्या है?"....

"यहाँ मैँ दिन-रात कीबोर्ड पे उँगलियाँ चटखाते-चटखाते अधमरा हो मर लेता हूँ और लोग हैँ कि मेरे ब्लॉग की तरफ आना तो दूर की बात उसकी तरह रुख कर के मूतना भी पसन्द नहीं करते"...

"ओह"...

"खैर!..मेरी छोड़ें और अपनी सुनाएँ"...

"कैसा चल रहा है आपका वो 'हँसने-हँसाने' वाला ब्लाग?"...

"कुछ कमाई-धमाई भी हो रही है उससे या नहीं?"...

"बस!...कुछ खास नहीं लेकिन...फिर भी तसल्ली है"...

"किस बात की?"...

"यही कि नया खिलाड़ी होने के नाते ज़्यादा उम्मीदें नहीं पाली हैँ मैँने"...

"तो?"...

"इसलिए कम पा कर भी मैँ बहुत खुश हूँ"..

"वर्ना!...बेकार में...बेफाल्तू में आपकी तरह दुखी हो परेशान हुए रहता"....

"हा....हा...हा..."...

"एक बात बताएँगे तनेजा जी आप?"...

"जी ज़रूर"...

"कब तक आप अपनी कमियों को इस 'नया खिलाड़ी' होने के तमगे के नीचे ढांपते रहेंगे?"...

"क्या मतलब?"...

"नया ही तो हूँ"....

"अभी कुल जमा डेढ साल ही तो हुआ है मुझे लिखते हुए"...

"जी नहीं!...मैँने खुद आपकी आत्मकथा को सौ बार पढा है"...

"पूरे दो साल या इस से भी कुछ ज़्यादा का समय हो चुका है आपको अपने ब्लॉग पे लिखते-लिखते"...

"हाँ!...याद आया"...

"वो 'पूनम' की सर्द चाँदनी रात थी जब 'अमृतसर' के 'जलियाँवाला बाग' में टहलते-टहलते आपने दिव्य ज्ञान को प्राप्त किया था"....

"वहीं ही तो अचानक 'लेखकीय शुक्राणुयों' ने आपके दिमाग के भीतर अपना डेरा जमाया था ना?"..

"आपको गलतफहमी हुई है जनाब!....वो 'पूनम' की नहीं बल्कि 'अमावस' की रात थी और वो 'अमृतसर' का 'जलियाँवाला बाग' नहीं बल्कि दिल्ली के  'शालीमार बाग' इलाके का 'मोटेवाला' बाग था"...

"एक ही बात है...रात तो थी ही ना?"...

"जी!...लेकिन वो तो 'चाँदनी' नहीं बल्कि....

"ओ.के बाबा!...अमावस की रात भी थी और घनघोर अन्धेरा भी था"...

"अब खुश?"...

"जी"...

"तभी से आप में एक लेखक बनने की धुन सवार हो गई थी"....

"सिर्फ लेखक नहीं!...बल्कि एक सफल और कामयाब लेखक"...

"जी!...और बस तभी से आप हर समय अपने साथ कॉपी-पैंसिल रखने लगे थे"...

"क्यों संध्या के समय सुबह-सुबह झूठ बोलते हो यार?"...

"संध्या का समय...और वो भी सुबह-सुबह?"...

"बात कुछ हज़म नहीं हुई"...

"अरे!...मेरा मतलब था कि...क्यों संध्या के समय सफेद झूठ बोलते हो?"...

"ओह!..तो फिर ऐसे कहें ना"...

"मेरा खुदा...मेरा गवाह है कि मैँने आजतक कभी लिखने-लिखाने के लिए पैंसिल का इस्तेमाल नहीं किया"...

"सच में?"...

"जी!...सोलह ऑने"...

"ओह!...सॉरी....दैन इट्स माय मिस्टेक"...

"हाँ!....याद आया"...

"आप वो 'रेनॉल्ड' का काले वाला 'बॉलपैन' और 'बिट्टू' की स्माल साईज़ की कॉपी हमेशा अपने साथ रखने लगे थे"...

"फिर झूठ!...एकदम झूठ"...

"कुछ तो ऊपरवाले के कहर से डरो यार"...

"पहली बात तो ये कि वो 'रेनॉल्ड' का नहीं बल्कि 'पार्कर' का पैन होता था और कॉपी भी 'बिट्टू' की नहीं बल्कि 'नीलगगन' की होती थी"...

"वो भी 'स्माल' नहीं बल्कि एक्स्ट्रा लार्ज साईज़ की होती थी"...

"हाथ कँगन को आरसी क्या और पढे-लिखे को फारसी क्या?"...

"आप खुद ही देख लें कि कौन सी कम्पनी का पैन है और कौन सी कम्पनी की कॉपी?"...

"छोड़ो ना तनेजा जी...क्या रखा है इन बातों में?"...

"अच्छा चलो!..अपने दिल पे हाथ रख के एक बात सही-सही बताओ कि वो 'बॉलपैन' था या फिर 'फाउनटेन पैन?"...

"क्या फर्क पड़ता है?"...

"पैन चाहे 'गेंद' वाला हो या फिर 'फव्वारे' वाला....एक ही बात तो है"...

"लिखना उसने भी है और लिखना इसने भी है"...

"कमाल करते हैँ आप भी"....

"एक ही बात कैसे है?"..

"बॉलपैन..'बॉलपैन' होता है और 'फाउनटेन पैन' ...'फाउनटेन पैन' होता है"...

"कैसे?"...

"एक में पेट खोल के उसमें स्याही भरी जाती है तो दूसरे का पॉयजामा उतार...नलिका सैट की जाती है"...

"तो?"...

"अब इसमें तो का क्या मतलब?"...

"पढे-लिखे समझदार और जाहिल इनसान हो तुम"...

"इस तरह की अनपढों वाली बातें करना तुम्हें शोभा नहीं देता"...

"जी"...

"तो फिर ध्यान रहेगा ना?"...

"क्या?"...

"यही कि 'बॉलपैन' और 'फव्वारे वाले' पैन में क्या फर्क होता है?"....

"जी"...

"गुड...वैरी गुड"...

"आगे बको"...

"बस जब से ये आपने 'बॉलपैन'...ऊप्स सॉरी!...'फाउनटेन पैन' का दामन थामा...तभी से बिना रुके लगातार लिखते चले जा रहे हैँ"....
"जी!...

"वैसे कितने कितने विज़िटर आ जाते हैँ आपके ब्लॉग पे डेली के हिसाब से?"

"दिल्ली से तो ऐसा कुछ भी फिक्स नहीं है लेकिन हाँ!...'अरुणाचल प्रदेश'..  'नागालैण्ड'....'चिंचपोकली'... 'बाराबंकी' और 'झुमरी तलैय्या' से तो रोज़ाना कुछ ना कुछ आ ही जाते हैँ"...

"फिर भी कितने?"...

"नो आईडिया"....

"कुछ रफ सा अन्दाज़ा तो होगा?"...

"यही कोई बीस से पच्चीस"....

"बस?".....

"इन्हीं बीस से पच्चीस पाठकों की फौज के दम पे आप उछलते फिरते थे कि मैँ लेखन के क्षेत्र में क्रांति ला दूँगा..इंकलाब ला दूँगा"...

"गिनती से क्या फर्क पड़ता है?"...

"कंटैंट में दम होना चाहिए"...

"अरे वाह!... फर्क क्यों नहीं पड़ता?"...

"बिलकुल फर्क पड़ता है...बराबर फर्क पड़ता है"...

"ये गिनती का ही तो कमाल है जो वो 'भड़ास' उगलता 'भड़ासिया' आजकल 'इंडियागेट' और 'कनॉट-प्लेस' सरीखे  खुले इलाकों में चौड़ा हो के बेधड़क घूमता-फिरता है"

"अरे!...बंदा अगर खुले में चौड़ा हो के नहीं घूमेगा तो क्या 'चांदनी चौक' और 'सदर बाज़ार' की तंग और सौड़ी  गलियों में चौड़ा हो के घूमेगा?"...

"जी!...बात तो आप सोलह ऑने सही कह रहे हैँ"...

"खैर!...हमें क्या?...कोई जहाँ मर्ज़ी सिर सड़ाए"....

"हम तो पहले भी लिख रहे थे..अब भी लिख रहे हैँ और आगे भी लिखते रहेंगे"...

"क्या खाक लिखते रहे हैँ?"...

"आपको पूरे महीने में तीन या चार से ज़्यादा पोस्ट डालते तो कभी देखा नहीं"...

"अरे यार!..मैँ लिखने से ज़्यादा पढने में विश्वास करता हूँ"...

"नाचना ना आए तो आँगन तो अपने आप टेढा हो ही जाया करता है"..

"क्या मतलब?"...

"आप कहना चाहते हैँ कि मुझे लिखना नहीं आता?"...

"अभी तुम कहो तो आँखे बन्द कर के बिना कहीं रुके या अटके पूरी 'ए बी सी' लिख के दिखा दूँ"...

"अरे तनेजा जी!...'ए बी सी' लिखने में कौन सी बड़ी बात है?"...

"इसे तो कोई बच्चा भी बड़ी आसानी से लिख देगा"...

"अगर 'क ख ग' लिख के दिखलाएँ तो कुछ बात भी बने"...

"क ख ग ?"...

"जी...'क ख ग' "...

"इसमें कौन सी बड़ी बात है?"...

"ये लो!...लिख दिया 'क'.... 'ख' और 'ग' ".....

"अरे!  मैँ सिर्फ तीन अक्षरों की बात नहीं बल्कि पूरी वर्णमाला की बात कर रहा हूँ"...

"अरे यार!...तो फिर ऐसे बोलो ना"...

"अभी फिलहाल तो मुझे पूरी तरह याद नहीं है लेकिन हाँ!...कोशिश करने पर दो-चार मिस्टेक के साथ थोड़ा आगे-पीछे कर के लिख ही लूँगा"...

"यही तो दुर्भाग्य है 'तनेजा जी' हमारा...आपका और अपने देश का कि यहाँ हमें 'ए बी सी' तो रट्टू तोते के माफिक रटी पड़ी है ...हम 'फ्रैच' से लेकर 'जैपनीज़' तक हर विदेशी भाषा को सीखने को आमादा हैँ लेकिन अपनी 'क ख ग' के नाम पे हम इधर-उधर...अगल-बगल की बगलें झाँकने लगते हैँ"....

"बात तो यार तुम एकदम सही कह रहे हो"...

"हैरानी की बात तो ये है कि यहाँ के 'नेता' से लेकर 'अभिनेता' तक सब हिन्दी का ही खाते..कमाते...पहनते और ओढते हैँ लेकिन उसी हिन्दी में बात करने में इन्हें शर्म आती है...हीनता महसूस होती है"...

"जी"..

"अगर कोई 'हिन्दी' में बात करने में सहजता महसूस करे तो उसे माफी माँगने पे मजबूर कर दिया जाता है"...

"आज भी हमारे देश की जनसंख्या का काफी बड़ा भाग हिन्दी में ही सोचता है लेकिन जब बात करने की बारी आती है तो ना जाने क्यूँ हमारी ज़बान से कचर-कचर कैँची के माफिक अँग्रेज़ी निकलनी शुरू हो जाती है?"...

"अगर हम खुद ही अपनी भाषा से प्रेम नहीं करेंगे...उसे बोलने में गर्व महसूस नहीं करेंगे तो क्या फिर बाहर से फिरंगी आ कर हमारी भाषा का उद्धार करेंगे?"...

"सोलह ऑने सही बात"...

"आप कुछ पढने-पढाने की बात कर रहे थे ना?"...
"जी!...मेरे हिसाब से तो अगर हम चाहते हैँ कि हमारे ब्लॉग पे विज़िटरज़ की संख्या बढे ...तो हमें दूसरों के ब्लॉग्ज़ पर भी दस्तक देनी चाहिए"...

"जी"...

"और खाली सिर्फ दस्तक देने से ही कुछ नहीं होगा...हमें वहाँ जा के कुछ सार्थक और सटीक से कमैंट भी करने होंगे"...

"चलो मान ली आपकी बात की हमें दूसरों को भी पढना चाहिए...नॉलेज बढती है इस से और दीन-दुनिया की खबर भी रहती है लेकिन बाद में ...बेफाल्तू में दूसरों के ब्लॉग्ज़ पे कमैंट कर अपना कीमती वक्त ज़ाया करने से हमें क्या फायदा?"...

"अरे यार!...इस से सामने वाले का हौसला बढता है"..

"और ये क्यों भूल जाते हो कि हमारे देश में बरसों से 'इस हाथ दे और उस हाथ ले' की परंपरा चली आ रही है"...

"अगर हम दूसरों को कमैंट करेंगे तो वो भी हमारे ब्लॉग पे आ अपनी हाजरी बजाने को प्रेरित होंगे"...

"जी!...बात तो आपने सोलह ऑने दुरस्त कही"....

"एक बात पूछूँ?"... 

"ज़रूर"...

"ये सोलह आने वाली बात क्या आपका तकिया कलाम है?"....

"कुछ ऐसा ही समझ लो"....

"ओ.के"...

"आपकी बात कुछ-कुछ समझ आ रही है लेकिन क्या फायदा ऐसे पढने-पढाने का कि दूसरों को मज़े कराने के चक्कर में हम अपनी आँखे फुड़वा लें?"...

"अरे यार!....एक्सपीरियंस मिलता है इस सब से"...

"और कितना एक्सपीरियंस गेन करना चाहते हैँ आप?"...

"अरे!..तजुर्बे की कोई सीमा या तौल थोड़े ही होता है कि बस!...किलो दो किलो में बहुत हो गया"...

"ये तो सालों-साल नितत प्राप्त करने की चीज़ है"....

"तनेजा जी!...दो चार महीने बाद आपका जन्मदिन भी तो हैँ ना?"...

"जी!...है तो"...

"पूरे चालीस के हो जाएँगे आप"....

"तो?"..
"कब तक आप यूँ निप्पल चूसते वाले छोटे बच्चे की तरह बिहेव करते रहेंगे?"...

"मतलब?"...

"अजी!..परिपक्व बनिए और बड़ी बात कीजिए"...

"कब तक आप ये दस-बीस विज़िटरज़ की गिनती को गिन खुश होते रहेंगे?"...

"तो फिर क्या करू?"...

"करना क्या है?...बस ढीले-ढाले तरीके से नहीं बल्कि ज़ोरदार ढंग से काँटे की बात रखिए पब्लिक के सामने"...

"मजाल है जो कोई आपके ब्लॉग पे हाजरी लगाने से चूक जाए"...

"मसलन?"...

"किस तरह की बात?"...

"क्या सैक्स वगैरा?....

"अजी छोड़िए इस सैक्स-वैक्स को"...

"पूरा अंतर्जाल तो भरा पड़ा है इस सब से"...

"जी!...एक खोजो...हज़ारों साईटों में कैद...लाखों बालाएँ  कूद-कूद के अपने एक-एक अंग...एक-एक जलवे को दिखाने को उतावली हुई फिरती हैँ"...

"बस!...एक दो क्लिक के साथ माउस को थोड़ा-बहुत...आगे-पीछे और ऊपर-नीचे..नचा के बरसों से गुप्त रहे इस दुर्लभ और आत्मीय ज्ञान को सरेआम पाया जा सकता है"... 

"तो फिर क्या 'धर्म-कर्म' की बात करना उचित रहेगा"...

"अरे!..उसमें तो अपने ग्वालियर वाले 'दीपक जी' उस्ताद हैँ"..

"तो क्या हुआ?"...

"भजन-कीर्तन करना कोई अकेले उनकी ही बपौती तो नहीं"...

"नहीं यार!...अपने विशिष्ट मित्र हैँ....उनके साथ पंगा लेना ठीक नहीं"...

"तो फिर?"...

"क्यों ना हम 'पाकिस्तान' और 'नेपाल' में हो रही उठा-पटक को अपने ब्लॉग की विष्य-वस्तु बनाएँ?"...

"अरे नहीं यार!...एक से एक और धांसू से धांसू ब्लॉगर पहले ही इन विष्यों में अपनी महारथ सिद्ध कर चुके हैँ...उनके मुकाबले में हम कहीं ठहर नहीं पाएँगे"...

"ओह!..."

"एक आईडिया है"..

"क्या?"...

"यही कि हम गुज़रे ज़माने की चीज़ हो चुके 'रेडियो' के बारे में क्यों ना लिखें?"..

"मुझे तो लगता है कि गुज़रे ज़माने की चीज़ 'रेडियो' नहीं बल्कि तुम खुद एक पुराने ज़माने का ज़ंग लगा एंटीक हो"...

"क्या मतलब?"..

"अरे!...ये 'रेडियोवाणी' नाम के ब्लॉग के बारे में कुछ पता नहीं है क्या?"...

"रेडियोवाणी?....मैँने तो कभी नहीं सुनी इसकी वाणी"...

"इस नाम का भी कोई ब्लॉग है क्या?"...

"कितनी बार पहले भी समझा चुका हूँ कि सिर्फ लिखने-लिखाने से ही कुछ नहीं होता"...

"दूसरों को पढना भी ज़रूरी होता है"...

"अपने 'युसुफ खान' साहब पता नहीं कितने सालों से इस ब्लाग को सफलाता पूर्वक चला रहे हैँ"...

"तो फिर ये 'तकनीकी' टाईप का ब्लॉग बनाना कैसा रहेगा?"...

"रहेगा तो बढिया लेकिन मुझे तो इस 'तकनीक-वकनीक' का 'क ख ग' भी नहीं पता"...

"मैँ भला कैसे 'तकनीक' के ब्लॉग को तकनीकी तौर पर हैण्डल कर पाऊँगा"...

"अरे!...बहुत आसान है"...

"तकनीक?"...

"नहीं"...

"तो फिर?"...

"नकल करना"...

"वो कैसे?"...

"हम दूसरे ब्लॉगो से सीधे 'कॉपी-पेस्ट' कर दिया करेंगे"...

"लेकिन तुम तो जानते ही हो कि बचपन से मुझे 'चाय' पसन्द है ना कि कॉफी' और....आपकी तथा सभी पाठकों की जानकारी के लिए मैँ बता दूँ कि 'बाबा रामदेव' की नेक एवं उचित सलाह को मानते हुए मैँने आजकल 'पेस्ट' के बजाय 'नीम' या फिर 'कीकर' के(जो भी उपलब्ध हो) दातुन का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है"...

"अरे!...मैँ वो वाली नहीं बल्कि नकल कर के चिपका देने वाले 'कॉपी-पेस्ट' की बात कर रहा था"...

"ओह!...तो फिर ऐसे कहना था ना"..

"इसका तो मुझे पूरे 'अठारह साल' का तजुर्बा है"....

'लेकिन तुमने तो शायद 'बी.ए' किया हुआ है ना?".... 

"बी.ए नहीं...'बी.कॉम'...

"एक ही बात है...लगते तो उसमें भी पन्द्रह साल ही हैँ ना?"..

"हाँ"...

"तो फिर ये अठारह साल का तजुर्बा?"....

"व्व्वो दरअसल नौंवी में दो बार...और कॉलेज में एक बार"..

"शश्श!...ऐसी बातें...नैट पे यूँ ओपन में खुलेआम करना ठीक नहीं"....

"जी"...

"अरे!...तुमने उस 'रतलामी' ब्लॉगर का नाम सुना है जिसे रोज़ाना के हिसाब से डेढ से दो हज़ार तक हिटस मिलते हैँ?

"डेढ दो हज़ार?....

"जी"...

"रोज़ाना के हिसाब से?"...

"जी"...

"हो ही नहीं सकता"...

"ऐसा क्या खास लिखता है वो कि लोग बावलों की भांति उसके ब्लॉग पे खिंचे चले आते हैँ?"...

"ऐसे तो कुछ खास और स्पैसिफिक नहीं है"...

"कभी वो 'करैंट अफेयरज़' के बारे में बात कर रहा होता है तो कभी कभी वो 'वेद' और 'पुराणों' की बात करने लगता है"...

"मतलब कि ऐसे ही सब बेफाल्तू की हाँकता है?"...

"कह भी सकते हैँ"...

"कमाल है!..बेफिजूल की और ऊल-जलूल की हाँकने में तो हमसे अव्वल कोई हो ही नहीं सकता और हम हैँ कि अभी तक निद्रा अवस्था में ही प्राणायाम करते रहे?"...

"कभी भौतिक संसार में मन रमा माल कमाने की सोची ही नहीं"...

"खैर!...अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है"...

"जी!...जब जाग जाएँ..तभी सवेरा समझना चाहिए"...

"बिलकुल"...

"तो फिर शुरूआत कहाँ से की जाए?"...

"अब मैँ क्या बताऊँ?"..

"आप तजुर्बेकार हैँ एवं मुझसे बेहतर इस ब्लॉग की दुनिया को जानते हैँ"...

"वैसे वो 'ब्लॉगर' इस लिखने लिखाने से कुछ कमाता-वमाता भी है कि यूँ ही बेफाल्तों में कीबोर्ड और माउस के साथ दिन-भर पिलता रहता है?"....

"अब इसका तो पता नहीं लेकिन सुनने में आया है कि पिछले महीने ही उसने नई 'एल्टो' खरीदी है"...

"ओह!....नकद या फिर आसान किश्तों पे?"....

"अब ये तो पता नहीं"...

"खैर छोड़ो!...हमें क्या?...कोई कुछ भी खरीदे या बेचे"...

"वैसे भी ये एल्टो-वैल्टो' जैसी छोटी गाड़ियाँ अपुन की चॉयस की हैँ ही नहीं"...

"जी!...आपके जैसी हाई-फाई पर्सनैलिटी के आगे तो वैसे भी ये छोटी और सिम्पल गाड़ियाँ हीन भावना से ग्रस्त हो अपने आप ही चलने से इनकार कर देंगी"..

"बिलकुल"...

"अपुन का तो सपना है कि जो भी काम करना है...लार्ज एवं वाईड स्केल पे करना है"...

"अब पानीपत के गोदाम को ही लो"...

"क्या किसी ने सोचा था कि ये राजीव अपने आपे से बाहर निकल के इतने ज़्यादा हाथ-पाँव फैलाएगा कि उसे लेने के देने पड़ जाएँगे?"....

"अरे!...नुकसान हुआ तो क्या हुआ?"...

"जैसे एक झटके में सब गवां दिया...वैसे ही एक झटके में सब कमा भी लूँगा"...

"जब आया था पानीपत तो मेरे तेवर देख के सब हक्के-बक्के रह गए थे...और अब पानीपत छोड़ के जा रहा हूँ तो भी सब हक्के बक्के हो रहे हैँ"...

"वाह!...क्या बात है....वाह...वाह"...

"इसे कहते हैँ स्पिरिट"...

"बिलकुल!...चाहे कुछ भी हो जाए...हौसला नहीं टूटना चाहिए"...

"तनेजा जी!....बीच में टोकने के लिए माफी चाहूँगा लेकिन हम बात कर रहे थे छोटी और बड़ी गाड़ियों की और आप बीच में अपनी राम कहानी ले के बैठ गए"...

"आपके लिए हो सकती है ये राम कहानी मेरे लिए तो आप बीती है"...

"जानता हूँ कि दुनिया मतलब की है और उसे किसी के दुख..किसी के दर्द से कोई लेना-देना नहीं है"...

"ये आपको  किसने कह दिया कि दुनिया मतलब की है?"...

"यहाँ!...जब दिल्ली में एक के बाद एक लगातार पाँच बम विस्फोट हुए तो घायलों की मदद करने वालों में सबसे आगे मैँ था"...

"उस दिन मैँ भी तो करोलबाग में ही था और ये देखो...इस बाज़ू से मैँने पूरे एक यूनिट ब्लड डोनेट किया था"...

"ये देखो!...अभी भी निशान बाकी है"...

"कईयों को तो मैँ हरिद्वार की गंगा जी में डूबने से बचा चुका हूँ"...

"ओह!...रियली?"...

"जी"...

"दैट्स नाईस"...

"गुड...वैरी गुड"...

"कीप इट अप"...

"शर्मा जी!...एक आईडिया दिमाग में कौन्धा है अभी-अभी"....

"आप कहें तो बताऊँ?"...

"इसमें भी भला कोई पूछने की बात है?"...

"फरमाएँ!...क्या कहना चाहते हैँ आप?"...

"जब मेरे अन्दर और आपके अन्दर..याने के हम दोनों के अन्दर देश-प्रेम और देश भक्ति का एक जैसा पवित्र एवं पावन जज़्बा है तो क्यों ना हम मिलकर एक ऐसा ब्लॉग बनाएँ जो देश के हित के लिए काम करे"....

"आईडिया तो अच्छा है"...

"वैसे हमारे ब्लॉग का मेन कार्य-क्षेत्र क्या होगा?"...

"मतलब हम उस पर किस बारे में लिखेंगे और किस बारे में नहीं?"...

"सही मौके पे सही सवाल उठाया आपने"...

"अपने ब्लॉग में हम किसी की चुगली नहीं करेंगे और ना ही किसी का किसी भी प्रकार का छोटा या बड़ा गाली-गलोच सहन करेंगे"...

"और?"....

"देश सेवा से जुड़े हर मुद्दे को उठाएँगे"....

"जैसे?"...

"हम अपने ब्लॉग के जरिए लोगों को श्रम दान से लेकर रक्त-दान तक के लिए प्रेरित करेंगे"...

"और?"....

"ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को हिन्दी से जोड़ने का सार्थक प्रयास करेंगे"...

"और?"...

"दिल्ली और 'एन.सी.ऑर' के लोगों की सेवा के लिए तन..मन और धन से जो बन पड़ेगा...वो सब करेंगे"...

"आपको नहीं लगता कि हमारी-आपकी सोच कुछ संकुचित होती जा रही है?"...

"कैसे?"...

"हम सिर्फ जो दिल्ली और उस से सटे 'एन.सी.ऑर' की बात जो कर रहे हैँ"...

"ओह!...इस बाबत तो मैँने सोचा ही नहीं"...

"आपको नहीं लगता कि हमें अपने ब्लॉग के जरिए सभी राष्ट्रीय मुद्दों को उठाना चाहिए?"...

"बिलकुल!...मुद्दा तो मुद्दा होता है"....

"चाहे वो ओवन में से ताज़ा निकला गर्मागर्म हो अथवा ठण्डे बस्ते में पड़ा कोई पुराना एवं बासा हो".

"हमें ध्यान रखना होगा कि हम किसी भी मुद्दे को कमज़ोर ना पड़ने दें"...

"भले ही वो 'सिंगूर' का नयनभिरामी 'नैनो' प्राजैक्ट हो या फिर वो हो  'राज ठाकरे' द्वारा 'बिग बी' से माफी मँगवाने का मुद्दा"...

"हमारे देश में अगर समस्याएँ बहुत है तो समाधान भी बहुत हैँ लेकिन हम दो अकेले चने  भाड़ फोड़ें भी तो कैसे?"...

"जब हम इस दुनिया में आए थे...तब भी अकेले थे और जब इसे छोड़ ऊपरवाले के पास जाएँगे ...तो भी अकेले ही कूच करेंगे हम"...

"सत वचन"...

"लेकिन...

"कुछ लेकिन-वेकिन नहीं!...इस राजीव ने एक बार जो ठान लिया...सो समझो ठान लिया"...

"एक प्रार्थना है तुमसे...अगर साथ छोड़ना है तो बेशक अभी छोड़ दो लेकिन बस बीच में धोखा ना देना"...

"क्या बात करते हैँ तनेजा जी आप भी?"...

"आपने मुझे क्या समझ लिया है?"..

"पीछे हटने वालों में से मैँ नहीं"...

"यहाँ तो एक बार ज़बान कर दी तो कर दी"....

"अगर तुम्हारे मन में अब भी कोई शक या शुबह है तो बेशक अभी बता दो"...

"बिलकुल नहीं"...

कहीं ये ना हो कि मैँ तुम्हारे कन्धे पे बंदूक लिए गर्व से घूमूँ-फिरूं और ऐन फॉयर के वक्त तुम नदारद पाओ"...

"मैँ...और धोखा?"...

"हे ऊपरवाले!...ऐसा सुनने से पहले मैँ बहरा क्यों ना हो गया?"...

"मैँने तो सोच लिया है राजीव जी कि अब मेरे लिए देश-सेवा से बढकर कुछ नहीं"...

"ना ये बँगला..ना वो गाड़ी...ना ये बीवी...ना वो बच्चे"...

"अरे शर्मा जी!...क्या करते हो?"...

"आप जिस बँगले और गाड़ी की तरफ इशारा कर रहे हैँ...वो मेरी है..आपकी नहीं"...

"हाँ!...ये बच्चे...इनके बारे में तो मुझे पूरा यकीन है कि ये मेरे नहीं हैँ"...

"क्या?"...

"हाँ!..इन्हें आप बेशक अभी के अभी ले जाएँ".....

"और ये बीवी?"...

"फिलहाल तो मेरी ही है"...

"हे...हे...हे..."

"मैँ तो बस ऐसे ही मज़ाक कर रहा था"...

"सही है मियाँ!...एक आप हो कि मज़ाक-मज़ाक में ही सही...लेकिन पराए माल को अपना तो बना लेते हो"...

"और एक हम हैँ कि कई दिनों से पड़ोस वाली प्रिया पर ताड़ू नज़र रखने के बाद भी उसे हकीकत क्या सपने में भी अपना नहीं बना पाए"..

"अब क्या बताऊँ...तनेजा जी"...

"ऊपरवाले ने बनाया ही मुझे इतना दिलफैंक है कि.....

"खैर ये फैंकने और फिकवाने की बातें तो हम बाद में करेंगे पहले असली मुद्दे पे आते हैँ"...

"जी!..बिलकुल"...

"हाँ तो हम बात कर रहे थे कि अकेला चना भाड़ फोड़े ब्भी तो कैसे?"...

"जी"...

"तो क्यों ना हम एक नई शुरूआत करे?"...

"कैसी शुरूआत?"...

"हम अपने ब्लॉग को सामुदायिक ब्लॉग का रूप दे देते हैँ"...

"मतलब की हमारे ब्लॉग के कई मालिक होंगे?"...

"बिलकुल"...

"हर आदमी अपने-अपने लैवल पे देश हित से जुड़े मुद्दे उठाएगा और अपने सभी जान-पहचान वालों को हम से जुड़ने के लिए प्रेरित करेगा"...

"हमारे पैनल में छोटे से छोटा लिक्खाड़ और बड़े से बड़ा बुद्धीजीवी शामिल होगा"...

"हम धर्म...जाति और रुतबे के आधार पर आपस में कोई भेदभाव नहीं करेंगे"...

"धनी से धनी और निर्धन से निर्धन को हम समान भाव से गले लगाएंगे"...

"जल्द ही हमारी विचारधारा को मानने वालों की संख्या इतनी ज़्यादा हो जाएगी कि हम सरकार से अपनी हर जायज़ या नाजायज़ बात को आसानी से मनवा पाएंगे"....

"मसलन?"...

"जैसे एक्साईज़ और टैक्स वैगरा में छूट दिलवा कर हम अमीरों का हित साधेंगे तो अच्छे वेतनमानों के साथ सरकारी नौकरियों की संख्या बढवा कर हम गरीबों का भी भला करेंगे"...

"गुड!...वैरी गुड"...

"लेकिन मुझे डर है कि कहीं किसी वजह से हमारा ये सपना सिर्फ सपना बनकर ही ना रह जाए"...

"क्यों?...ऐसा क्यों लगा तुम्हें?"...

"जानते नहीं कि 'एकता' में बड़ा बल है"....

"एकता कपूर में?"...

"अरे बुद्धू!..मैँ उस 'एकता' की बात नहीं कर रहा"...

"तो फिर?"...

"मैँ तो एकता याने 'यूनिटी' की बात कर रहा था कि उसमें बड़ा बल है"...

"बल तो वैसे अपने 'खली दा ग्रेट' में भी बड़ा है लेकिन वो भाड़ नहीं बल्कि पत्थर फोड़ा करता था"...

"अरे यार!...उस खली का हमारे ब्लॉग या हमारे मिशन से क्या लेना-देना?"...

"लेना-देना क्यों नहीं?"...

"यूथ आईकॉन है वो"...

"बच्चे उस पे जान छिड़कते हैँ और यंग जैनरेशन उसके जैसा बनने को हैल्थ-क्लबों में मारी-मारी फिरती है"...

"ओह!...फिर तो अपने काम का बंदा है वो"...

"बिलकुल"...

"एक्चुअली!..हमें तो सिर्फ नए यंग एवं जवान लड़को की पूरी टीम खड़ी करनी होगी जो हमारे एक इशारे पे हर उस जगह तन के खड़ी हो जाए...जहाँ हम चाहें"...

"चाहे वो 'डी.सी' का दफ्तर हो या फिर हो किसी भी राज्य के 'मुख्यमंत्री' का आवास"...

"अरे वाह!...फिर तो मज़ा आ जाएगा"...

"बिलकुल"...

"तो फिर ऊपरवाले का नाम लेकर हम अपने ब्लॉग का श्री गणेश करें?"..

"बिलकुल"...

"वैसे हमारे ब्लॉग का सबसे पहला काम क्या होगा?"...

"इस समय बिहार के लोग 'कोसी' का कहर झेल रहे हैँ"...

"जी"...

"मैँ तो जब भी टीवी वगैरा में वहाँ के हालात के फुटेज देखता हूँ तो जी रुआँसा हो उठता है"...

"वहाँ बच्चों को भूखा देखता हूँ तो खाने की मेज़ से एक-दो निवाले खा के या फिर बिना खाए ही उठ जाता हूँ"...

"जी!...एक तरफ हमारे देश की जनता भूख और प्यास से तड़प-तड़प के हलकान हो जाने दे रही हो और दूसरी तरफ हम मज़े से बेफिक्र हो चना-चबैना चबाते रहें..ये उचित नहीं"...

"अगर ऊपरवाले ने मुझे धन्ना सेठ बनाया होता तो मैँ तुरंत ही अपने अनाज से भरे गोदामों के मुँह उन बेचारों के लिए खोल देता"....

"अब ये स्साले बैंक वाले चैरिटी करने के नाम पे लोन भी तो नहीं देते"...

"उफ!...कैसे मदद करूँ मैँ इन बेचारे गरीब-गुरबाओं की"...

"कोई रास्ता...कोई हमसफर भी तो नहीं दिखाई दे रहा अपने इस मिशन में"..

"कमाल करते हैँ तनेजा जी आप भी"...

"मैँ हूँ ना"...

"एक से एक ब्लॉगर से जान-पहचान है मेरी"...

"अगर पब्लिक का साथ ज़रा सा साथ मिल जाए तो इस बिहार समस्या का हल यूँ चुटकियों में हुआ समझो"....

"चिंता ना करें...जितने बंदे चाहिए मिल जाएँगे"...

"ये वादा है इस शर्मा का आपसे"...

"अरे!...बंदों का मैँ क्या अचार डालूंगा?"...

"वो तो मेरे एक इशारे पे ही बैनर और पोस्टर चिपकाने के लिए दिल्ली की जे.जे.कलौनियों से जितने चाहूँ..उतने दौड़े चले आएँगे"...

"तो फिर आपका क्या मतलब था?"...

"पब्लिक के साथ देने से मेरा मतलब था कि आम जनता अपनी तरफ से जी भर कर मदद करे"...

"किस तरह की मदद?"...

"जैसे पुराने कपड़े....बर्तन...कम्बल....दवाईयाँ इत्यादि....कुछ भी दे सकती है.....और हाँ!...अगर नकदी दे सके तो सबसे बेहतर"...

"वजह?"...

"वजह ये कि नकद-नारायण की तो हर जगह पूजा होती है और इसे  एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना भी आसान होता है"...

"जी!...ये नहीं होना चाहिए कि बेचारे गरीबों को खाने-पीने के सामान की ज़रूरत हो और हम यहाँ से लीड़े-लत्तों की कनज़ाईनमैंट लाद दें"...

"बिलकुल"...

"इसलिए हम ज़रूरत के हिसाब से उनमें बाकी चीज़ों के अलावा नकदी भी बाँटेंगे"...

"गुड...वैरी गुड"...

"तो सबसे पहले हम अपने सांझे और निजी ब्लॉगों के जरिए आप जनता से अपील करेंगे कि वो अपनी तरफ से भरपूर मदद करे"....

"गुड"....

"एक काम करना"...

"जी"...

"मेरा वो नांगलोई वाला गोदाम आजकल खाली पड़ा हुआ है"...

"तो?"...

"जितनी भी राहत सामग्री इकट्ठी होगी...उसे वहाँ डम्प कर देंगे"...

"डम्प कर देंगे?"...

"अरे यार!..जब तक पूरे ट्रक का लोड ना हो जाए...तब तक कैसे भेजेंगे?"...

"ओह!...अच्छा"...

"मेरी राय में तो एक ट्रक भेजने में भी उतनी ही सिर दर्दी है जितनी दस ट्रकों को भेजने में"...

"जी"...सही फरमाया आपने"....

"तो यही ठीक रहेगा ना कि जब तक नांगलोई वाले गोदाम में आठ-दस ट्रक माल ना इकट्ठा हो जाए...हम चुप लगा के बैठे रहेंगे और बाद में सही मौके पे बिहार की जनता को एक साथ राहत सामग्री भेज आश्चर्यचकित कर देंगे"...

"बिलकुल!...वो भी अचानक सरप्राईज़ पा कर फूली नहीं समाएगी"...

"लेकिन ये सामान रखने के लिए इतनी दूर नांगलोई जाने की ज़रूरत ही क्या है?"...

"यही पास में ही किसी का खाली पड़ा गोदाम मिल जाएगा हफ्ते दो हफ्ते के लिए"...

"मुफ्त में?"...

"थोड़ा-बहुत किराया ही तो भरना पड़ेगा....भर देंगे"...

"हाँ!...भर देंगे"...

"तुम्हारा खुद का पैसा नहीं है ना...इसलिए तुम्हें दर्द नहीं हो रहा"...

तुम क्या जानो कि कैसे पब्लिक अपने खून-पसीने की कमाई का एक हिस्सा तुम्हें किसी भले व नेक काम के लिए सौंपेगी और तुम हो कि उसे ऐसे ही उड़ाने पे तुले हो"....

"मुझे कुछ नहीं पता!...बेशक किराया एक का दो लग जाए लेकिन राहत सामग्री का एक इंच भी नांगलोई नहीं जाएगा"....

"बावले तो नहीं हो गए हो तुम कहीं?"...

"वहाँ अपना खुद का गोदाम खाली पड़ा-पड़ा सड़ता रहे और हम यहाँ किराए-विराए में पैसे फूंक के पब्लिक की दी हुई अमानत में खयानत करते रहें?"...

"भई ये पाप तो मुझसे ना होगा"...

"देखो!...मैँ तुमसे बड़ा हूँ ना?"...

"तो?"...

"बड़े भाई होने के नाते ही मेरी बात मान लो"...

"वहाँ एक पैसा भी किराए का नहीं लगना है और फिर अपना गोदाम है तो चोरी-चकारी का भी कोई डर नहीं"...

"बाहर किसी दूसरे पे हम कैसे भरोसा कर लें?"...

"हम्म....चलो मान ली आपकी बात लेकिन जितनी भी नकदी आएगी उसे घर में नहीं बल्कि बैंक में रखा जाएगा"...

"बिलकुल!...इसमें मुझे कोई ऐतराज़ नहीं"...

"बैंक में रखना ही बेहतर होगा...आजकल चोर-डकैतों का कोई भरोसा नहीं"...

"ज़रा सी भनक लगी नहीं कि तुरंत धावा बोलने से नहीं चूकेंगे"...

"जी"...

"बैंक में पैसा सेफ भी रहेगा और कुछ ब्याज बट्टा भी मिल जाएगा"...

"जी"...

"तो फिर तय रहा ना सब कि सबसे पहले हम अपने ब्लॉगज़ के जरिए सभी ब्लागरज़ बन्धुओं से मदद की अपील करेंगे और उनसे मिले चंदे से पोस्टर...बैनर तथा इश्तेहार वगैरा छपवा कर हर गली...हर मोहल्ले...हर बाज़ार हर दिवार पर चिपकवाएंगे?"...

"जिससे आम जनता को हमारे मंसूबों की जानकारी मिलेगी और तत्परता से हमारी मदद के लिए अपनी जेबें खाली कर डालेगी"...

"हम पुराने कपड़ों से लेकर अनाज तक और...फर्नीचर से लेकर अखबार तक...सभी कुछ स्वीकार करेंगे"...

"पुराने अखबार तथा मैग्ज़ीन वगैरा भी?"...

"जी"...

"लेकिन पुरानी अखबारों का हम आखिर करेंगे क्या?"...

"अरे!...उन्हें रद्दी में बेच के नोट इकट्ठा करेंगे...और क्या?"...

"अरे वाह!...क्या धांसू आईडिया निकाला है"...

"लोग भी खुश और हम भी खुश"....

"बिलकुल"...

"सबसे मेन प्वाईंट"...

"कैश कहाँ रखा जाएगा?"... 

"बैंक में...और कहाँ?"...

"गुड"...

"मेरा सिंडीकेट बैंक में ऑलरैडी खाता है...वहीं जमा करवा देंगे सारा पैसा"...

"नहीं सिंडीकेट बैक में तो बिलकुल नहीं"...

"क्यों?...क्या बुराई है सिंडीकेट बैंक में?"..

"अरे यार सरकारी बैंक है"...

"तो?"...

"क्या पता बदमाशों का ही सिंडीकेट हो इसमें?"..

"पैसा जमा होगा तो सिर्फ 'आई.सी.आई' बैंक में"...

"क्योंकि वहाँ आपका एकाउंट है?"...

"हाँ!...है"...

"तो?"...

"सब समझ रहा हूँ आपकी चालबाज़ी तनेजा साहेब"...

"गोदाम भी आपका और बैंक भी आपका"...

"तो?"...

"फुद्दू समझ रखा है क्या मुझे?"...

"इतना बावला नहीं हूँ मैँ कि तुम्हारी ये घटिया चालबाज़ियाँ ना समझ सकूं"...

"पहले अपने गोदाम में माल रखवाने के बाबत लॉजिक दिए...मैँ मान गया कि चलो कोई बात नहीं...कैश तो मेरे सिंडीकेट बैंक के खाते में ही रहेगा"...

"लेकिन फिर जब तुमने पैसे को अपने बैंक में रखने की बात कही तो मेरा माथा ठनका कि ये राजीव तो सारा माल खुद ही हड़पने की तिकड़म भिड़ा रहा है"...

"उफ!...मैँ तिकड़म भिड़ा रहा हूँ?"...

"ये कान ऐसे ओछे और छोटे इलज़ाम सुनने से पहले फट क्यों ना गए?"...

"तुम मुझ पर इलज़ाम लगा रहे हो कि मैँ गोदाम में जमा सारे माल को हड़प जाऊँगा?"...

"बिलकुल"...

"अरे यार पुराने लीड़े-लत्तों का भला मैँ क्या करूँगा?"...

"सब जानता हूँ मैँ तनेजा साहेब कि ट्रेन में आते-जाते आपकी यारी पानीपत के उन कबाड़ियों से भी हो गई है जो पुराने कपड़ों में डील करते हैँ"...

"चलो मानी आपकी बात कि मैँ ऐसे कुछ कबाड़ियों को जानता हूं लेकिन पुराने फर्नीचर के आड़-कबाड़ का भला मैँ क्या करूंगा?"...

"क्यों?...पहले भी तो आप पुराने दरवाज़े और खिडकियों का काम कर चुके हैँ ना?"...

"हाँ!..कर चुका हूँ"....

"तो?"

"आपकी जानकारी लोगों से ज़रूर होगी जो पुराने फर्नीचर में डील करते हैँ जैसे राजा कबाड़ी वगैरा...वगैरा"...

"चलो मानी तुम्हारी बात कि मैँ तिकड़म भिड़ा सारा माल अपने अन्दर करने की सोच रहा था लेकिन दूध के धुले तो तुम भी नहीं हो दोस्त"...

"क्यों?...क्या किया है मैँने?"...

"सब जानता हूँ मैँ कि तुम माल किसके गोदाम में और क्यों रखवाना चाहते थे"...

"ओ.के"...

"जब हम दोनों एक दूसरे के बारे में सब जान ही गए हैँ तो ठीक है...ऐसा ही सही"...

"अब क्या इरादा है?"...

"काम तो हम अब भी एक साथ ही करेंगे क्योंकि मोटा धन्धा है ये और इसे संभालना किसी एक के बस की बात नहीं"....

"हाँ!..एक साथ काम करेंगे लेकिन अपने-अपने हाथ पक्के करने के बाद"..

"कैसे?"...

"माल रखने के लिए गोदाम तुम्हारा नांगलोई वाला इस्तेमाल होगा"...

"गुड...वैरी गुड"...

"लेकिन मेरे आदमी भी वहाँ हमेशा तैनात रहेंगे"...

"तुम्हारे आदमी?"...

"जी!...मेरे आदमी"...

"ओ.के...मुझे कोई ऐतराज़ नहीं"...

"पुराने कपड़ों को ठिकाने का ज़िम्मा तुम्हारा रहेगा"..

"मेरा क्यों?"...

"क्योंकि तुम्हें इसकी पार्टियाँ मालुम है"....

"लेकिन....

"चिंता ना करो इसके बदले मे तुम्हें जायज़ कमीशन मिलेगी"...

"ओ.के!...फिर ठीक है"...

"नकदी को तो रोज़ के रोज़ हम बाँट ही लिया करेंगे"...

"बिलकुल!...नकदी में देरी करना ठीक नहीं"...

"और बाकी के सामान को भी थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे कर के साथ ही साथ निबटाते जाएँगे"...

"यही सही भी रहेगा"...

"और अगर कुछ ना बिकने वाला या फिर ना इस्तेमाल होने लायक सामान बच गया तो"...

"अरे!..ये इंडिया है मेरी जान"...

"यहाँ मिट्टी से लेकर कूड़ा-करकट तक सब बिक जाता है"...

"लेकिन अगर फिर भी कुछ बच-बचा गया तो इतने निर्दयी भी नहीं हम कि सब खुद ही हड़प कर जाएँ"...

"बिलकुल!...ये बिहार किस दिन काम आएगा?"...

"हा....हा.....हा....हा"...

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

Delhi(India)

rajivtaneja2004@gmail.com

http://hansteraho.blogspot.com

+919810821361

+919896397625

 

कभी तो माएके जा री बेगम

मुझे मेरे एक मित्र ने ये कविता मेरे मोबाईल में ब्लूटुथ के जरिए फॉरवर्ड की थी।मुझे सुनने में बहुत अच्छी लगी तो मैँने सोचा कि इसे सभी के साथ शेयर करना बेहतर रहेगा।ये कविता दरअसल पंजाबी में है और जिन सज्जन ने इसे लिखा है ..मैँ उनका नाम नहीं जानता।शायद वो पाकिस्तान से हैँ।अपने सभी पढने वालों के फायदे के  लिए मैँने इसका हिन्दी में अनुवाद करने की कोशिश की है।

उम्मीद है कि आप सभी को पसन्द आएगी। असली रचियता से साभार सहित

फिलहाल मुझे ज्ञान नहीं है कि ऑडियो को ब्लॉग पर कैसे डाला जाता है।जैसे ही मुझे इस बारे में पता चलेगा तो मैँ इसके ऑडियो को भी नैट पे ज़रूर डालूँगा।

 

राजीव तनेजा

 

 

कदी ते पेके जा नी बेगम                         कभी तो माएके जा री बेगम

आवे सुख दा साह नी बेगम                      आए सुख की साँस री बेगम

कठेयाँ रै-रै अक्क गए हाँ हुण                    इकट्ठे रह-रह अक्क गया हूँ अब

लागे बै-बै थक्क गए हाँ हुण                     साथ बैठ-बैठ थक गया हूँ अब

ते टींडेयाँ वाँगू पक्क गए हाँ हुण               और टिण्डों जैसे पक गया हूँ अब

ते भर वी नक्को-नक्क गए हाँ हुण            ऊपर नाक तक भर गया हूँ अब

हुण सीने ठण्ड पा नी बेगम                      अब सीने को मेरे ठंडक दे री बेगम

कदी ते पेके जा नी बेगम                         कभी तो माएके जा री बेगम

इक्को छप्पड़ दे विच्च तर  के                   एक ही तालाब में तैर-तैर के

की लब्बा ए शादी कर के                         क्या मिला हमें शादी कर के

जिनद्ड़ी लंग्ग चल्ली मर-मर के               ज़िन्दगी गुज़र रही मर-मर के

अद्द्धे रै गए हाँ डर-डर के                        आधा रह गया हूँ डर-डर के

ओ मिल गई बड़ी सज़ा नी बेगम              मिल गई बहुत सज़ा री बेगम

कदी ते पेके जा नी बेगम                         कभी तो माएके जा री बेगम

की-की रंग विक्खा दित्ते ने                       क्या-क्या रंग दिखा दिए हैँ

सज्जन-यार छुड़ा दित्ते ने                          सज्जन-यार सब छुड़ा दिए हैँ

पिछले प्यार भुला दित्ते ने                         पिछले प्यार भुला दिए हैँ

बेंगन तक खव्वा दित्ते ने                           बेंगन तक खिला दिए हैँ

तरस कोई हुण्ण खा नी बेगम                   तरस अब कुछ खा री बेगम

कदी ते पेके जा नी बेगम                         कभी तो माएके जा री बेगम 

 

शाम मनान नूँ दिल करदा ए                    शामें हसीन करने को दिल करता है

सिग्रेट,पान नूँ दिल करदा ए                     सिग्रेट,पान को दिल करता है

बाहरों खान नूँ दिल करदा ए                    बाहर खाने को दिल करता है

ताज़े नॉन नूँ दिल करदा ए                      ताज़े नॉन को दिल करता है

कर दे पूरे चाह नी बेगम                         कर दे पूरी इच्छा री बेगम  

कदी ते पेके जा नी बेगम                        कभी तो माएके जा री बेगम

 

अपनी मर्ज़ी आईए-जाईए                          अपनी मर्ज़ी आएँ-जाएँ

मुण्डेयाँ वरगे कपड़े पाईए                          लड़कों जैसे कपड़े पहने

राताँ नूँ शबरात मनाईए                           रातों को शबरात मनाएँ

कुज्झ दिन असी वी ईद मनाईए               कुछ दिन हम भी ईद मनाएँ

बदले ज़रा हवा नी बेगम                          बदले ज़रा हवा री बेगम

कदी ते पेके जा नी बेगम                         कभी तो माएके जा री बेगम

मेरी चौथी कहानी नवभारत टाईम्स पर

 

मेरी चौथी कहानी 'अलख निरंजन' को नवभारत टाईम्स ने 'बाबा की माया' के नाम से छापा है।धन्यवाद नवभारत टाईम्स....

Printed from


Navbharat Times - Breaking news, views. reviews, cricket from across India

 

 

बाबा की माया
16 Sep 2008, 1240 hrs IST,नवभारतटाइम्स.कॉम

राजीव

"अलख निरंजन! बोल. ..बम....बम चिक बम। अलख निरंजन....टूट जाएं तेरे सारे बंधन" कहकर बाबा ने हुंकारा लगाया और इधर-उधर देखने के बाद मेरे साथ वाली खाली सीट पर आकर बैठ गया। पूरी ट्रेन खाली पड़ी है, लेकिन नहीं, सबको इसी डिब्बे में आकर मरना है। बाबा के फटेहाल कपड़ों को देखते हुए मैं बड़बड़ाया। सबको, मेरे पास ही खाली सीट नज़र आती है। कहीं और नहीं बैठ सकता था क्या? मैं परे हटता हुआ मन ही मन बोला, कहां जा रहे हो बच्चा? मेरी तरफ देखते हुए पूछा। 'पानीपत', मेरा अनमना सा संक्षिप्त जवाब था। डेली पैसैंजर हो? जी! मेरा बात करने का मन नहीं हो रहा था।

जानता था कि सब एक नम्बर के ढोंगी हैं, पाखंडी हैं, इसलिए दूसरी तरफ मुंह करके खिड़की से बाहर ताकने लगा। काम क्या करते हो? रेडीमेड दरवाजे-खिड़कियों का काम है। ना चाहते हुए भी मैंने जवाब दिया। कहां इस कबाड़ के धन्धे में फंसा बैठा है वत्स? तेरा चेहरा तो कोई और ही कहानी कह रहा है। मेरी दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश थी यह। तेरे माथे की लकीरें बता रही हैं कि राज योग लिखा है तेरे भाग्य में। राज करेगा तू, राज। राज वाली बात सुनकर आस-पास बैठे यात्रियों का ध्यान भी बाबा की तरफ हो लिया। मैं मन ही मन हंसा कि सही ड्रामा है, पब्लिक को बेवकूफ बनाने का। किसी एक को लपेट लो, बाकी अपने आप खिंचे चले आएंगे। यहां खाने-कमाने को नहीं है और ये राज योग बता रहा है। हुंह!

वही पुराने घिसे-पिटे डायलॉग, कोई नई बात बताओ बाबा! मैं बोला, पता नहीं कब आएगा ये राजा वाला योग। मैं मन ही मन बुदबुदाया। अपना हाथ तो दिखाओ ज़रा। ये नहीं, दाहिना हाथ। मैंने भी पता नहीं, क्या सोचकर हाथ आगे बढ़ा दिया। तेरे हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि तेरी आयु बडी लंबी है। पूरे सौ साल जिएगा। यह तो मालूम है मुझे। सभी कहते हैं कि शैतान का नाम लो और शैतान हाजिर, मेरा जवाब था। हुंह! यहां मन करता है कि अभी ट्रेन से कूद पड़ूं और यह मुझे लम्बी उम्र का झुनझुना थमाने की जुगत में है। मैं मन में विचरता हुआ बोला। मेरे चेहरे पर आते-जाते भावों को देख बाबा बोला, परेशान ना हो बच्चा! जहां इतना सब्र किया है वहां दो-चार साल और ठंड रख। राम जी भला करेंगे। चिंता ना कर, तेरा अच्छा समय आने वाला है। सही झुनझुना थमा रहे हो बाबा। यहां खाने-कमाने के लाले पड़े हैं और आप हो कि दो चार साल बाद का लॉलीपॉप थमा रहे हो। ताकि ना रुकते बने और ना ही चूसते बने। बिना बोले मुझसे रहा न गया।

यहां चिंता इतनी है कि सीधे चिता की तैयारी चल रही है। प्यासा प्यास से ना मर जाए कहीं, इसलिए मुंह में पानी आने का जुगाड़ बना दिया कि बेटा, इंतज़ार कर। अभी तक अच्छा समय आने का इंतज़ार ही तो कर रहा हूं और क्या कर रहा हूं? मैं बुदबुदाया। ना जाने कब आएगा अच्छा समय, मैंने उदास मन से सोचा। आज ये बाबा कह रहा है कि दो-चार साल इंतज़ार कर। कल को कोई दूसरा बाबा भी यही डायलॉग मार देगा, मैं बड़बड़ा उठा। फिर दो-चार साल और सही। बस यूं ही कटते-कटते कट जाएगी ज़िन्दगी, मैं अन्दर ही अन्दर ठण्डी आह भरता हुआ बोला।

मेरी देखादेखी और लोग भी हाथ दिखाने जुट गए कि बाबा, मेरा हाथ देखो बाबा! पहले मेरा देखो। देख बाबा देख, जी भर कर देख, आंखे फाड़-फाड़कर देख। सभी को लॉलीपॉप चाहिए, थमा दे। तुम्हारे बाप का क्या जाता है, मै मुंह फेरकर आहिस्ता से हंसता हुआ बोला। शश्श! टी.टी आ रहा है, जिलानी साहब पर नज़र पड़ते ही मैंने कहा। टी.टी का नाम सुनते ही मजमा लगाई भीड़ कब छंट गई पता भी नहीं चला। जिलानी साहब अपने दल बल के साथ आ पहुंचे थे। टिकट? टिकट दिखाइए। मैं? मेरे साथ बैठा बन्दा सकपका गया। हां, तुम। तुम्हीं से बातें कर रहा हूं। सर एम.एस.टी। सुपर चढ़ा है? जी, जी सर। दिखाओ? एक मिनट! एक मिनट सर, लीजिए सर। हम्म, यहां साईन कौन करेगा? निकालो तीन सौ बीस रुपये। सर, गलती से रह गया साईन करना। अभी कर देता हूं। पहले तीन सौ बीस निकालो, बाद में करते रहना साईन-वाईन। प्लीज़ सर! इस बार छोड़ दीजिए, प्लीज़। आईन्दा ध्यान रहेगा। देख लो इस बार तो छोड़ देता हूं, पर अगली बार अगर सुपर चढ़ा नहीं मिला तो पूरे तीन सौ बीस रुपये तैयार रखना।जी सर।

बहुत दिन हो गए तुमसे भी इंट्रोडक्शन किए हुए, मेरी तरफ ताकते हुए जिलानी साहब बोले। जी, जी सर। वो! मेरे उस काम का क्या हुआ? जिलानी साहब पलटकर पीछे आते अनुराग से बोले। जी, कैंटीन बन्द थी ना सर, 26 जनवरी के चक्कर में। एक दो दिन में ला दूंगा सर। ध्यान रखना अपने आप, मेरी आदत नहीं है बार-बार टोकने की। जी! जी सर। आपका टिकट? जिलानी साहब 'मलंग बाबा' की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, पर कोई जवाब नहीं। आपसे पूछ रहा हूं जनाब, टिकट दिखाइए। हम? हम बाबा हैं। फिर, क्या करूं? जिलानी साहब ने तल्खी भरे स्वर में कहा। हम इस मोह-माया के बन्धनों से आज़ाद हैं बच्चा। अच्छा? जिलानी साहब भी तुक मिलाते हुए बोले। ये फालतू की बातें छोड़ो, सीधे-सीधे टिकट दिखाओ। मैंने कहा ना टिकट दिखाइए? जिलानी साहब तेज़ आवाज़ में बोले।

किससे? किससे टिकट मांग रहे हो बच्चा? आपसे। जानते नहीं, हम कौन हैं? आप जो कोई भी हैं, मुझे मतलब नहीं। बस आप टिकट दिखाएं। फालतू बात नहीं। अगर है तो दिखाते क्यों नहीं? मैं भी भड़क उठा। नहीं है, तो तीन सौ बीस रुपए निकालें। जिलानी साहब रसीद बुक संभालते हुए बोले। हां, टिकट तो नहीं है हमारे पास। कभी लेने की ज़रूरत ही नहीं समझी होगी ना? मैं बोल पड़ा। किसी ने कभी रोका ही नहीं हमें कभी। आज तो रोक लिया ना? टी.टी गरम होता हुआ बोला। आप सीधी तरह से पैसे निकालें, इतना वक्त नहीं है।

वक्त तो बच्चा, सचमुच तेरे पास नहीं है। बाबा जिलानी साहब के माथे को गौर से देखते हुए शांत स्वर में बोले- शनि तेरे सर पर मंडरा रहा है। राहू केतु पर सवार चला आ रहा है। जल्दी से उपाय कर ले, वर्ना पछताएगा। जो होगा देखा जाएगा, आप बस जल्दी से पैसे निकालो। मुझे पूरी गाड़ी चेक करनी है। जिलानी साहब की आवाज़ सख्त हो चली थी। टी.टी साहब अड़कर खड़े हो गए कि इस बाबा से पैसे वसूल कर ही रहेंगे। बहस खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। ना बाबा मानने को तैयार, ना जिलानी साहब झुकने को तैयार और आग लगाने के लिए तो मैं काफी था ही। मज़ा जो आता था इन सबमें। तमाशा देखने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। एक टिकट में दो-दो मज़े जो मिल रहे थे। सफर का सफर और एंटरटेन्मेंट भी।

बहस चल ही रही थी कि सोनीपत आ गया। अगर आप पैसे नहीं देंगे तो मुझे जबरन आपको यहीं उतारना पड़ेगा, जिलानी साहब गुस्से से बोल पड़े। तू! तू उतारेगा मुझे? जी हां, मैं उतारूंगा आपको। जिलानी साहब अपनी बेल्ट कसते हुए दृढ़ आवाज़ में बोले। सब! सब हिसाब देना पड़ेगा तुझे। आज तूने मलंग बाबा का अपमान किया है, बाबा की नशेड़ी आंखें गुस्से से लाल हो चुकी थी। चला जा चुपचाप यहां से, वर्ना घोर अनर्थ हो जाएगा। तूने ईश्वर का अपमान किया है, मुझसे टिकट मांगता है? तेरी औकात ही क्या है? बाबा गुस्से से थर-थर कांपते हुए बोले।

तेरे जैसे छत्तीस मेरे आगे-पीछे घूमते हैं, हमेशा। बाबा आसपास इकट्ठे हुए मजमे को देखते हुए बोले। मुझे गुस्सा ना दिला, कहे देता हूं, वर्ना पछ्ताएगा। टिकट और मुझसे? ये! ये तू ठीक नहीं कर रहा है। मेरा काम है आप जैसे मुफ्तखोरों को पकड़ना और मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि मैं अपनी ड्यूटी ठीक से बजा रहा हूं। जिलानी साहब गुस्से से चिल्लाए। अब देख तमाशा। देख, कैसे मैं तुझे श्राप देता हूं। फिर ना कहना कि बाबा ने पहले चेताया नहीं। कहते हुए बाबा ने आवेशित होकर अपने झोले में हाथ डाला और जय काली कलकत्ते वाली का जाप करते हुए पता नहीं क्या मंतर पढ़ा और मुट्ठी को जिलानी साहब के चेहरे पर फूंक दिया।

कुछ राख-सी उड़ी और अपने टी.टी साहब का मुंह धूल से अटा पड़ा था। उतारो साले इस पाखंडी बाबा को, उनका गुस्सा भड़क उठा। हमको उतार सके, ये तुझमें दम नहीं। तू हमारे से है, हम तुमसे नहीं- बाबा गुस्से में भी शायरी करता-सा नज़र आया। तेरी इतनी औकात नहीं कि तू मुझे उतार सके। अच्छा? जिलानी साहब उपहास उड़ाते हुए बोले। देखता हूं, मुझे लिए बिना यहां से गाड़ी कैसे हिलती भी है? कहते हुए बाबा गाड़ी से उतरा और तेज़ी से इंजन की तरफ लपका। वो आगे-आगे और मुझ समेत सारी पब्लिक पीछे पीछे। पब्लिक को तो बस मसाला मिलना चाहिए, चाहे जैसे भी मिले। पूरा इंजॉय करती है, सो मैं भी कर रहा था।

इंजन तक पहुंचते ही बाबा सीधा छलांग लगाकर ड्राइवर के केबिन में जा घुसा और झोले से वही राख मंत्र पढ़कर फूंकना शुरू हो गया। ये क्या कर रहा है बेवकूफ? ट्रेन रोककर केबिन से बाहर निकलकर ड्राईवर चिल्लाया। शश्श....चुप, एकदम चुप और बाबा का मंत्र पढ़ना जारी था। तब तक बाहर भक्तजनों का रेला-सा हाथ जोड़ खड़ा हो चुका था। अंधविश्वासी कहीं के। कुछ नहीं होने वाला है। सब टिकट न लेने से बचने का ड्रामा भर है। मैं सबको कहता फिर रहा था, लेकिन कोई मेरी सुनने को तैयार ही नहीं। देखते ही देखते उस अधनंगे से मलंग बाबा को पता नहीं क्या सूझा कि सीधा छलांग मारकर पटरी पर आया और इंजन के सामने आकर खड़ा हो गया। अब देखता हूं कि कैसे तनिक सी भी हिलती है गाड़ी? है हिम्मत तो चला गाड़ी, वह जिलानी साहब को चैलेंज करता हुआ बोला। तूने बाबा का प्यार देखा है, क्रोध नहीं। गुस्से से टी.टी की तरफ देखते हुए बाबा बोला।

ईश्वर से! ईश्वर के बन्दों से टिकट मांगता है! तुझे इस सबका हिसाब देना होगा। आज ही और यहीं, इसी जगह पर। कहकर बाबा ने फिर वही राख इंजन की तरफ फूंकनी शुरू कर दी। कोई समझाओ यार इसे, बेमौत मारा जाएगा, टी.टी साहब भीड़ की तरफ मुखातिब होते हुए बोले। सब चुप, कोई टी.टी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था। ग्रीन सिग्नल दिखाई नहीं दे रहा क्या? जिलानी साहब ड्राईवर पर बरसे। जी! तो फिर चलाता क्यों नहीं? जी, ये बाबा...। बाबा गया तेल लेने, तू गाड़ी चला। टी.टी की भाषा भी अभद्र हो चली थी। चढ़ा दे गाड़ी, इस पर। लिख देंगे कि आत्महत्या करने चला था। आ गया अपने आप नीचे। हम क्या करें? चिंता ना कर, गवाही मैं दूंगा। चला गाड़ी। साहब, पता नहीं क्या खराबी आ गई है, स्टार्ट ही नहीं हो रहा है इंजन। तो, बन्द ही क्यों किया था? जिलानी साहब भड़कते हुए बोले। मैंने कहां बन्द किया? तो फिर क्या कोई भूत-प्रेत आकर इसे बन्द कर गया? जी, ये तो पता नहीं। कई बार कोशिश कर ली, लेकिन पता नहीं क्या बीमारी लग गई है इसे। ड्राईवर इंजन को लात मारता हुआ बोला। घूं घूं की आवाज़ सी आती है और फिर ठुस्स। अभी तक तो अच्छा-भला चलता आया है, दिल्ली से। ड्राईवर की आवाज़ में असमंजस भरा था।

पता नहीं क्या चक्कर है? उधर दूसरी तरफ भीड़ के बढ़ते हुजूम के साथ-साथ बाबा का ड्रामा भी बढ़ता ही जा रहा था। कभी इधर भभूती फूंके, कभी उधर। जब ग्रीन सिग्नल होने के बावजूद ट्रेन अपनी जगह से नहीं हिली तो स्टेशन मास्टर साहब दौड़े-दौड़े तुरंत आ पहुंचे। अरे चला ना इसे, चलाता क्यों नहीं? कब से ग्रीन सिग्नल हुआ पड़ा है, दिखाई नहीं दे रहा है क्या? अपनी तो तुझे चिंता है नहीं, मेरी भी नौकरी खतरे में डलवाएगा? पीछे शताब्दी आ रही है, निकाल इसे फटाफट। अपने बस का नहीं है, आप खुद ही कोशिश कर लो। ड्राईवर तैश में गाड़ी से उतरता हुआ बोला। आखिर, हुआ क्या है इसे? पता नहीं, अपने आप इंजन बन्द हो गया।

देख, कोई वायरिंग-शायरिंग ना हिल गई हो। स्टेशन मास्टर की आवाज़ नरम पड़ चुकी थी। सब देख लिया साहब, कहीं कोई खराबी नहीं दिख रही। ड्राईवर का वही रटा-रटाया सा जवाब। इतने में खबर पूरे सोनीपत स्टेशन पर फैल गई और बाबा की जय, बाबा की जय के नारे लगाते लोग उसी प्लैटफॉर्म पर इकट्ठा होने शुरू हो गए। हां, इस बाबा ने केबिन के अन्दर आकर कुछ फूंका और इंजन अपने आप बन्द हो गया, ड्राईवर बाबा की तरफ इशारा करता हुआ बोला। आखिर चक्कर क्या है? पता नहीं साहब। किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। सब इसी टी.टी. का किया धरा है। ना ये टिकट मांगता और ना ही ये लफड़ा होता, एक बोल पड़ा। तो क्या, अपनी ड्यूटी करना छोड़ दें? मैं भड़क उठा। तो अब करवा ले ना आराम से ड्यूटी। हुंह, बड़ा तरफदारी करने चला है, वह चिल्लाया।

उफ, पहले से ही ट्रेन सवा दो घंटे लेट है, ऊपर से ये ड्रामा। पता नहीं, कब चंडीगढ़ पहुंचेगी? एक सरदार जी परेशान होकर घड़ी देखते हुए बोले। कोर्ट में तारीख है आज की। नहीं पहुंचा, टाइम पर तो समझो प्लॉट गया हाथ से। वे रुआंसे होकर बोले। बड़ा पहुंचा हुआ महात्मा है, एक बोला। एक झटके में ही ट्रेन रोक दी, कमाल है। दूसरे ने हां में हां मिलाई। अरे, महात्मा नहीं अवतार कहो अवतार, किसी तीसरे की आवाज़ सुनाई दी। कोई पहुंचा हुआ फकीर मालूम होता है, एक और चहक उठा। अगर ऐसा है तो टिकट नहीं ले सकता था क्या? मैं फिर बोल पड़ा, चुप हो जा एकदम। परेशान सरदार जी मुझे गुस्से से घूरते हुए बोले। इतना ठुकेगा कि ज़िन्दगी भर याद रखेगा। एक पंगा खत्म होने को नहीं है और तू दूसरे की तैयारी किए बैठा है।

सबको अपने खिलाफ देखकर, मन मसोस कर मुझे चुप हो जाना पड़ा। जबतक टी.टी. माफी नहीं मांगेगा, तबतक ये बाबा गाड़ी नहीं चलने देगा। एक आवाज़ सुनाई दी, सही है बड़ा अड़ियल बाबा है। अपने टी.टी. साहब भी कौन-सा कम हैं? एक बार अड़ गए सो अड़ गए। मेरा इतना कहना था कि सबकी गुस्से भरी आंखे मुझे तरेरने लगी। एक काम करो, तुम ही माफी मांग लो यार स्टेशन मास्टर टी.टी. की तरफ देखते हुए बोले। मैं क्यों? मैं तो अपनी ड्यूटी कर रहा था।

अरे यार, देख तो लिया करो कम से कम कि किस से पंगा लेना है और किस से नहीं। ये क्या कि गधे-घोड़े सभी एक ही फीते से नाप दो, स्टेशन मास्टर साहब बोले। देख नहीं रहे कि सब कितने परेशान हो रहे हैं? आखिर क्या गलत किया है मैंने? जिलानी साहब तैश में बोले। अरे बाबा, कुछ गलत नहीं किया। बस खुश? टी.टी. की बात काटते हुए स्टेशन मास्टर साहब बोले। अब किसी भी तरह से चलता करो इस मुसीबत को, स्टेशन मास्टर की आवाज़ में मिमियाहट थी। कैसे? जो मर्ज़ी, जैसे मर्ज़ी करो लेकिन ये गाड़ी यहां से निकल जानी चाहिए अभी के अभी। वर्ना, समझ लो अपने साथ-साथ कईयों की नौकरी ले बैठोगे, स्टेशन मास्टर साहब गुस्से से बोले।

समझा कर यार! अगले महीने रिटायर हो रहा हूं और कोई पंगा नहीं चाहिए मुझे। इनक्वायरी बैठ गई तो समझो लटक गया मेरा फंड, मेरी पेन्शन। स्टेशन मास्टर साहब सहमे-सहमे से बोले। पता नहीं कैसे मैनैज करूंगा सब। बेटी की शादी करनी है, डेट फाईनल हो चुकी है। कार्ड तक बंट चुके हैं। अपनी अड़ी के चक्कर में मेरा जुलूस ना निकलवा देना, प्लीज़। अच्छा! आप ही बताइए, क्या करूं मैं? पांव पड़ूं क्या उसके? हां, हां ये ठीक रहेगा। कोई बोल पड़ा। मना लो यार, किसी भी तरीके से स्टेशन मास्टर बोले।

ना चाहते हुए भी जिलानी साहब को बाबा से माफी मांगनी पड़ी। अब तो मैं क्या मेरे बाप की तौबा, जो आईन्दा कभी किसी साधू या मलंग के मत्थे भी लगा। जिलानी साहब खुद से ही बातें करते हुए आगे निकल गए। मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा है, जो मैं नाहक पंगा मोल लेता फिरूं। उनका बड़बड़ाना जारी था। माफी मांगने से बाबा का गुस्सा शांत हो चुका था। मंत्र बुदबुदाते हुए उन्होंने अपने थैले से कुछ निकाल फिर इंजन की तरफ फूंक दिया।

हां, तो भइया ड्राईवर, अब तुम खुशी से ले जा सकते हो अपना छकड़ा, लेकिन मुझे ले जाना नहीं भूलना। हा...हा...हा मुझ समेत, सभी की हंसी छूट गई। ड्राईवर ने खटका दबाया और कमाल ये कि बिना कोई ना नुकुर किए इंजन एक ही झटके में स्टार्ट। अवाक से सबके मुंह खुले के खुले रह गए। हर कोई हक्का-बक्का। आश्चर्य भाव सभी के चेहरे पर तैर रहे थे। बाबा की जय हो, मलंग बाबा की जय हो- इन आवाज़ों से पूरा माहौल गूंज उठा। आंखे देख रही थीं, कान सुन रहे थे, लेकिन दिमाग को मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था। और होता भी कैसे? कोई विश्वास करने लायक बात हो तब तो। लेकिन आंखों देखी को कैसे झुठला देगा राजीव? असमंजस भरी सोच में डूबा मैं चुपचाप अपनी सीट पर आ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब हुआ तो कैसे हुआ।

सारे तर्क-वितर्क फेल होते नज़र आ रहे थे। ये जादू-वादू कुछ नहीं होता है। सब हाथ की सफाई, आंखों का धोखा है जैसी बचपन में सीखी बातें मुझे बेमानी-सी लगने लगी थी। कहीं हिप्नोटाईज़ ना कर दिया हो बाबा ने पूरी पब्लिक को। शायद, मैं खुद ही सवाल पूछ रहा था और खुद ही जवाब दे रहा था। शायद, कोई सुपर नैचरल पावर हो बाबा के पास। या कहीं सचमुच में कोई देवता, कोई अवतार तो नहीं है ये बाबा? इन जैसे सैंकड़ो सवाल बिना किसी वाजिब जवाब के मेरे दिमाग के भंवर में गोते लगाने लगे थे।

ये सारा चक्कर मुझे घनचक्कर किए जा रहा था। इतनी शक्ति, इतनी पावर एक आम इंसान में? हो ही नहीं सकता। क्या आज भी इतनी ताकत, इतना दम है मंत्रोचार में? कभी सोचा ना था। ऐसे किस्से तो मानो या न मानो, सरीखे टीवी-सीरियलों में ही देखे थे आज से पहले। सब फ्रॉड है, सब धोखा है। दिमाग मुझे इस सारे वाक्यों पर विश्वास करने से मना कर रहा था। लेकिन अगर सब फ्रॉड, सब धोखा है और छलावा मात्र है तो यकीनन बाबा की दाद देनी होगी कि कैसे उन्होंने सबकी आंखे फाड़ती नज़रों के सामने खुली आंखों से काजल चुरा लिया। जरूर कुछ ना कुछ चमत्कार, कुछ ना कुछ कशिश तो है ही बाबा में, मन बाबा की तारीफ करने लगा था। मैं हक्का-बक्का सा बाबा को ही टुकुर-टुकुर निहारे चला जा रहा था। उनके चेहरे पर तेजस्वी ओज सा चमकने लगा था।

उफ! मैं नादान समझ नहीं पाया उनको। अनजाने में भूल से पता नहीं कैसा-कैसा मज़ाक उड़ाता रहा। अब अपने किए पर पछतावा होने लगा था मुझे। ये ज़बान कट के क्यों ना गिर गई, उनके बारे में अपशब्द कहने से पहले? बाबा, मुझ अज्ञानी, मुझ पापी को क्षमा कर दो। मैं नास्तिक आपको पहचान नहीं पाया, कहते हुए मैंने बाबा के पांव पकड़ लिए। आंखों से कब अविरल आसुंओ की धार बह चली, पता भी न चला। मेरे चेहरे पर पश्चाताप के आंसू देख बाबा ने उठकर मुझे गले से लगा लिया। कोई बात नहीं बच्चा। बाबा की जय, बाबा की जय हो, इन आवाज़ों में मेरी आवाज़ भी शामिल हो चुकी थी। क्या सोच रहा है बच्चा?

मुझे सोच में डूबा देखकर बाबा ने पूछ लिया। जी कुछ खास नहीं, बस ऐसे ही। मैंने तो सुना था कि ये जादू-शादू कुछ नहीं होता, लेकिन वह ट्रेन...! मेरे चेहरे पर असमंजस का भाव था। सब ईश्वर की माया है बच्चा। लेकिन बाबा, ऐसा कैसे हो सकता है? मेरे चेहरे पर हैरत का भाव था। आंखो देखी पर विश्वास नहीं है, तुझे तो अब कानों सुनी पर कैसे विश्वास करेगा बच्चा? जी ये तो है, लेकिन? कुछ लेकिन, वेकिन नहीं, कहा ना! सब ईश्वर की माया है। बाबा मुझे अपनी शरण में ले लो, अपना दास बना लो कहते हुए मैंने हाथ से अपनी अंगूठी उतार बाबा के चरणों में अर्पित कर दी। हमें कुछ नहीं चाहिए बच्चा। बरसों पहले हम इन मोह माया के बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं, आज़ाद हो चुके हैं। बाबा ये कुछ भी नहीं, बस ऐसे ही छोटी सी तुच्छ भेंट समझ कर रख लें।

मुझे तो बस आपका सानिध्य, आपका आर्शीवाद चाहिए। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताएं? लगता है तुम नहीं मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा। लेकिन इस छोटी-मोटी फुटकर सेवा से हमारा अभिप्राय पूरा नहीं होने वाला, कहते हुए उन्होंने अंगूठी उठाकर कुर्ते की जेब में रख ली। मेरे चेहरे पर प्रश्न सवार देखकर वह बोले, मैं तो मलंग आदमी हूं। अपने लिए कुछ नहीं चाहिए मुझे। दो जून खाने को मिल जाए और तन ढंकने को एक जोड़ी कपड़ा तो बहुत है मेरे लिए। फिर, मेरा अज्ञान अभी भी दूर नहीं हुआ था। एक छोटी-सी गौशाला बनवा रहा हूं, यही कोई पांच सौ गायों की। साथ में आठ-दस कमरे बनवा रहा हूं धर्मशाला के लिए, आने-जाने वालों के काम आएंगे। यही कोई दस लाख का खर्चा आएगा।

नेक कामों के लिए पैसे की तंगी तो रहती ही है हमेशा। शायद इशारा था उनकी तरफ से ये। बाबा, दान-दक्षिणा की आप चिंता न करें। जो बन पड़ेगा, जितना बन पड़ेगा जरूर मदद करूंगा। आखिर गौ माता की सेवा का सवाल जो है। हम मदद नहीं करेंगे तो कोई बाहर से तो आने से रहा, मैंने कहा। लेकिन बाबा, एक जिज्ञासा है। बोलो वत्स, बाबा ने सौम्य स्वर में पूछा। एक सवाल मेरे मन को खाए जा रहा है बार-बार। मेरा कौतुहल मुझे चैन से बैठने नहीं दे रहा है कि कैसे वह ट्रेन...मैंने बात अधूरी छोड़ दी। मेरी बात सुन बाबा हौले से मुस्काते हुए बोले, अच्छा सुन! पानीपत जाना है ना तुझे? जी! ठीक है स्टेशन आने दे, तेरी सब शंकाओं का निवारण कर दूंगा। अब खुश?

जी, मैं प्रसन्न होकर बोला। वो बेटा, मैंने तुम्हें बताया था ना गौशाला के लिए....। जी, आप बताएं कितने से आपका काम चल जाएगा? दान मांगा नहीं जाता बच्चा, जो तुम्हारी श्रद्धा हो। दो हज़ार ठीक रहेगा? मैं जेब से पर्स निकालता हुआ बोला। तुम्हारी मर्ज़ी। अपने आप देख लो, पुण्य का काम है। ठीक है बाबा, पांच हज़ार दे देता हूं, ये लीजिए। हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए बच्चा, सब गौ माता की सेवा के काम आएगा। बाबा पैसे जेब के हवाले करते हुए बोले। मोक्ष क्या है, नाम-दान से क्या अभिप्राय है जैसी ज्ञान-ध्यान की बातों में पता ही नहीं चला कब पानीपत आ गया। बाबा मैं चलता हूं, पानीपत आ गया। ठीक है बच्चा पहुंचो अपनी मंज़िल पर, बाबा मुझसे विदा लेते हुए बोले -अपना ध्यान रखना।

बाबा, बताओ ना कैसे रोक दिया था आपने ट्रेन को? मेरे चेहरे पर बच्चों जैसी उत्सुकता देखकर बाबा मुस्कुराए, सब ईश्वर की माया है बच्चा। ये मेरा विज़िटिंग कार्ड रख लो, दर्शन देने कभी-कभार आ जाया करना हमारे आश्रम में। ईश्वर चन्द मेरा नाम है। ध्यान रहेगा ना? जी ज़रूर, विज़िटिंग कार्ड जेब में रखते हुए मैं बोला। वैसे भी बच्चा जो कोई मुझे एक बार जान लेता है ताउम्र नहीं भूलता है, बाबा की मुस्कान गहरी हो चली थी। आपकी महिमा अपरम्पार है प्रभु। बाबा, वह...। लगता है तुम जाने बिना नहीं मानोगे। अच्छा, कान इधर लाओ। उसके बाद उन्होंने जो कुछ भी मेरे कान में कहा, वह सुनकर मैं हक्का-बक्का सा रह गया। बोलने को शब्द नहीं मिल रहे थे। कानों को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सब कैसे हो गया।

विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई मुझे दिनदहाडे पांच हज़ार रुपए नकद और दहेज में मिली सोने की अंगूठी का फटका लगा चुका था। हुआ दरअसल क्या कि जब बाबा, इंजन में ड्राईवर के पास गया तो उसने चुपके से ड्राईवर को पांच सौ का नोट देकर कहा था कि जबतक मैं इशारा ना करूं तबतक गाड़ी रोककर रखनी है। इतनी सिम्पल सी बात, मैं बेवकूफ समझ नहीं पाया। खुद अपनी ही नज़रों से शर्मसार हो जब मैं कुछ समझने लायक हुआ तो पाया कि बाबा आस-पास कहीं न था। अब मैं कभी अपने खाली पर्स को देखता, कभी अंगूठी विहीन अपने हाथ को। सच, वह ईश्वर चन्द का बच्चा अपनी ईश्वरी माया दिखा गया था। सही कह गया था वह ठग बाबा कि उसे एक बार जान लेने वाला ताउम्र कभी भूल नहीं सकता है।

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"हट ज्या...सुसरी...पाच्छे ने"

"हट ज्या...सुसरी...पाच्छे  ने"

***राजीव तनेजा***

     writer                

"बधाई हो"....

"किस बात की?"...

"अरे!...खुशियाँ मनाओ...खुशियाँ"....

"पहले बात का पता तो चले...फिर सोचता हूँ कि खुशी मनानी है या फिर मातम"....

"अरे!..मातम मनाएँ हमारे दुश्मन"....

"तो क्या लाला रौशनलाल के घर पाँचवी बार फिर लड़का पैदा हुआ है?"...

"वो दरअसल....

"लगता है....पिछले जन्म में मोती दान करे थे पट्ठे ने"....

"किस्मत ही बड़ी तेज़ है स्साले की"...

"यहाँ हम दिन-रात अपनी ऐसी की तैसी करवा..थक-हार के बुरी तरह टूट लिए लेकिन  नतीजा वही...ढाक के तीन पात"...

"एक के बाद एक...लगातार तीन लड़कियाँ"...

"उफ!...क्या किस्मत है मेरी?"......

"वहाँ....वो स्साला...हराम का जना...पता नहीं कौन से सन्यासी या वैद्य का घर में बना  shilajitशिलाजीत युक्त Chyawanprash च्यवनप्राश खाता है कि एक बार में ही सब कुछ फिट-फाट".....

"तुरंत...बिना किसी प्रकार की देरी के...playboyअगले प्रोजैक्ट को अमली जामा पहनाने में जुट जाता है"...

"अरे नहीं!...वो तो आजकल इस सब काम से छुट्टी ले सियाचिन-वियाचिन जैसी किसी ठण्डी जगह पे आराम फरमा रहा है"...

"क्यों?"...

"क्या हुआ उसके जोश औ जुनून को"....

"निकल गई सारी हेकड़ी?"....

"पहले तो हमेशा ...बड़े मज़े से अफ्लातूनी साँड के माफिक एक के बाद एक  नए मिशन पे जुटा रहता था"... "हुँह!...बड़ा आया दानवीर बनने वाला"...

"अरे यार!....उसकी बात नहीं कर रही हूँ मैँ"...

"आजकल तो वो बिमार पड़ा हुआ है"..

"क्या बात?"....

"बड़ी खबर है तुम्हें उसकी?"....

"कहीं कुछ...?"...

"तुम तो हमेशा एक से एक पुट्ठा ही सोचा करो"....

"तो फिर तुम्हें कैसे....

"अरे!...अपनी maid राम कटोरी बता रही थी"....

"कौन राम कटोरी?"....

"वही जो उनके घर का झाड़ू-पोंछा करती है?"....

"हाँ!...वही"....

"ओह!...अच्छा"....

"ये राम कटोरी भी आजकल कहीं पेट से तो नहीं है?"....

"क्यों?....तुम्हें कैसे खबर?"बीवी का शंकित स्वर

"बस!...ऐसे ही उड़ती-उड़ती सी नज़र पड़ी थी उस पर तो लगा कि शायद.....

"तुम ना..अपनी इस उड़ती-उड़ती सी नज़र को ज़रा काबू में रखा करो"...

"मैँ तो बस ऐसे ही....

"सब समझती हूँ मैँ कि...क्या ऐसे ही?...और क्या वैसे ही?".....

"जिस दिन मेरा दिमाग फिरना है.....

"अरे छोड़ो यार तुम भी ..क्या बात ले के बैठ गई?"...

"मुझे तो लगता है कि रौशनलाल ने ही अपने नूर की थोड़ी सी inkpot रौशनाई बिखेर दी होगी उस अबला बेचारी पर"...

"हम्म!...वर्ना उसका पति 'राम आसरे' तो पिछले दो साल से बाहरले मुलुक गया हुआ है पैसा बनाने के वास्ते"...

"अच्छा है!...बेचारी के माथे से बांझ के नाम का ठप्पा तो हटेगा कम से कम"....

"लेकिन!...ये जो बदचलन का एक्स्ट्रा लेबल लग जाएगा...उसका क्या?"...

"और क्या करे बेचारी?"...

"पति तो पिछले छै महीने से एक दुअन्नी भी नहीं भेज रहा है खर्चे के वास्ते"...

"कहाँ से?....और कैसे गुज़ारा करे?".....

"हद है!...इस 'राम आसरे' को ना तो अपने बिमार माँ-बाप की कोई चिंता है और ना ही अपनी बीवी से किसी भी किस्म का कोई लगाव है"...

"सुना है!...कि वहीं कोई और रख ली है उसने"....

"छोड़ो!...हमें क्या?"...

"हाँ!..हमें क्या?"...

"तुम बताओ!...किस चीज़ के लिए खुशियाँ मनाने के लिए कह रही थी?"...

"वो दरअसल.....

"एक मिनट!...खुशी मनाने की बात है तो ज़रूर छुन्नी के पापा की फिर से लॉटरी लग गई होगी".....

"स्साला!...है ही बड़ा किस्मत का धनी"....

"बुरी नज़र करे भी तो आखिर क्या करे?"...

"ताश नई-पुरानी कैसी भी हो...अगला आँख बन्द करके भी अगर पत्ते फेंटता है तो भी बेगम उसी के धोरे खड़ी मिलती है"...

"खैर!...कभी ना कभी तो अपने दिन भी आएँगे"....

"आएँगे नहीं तो क्या...माँ.......

"बस...बस!....जब देखो ज़ुबान पे कोई ना कोई गाली चढी रहती है"....

"अरे!...कौन उल्लू का पट्ठा...किसकी माँ-बहन एक कर रहा है?"...

"अभी तुम ही तो.......

"अरे!...मेरे कहने का तो मतलब था कि कभी तो हम पर किस्मत मेहरबान होगी"....

"हाँ!...कभी ना कभी तो इस घूरे के दिन भी फिरेंगे"....

"बॉय दा वे!...तुम किसकी बात कर रही हो?"...

"अरे!...'जयहिन्द मीडिया' वालों ने तुम्हारे काम से खुश हो कर तुम्हारी लेखनी को सराहा है"...

"अच्छा?"....

"तो इसमें कौन सी नई बात है?"...

"सभी तो तारीफ पे तारीफ किए जा रहे हैँ आजकल"...

"हाँ!...ट्रेन में चना-दाल बेचने वाले से लेकर चूरन वालियों तक...सबको अपना मुरीद बना रखा है तुमने"...

"और नहीं तो क्या?".....

"तुम्हारे घरवाले की कलम में है ही ऐसा जादू कि जो पढे...पढता ही रह जाए".....

"बिलकुल"....

"तो क्या उनका फोन आया था?"....

"किनका?"...

"अरे!...'जयहिन्द' वालों का...और किनका?"....

"नहीं!....उनका तो कोई फोन नहीं आया".....

"तो इसका मतलब तुमने ज़रूर मेरी मेल चैक की है"....

"कितनी बार मना कर चुका हूँ कि मेरी पीठ पीछे मेरी किसी भी चीज़ को हाथ नहीं लगाया करो लेकिन तुम हो की...छेड़खानी किए बिना चैन ही नहीं पड़ता"...

"अरे!...ये सब तुम्हारे दिमाग का खलल है कि तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारी चीज़ों के साथ पंगे लेता है"....

"क्यो?...उस दिन वो जो मेरी  हॉफ पैंट पहन...बीच गली के इधर-उधर मटक रही थी"...

"वो क्या था?"...

"अरे वो?"...

"वो तो मैँ बस ऐसे ही पहन के ट्राई कर रही थी कि मुझ पर ये निक्कर-शिक्कर फबती भी है कि नहीं?"....

"हाँ!...बहुत फबती है".....

"क्या सच?"....

"और नहीं तो क्या?"....

"कैसी लग रही थी मैँ?"...

"ऐसे लग रहा था जैसे सांय-सांय करती तेज़ हवा में फर्र-फर्र करता एक विशालकाय दोमुँहा 'तंबू'......सिर्फ तुम्हारी 'बम्बू' समान सींकिया टाँगों के सहारे टिका खड़ा हो"...

"क्या?"...

"मुझे ये बात समझ नहीं आती कि तुम्हें मेरी चीज़ों के साथ छेड़-छाड़ कर के आखिर मिलता ही क्या है?"....

"कसम ले लो मुझसे बेशक...काले पर्वत पे उड़ने वाले 'सफेद बाज़' की जो मैँने तुम्हारी किसी भी चीज़ को छेड़ा हो"...

"तो फिर क्या हकीकत का जामा पहने तुम्हें ये 'श्वेत-श्याम' सपना आया तुम्हें कि तुम्हारे पति...याने के मेरी...लेखनी बड़ी ही दमदार है?"... 

"पहली बात कि मैँ इतनी भोली या बुरबक्क भी नहीं हूँ कि तुम्हारी पोस्टस के बदले आने वाले इक्के-दुक्के कमैंटस के जरिए इतना भी ना जान  सकूँ और दूसरी बात ये कि ये 'श्वेत-श्याम' याने के ब्लैक एण्ड व्हाईट वाले थर्ड क्लास सपने आएँ तुम्हारी उस 'चम्पा' की बच्ची को...मुझे नहीं"...

"मुझे भला क्यों आने लगे?"...

"चम्पा?"...

"क्कौन चम्पा?"....

"हाँ!...हाँ  अब भला मेरे सामने क्यों याद आने लगी?"...

"अरे!...वही निगोड़ी 'चम्पा-चमेली'...जिसके लिए तुम रोज़-रोज़ कोई ना कोई बहाना बना के पानीपत से जल्दी फूट वक्त-बेवक्त घर आ धमकते हो"...

"तो इससे तुम्हें क्यों मिर्ची लगने लगी?"...

"मेरा घर है...जब मर्ज़ी आऊँ"...

"आऊँ!...ना आऊँ"....

"हाँ..हाँ....तो मैँने कब रोका है"...

"आना है आओ....नहीं तो ....उसी करम जली के दड़बे में बैठ अण्डे सेते रहो"...

"अण्डे?"....

"मर्द होने के नाते अण्डे देना मुझे गवारा नहीं"...

"कोई और काम हो तो बताओ"....

"फॉर यूअर काईंड इनफार्मेशन!...मैँ अण्डे देने के लिए नहीं बल्कि सेने के लिए कह रही थी"....

"ओफ्फो!...सुबह से क्या बकवास लगा रखी है?"....

"कभी अण्डा दो...कभी अण्डा सेओ"...

"शुरूआत तो तुमने ही की थी"...

"अच्छा!...चलो मैँ ही इसे खत्म भी करता हूँ"...

"सॉरी".....

"ओ.के....आई एम ऑलसो सॉरी"...

"हाँ!...अब बताओ!...क्या कह रही थी?"...

"यही कि 'जयहिन्द मीडिया' वालों ने चैक भेजा है"...

"अरे वाह!...पहले क्यूँ नहीं बताया?"...

"तुमने मौका ही कब दिया?"...

"आते ही तो शुरू हो गए थे"...

"ओ.के बाबा!...कह तो दिया सॉरी"......

"सब जानती हूँ तुम्हारी इस सॉरी-शॉरी के ड्रामे को"...

"अभी गीदड़ बन बकरी के माफिक मिमिया  रहे हो बाद में मौका लगते ही तुमने अपना असली रूप दिखाने से बाज़ नहीं आना है"....

"ओफ्फो!...अब क्या कान पकड़ के मुर्गा भी बनूँ?"...

"नहीं!...इसकी ज़रूरत नहीं है".....

"ओ.के"...

"वैसे एक बात कहूँ?"....

"क्या?"...

"यही कि तुम्हें मुर्गा बने हुए देखे अर्सा बीत गया"....

"तो?"...

"एक बार...

"नहीं!...बिलकुल नहीं"...

"प्लीज़!..पुरानी यादों को ताज़ा हो जाने दो"....

"कौन सी यादें?....कैसी यादें?"...

"वही जब तुम पहली बार मुझसे मिलने मेरे होस्टल की दिवार फान्द के आए थे और मेरे बजाय धोखे से वार्डन को छेड़ दिया था"....

"ओह!.....

"फिर सबके सामने उसने तुम्हें.....

"बस...बस...रहने दो"....

"अपनी इस कहानी को पढने वाले सभी प्रबुद्ध पाठक हैँ".....

"तो?"....

"क्यों सबके सामने मेरी मिट्टी पलीद करती हो यार?"...

"ओ.के...बाबा!...नहीं करती लेकिन पहले मेरी पूरी बात बिना किसी टोका-टाकी के सुननी पड़ेगी"...

"हाँ!..बताओ...क्या कह रही थी?"..

"यही कि 'जयहिन्द मीडिया' वालों ने तुम्हें चैक भेजा है"...

"कितने का?"....

"एक हज़ार रुपए का"....

"बस?....धुर्र फिट्टे मुँह"...

"1525_computer_hacker_hacking_into_someone39s_private_online_systemमेरी अठाईस कहानियों के हिसाब से तो....ये कोई 'पैंतीस रुपए और इकहतर नए पैसे' पर कहानी नहीं पड़ा?"...

"कुछ कम नहीं है?"...

"अरे!...इतना भी मिल गया...गनीमत समझो"...

"वर्ना वो 'नवभारत' वाले तो छापने-छूपने के बाद भी.....

"हाँ!..चलो...ये सोच के ही खुश हो लेता हूँ कि कम से कम मेरे लेखन को पहचाना तो सही"...

"और कुछ भी लिखा है उन्होंने?"...

"हाँ!...पन्द्रह दिन के अन्दर एक नई कहानी लिख 'अखिल भारतीय कहानी कम्पीटीशन' में भाग लेने के लिए भी कहा है"...

"पन्द्रह दिन में?"....

"इनके बाप का नौकर हूँ जैसे?"....

"कुछ ईनाम-विनाम भी दे रहे हैँ?...या ऐसे ही फोकट में?"....

"अरे!...फोकट में काहे को?"...

"पूरे पाँच हज़ार का ईनाम है प्रतियोगिता में प्रथम आने वाले के लिए"...

"बस?"....

"अपने बस का नहीं है कि महज़ पाँच हज़ार के पीछे कम्प्यूटर पे घंटो उँगलियाँ टकटकाता फिरूँ"....

"तो फिर पहले क्यों पूरी रात टक...टकाटक कर मेरी तथा बच्चों के साथ अपनी भी नींदें हराम किया करते थे?"...

"अरे!...तब अपुन का कोई नाम-शाम नहीं था ना"..

"तो?"....

"अरे!...समझा कर यार"...

"तब ज़रूरी था"...

"अच्छा!...एक बात बता"...

"क्या?"...

"पाँच हज़ार ज़्यादा होते हैँ के एक करोड़?"...

"मतलब?"....

"अरे!...पहले तू बता तो सही"....

"करोड़"....

"बस!...इसीलिए तो कह रहा हूँ कि ये कम्पीटीशन-वम्पीटीशन में भाग लेना....बस टाईम खोटी करने के अलावा कुछ नहीं है"...

"मतलब?"...

"अरे!...बढिया स्क्रिप्ट लिखने के बदले में अपने बॉलीवुड के सबसे बड़े शोमैन याने के ghai  'सुभाष घई' ने पूरे एक करोड़ का ईनाम रखा है"...

"एक क्करोड़?"....

"हाँ!...पहला ईनाम 'एक करोड़' का.....

दूसरा ईनाम ...'पचास लाख' का और तीसरा ईनाम ...'बीस लाख' का"...

"भांग तो नहीं चढा रखी कहीं?"..

"इतना पैसा भला लेखक को कौन देता है?"...

"अरे!...अब भांग चढाएँ मेरे दुश्मन"...

सुभाष घई से अपने ताज़ा-तरीन इंटरविय्यू में साफ-साफ कहा है कि......"जब हमारी फिल्में देश-और विदेश में कुछ ही हफ्तों में करोड़ों का बिज़नस कर लेती हैँ" .......

"तो क्या हम एक अच्छी और उम्दा कहानी के लिए एक करोड़ नहीं खर्च कर सकते?"...

"मैँने तो जब से ये इंटरव्य्यू पढा है...तब से 'भांग'...'सुरती' और 'गांजा' छोड़ सिर्फ और सिर्फ 'स्काच' तथा 'चरस' ही पीने का मन बना लिया है"...

"तो क्या 'सुभाष घई' जैसे बड़े और नामी व्यक्ति  के लिए तुम 'जयहिन्द मीडिया' जैसे नए खिलाड़्यों को मना कर दोगे?"..

"और नहीं तो क्या?"...

"इधर भी पंद्रह दिन का समय है...और उधर भी पंद्रह दिन का ही समय है"...

"तो?"...

"'कोसी' का पानी तो उसी तरफ बहेगा ना...जिस तरफ ढाल होगा"...

"लेकिन अपने काम के प्रति निष्ठावान 'लेखक' का छोटे-बड़े...नामी-बेनामी से क्या लेना-देना?"...

"क्यों नहीं लेना-देना?"...

"क्या वो कोने वाला मोची बिना पैसे लिए ही मेरा फटा जूता सिल देता है?"...

"या वो 'एवर ग्रीन' ब्यूटी पॉरलर वाली मीनाक्षी बिना पैसे लिए ही 'पैडीक्योर'...'मैनीक्योर' और 'थ्रैडिंग' से लेकर 'फेशियल' तक कर तुम्हारे इस 'पैंतालिसवाँ बसंत' देख रहे थोबड़े को चमका कर महज़ बत्तीस का कर डालती है?....

"ओफ्फो!...कोई ज़रूरी नहीं कि तुम कहानी पढ रहे इन पाठकों के सामने मेरी असली उम्र का बखान भी करों"...

"अच्छा बाबा....नहीं करता"....

"अब खुश?"...

"हम्म!....बस अब आप बिना किसी भी प्रकार की कोई देरी किए फटाफट से जुट जाओ अपने लेखन में"....

"अरे!...फिकर नॉट वर्री करी"...

"अभी बहुत टाईम बाकी है"....

"किसमें टाईम बाकी है?"...

"जयहिन्द वालों के लिए तो तुम साफ मना ही कर रहे हो"...

"एक्चुअली!...मैँ सोच रहा हूँ कि किसी को ऐसे ही बेकार में क्यों नाराज़ करा जाए?"....

"क्या पता?...खोटा सिक्का कब काम आ जाए"...

"कम से कम नैट का चार-छै महीने का खर्चा तो निकलेगा...अलग से"...

"हाउ स्वीट!...तुम कितने अच्छे हो"....

"मेरे ख्याल से अब देर करना ठीक नहीं"...

"अरे!...तुम चिंता ना करो...सब आराम से मैनेज हो जाएगा"....

"माना कि तुम कलम के धनी हो लेकिन 'टॉपिक' वगैरा के बारे में तो पहले से ही सोच के रखना पड़ेगा ना कि क्या लिखना है और क्या नहीं"...

"कहानी का प्लाट....ताना-बाना वगैरा"....

"कहा ना!...तुम बिलकुल भी...तनिक भी परेशान ना हो"...

"एक से एक...धांसू से धांसू...कहानियों और उपन्यासों के प्लाट ऑलरैडी भरे पड़े हैँ इस 'डॉयमंड कट' भेजे में"...

"'डॉयमंड कट'...माने?"...

"अरे!...'डॉयमंड कट' माने अच्छी तरह से कुशलतापूर्वक तराशा गया नक्काशीदार भेजा"...

"किसी भी एक आध...फुटकर से आईडिए को सुबह-सवेरे खुली हवा में....हवा भर लगानी है और पल भर धमाकेदार कहानी तैयार समझो"...

"ओ.के....जैसी तुम्हारी मर्ज़ी"....

{पाँच दिन बाद}

"कुछ हुआ?"....

"कुछ होने वाला था क्या?"....

"लड़का या लड़की?"....

"ओफ्फो!....मैँ कहानी की बात कर रही हूँ और तुम कहाँ की कहाँ सोचे जा रहे हो?".....

"ओह!...मॉय मिस्टेक"...

"फिलहाल तो मैँ ये सोच रहा हूँ कि इस बार कहानी का सबजैक्ट क्या रखूँ?"...

"हे भगवान!...पाँच दिन गुज़र गए और जनाब ने अभी तक विष्य ही नहीं सोचा है"...

"अरे!...वैसे तो मेरा प्रिय विष्य हास्य एवं व्यंग्य है लेकिन इस बार फॉर ए चेंज...मैँ सोच रहा हूँ कि 'प्रेम त्रिकोण' याने के लव ट्राईएंगल पर कोई कहानी लिखूँ"...

"अरे नहीं!...ऐसी भूल बिलकुल भी ना करना"...

"नहीं!...ये तो किसी भी हालत में सही टॉपिक नहीं है"...

"क्यों?...क्या बुराई है इसमें?"...

"हर तीसरी या चौथी फिल्म में यही कहानी तो बार-बार दोहराई जा रही है"....

"तो फिर भाईगिरी या गैंगवार वगैरा पे क्यों ना लिखूँ?....

"ना बाबा ना!...भाईगिरी और गैंगवार के बारे में लिखने में तो बहुत लफड़ा है"...

"कैसे?"...

"कल को क्या पता 'दुबई' में बैठा कौन सा भाई नाराज़ हुआ पाए?...और सीधा खड़ा हो तुम्हारे कान के नीचे gun घोड़ा लगा धमाका करता नज़र आए"....

"ओह!...

"और वैसे भी अपने ram gopal 'राम गोपाल वर्मा' जी को इस सब तरह की कहानियों में महारथ हासिल है"...

"मैँने तो यहाँ तक सुना है कि अब वो ऐसी फिल्मों को बनाने और लिखने के बारे में होल वर्ल्ड का ऑल इण्डिया फेमस कॉपीराईट लेने की सोचने लगे हैँ ताकि ना रहे बाँस और ना ही बज पाए किसी दूसरे की बाँसुरी"....

"ओह!...

तो फिर gandhigiri गान्धीगिरी के बारे में लिखना कैसा रहेगा?".....

"अरे यार!...उसमें तो sanjay dutt संजू बाबा पहले ही राईटर-डाईरैक्टर के साथ मिल कर ऐसा कमाल दिखा चुके हैँ कि कुछ और लिखने या करने की गुंजाईश ही कहाँ बचती है किसी और के लिए?"...

"तो फिर क्यों ना किसी 'पीरियड' याने के ऐतिहासिक फिल्म की कहानी लिखूँ...जैसे prithviraj 'पृथ्वीराज चौहान'... 'लक्ष्मीबाई' वगैरा..?"....

"पता भी है कि कितने चैनलों पे ऐसे सीरियल बे-भाव धक्के खा रहे हैँ आजकल"....

"और 'लक्ष्मीबाई' पर तो अपनी sushmita 'सुश्मिता' बना रही है फिल्म"...

"नहीं!...'एक्स मिस यूनीवर्स' याने के 'पूर्व ब्रह्मांड सुन्दरी' से पंगा लेना ठीक नहीं होगा"....

"तुम कुछ 'मॉयथोलॉजिकल' याने के धार्मिक टाईप की कहानी क्यों नहीं लिखते?"...

"अरे!...उसमें तो अपनी 'एकता कपूर' पहले से ही 'हमारी-तुम्हारी mahabharat 'महाभारत' शुरू कर चुकी है और 'सागर बन्धु' अपने पिताजी के ज़माने के बीस-बाईस साल पुराने ramayan 'रामायण' वाले हिट फार्मुले को फिर से भुनाने में जुटे हैँ"...

"ये कहाँ का इनसाफ है कि किसी एक कहानी को बार-बार एक ही आदमी भुनाए?".....

"कभी nadiya 'नदिया के पार' के नाम पे तो कभी.... hum aapke hain kaun 'हम आपके हैँ कौन' के नाम पे?"....

"सही में!...दूसरों को भी बराबर का चाँस मिलना चाहिए"....

"हमारी सरकार वैसे बातें तो बड़ी-बड़ी समानता और सदभावना की करती है लेकिन....

"सही में...देश में....बड़े-छोटे में...अमीर-गरीब में समानता तो तब आएगी जब हर एक को नकल करने का बराबर का हक होगा चाहे वो स्कूल-कॉलेज का कोई इम्तिहान हो या फिर हो किसी 'एम.बी.ए' वगैरा का कोई टैस्ट"....

"बिलकुल!...तभी हमारा देश बिना किसी बाधा के तेज़ी से उन्नति के पथ की ओर अग्रसर हो पाएगा"...

"लेकिन मेरे हिसाब से तो आजकल में ऐसा होना नामुमकिन सा ही जान पड़ता है"....

"सरकार को तो चाहिए कि जो करना है..जल्दी करे"....

"हाँ!...बाद में जब लपलपाती 'कोसी' के कहर से सब मर लेंगे...तब राहत और आपदा सामग्री मिल भी गई तो क्या फायदा?"...

"अब तुम ये 'कोसी-वोसी' को मारो गोली और कहानी लिखना शुरू कर दो"...

"बिलकुल"....

{दस दिन बाद}

"हाँ!....कुछ हुआ कहानी का?"....

"यार!...लाख कोशिशों के बावजूद भी बात कुछ जम नहीं रही"...

"क्यों?..क्या हुआ?"...

"कुछ सोच के लिखने बैठता हूँ तो याद आता है कि ऐसा सीन तो फलानी-फलानी फिल्म में या फिर फलानी-फलानी कहानी में पहले ही कोई लिख चुका है"...

"किस तरह की फिल्मों में तुम्हें ऐसे सीन दिखाई देते हैँ?"...

"देसी या विदेशी?"....

"देसी"...

"ओ.के!...फिर तो कोई मुश्किल नहीं है"...

"तुम एक काम करो!...ये देसी-दासी का चक्कर छोड़े और कुछ नीली-पीली फिरंगी फिल्में झट से देख मारो"...

"और जिस से जो अच्छा लगता है...सब चुन-चान के एक उम्दा सी कहानी रातोंरात तैयार कर डालो"...

"नहीं...बिलकुल नहीं"....

"अरे!...क्या फर्क पड़ता है?"....

"जैसे सब कर रहे हैँ...वैसे ही तुम भी करो"....

"और डंके की चोट पे अपनी कहानी के मौलिक तथा मालिक होने का दावा पेश कर डालो"...

"ध्यान रहे!...ऐसा दावा पेश करते समय तुम्हारा चेहरा आत्म ग्लानी से पीड़ित नहीं बल्कि कांफीडैस से भरपूर एकदम लबालब दिखाई देना चाहिए"....

"अरे!...वो sajid 'साजिद खान' का बच्चा एक मिनट भी टिकने नहीं देगा मेरे दावे को"...

"पल भर में ही पोल खोल के रख देगा कि मैँने फलाना-फलाना सीन फलानी-फलानी फिल्लम से चुराया है".....

"तो वो खुद ही कौन सा दूध का धुला है?"...

"उसने भी तो अपनी फिल्म 'हे बेबी' में 'जैकी चैन' की एक फिल्म से दृष्य उड़ाए थे"...

"अरे!...चुराए या उड़ाए नहीं थे बल्कि वो तो इंस्पायर हुआ था उस फिल्लम से"..

"हाँ!...तभी कुछ सीनो में फ्रेम दर फ्रेम नकल कर मारी थी"...

"ये सब संयोग भी तो हो सकता है या नहीं?"....

"हाँ-हाँ!....हो क्यों नहीं सकता?"....

"होने को तो कुछ भी हो सकता है"....

"मैँ bush 'जार्ज बुश' के घर और...'जार्ज बुश'...बिना किसी भी प्रकार का कोई लेन-देन किए laden  'ओसामा बिन लादेन' के घर भी पैदा हो सकता है"....

"क्यों?...है कि नहीं"...

"हा हा हा हा"...

"खैर!...बहुत हो लिया मज़ाक-वज़ाक"....

"अब कुछ सीरियस बात हो जाए?"...

"हाँ..हाँ....क्यों नहीं?"...

"तुम मुझे साफ-साफ खुले शब्दों में बता दो कि तुमने कहानी लिखनी है या मैँ किसी और को भाड़े पे रख लूँ?"...

"अरे!...ऐसा गज़ब मत करना"....

"लिखनी क्यों नहीं है?"...

"ज़रूर लिखनी है"...

"तो फिर ये आलस-वालस छोड़ो और तुरंत जुट जाओ काम पे"...

"जैसा हुकुम मेरे आका का".....

"बस...बस ...ये लल्लो-चप्पो छोड़ो और अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाओ"....

"ठीक है"...

{बारह दिन बाद}

"अरे!...सुनो!.....बड़े मज़े की बात सुनो"...

"क्या हुआ?...कहानी पूरी हो गई क्या?"...

"कहाँ यार?"...

"अभी-अभी एक बड़ी ही धांसू सी....फन्ने खाँ टाईप....फन्नी सी कहानी का आईडिया आया है".....

"अच्छा?...अभी सिर्फ आईडिया भर ही आया है?"...

"मैँ ही पागल हूँ जो तुम्हारे पीछे पड़-पड़ के बार-बार कहानी के बारे में पूछती फिरती हूँ और एक तुम हो कि कोई फिक्र ही नहीं"...

"अरे!...अगर अच्छी कहानी लिखोगे तो तुम्हारा ही नाम होगा...मेरा नहीं"....

"अरे!...तुम सुनो तो"...

"मैँ एक ऐसी कहानी लिखने जा रहा हूँ जिसमें ट्रैजेडी अपनी चरम सीमा पर होगी...रोमांस अपने पूरे उत्थान पर होगा और...और एक्शन के मामले में मेरी कहानी हॉलीवुड की फिल्मों की भी सरताज होगी"...

"गुड!...वैरी गुड".....

"मेरी कहानी पर बनी फिल्म बॉक्स आफिस के अगले-पिछले सभी रेकार्डों को धवस्त कर डालेगी"...

"अरे वाह!...क्या कहने"...

"मेरी कहानी बच्चों से लेकर बड़ों तक...सभी को भाएगी"...

"मैँने सब सोच लिया है...सुभाष जी से मैँ पर्सनल  रिकवैस्ट कर कहानी का ऐसा साऊंड ट्रैक बनवाऊँगा कि सब हक्के-बक्के रह जाएँगे"...

"बिना इसका संगीत सुने गाय-भैंसे दूध देना बन्द कर देंगी...हिरन घास चरना छोड़ देंगे...शेर शिकार करना भूल अपनी-अपनी मांदों में लुप्त हो जाएंगे"....

"ओ.के....ये सब म्यूज़िक वगैरा तो खैर एक्स्ट्रा बात हो गई...किसी अच्छी और सफल की आत्मा तो उसकी पटकथा याने के कहानी होती है"...

"बिलकुल"...

"तो फिर उसी के बारे में बताओ ना"...

"मैँ तो कहानी सुनने को उतावली हुए जा रही हूँ"...

"तो फिर सुनो.....

"नहीं!...पहले तुम सुनो...

कहानी में "जाने तू या जाने ना' image जैसा रोमांस ज़रूर डालना ...आजकल यही ट्रैंड चल रहा है"...

"अरे!...तू काहे को चिंता करती है?"...

"मैँ हूँ ना"...

"चिंता ना कर!...मेरी कहानी में वो सभी ज़रूरी मसाले हैँ जो एक हिट फिल्म के लिए निहायत ही ज़रूरी होते हैँ"...

"जैसे?"...

"जैसे उसमें mothe india मदर इण्डिया जैसा माँ का प्यार भी है ...और 'दोस्ती' dostiजैसी दोस्ती भी".....

"मेरी कहानी में  'संगम' image जैसी कुर्बानी होगी और...'गोलमाल' golmaalजैसी कॉमेडी भी होगी"...

"'लैला-मजनू' laila majnuजैसे प्यार-मोहब्बत पे मिटने वाले प्रेमियों की दास्तान भी होगी...और 'एतबार' aitbaarजैसा षड़यंत्र भी होगा"....

'आग ही आग'aag hi aag जैसी दिल दहला देने वाली दुश्मनी होगी....और 'फूंक' phoonkजैसा फूंक सरका देने वाला डरावनापन भी होगा".....

"दर्द का रिश्ता' dard ka rishta जैसा आखों से आँसू ला देने वाला दर्द होगा...और 'कयामत से कयामत तक' kayamatजैसा नयापन भी होगा"...

 'शूल' shool जैसा शुद्ध आईटम नम्बर होगा....और अंत में 'शोले' sholayजैसा धांसू  क्लाईमैक्स तो ज़रूर होगा ही".....

"गुड!...वैरी गुड"...

"लेकिन एक बात का ध्यान रखना कि कहानी बिलकुल ओरिजिनल लिखनी है...तभी सुभाष घई जी ने उसे अप्रूव करना है...वर्ना नहीं"....

"जानता हूँ यार कि नकल के पाँव नहीं होते"...

"अरे!...तुम चिंता ना करो"....

"पहला ईनाम ना मिले ...ना सही"...

"दूसरा ईनाम भी बेशक ना मिले...कोई गम नहीं लेकिन ये तीसरा वाला याने के 'बीस लाख' का नकद ईनाम तो अपना पक्का ही समझो"...

"भले ही सारी दुनिया इधर-उधर हो जाए...कोई भी बड़े से बड़ी ताकत मुझे इस ईनाम को हासिल करने से रोक नहीं सकती"....

"इतना ओवर कॉंफीडैंस भी ठीक नहीं"....

"कॉंफीडैंस की बात करती हो?"....

"वो तो इतना है कि पूछो मत"....

"ईनाम की तो तुम चिंता मत ही करो"...

"मैँ तो ये सोच-सोच के कंफ्यूज़ हुए जा रहा हूँ कि जब सुभाष घई से एक करोड़ वसूलने जाऊँगा तो...

"कौन सी ड्रैस पहन के जाऊँगा?"...

"कौन सा परफ्यूम लगा के जाऊँगा?"...

"'वुडलैंड' के या फिर 'रैड टेप' के जूते पहन के जाऊँगा?"....

'ज़ोडियॉक' की टाई पहनूँगा या फिर इम्पोर्टेड 'बो' लगाऊँगा?"...

"बो को तो तुम रहने ही देना"..

"क्यों?...क्या कमी है 'बो' bow लगाने में?"....

"अच्छी भली तो लगती है नन्ही सी....प्यारी सी"...

"अरे!...ये 'बो-बॉ' लगा के बन्दा कम और वेटर ज़्यादा लगता है"...

"देखा नहीं है क्या शादियों और पार्टियों में वेटरों को ये 'चार्ली चैपलिन' के बड़े भाई माफिक मूछों को कमीज़ पे लगा प्लेटें इधर-उधर करते हुए?"...

"ओह!....

"तुम ये 'बो-बॉ' का लफड़ा छोड़ सीधे-सीधे टाई ही लगा लेना"...

"टाई?"...

"क्यों?...उसमें क्या बुराई है?"....

"अच्छी भली तो लगती है"...

"ओ.के...तुम्हारी बात मान लेता हूँ लेकिन सूट तो मैँ अपनी मर्ज़ी का ही पहनूँगा"...

"और ऐन टाईम पे आपा-धापी से बचने के लिए मैँने तो अभी से तैयारी कर ली है"...."

"तैयारी?..कैसी तैयारी"....

"जैसे के मैँ करोल बाग वालेdiwan saheb  'दिवान साहब' को दो सूट बनाने का आर्डर पहले ही दे आया हूँ"....

"दिवान साहब' को?"....

"हाँ"....

"लेकिन उनके चार्जेज़ तो....

"अरे!...कपड़ों से शाही अन्दाज़ टपकना चाहिए और इस मामले में उनसे बेहतर कौन?"...

"वो कहते हैँ ना अँग्रेज़ी में कि फर्स्ट इम्प्रैशन इज़ दा लास्ट इम्प्रैशन"...

"हाँ!....ये बात तो है"....

"सामने वाले को भी पता होना चाहिए कि बन्दा खाते-पीते घर का नामी-गिरामी लिक्खाड़ है कोई वेल्ला सड़कछाप टट-पूंजिया लेखक नहीं"...

"बिलकुल!...पहनावा रुआबदार होना चाहिए"....

"नहीं तो ये फिल्मी लोग पहले तो मज़े-मज़े में सारे काम करवा लेते हैँ और बाद में पेमेंट के वक्त....

इतने नहीं...इतने.....कह बॉरगेनिंग पे उतर आते हैँ"....

"तो ठीक है आप अपनी कहानी फाईनल कर प्रिंट-आउट निकाल लें"...

"मैँ सोच रहा हूँ कि दो-चार एक्स्ट्रा कॉपी भी साथ ही साथ निकाल लूँ"...

"वो किसलिए?"...

"बॉलीवुड के दूसरे निर्माताओं को फ्री में ऐज़ ए सैम्पल गिफ्ट देने के काम आ जाएगी"...

"लेकिन अगर किसी दूसरे प्रोड्यूसर ने नकल मार उनसे पहले ही अपनी फिल्म रिलीज़ कर दी तो?"...

"ओह!...इस बारे में तो मैँने सोचा ही नहीं"...

"अगला हमारी कहानी के दम पे करोड़ों रुपया दाव पे लगाएगा...तो ऐसे में उससे गद्दारी करना ठीक नहीं"...

"बिलकुल"...

"ठीक है!...आज तो मैँ आराम करता हूँ...कल से कहानी को फाईनल टच दे दूंगा"....

"ओ.के"....

{चौदहवाँ दिन}

"सुनो!...वो कहानी का प्रिंट आउट तो दिखाना"...

"ज़रा देखूँ तो सही कि मेरे मियाँ जी ने कैसी कहानी लिखी है?"....

"अरे!...क्या खाक प्रिंट आउट दिखाऊँ?"....

"इस स्साले!...प्रिंटर को भी आज ही खराब होना था"...

"क्यों?...क्या हुआ है इसे?"...

"पता नहीं जब-जब कमांड देता हूँ इसे प्रिंट करने की...तब-तब बस सैम्पल पेपर छाप अपने कर्तव्य को पूरा समझ लेता है"...

"ओह!...अब क्या होगा?"...

"हे ऊपरवाले!...हमारी लाज बचा ले"...

"अब इसमें ऊपरवाला क्या करेगा?"....

"जो करना है...सो मकैनिक ने करना है...उसे फोन कर दिया है...बस आता ही होगा"...

"तुम बेकार में टैंशन मत मोल लो"..

"ओ.के"...

"उम्मीद करती हूँ कि सब ठीक हो जाएगा लेकिन मुझे एक चिंता खाए जा रही है"...

"क्या?"...

"यही कि ईनाम मिलने के बाद हम बड़े आदमी बन जाएंगे"....

"तो?"...

"बधाईयाँ देने के लिए दोस्तों...रिश्तेदारों का घर में आना-जाना लगा रहेगा"...

"तो?"...

"यार!...इस पुराने मॉडल के घर में आदर से सबका स्वागत-सत्कार करना अच्छा लगेगा क्या?"...

"वाशबेसिन है तो वो टूटा पड़ा है"..

"बाथरूम से लेकर रसोईघर तक की सभी टूटियाँ लीक करती हैँ"....

"रंग-रोगन करवाए हुए तो बरसों बीत गए"...

"सीलन के मारे प्लास्टर कभी भी बिना किसी न्योते के पपड़ी बन आ टपकता है"....

"अरे!...मेरे होते हुए चिंता काहे को करती है?"...

"जानती नहीं कि चिंता...चिता समान है?...और तुझे-मुझे तो अभी कई सावन एक साथ...एक ही छत के नीचे गुज़ारने हैँ"...

"छत?"....

"छत कमज़ोर इतनी है कि सोते हुए भी डर सा लगता है कि कहीं पंखा मेरे सिर के ऊपर ही ना पड़े"...

"परेशान ना हो...अभी प्लम्बर को फोन करके सभी टूटियाँ बदलवा डालता हूँ"...

"लेकिन ये चौखटों में भी तो दीमक ताबड़-तोड़ हमला कर चुकी है"...

"चिंता ना कर...पैस्ट कंट्रोल वालों को भी अभी के अभी फोन कर देता हूँ"....

"कोई फायदा नहीं होता ये कंट्रोल-शंट्रोल करके"...

"कंट्रोल करना ही है तो अपने नामुराद बच्चियों को करो"...

"नाक में दम किए रहती हैँ हमेशा"...

"कभी किसी की कॉपी गुम हुई रहती है तो कभी किसी की पैंसिल"....

"अरे!...तुम घर की बात करती हुई ये बीच में बच्चों का टॉपिक कहाँ से घुसेड़ लाई?"...

"शर्मा जी कह रहे थे कि तीन साल की गारैंटी देते हैँ"....

"बच्चों की?"....

"ओफ्फो!...बच्चों की नहीं रे बाबा"...

"पैस्ट कंट्रोल के बाद घर में दीमक ना लगने की तीन साल की गारैंटी देते हैँ वो लोग"....

"तो ऐसे कहो ना"....

"सब बकवास...बेफिजूल की है ये गारैंटी-शारैंटी"...

"लेकिन शर्मा जी तो....

"तो उन्हीं से कह के देखो कि एक बार ऐसे ही फोन मिला ...बुलवा के देखें उन्हें"...

"पहली बात तो फोन नम्बर ही बन्द पाएगा"....

"और अगर गल्ती से मिल भी गया फोन तो...आज कल...आज कल के झूठे वायदे के अलावा और कुछ हाथ नहीं लगने वाला"....

"तो क्या फिर सारी चौखटें ही बदल दें?"...

"मैँ तो कहती हूँ कि ये घर ही बदल दो"...

"बहुत साल हो गए एक ही जगह रहते-रहते"....

"कमाल करती हो तुम भी"....

"घर बदल दो"....

"कोई मज़ाक है क्या?"...

"घर बनाना भला कहाँ आसान है?"....

"कौन बावलों की तरह कभी 'सैनीटेरी' का तो कभी 'इलैक्ट्रीशियन' का सामान इकट्ठा करता फिरे?"...

"कभी लेबर के नखरे सहे तो कभी ठेकेदार से माथा फोड़े"...

"कभी पुलिस वालों को चढावा चढाए तो कभी 'एम.सी.डी.वालों की मुट्ठी गरम करे"....

"अपने बस का नहीं है ये ईंट...बदरपुर और रेते के साथ सीमेंट में धूल-धूसीरत होना"...

"इसका मतलब!...मेरा नए घर का सपना...सिर्फ सपना बन के रह जाएगा?"....

"अरे!...मेरी जान...तुझ पर मेरा प्यार....मेरा दुलार...सब कुर्बान"....

"तुम बस पैसे आने दो...सीधे-सीधे तुम्हें पंजाबीबाग में ढाई सौ गज़ की कोठी दिलवा दूंगा"...

"क्या सच?"...

"सच-सच...एम.डी.एच' के मसाले...सच-सच"...

हा हा हा हा हा...

"अच्छा मैँ तो चली खाना बनाने"...

"तुम उस मकैनिक के बच्चे को अभी फोन करो और तुरंत आने को कहो"..

"ओ.के"...

{पंद्रहवें दिन}

"अरे!...क्या हुआ....कल मकैनिक आया था के नहीं?"...

"मुझे तो घर के काम-काज से फुर्सत ही नहीं मिली कि मैँ तुमसे इस बाबत कुछ पूछ सकूँ"....

"नहीं!...मकैनिक तो आया नहीं था"....

"ओह!...

"हे भगवान...अब क्या होगा?"...

"धरी रह गई सारी की सारी मेहनत"....

"पानी फिर गया हमारे अरमानों पर"...

"अरे!....ऐसा कुछ नहीं हुआ है जो तुम इतनी हाय-तौबा मचा रही हो"...

"कुछ नहीं हुआ है?"...

"पूरे एक करोड़ निकल गए हाथ से और तुम कह रहे हो कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है"...

"हाँ!..बेगम...यकीन मानों...ऐसा कुछ नहीं हुआ है"...

"उस पैसे पे हमारा हक है और वो हमें मिल के ही रहेगा"...

"तुम चिंता ना करों"...

"क्या तुम सच कह रहे हो?"...

"बिलकुल"...

"खाओ मेरी कसम"....

"तुम्हारी कसम"...

"लेकिन तुम तो कह रहे थे कि मकैनिक आया ही नहीं"...

"हाँ"...

"तो फिर प्रिंट आउट.....

"उसकी तो ज़रूरत ही नहीं पड़ी"...

"मतलब?"...

"यार...आज कहानी भेजने का आखरी दिन था और प्रिंटर भी खराब था तो मैँने सोचा कि क्यों ना सारी कहानी उनकी मेल आई.डी पर मेल कर दूँ"...

"ओह!...अच्छा किया"...

"मेरी इस समझदारी ने कई फायदे भी करा दिए"...

"वो कौन से?"...

"कागज़ का कागज़ बचा और पैसे के पैसे भी बचे"...

"और कई पेड़ भी तो कटने से बचे"...

"पेड़?"...वो कैसे?"...

"अरे!...कागज़ लकड़ी से ही तो बनता है".....

हा हा हा...सही बात"....

"अरे हाँ!...देखना ज़रा...तुम्हारी फोनबुक में उस कमला का नम्बर होगा"...

"कौन कमला?"...

"अरे!...तुम्हारी सहेली कमला...और कौन?"...

"अच्छा!....वही...जिसको पटाने के चक्कर में तुमने उसके बँगले के कई-कई चक्कर काटे थे"...

"कोई ज़रूरी नहीं कि यहाँ...इस कहानी के बीच में तुम गड़े मुर्दे उखाड़ो"...

"ओ.के....मॉय मिस्टेक"...

"हाँ!...अब बताओ...क्या काम पड़ गया तुम्हें उस कमला से?"...

"कहीं फिर से कमला के जलवों का हमला तो नहीं होने वाला?"....

"अरे!...ऐसी कोई बात नहीं है"...

"तो फिर क्या खास काम पड़ गया?"....

"ऐसा कुछ खास काम नहीं है"...

"मुझे तो बस नई मर्सडीज़ के रेट पता करने थे"...

"काहे को?"...

"अच्छी-भली दो-दो कारें तो हैँ...

"हाँ!..हैँ...एक तीन साल पुरानी 'वैगन ऑर' जो डैंटिंग-पेंटिंग माँग रही है और दूसरी बाबा आदम के ज़माने की 'फिएट ऊनो' जो बिना धक्के के स्टार्ट ही नहीं होती"....

"अच्छा लगेगा क्या हमें ईनाम मिलने के बाद इन लो स्टैंडर्ड की गाड़ियों में चढना-उतरना?"...

"बात तो तुम ठीक ही कर रहे हो"...

"सोच रहा हूँ कि अभी बुक करा देता हूँ..फैस्टिव सीज़न है...अच्छा-खासा डिस्काउंट मिल जाएगा"...

"लेकिन मर्सडीज़ लेने का मतलब हम कहीं ओवर बजट तो नहीं होते जा रहे?"....

"अरे!...पूरी फिल्म इंडस्ट्री क्या सिर्फ 'सुभाष घई' के दम पे चलती है?"....

"कला के कद्रदान भतेरे हैँ अपने इस बॉलीवुड में"...

"पहले सुभाष घई को खरीदने दो हमारी कहानी...उसके बाद बस तुम चुपचाप कोने में खड़ी हो कर तमाशा देखती रहना"....

"अपने आप ही    yash chopra  'यश चोपड़ा' से लेकर 'विधु विनोद चोपड़ा' vidhu vinod chopraतक....और shahrukh 'शाहरुख' से लेकर salman'सलमान' तक सभी ने ब्लैंक चैक ले अपनी-अपनी होम प्रोडक्शन के लिए हमें साईन करने के वास्ते लाईन बना के खड़े हो जाना है"...

"लेकिन मेरा दिल कहता है कि कम से एक बार हमारी कहानी को लेकर big b बिग बी ज़रूर फिल्म बनाएँ"...

"मेरी दिली तमन्ना भी यही है लेकिन क्या किसी के पास जा कर ऐसे काम मांगते हमें शोभा देगा?"....

"लेकिन अगर वो तुम्हारी प्रसिद्धी सुन खुद ही आ जाएँ तो?"...

"तो वायदा है ये राजीव का कि मेरा पहला प्रैफरैंस...पहला रुझाना उन्हीं की तरफ होगा"....

"आखिर 'बिग बी' सचमुच में बिग भी हैँ"....

{परिणाम घोषित}

"ज़रा कम्प्यूटर तो ऑन करना...आज ही नतीजा आना था"....

"एक मिनट!...पहले ये बालाजी टैलीफिल्मस का प्रसाद लो और कम्प्यूटर को चन्दन-तिलक कर सफलता प्राप्ति मंत्र का जाप करते हैँ"...

"ठीक है"...

ऊँ गणपति नमाय:....

ऊँ कम्प्यूटराय नम:....

ऊँ सुभाष घई नमाय:...

ऊँ बॉलीवुडाय नम:...

ऊँ लेखकाय नम:..

हाँ!...अब ऑन करो कम्प्यूटर"...

अरे वाह!...

देखो तो!...घई साहब ने खुद मेल भेजा है"....

"गुड!...वैरी गुड"...

"ये देखो!...सबजैक्ट में 'अर्जैंट रिप्लाई नीडिड' लिखा है"...

"इसका मतलब ज़रूर पूछना चाह रहे होंगे कि हमें पैसा एक नम्बर में चाहिए कि दो नम्बर में?"...

'कैश' में चाहिए या फिर 'बैंक ड्राफ्ट' के रूप में?"...

"इंडिया में चाहिए या फिर अब्राड में?"...

हम तो साफ-साफ कह देंगे कि.....

"ओ जी!...हम ठहरे पक्के देशभक्त"...

"इस नाते पैसा हमें विदेश में नहीं बल्कि स्वदेश में चाहिए"...

"और वो भी नकद नहीं बल्कि 'पे-आर्डर' के रूप में"...

"अपना जितना टैक्स बनेगा...ईमानदारी से भर देंगे"...

"बिलकुल!...ज़मीर नाम की भी कोई चीज़ होती है कि नहीं?"...

"हाँ!..एक बात उनको पहले से बोल देंगे"...

"क्या?"...

"यही कि पे आर्डर हमे सिंगल नेम पे नहीं बल्कि जॉयंट नेम पे चाहिए"...

"मतलब?"...

"अरे यार!...पे आर्डर पे हम दोनों का नाम होना चाहिए कि नहीं?"...

"वो किस खुशी में?"...

"क्यों?...मेरा भी हक बनता है कि नहीं?"...

"हक?...किस बात का हक?....और कैसा हक?"....

"प्लाट सोच...कहानी का ताना-बाना बुनूँ ...मैँ".....

"रात भर जाग-जाग के अपनी उँगलियाँ टकटकाऊँ...मैँ"...

"और जब माल कमाने की बारी आए तो   तुम फोकट में अपनी हिस्सेदारी जताने लगो?"...

"वाह...क्या सोच है तुम्हारी?"...

"हट ज्या सुसरी...पाच्छे  ने"...


"कोई हक नहीं बनता तेरा"...

"हाँ...तुम्हारे लिए बार-बार चाय बनाऊँ ...मैँ"...

"कहानियाँ लिखने के नए-नए आईडियाज़ खोज निकालूँ ...मैँ"....

"तुम्हारे मैले-कुचैले ...कपड़े-लीड़े धोऊँ...मैँ"...

"तुम्हारे नासपीटे....न्याणों को पालूँ...मैँ"...

"तुम्हारे जूठे-सुच्चे बर्तन माँजूँ....मैँ"....

"और जब चार पैसे कमाने की बारी आए...तो....

"हट ज्या...सुसरी...पाच्छे  ने"...

"क्यों यार?...सुबह-सुबह....अच्छे-भले...बने-बनाए मूड को खराब करने पे तुली हो"....

"मैँ खराब करने पे तुली हूँ?"....

"और नहीं तो क्या?"...

"तो फिर सीधे-सीधे मेरा हक मुझे क्यों नहीं सौंप देते?"...

"अरे!..थोड़ा-बहुत हो तो मान भी जाऊँ...लेकिन तुम तो सीधे-सीधे आधा हिस्सा माँग रही हो"...

"तो क्या गलत कर रही हूँ?"...

"आज तुम ये जो लेखक का तमगा लगाए-लगाए फिर रहे हो ना?....

"वो सब मेरी ही देन है"...

"अच्छा?"...

"कई बार तो तुम्हारी टोका-टाकी के कारण मुझे अपनी कई कहानिय़ाँ बीच में ही रद्द कर रद्दी की टोकरी में फैंकनी  पड़ी  और तुम कह रही हो कि तुमने मुझे लेखक बनाने में मदद की?"...

"और नहीं तो क्या?"...

"सच-सच बताना...मेरे द्वारा की गई टोका-टाकी को तुमने कितनी बार अपनी कहानियों में हूबहू लिखा है?"...

"कई बार"...

"तो?"...

"चाहे वजह कोई भी रही हो...लेकिन तुमने जाने-अनजाने मेरी नकल तो की ही ना?"...

"हाँ!...ये तो है"...

"तो फिर मेरा आधा हिस्सा पक्का?"...

"हम्म!...आधा तो नहीं...लेकिन चलो...पैंतीस से चालीस परसैंट के बीच में कहीं ना कहीं तुम्हारी सैटिंग कर दूँगा"...

"नहीं!...बिलकुल नहीं"...

"तो फिर जाओ भाड़ में...अपना जो उखाड़ना हो...उखाड़ लो"...

"एक मिनट!...मुझे सोचने का मौका दो"...

"ओ.के....जो सोचना है..जल्दी सोचो"...

"ज़्यादा वक्त नहीं है मेरे पास"...

"ठीक है...मैँ काम्प्रोमाईज़ करने को तैयार हूँ"...
"हमारे आपसी इस झगड़े की वजह से तुम कहीं पति से 'एक्स पति' ना हो जाओ ....इसलिए मान जाती हूँ.....वर्ना कोई और हो तो आधे हिस्से से कम का तो सवाल ही नहीं पैदा होता"...

"चलो...अब ओपन करो मेल"..


"ओ.के"....

"ओह!...ये क्या?"...

"शिट!...शिट....शिट.....

मेरी कहानी तो अंतिम दस में भी नहीं पहुँच पाई".....

"ज़रूर तुम्हें गल्ती लगी है....वर्ना  ये ऊपर  'अर्जैंट रिप्लाई' ना लिखा होता"....

"उत्तर देने के लिए लिखा है कि हमारी हिम्मत कैसे हुई उसे ये बेकार की.....सड़ी सी...वाहियात कहानी भेज उसका कीमती समय खराब करने की"...

"हुँह...दो-चार हिट फिल्में क्या बना ली"...

"बड़ा तीसमारखाँ समझता है खुद को"...

"मेरी कहानी को बेकार की कह रद्दी की टोकरी में डालने वाले  पहले आईने में खुद को तो झाँक के देख"....

"ये तो पब्लिक पागल है वर्ना तेरी फिल्लम तो पहले हफ्ते में ही ठुस्स हो जाए"....

बता...क्या अनोखा मसाला होता है तेरी कहानियों में जो मैँने नहीं डाला?"...

"ओ जनाब जी...ये नींद में बड़बड़ाते हुए किस पे गरम हुए जा रहे हो?"...

"उठो!...सुबह हो गई है"...

"ये क्या?...रात को तो कह रहे थे कि पूरी कहानी एक ही बार में लिख कर सुभाष जी को मेल करूँगा और यहाँ तो एक पेज भी लिखा दिखाई नहीं दे रहा है"...

"ओह!...लगता है कि लिखना शुरू करने से पहले ही आँख लग गई थी"...

"कोई बात नहीं!..अभी तो पूरे पंद्रह दिन पड़े हैँ कहानी भेजने में"...

"अपना ...आराम से बाद में लिख लेना"...

"नहीं...बाद में नहीं....अभी से सोच-सोच के लिखना शुरू करूँगा तभी टाईम पे पूरी हो पाएगी"...

"ओ.के...जैसी तुम्हारी मर्ज़ी"...

"लिखने से पहले एक बात अच्छी तरह दिमाग में बिठा लेना कि तुमने अपने लेखन से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करना है"...

"ऊपरवाले का दिया बहुत कुछ है"...

"ईनाम भले ही मिले ना मिले...लेकिन एक पहचान ज़रूर मिले"...

"जी"....

"ऐसी नेक और पाक कोशिश करोगे तो इंशाअल्लाह एक ना एक दिन सफलता तुम्हारे कदम ज़रूर चूमेगी"...

"आमीन"...

"हा...हा...हा....हा"...

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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