***राजीव तनेजा***
"ओ...बड़े दिनों में खुशी का दिन आया....
ओ...बड़े दिनों में खुशी का दिन आया....
आज मुझे कोई ना रोके...
बतलाऊँ कैसे कि मैँने क्या पाया....
हो बड़े दिनों में.....
"याहू!....
वो मारा पापड़ वाले ने"...
"क्या हुआ तनेजा जी?...इस कदर बल्लियों क्यों उछल रहे हैँ?...
"अरे शर्मा जी!...साक्षात चमत्कार देख के आ रहा हूँ...साक्षात"....
"क्या सच?"....
"और नहीं तो क्या?"...
"हम भी तो सुनें भय्यी कि क्या चमत्कार देख के आ रहे हो?"...
"यूँ समझिए कि साक्षात ऊपरवाले ने अपने हाथों से गिफ्ट....
"तो क्या आज फिर किसी लड़की ने लिफ्ट?....
"तौबा...तौबा...कैसी बातें करते हैँ?"...
"क्यों?...पिछले हफ्ते तुम खुद ही तो बता रहे थे कि....
"शर्मा जी!...बन्दा एक बार धोखा खा सकता है...दो बार धोखा खा सकता है लेकिन सौ बार थोड़े ही कोई मुझे उल्लू बना पैसे ऐंठ सकता है"....
"तो फिर बताओ ना यार कि आखिर हुआ क्या?"शर्मा जी का उत्सुक स्वर...
"अजी!...यूँ समझिए कि धमाल हो गया"...
"अब कुछ बताओगे भी या यूँ ही बेकार में कमाल-धमाल कर के फुटेज खाते रहोगे?"....
"बताता हूँ....बताता हूँ....ज़रा सब्र तो रखिए"...
"अरे वाह!...इतनी देर से उतावले तो तुम खुद हुए जा रहे हो और अब मुझे सब्र रखने के लिए कह रहे हो?"...
"क्या शर्मा जी?...आप तो बात को पकड़ के बैठ जाते हैँ"...
"बैठ जाता हूँ?"...
"ध्यान से देखो!...मैँ बैठा हुआ नहीं बल्कि सीधा तन के खड़ा हुआ हूँ"शर्मा जी सीना तान छाती फुलाते हुए बोले...
"हे...हे...हे...शर्मा जी...आपके भी सैंस ऑफ ह्यूमर का जवाब नहीं"...
"थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"...
"इसमें थैंक्स की क्या बात है?...यू डिज़र्व इट"....
"हक बनता है आपका"... "ओ.के....ओ.के...बाबा"....
"चलो!...अब फटाफट पूरी बात बताओ"...
"शर्मा जी!...जल्दी क्या है?"....
"आप ही तो कहा करते हैँ कि जल्दी का काम शैतान का होता है...आराम से सुनिए"...
"ठीक है भैय्ये!...तो फिर टिका ले अपनी तशरीफ यहाँ...फुटपाथ पे और तसल्ली से बता"शर्मा जी एक तरफ इशारा करते हुए बोले...
"जी...शर्मा जी"मैँ भी आराम से चौकड़ी मार बैठता हुआ बोला...
"दरअसल हुआ क्या कि मैँ अपने नए स्कूटर पे...
"अरे वाह!...नया स्कूटर?.....कब लिया?"शर्मा जी चौंकने वाले अन्दाज़ में उठ खड़े हो गए...
"जी!...बस...यही कोई दो-चार दिन ही हुए हैँ"...
"अमाँ यार!...तुम तो बड़े ही छुपे रुस्तम निकले..किसी को कानों कान खबर भी नहीं होने दी और झट से मार लिया मैदान"...
"अब शर्मा जी!...अपने मुँह से कैसे कहता?.....आप तो मेरा नेचर जानते ही हैँ"मैँ मन ही मन फूल के कुप्पा होता हुआ बोला
"फिर तो भय्यी!....पार्टी बनती है हमारी"...
"हाँ-हाँ...क्यों नहीं?"...
"आप ही का दिया सब कुछ है"....
"जब चाहें...ले लें"...
"ना...तनेजा जी...ना....पार्टी से बचने का ये तरीका तो बरसों पुराना हो गया"...
"मेरे सामने आपका ये टोटका नहीं चलने वाला"...
"सीधे-सीधे निकालिए सौ का पत्ता और बन्ने खाँ की दुकान से गर्मागर्म जलेबी मँगवाईए"...
"हाँ-हाँ ...क्यों नहीं"...
"एक मिनट!....(स्कूटर को घूर के देखते हुए)
"ओए तनेजा!....
"जी!...शर्मा जी"....
"छोड़!.....ये पार्टी-शार्टी का चक्कर तू रहने दे"....
"कमाल करते हो शर्मा जी!...आपकी एक आवाज़ पे मैँने जेब के अन्दर हाथ डाल दिया और आप हैँ कि....
"तो दूसरी आवाज़ पे उसणे बाहर काढ ले...के दिक्कत सै?"...
"ना..दिक्कत तो कोई नहीं है जी...लेकिन....
"इस लेकिण-वेकिण ने अड़े छोड़ और जा...
खा कमा....मौज कर"...
"कह दिया ना कि जा...मैँ नहीं लेता"...
"वो तो आपको लेनी पड़ेगी"....
"कोई जबर्दस्ती है?"...
"कुछ भी समझ लें"...
"पागल हो गया है क्या तू?"...
"शर्मा जी!.....आप तो मेरे बारे में अच्छी तरह से जानते हैँ कि मैँ उसूलों का बड़ा पक्का आदमी हूँ"...
"तो?"...
"पहले तो कभी किसी को जल्दी से हाँ नहीं करता और अगर गलती से कभी किसी को हाँ कर भी दी तो फिर भूल के भी कभी ना नहीं करता"...
"अब मर्द की ज़बान जो ठहरी....कर दी...सो कर दी"....
"अब तो आप इसे पत्थर पे लिखी लकीर ही समझिए"...
"तो फिर झाड़ू मार पत्थर पे...अपने आप मिट जाएगी ससुरी....के दिक्कत सै?"...
"ना शर्मा जी!...ना....अब तो बेशक धरती इधर की उधर हो जाए....ये तनेजा...
ये तनेजा तो आपको पार्टी दे कर ही रहेगा"मैँ छाती ठोक गरजदार आवाज़ में बोला...
"अरे यार!...समझा कर".... "क्यों?...मेरा पैसा आपको हज़म नहीं होगा?"....
"नहीं!...ये बात नहीं है"...
"तो फिर आखिर दिक्कत क्या है?"....
"छोड़ ना!..क्यों बेकार में सौ-दो सौ फूँकता है...बचा के रख...आड़े वक्त काम आएँगे"...
"शर्मा जी!...बात को घुमाईए मत और सीधे-सीधे बताईए कि आप पार्टी लेंगे या नहीं?"...
"जा!...नहीं लूँगा...कर ले जो तुझे करना हो"...
"पार्टी तो आपके फरिशते भी लेंगे"मैँ आस्तीन ऊपर कर त्योरियाँ चढाता हुआ बोला...
"ठीक सै...तो फिर एक मिनट की भी देर ना कर"...
"जी"मैँ अपनी कामयाबी पे खुश होता हुआ बोला
"जा...सीधा ऊपर जा.....तेरी ही बाट देख रहे हैँ कई दिनों से"...
"कौन?"...
"मेरे फरिशते...और कौन?"...
"क्या?"...
"जा!...कई दिनों से तेरा ही इंतज़ार कर रहे हैँ"...
""कई दिनों से?"...
"हाँ!..कई दिनों से"...
"वो भला क्यूँ?"...
"स्वर्ग में कई दिनों से अच्छा भोजन ना मिलने के कारण भूख हड़ताल करे बैठे हैँ"...
"सच में?"...
"हाँ!...जा के उन्हें ही दे दे अपनी पार्टी"...
"आप मज़ाक कर रहे हैँ ना?"...
"ओर नय्यी ते के मैँ तन्ने सीरियस दीख रेया सूँ?"...
"ओह!...फिर ठीक है"...
"अब फटाफट गोली हो ले यहाँ से"...
"शर्मा जी!...मान जाइए ना...प्लीज़"...
"कह दिया ना एक बार कि नहीं चाहिए मुझे तेरी ये पार्टी-शार्टी"...
"वो तो आपको लेनी ही पड़ेगी"...
"बेटे!...समझा कर....ज़िद ना कर"..
"क्या समझूँ?...कैसे समझूँ?...और क्यों समझूँ?"....
"एक बार जो ठान लिया...सो ठान लिया"...
"पार्टी देनी है...तो हर हाल में देनी है"...
"अरे!...अजीब पागलपन है....मुझे अगर नहीं लेनी है...तो किसी भी कीमत पर नहीं लेनी है"...
"वो तो आपको लेनी पड़ेगी"मैँ बच्चों की तरह ज़िद पे अड़ा रहा...
"ना!...बिलकुल ना"...
"शर्मा जी!...आप मेरे साथ ज़्यादती कर रहे हैँ"...
"कुछ भी समझ ले"...
"ना!..मैँ तो नहीं मानने वाला....पार्टी तो आपको लेनी ही पड़ेगी"...
"कोई ज़बरदस्ती है?"....
"यही समझ लीजिए"...
"ओफ्फो!...कह दिया ना एक बार कि नहीं लूँगा..नहीं लूँग़ा...नहीं लूँगा"...
"आखिर आपको दिक्कत क्या है?....परेशानी क्या है?"...
"अरे!....जो कँगला पैट्रोल तक के पैसे नहीं खर्च कर सकता...वो क्या खाक पार्टी देगा"... "किसने कहा आपसे कि मैँ पैट्रोल के पैसे नहीं खर्च कर सकता?"...
"कहना या सुनना किस से है?"...मुझे साफ-साफ दिखाई दे रहा है"....
"क्या दिखाई दे रहा है?"...
"यही कि पैसे खर्च करने की तेरी औकात नहीं है"...
"औकात पे मत जाइए...कहे देता हूँ"...
"जाऊँगा!....एक नहीं सौ बार जाऊँगा...कर ले...जो तुझे करना हो"....
"शर्मा जी!...आप शायद ठीक से जानते नहीं हैँ मुझे वर्ना...ऐसी बात करने से पहले सौ बार सोचते"...
"औकात तो मेरी इतनी है कि यहीं खड़े-खड़े मैँ आपको....
"अरे जा-जा!...तेरे जैसे छत्तीस आए और चले गए"...
"तू अपने ससुराल वालों के दम पे कूद रहा है ना?"....
"आने दे उन्हें भी मैदान ए जंग में...देखें कौन किसका पानी भरता है?"...
"तुझे और तेरे रिश्तेदारों को...सभी को अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम में से कौन कितने पानी में है"...
"आप मेरी सास को बार-बार बीच में क्यों ला रहे हैँ?"...
"और अगर औकात नहीं होती क्या मैँ ये नवां-नकोर स्कूटर खरीद के लाता?"मैँ लगभग रुआँसा होता हुआ बोला...
"पागल के बच्चे!...ध्यान से देख...ये 'स्कूटर' नहीं बल्कि 'स्कूटरी' है"...
"तेरा ये 'कबूतर' ....'कबूतर' नहीं बल्कि 'कबूतरी' है.....हा...हा...हा...हा"....
"शर्मा जी!...आप बड़े है...बुज़ुर्ग हैँ लेकिन इसका मतलब ये नहीं हो जाता कि आप अपने से छोटॉं की भावनाओं से खिलवाड़ करें"....
"अपने होश औ हवास पे काबू रखें और जब तक...जहाँ तक सम्भव हो सके...मेरा मज़ाक ना उड़ाएँ...प्लीज़"...
"अरे भय्यी!...किसने कहा तुमसे कि मैँ तुम्हारा मज़ाक उड़ा रहा हूँ?"...
"ये मज़ाक नहीं तो और क्या है? कि आप मेरे अच्छे भले किंग साईज़ के 'स्कूटर' को 'स्कूटरी' बता उसके साथ-साथ मुझे भी नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैँ"....
"अरे भाई!...मैँ किसी की तौहीन नहीं कर रहा हूँ और ना ही मेरा ऐसा कोई इरादा है"...
"झूठ!...बिलकुल झूठ"...
"ओफ्फो!..कैसे विश्वास दिलाऊँ तुम्हें?"...
"मेरे सर पे हाथ रख कर कसम खाएँ कि जो कुछ कह रहे हैँ...सच कह रहे हैँ और सच के सिवा कुछ भी नहीं कह रहे हैँ"....
"हाँ भय्यी!...सच कह रहा हूँ...तुम्हारी कसम"...
"तो आपका मतलब ये 'स्कूटर' नहीं है"...
"बिलकुल"...
"तो फिर आपके हिसाब से 'स्कूटर' किसे कहते हैँ?"...
"'स्कूटर' उसे कहते हैँ जो पैट्रोल से चलता है और आपका ये तो छकड़ा पैट्रोल से नहीं बल्कि 'बैट्री' से चलता है ना?"...
"बैट्री से चलता है तो इसका मतलब ये 'स्कूटर' ना हो कर 'स्कूटरी' हो गया?"...
"बिलकुल"...
"ये आपसे किस गधे ने कह दिया?"...
"कहना किसने है?...मुझे खुद पता है"....
"शर्मा जी!...मेरे साथ...ये दोगला...ये सौतेला व्यवहार सिर्फ इसलिए ना कि....
- ये कीमत में कम है...
- सरकार इस पर सबसिडी दे रही है...
- ये शोर नहीं करता...
- प्रदूशन नहीं फैलाता...
- बिना किक के स्टार्ट हो जाता है?...वगैरा....वगैरा"...
"ये सब मुझे नहीं पता"...
"तो फिर क्या पता है आपको?"...
"यही कि ये स्कूटर नहीं है"...
"अच्छा चल...अगर तुझे मेरी बात पे विश्वास नहीं है तो राह चलते किसी भी ऐरे-गैरे को रोक के पूछ ले कि ये 'स्कूटर' है के 'स्कूटरी'?"...
"शर्मा जी!...अभी मेरा वक्त इतना गया-बीता नहीं हुआ है किसी ऐरे-गैरे...नत्थू-खैरे से राय लेने की नौबत पड़ जाए मुझे"...
"वैसे आप ये बताने की कृपा करेंगे कि किस ऐगल से ये आपको 'स्कूटरी' दिखाई दे रही है?"...
"तो तुझे ही ये कौन से कोण से 'स्कूटर' दिखाई दे रहा है?"...
"ये देखिए!...हाँ-हाँ इसी ऐंगल से"मैँ लगभग ज़मीन पे लेट उन्हें ऐंगल समझाता हुआ बोला....
"दिखा ना?"...
"क्या?"...
"यही कि लम्बाई...चौड़ाई और मोटाई के हिसाब से ये किसी भी 'स्कूटर' से कम नहीं है"...
"सिर्फ लम्बाई...चौड़ाई और मोटाई से क्या होता है?"...
"क्यों?...होता क्यों नहीं है...बहुत कुछ होता है"....
"ओ.के!...ओ.के बाबा...तुमसे बहस में कोई नहीं जीत सकता"....
"आई.एम सॉरी....माफ कर दो मुझे"...
"वो किसलिए?"...
"कि मैँने तुमसे पंगा मोल लिया"...
"शर्मा जी!...कमाल करते हैँ आप भी"....
"आप मेरे बुज़ुर्ग हैँ...संगी-साथी हैँ....इतना तो आपका हक बनता ही है"...
"थैंक्स...कि तुमने मुझे इस लायक समझा"...
"चलो!...बात तो खत्म हुई"...
"वैसे भी क्या फर्क पड़ता है?...स्कूटर हो या स्कूटरी...दोनों एक समान"...
"अरे वाह!...फर्क क्यों नहीं पड़ता...ज़मीन और आसमान का फर्क पड़ता है"...
"क्या फर्क पड़ता है?"...
"आपको मैँ अगर मर्द के बजाए औरत कह कर पुकारूँ तो आपको बुरा लगेगा या नहीं?"...
"ज़रूर लगेगा"...
"बस इसीलिए मुझे भी लग रहा है"...
"मतलब?"...
"आप मेरे जवाँ मर्द स्कूटर को ज़बर्दस्ती 'स्कूटरी' कह स्त्री साबित करने पर तुले हैँ तो मेरा बुरा मानना जायज़ ही तो है"...
"लेकिन स्कूटर और स्कूटरी की बहस के बीच में ये मर्द और औरत कैसे आ गए?"... "वो ऐसे कि स्कूटर मर्द होता है और स्कूटरी स्त्री"...
"मतलब?"...
"मतलब कि स्कूटर चलता है...इसलिए वो मर्द है"...
"और स्कूटरी चलती है...इसलिए वो औरत हो गई?"...
"जी"...
"वाह!...क्या लॉजिक है"...
"तुम्हारा मतलब मोटर साईकिल और कार दोनों चलती है तो इसका मतलब ये दोनों स्त्रियों की श्रेणी में आएँगी?"...
"यकीनन"...
और ऑटो मर्द की श्रेणी में?"...
"जी!...सही पहचाना आपने"...
"जैसे 'बस' चलती है और 'ट्रक' चलता है?"...
"बिलकुल"...
"इसका मतलब तो रेलगाड़ी औरत है और हवाई जहाज़ मर्द"...
"जी बिलकुल"..
"लेकिन एक कंफ्यूज़न है?"...
"क्या?"...
"यही कि 'बुलेट' तो सबसे शक्तिशाली बाईक है ना?"...
"जी"...
"तो वो तो मर्द ही कहलाएगी ना?"....
"जी नहीं...'बुलेट' भी स्त्री ही कहलाएगी"...
"लेकिन वो तो सबसे शक्तिशाली....
"ऐसे तो 'हिडिम्बा' भी बहुत शक्तिशाली थी...लेकिन वो राक्षसी थी...राक्षस नहीं"...
"कम्पनी खुद अपने प्रचार में कहती है कि जब 'बुलेट' चले तो दुनिया रास्ता दे"...
"जी"...
"तो इसका मतलब एक औरत के लिए....
"जी!...ये तो यहाँ की रीत है"...
"मतलब?"....
"इसे कहते हैँ अपनी परंपराओं से जुड़े रहना"...
"?...?...?....?"...
"?...?...?....?"... "?...?...?....?"... "?...?...?....?"...
"हम महान भारत देश के वासी हैँ...हमारे यहाँ सदियों से स्त्रियों का सम्मान किया जाता रहा है...अभी भी किया जाता है और हमेशा किया जाता रहेगा"...
"जी!...ये बात तो है"...
"तो अब आपकी तसल्ली हो गई ना कि....
"हाँ भय्यी...हो गई...पूरी तसल्ली हो गई कि ये 'स्कूटरी' नहीं बल्कि 'स्कूटर' है"...
"जी"...
"लेकिन स्पीड?.....स्पीड का क्या?...वो तो इसकी बहुत ही कम....
"जी!...20 से 25 किलोमीटर प्रति घंटे की है"मेरा मायूस स्वर...
"यही इसकी सबसे बड़ी कमई है"...
"हाँ!....लेकिन अगर आप रफ्तार से समझौता कर सकते हैँ तो बाकी सब चीज़ों में इसका कोई सानी नहीं"...
"अरे हाँ शर्मा जी!...स्पीड से याद आया कि वो कमाल...वो चमत्कार तो स्पीड को लेकर ही था"...
"ओह!...इसका मतलब बातों-बातों में हम असली...मुद्दे की बात तो भूल ही गए"...
"जी"...
"हाँ!...अब बताओ कि क्या हुआ था?"...
"जैसा कि मैँ आपको बता रहा था कि...
"क्या तुम्हारी ये स्कूटरी...ऊप्स सॉरी स्कूटर...25 की स्पीड से ज़्यादा तेज़ भाग गया?"...
"आप तो अंतरयामी है...आपको कैसे पता चला?"...
"अभी तुमने ही तो कहा कि मैँ अंतरयामी हूँ"...
"शर्मा जी!...मज़ाक छोड़िए और सीरियसली बताईए ना कि आपको कैसे पता चला?"....
"अरे यार!...अभी तुमने ही तो कहा"...
"तो?"...
"भय्यी!...तुम स्पीड के साथ चमत्कार की बात कर रहे थे तो मैँने अन्दाज़ा लगाया कि ज़रूर इसकी गति तेज़ हो गई होगी"...
"जी...बिलकुल सही अन्दाज़ा लगाया आपने"...
"अब मुझे शुरू से...वर्ड टू वर्ड बताओ कि कैसे ये चमत्कार घटित हुआ?"...
"अब क्या चमत्कार हुआ?...ये तो मैँने आपको बता दिया लेकिन कैसे चमत्कार हुआ?...इस रहस्य से मैँ बिलकुल अनजान हूँ"...
"ठीक है!...आगे बोलो"...
"दरअसल!...हुआ क्या कि दूसरों कि देखा-देखी...खुशी-खुशी से चाव-चाव में मैँने इसे ले तो लिया लेकिन फिर इसकी मरियल स्पीड देख के जल्द ही दुखी हो परेशान भी हो गया"...
"ओह!...फिर?"...
"शर्मा जी!...मेरा दिल ही जानता है कि पिछले दो दिनों में इसकी स्पीड को तेज़ करने के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए मैँने?"...
"मन्दिर...मस्जिद और गुरूद्वारे से लेकर चर्च तक मैँ कहाँ-कहाँ नहीं भटका?...
"तो?"...
"कोई मकैनिक...कोई कारीगर...कोई वर्कशाप नहीं छोड़ी मैँने"...
"ओह!...फिर?"...
""नतीजा वही ढाक के तीन पात"...
"मतलब?"...
"सारे क्रिया-क्रम फेल हो गए..
"दुखी हो कई बार इतना गुस्सा आया कि इसे ले जा के सीधा शो-रूम वाले के वहीं पटक आऊँ कि ले!...सम्भाल अपना टीन-टब्बर"....
"एक-दो बार तो बड़े उलटे-उलटे ख्यालात दिल में उमड़ने लगे"...
"वो क्या?"...
"यही कि इसे दियासलाई दिखा इसके साथ मैँ खुद भी सती हो जाऊँ"...
"बाप रे!...ऐसा गज़ब किसलिए भय्यी?"...
"ताकि ना रहे बाँस और ना ही बजे बाँसुरी"...
"शांत राजीव...शांत....आवेश में आने से कुछ नहीं होगा"...
"कमाल करते हैँ शर्मा जी आप भी...जिस संग बीतती है ना..वहीं जानता है...आपका क्या है...आप ठहरे मस्तमौला इनसान"...
"कई बार तो दिल में आया कि किसी अँन्धे कुएँ में कूद कर अपनी जान दे दूँ"...
"राजीव!...जैसे हर जोड़ का कोई ना कोई तोड़ अवश्य होता है...ठीक वैसे ही इस समस्या का भी कोई ना कोई हल ज़रूर होगा"...
"पागल हो गए हो क्या तुम?"....
"कुछ और सोचो.....आत्महत्या जैसी कायराना हरकत तुम्हें शोभा नहीं देती".....
"जी"....
"अच्छा!...फिर क्या हुआ?"...
"कई बार सोचा कि अच्छे-भले...शरीफ और नेक नीयत इनसान को बरगलाने और फुसलाने का केस कम्पनी वालों के खिलाफ डाल दूँ"...
"गुड"....
"फिर सोचा कि लगे हाथ मानहानि का केस भी डाल दूँ"...
"ये तो सोने पे सुहागे वाली बात हो गई"...
"वकील ने तो तब भी लेने हैँ और तभी भी लेने हैँ"...
"जी"...
"मैँने सोचा कि जब एक साथ दो-दो कैसों का सामना करेगा...तब पता चलेगा बच्चू को...
"ये बच्चू कौन?"...
"शो-रूम का मैनेजर...'बच्चू सिंह यादव' और कौन?"...
"हुँह!...बड़ा दावा ठोक के कहता फिरता था कि पूरे 120 किलो वज़न झेल सकता है हमारा स्कूटर"...
"अरे!...झेल तो मैँ रहा हूँ इसे पिछले चार दिनों से"....
"तो क्या 120 किलो वज़न भी....
"शर्मा जी!...आप तो जानते ही हैँ कि मेरा वज़न पूरे 100 किलो है...ना एक ग्राम ज़्यादा..ना एक ग्राम कम"...
"जी!...पिछले हफ्ते ही तो बताया था आपने"...
"मैँने सोचा कि जब कम्पनी वाले 120 किलो बता रहे हैँ तो 25-30 किलो अगर ज़्यादा भी हो गया तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला"...
"जी!...ये ट्रक-टैम्पो और रिक्शा वाले भी तो ओवरलोडिंग करते ही हैँ आखिर"...
"जी!...और मैँ कौन सा उस मुटल्ली को रोज़-रोज़ लिफ्ट देने वाला था"...
"तो?"...
"तो क्या?...बेइज़्ज़ती करवा दी पट्ठे ने....बीच सड़क के ही टैं बोल गया"...
"ओह!...ये तो बहुत इंसल्ट वाली बात है"...
"जी!...मेरा तो शर्म के मारे सर ऐसा नीचा हुआ कि बस पूछिए मत"...
"ओह!....
"अच्छा फिर?"...
"फिर मैँने सोचा कि इम्पोर्टेड टैक्नोलॉजी है.....इसका मतलब वज़न ऐकूरेट और परफैक्ट होना चाहिए...ना एक ग्राम कम...ना एक ग्राम ज़्यादा"...
"हम्म!......
"जैसा कि आप जानते हैँ कि मेरा वज़न ....
"पूरे 100 किलो है"...
"जी"....
"तो?"...
"तो मैँने सोचा कि जब फालतू वज़न नहीं लाद सकते तो मैँ कम भी क्यों लादूं?"...
"बिलकुल!...उसूल तो उसूल है"...
"जी"...
"अच्छा फिर?"...
"फिर क्या?...मैँने सड़क से तीन-चार ईंटे उठाई और उन्हें पिछली सीट पे लाद चल पड़ा अपने काम की तरफ"...
"ठीक किया आपने"...
"अजी!...क्या खाक ठीक किया?"..
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"ईंटों को बाँधना तो मैँ भूल ही गया था"...
"ओह!...फिर?"...
"कोई यहाँ गिरी...कोई वहाँ गिरी"...
"ओह!...फिर तो ईंटों को इकट्ठा करने में बहुत मुश्किल हुई होगी"...
"मुश्किल?...ईंटों को सम्भालने के चक्कर में तो मैँ तीन बार खुद ठुकते-ठुकते बचा"...
"ओह!....फिर?"...
"फिर क्या?...ईंटो का आईडिया ड्राप कर मैँने कबाड़ी से 20 किलो का बाट खरीदा और उसे आज़माया"...
"गुड!...अच्छा किया आपने"...
"अजी!..क्या खाक अच्छा किया?...अच्छा तो तब होता जब मेरी ये मेहनत...ये मशक्कत रंग लाती"....
"इतनी मेहनत...इतनी पल्लेदारी के बाद भी नतीजा एकदम सिफर"...
"ओह!...आगे बताईए कि फिर क्या हुआ?"शर्मा जी इंटरैस्ट लेते हुए बोले
"मैँने खूब दिमाग लगा के नए--पुराने ..सभी तरह के जुगाड़ आज़माए लेकिन किस्मत ही अगर खराब हो तो कोई क्या कर सकता है?"...
"आखिर हुआ क्या?"...
"होना क्या था?...मेरी हर तरकीब फेल पर फेल होती जा रही थी"...
"मैँ परेशान हो सोच में डूबा ही हुआ था कि ध्यान आया.....
"क्या ध्यान आया?"...
"यही कि पिछले महीने शादियों का सीज़न था"...
"तो?"...
"आप तो जानते ही हैँ कि शादियों और पार्टियों में फाल्तू का कितना खाना-पीना हो जाता है"...
"जी"....
"मैँ कॉपी-पैन और कैल्कूलेटर ले के हिसाब लगाने में जुट गया कि कहीं इन शादियों और पार्टियों के चक्कर में मेरा वज़न....
"तो?"...
"वही हुआ...जिसका मुझे डर था"...
"यू मीन!...आपका वज़न?"...
"जी!...वज़न पूरे 4 किलो बढकर मुझे वॉलीबॉल से फुटबॉल में तब्दील कर चुका था"...
"यू मीन!....100 से 104 किलो हो चुका था"...
"जी"...
"ओह!...वैरी क्रिटिकल सिचुएशन"...
"खैर!...मैँने भी दिमाग लड़ाया और इसका भी हल ढूँढ निकाला"...
"वज़न कम करने का?"...
"कुछ-कुछ"...
"वो कैसे?"...
"मैँने सोचा कि अब ये डायटिंग-शायटिंग तो अपने बस की है नहीं...तो जुगाड़ से ही काम लेना होगा"...
"अच्छा फिर?"..
"मैँने महसूस किया कि मेरे जूते ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही भारी थे"...
"ओह!....फिर?"...
"फिर क्या?...मैँने जूते उतारे और नंगे पाँव ही चल दिया अपने गोदाम की तरफ"...
"पैदल?"...
"बावले हो क्या?...अपनी ...खुद की सवारी के होते हुए मैँ भला पैदल क्यों चलने लगा?"...
"जी"...
"और वैसे भी मुझे स्कूटर की स्पीड बढानी थी...ना कि खुद की"
"तो क्या स्पीड में कुछ इज़ाफा हुआ?"...
"इज़ाफा तो नहीं लेकिन हाँ!...मेरे पैरों में तीन-चार छाले और पाँच-छै...छोटे-बड़े कंकड़ ज़रूर चुभ गए"...
"ओह!...
"जब मैँने देखा कि जूते उतारने से भी कुछ फर्क नहीं पड़ा तो मैँने दिलेरी से काम लेते हुए एक अनोखा प्लैन बनाया"...
"तो क्या आपने कपड़े....
"आप तो अंतरयामी है प्रभु...आपने कैसे जान लिया?"...
"कमाल है!...खुद ही अंतरयामी कहते हो और फिर खुद ही प्रश्न पूछते हो"...
"अच्छा!...आगे बताओ कि फिर क्या हुआ?"...
"क्या दिन में ही?"...
"छी!...छी-छी....कैसी बातें करते हैँ शर्मा जी आप भी?"....
"क्या मैँ इतना निर्लज्ज और बेशर्म हो सकता हूँ कि अपनी इज़्ज़त-आबरू की परवाह किए बिना दिन में ही?"...
"तो क्या फिर रात में?"...
"शर्मा जी!...यू ऑर जीनियस"...
"सही पहचाना आपने"...
"तो फिर कितने बजे?"...
"यही कोई दो या सवा दो का वक्त था....सुहानी चाँदनी रात थी....मस्त हवा मंद-मंद बह रही थी"....
"जी"...
"ऐसे में मैँने अपने सब कपड़े उतारे......
"हाय राम!...तो क्या कुछ भी नहीं?"...
"शर्मा जी!...क्या आपने मुझे इतना निर्लज्ज...बेशर्म और बेहय्या समझ रखा है कि...मैँ बिना कुछ पहने ही रात-बेरात सड़कों पे उछल-कूद मचाता फिरूँ?"..
"तो क्या?"...
"जी!...सही पहचाना आपने...मैँने V.I.P की लाल रंग की छोटी वाली फ्रैंची पहनी हुई थी"...
"ये देखिए!...अभी भी पहनी हुई है"...
"अच्छा फिर?"...
"फिर क्या?"...
"लेना एक ना देना दो....स्साले!....बीच में रस्ता रोक के खड़े हो गए"...
"कौन?"..
"पुलिस वाले?"...
"अरे!...अगर पुलिस वाले होते तो मैँ कुछ ले-दे के उनसे सुलट भी लेता"...
"तो फिर कौन?"...
"शर्मा जी!...एक राज़ की बात बताऊँ?"...
"जी!...ज़रूर बताईए...एक क्या?...दो बताईए"...
"किसी से कहिएगा नहीं"...
"सवाल ही नहीं पैदा होता"...
"आप बेधड़क और बेचिंत हो के बताईए"...
"उस वक्त मेरे पास उस लाल रंग की फ्रैंची के अलावा और कुछ भी नहीं था"...
"ही...ही...ही...ही"...
"ये तो लाख-लाख शुक्र है ऊपरवाले का कि उसने उस दिन मेरी लाज बचा ली...वर्ना वो पुलिस वाले"...
"बाप रे बाप"...
"जी!...अब तो बच के रहना पड़ेगा इनसे...हाई कोर्ट ने जो आथोराईज़ कर दिया है ये सब"...
"जी!...इसी बात का तो डर था मुझे लेकिन वो कह्ते हैँ ना कि "जाको राखे साईयाँ...मार सके ना कोय"...
"जी!...
"आपने बताया नहीं कि उस रात आपका रस्ता रोक के कौन कम्बख्त खड़ा हो गया था"...
"जनाब!...अपनी भूल सुधारिए औरे रस्ता रोक के खड़ा हो गया के बजाय रस्ता रोक के खड़े हो गए थे..कहिए"...
"तो क्या?...कई सारे थे"...
"जी!...पूरे पाँच मुस्टण्डे थे...पूरे पाँच"...
"यही तो सबसे कमी है हमारे शहर की...गुण्डे रात भर मज़े से मटरगश्ती करते फिरते हैँ और पुलिस मज़े से अपने दड़बे में बेफिक्र हो सोई रहती है"...
"अजी गुण्डे कहाँ?....वो तो.....
"तो क्या कोई गैंगस्टर वगैरा?"...
"अजी!...गैंगस्टर वगैरा तो सारे अपनी-अपनी नौकरानियों से ब्लात्कार करने के जुर्म में जेल की सलाखों के पीछे सड़ रहे हैँ"...
"कमाल है!...पुलिस भी नहीं...गुण्डे-मवाली भी नहीं...यहाँ तक की गैंगस्टर वगैरा भी नहीं....तो फिर ऐसी कौन सी आफत आ गई हमारे शहर में?"...
"स्सालों ने!...भौंक-भौक के मेरा सड़क पे चलना हराम कर दिया था"...
"ओह!....फिर?"...
"फिर क्या?...उनके डर के मारे...ये आईडिया भी ड्राप करना पड़ा...सर जी"...
"फिर क्या हुआ?"...
"हर तरफ से निराश होने के बाद मैँने उस ऊपरवाले..परवरदिगार का हाथ थामा कि...
"हे पालनहार!...अब तू ही मेरी मदद कर....मुझे बचा....मेरी डूबती नैय्या को पार लगा"...
"तो?"...
"तो क्या?....भगवान ने मेरा रुदन...मेरा क्रंदन...मेरी आह...मेरी पुकार सुन ली और चमत्कार दिखा दिया"...
"तो क्या स्पीड?"....
"जी बिलकुल"...
"मुझे विश्वास नहीं हो रहा"...
"अरे!...हाथ कँगन को आरसी क्या? और पढे लिखे को फारसी क्या?"...
"आप खुद ही चला के देख लें"...
"अरे यार!..मुझे कहाँ आता है ये स्कूटर-शकूटर चलाना?"...
"तो फिर सीख लो"...
"इस उम्र में?"...
"क्या दिक्कत है?"..
"ना...बाबा ना....मेरा इरादा अपनी हड्डी-पसली एक करवाने का नहीं है"...
"तुम मुझे पूरी बात बताओ कि क्या हुआ और कैसे हुआ?"...
"कैसे-क्या होना है?...मैँ रोज़ाना की तरह आज भी उस रायचन्द के बच्चे को कोसता हुआ अपने काम पे जा रहा था"...
"अब ये कौन सा राय चन्द बीच में आ के टपक पड़ा?"...
"वही!...जिसने मुझे ये डिब्बा खरीदने की सलाह थी थी"...
"अच्छा!...फिर?"...
"पूरे रस्ते मैँ भगवान से प्रार्थना करता जा रहा था कि...हे भगवान...किसी तरह इस टट्टू की स्पीड बढा दे...किसी भी तरह इसकी स्पीड बढा दे"...
"पूरे इक्यावन का प्रसाद चढाऊँगा"...
"फिर?"...
"फिर क्या?...भगवान ने मुझे साक्षात दर्शन दे दिए"...
"साक्षात?"...
"जी!...बिलकुल साक्षात...फेस टू फेस दर्शन"...
"मुझे विश्वास नहीं हो रहा...पूरी बात बताओ"..
"दरअसल हुआ क्या?..कि मैँ तो मन ही मन ऊपरवाले से प्रार्थना करता हुआ जा रहा था कि इतने में देखता हूँ कि एक सरदार जी बीच सड़क के इशारा कर मुझसे लिफ्ट माँग रहा है"....
"इस छकड़े पे लिफ्ट?"...
"जी"...
"विश्वास नहीं होता"....
"पहले-पहले तो मुझे भी विश्वास नहीं हुआ कि क्या कोई इतना सनकी और पागल भी हो सकता है जो इस...इस पे लिफ्ट मांगे"मैँ अपने स्कूटर की तरफ इशारा करता हुआ बोला...
"फिर?"...
"मुझे लगा कि शायद मुझे ही धोखा हो रहा है....मैँने अपनी मिचमिचाती हुई आँखों को पूरे जत्न से खोल के देखा तो पाया सब सच था"...
"मतलब...वो सरदार जी तुम्हें ही लिफ्ट देने के लिए इशारा कर रहा था"...
"जी हाँ!...मुझे ही"...
"अच्छा फिर?"...
"पहले तो मेरे जी में आया कि उसे कस के डांट लगा दूँ...फिर जाने क्या सोच के मैँने उसे लिफ्ट दे दी"...
"चैक करो!...कहीं कोई अंजर-पंजर तो ढीला नहीं हो गया इसका?"...
"अब तो ऊपरवाला ही मालिक है तुम्हारे इस....
"शर्मा जी!...हमेशा ऊपरवाला ही हर चीज़ का मालिक होता है...ये तो हम और आप व्यर्थ में गुमान पाल लेते हैँ कि ये मेरा है और वो मेरा है"...
"जी!...ये तो है"...
"ऊपरवाला तो जब जाहे...जिस किसी की भी छप्पर फाड़ झोली भर दे और जब चाहे किसी की भी बनी-बनाई बिलडिंगे गिरा उसे फुटपाथ पे ला दे"...
"जी!...उसका कोई मुकाबला नहीं....उसकी महिमा अपरम्पार है"...
"जी बिलकुल"...
"आगे क्या हुआ?"...
"मैँने ना चाहते हुए उसे लिफ्ट दे तो दी लेकिन अब मेरा दिल अन्दर ही अन्दर धुक्क-धुक्क करे कि बेटा राजीव!...तू तो गया काम से"...
"अच्छा...फिर?"...
"मैँ मन ही मन मैँ उस घड़ी को कोस रहा था जब मैँने उस सरदार के चक्कर में ब्रेक लगाए थे कि अचानक चमत्कार हो गया"....
"तो क्या स्पीड?"...
"जी!...बिलकुल"...
"मेरा जो स्कूटर 25 की स्पीड पर ही साँस फुला हाँफने लगता था...वो हवा से बातें कर रहा था"...
"क्या बात कर रहे हो?"...
"तुम्हें धोखा हुआ होगा"...
"शर्मा जी!...धोखा एक बार हो सकता है...दो बार हो सकता है...दस बार नहीं"...
"मैँने कम से कम दस बार अपनी इन्हीं आँखों से चैक किया....स्पीड वास्तव में 35 के पार थी"...
"अरे वाह!...फिर तो मज़े हो गए तुम्हारे"...
"अजी मज़े कहाँ?...तीर्व गति पे स्कूटर दौड़ाने के मज़े मैँ ले ही रहा था कि अचानक बीच में टांग अड़ाते हुए उस सरदार के बच्चे ने....ऊप्स सॉरी ...संत-महात्मा जी ने मुझे रुकने का इशारा किया"...
"फिर?"...
"फिर क्या?...उसके जाते ही स्पीड भी टांय-टांय-फिस्स.....वापिस वही अपने पुराने ढर्रे पे"...
"याने के 25 की स्पीड पे?"...
"जी"..
"ओह!...ये तो बहुत बुरा हुआ"...
"जी"...
"ज़रूर कोई पुण्य आत्मा रही होगी"...
"कोई ज़रूरी नहीं...आम इनसान भी हो सकता है"...
"लेकिन आम इनसान में इतनी ताकत कि वो.....
"यार!...तुम्हारा स्कूटर बिजली से चार्ज होता है ना?"...
"जी!.."...
"और ये भी तुमने सुना होगा कि इनसानों के अन्दर भी बिजली का थोड़ा-बहुत करैंट होता है"...
"जी!...सुना क्या?...मैँने तो खुद महसूस किया है"...
"मेरी अपनी...सगी बीवी खुद करैंट मारती है"...
"कब?"...
"जब मैँ उसकी मर्ज़ी के बिना उसके नज़दीक जाता हूँ"...
"अरे यार!...वैसे तो मेरी बीवी भी करैंट मारती है और सच कहूँ तो उसकी मारक क्षमता इतनी तेज़ है कि मैँ कई-कई हफ्ते उसके धोरे(नज़दीक) नहीं लगता"...
"क्या बात करते हैँ शर्मा जी?"...
"हो ही नहीं सकता"....
"क्या नहीं हो सकता?"...
"मेरा ओपन चैलेंज है आपको कि मेरी बीवी...आपकी बीवी से ज़्यादा तेज़ और असरदार करैंट मारती है"...
"ना...बिलकुल ना"...
"आपको अगर विश्वास नहीं है तो बेशक कभी भी आज़मा के देख लें"....
"तो फिर सोमवार ठीक रहेगा?"...
"किसलिए?"....
"करैंट चैक करने के लिए"...
"जी बिलकुल!...सोमवार को तो मैँ भी फ्री होता हूँ"...
"पक्का?"...
"बिलकुल पक्का"...
"मुकर तो नहीं जाओगे?"...
"शर्मा जी!...आपसे मैँने पहले भी कहा था और अब भी कह रहा हूँ कि पहले पहल तो मैँ किसी को हाँ नहीं करता और...
"और अगर गलती से हाँ कर दिया तो फिर भूल के भी कभी ना नहीं करता"...
"जी बिलकुल"...
"तो अपनी बात पे डटे रहिएगा"...
"ये भी कोई कहने की बात है?"...
"ओ.के"..
"तो फिर सोमवार को मिलते हैँ"...
"जी ज़रूर"...
"लेकिन वो सरदार जी वाली बात तो बीच में ही रह गई"...
"अरे यार!...सिम्पल सी बात है...सरदार भी करैंट मारता होगा"....
"ओह!...
"उसी की विद्धुतीय तरंगों की वजह से तुम्हारे स्कूटर की स्पीड बढ गई होगी"...
"हम्म!...यही हुआ होगा"...
"वैसे वो सरदार...तुम्हें मिला कहाँ था?"....
"ब्रिटेनिया के नए वाले पुल के ऊपर"....
"और तुमने उसे छोड़ा कहाँ था?"....
"छोड़ना कहाँ था?...ढलान उतरते ही उसने मुझे कहा कि...बस यही रोक दो"...
"बेवाकूफ!...ये बात पहले नहीं बता सकता था"....
"आप ही ने तो कहा था कि सारी बात सिलसिलेवार ढंग से एक-एक कर के बताऊँ"....
"ओ.के"...
"इसीलिए तो मैँने अपनी बात स्कूटर से शुरू की थी"...
"अच्छा शर्मा जी!...ज़रूरी काम है....मैँ चलता हूँ"...
"कहीं देर ना हो जाए"...
"कहाँ जाना है?"...
"उसी पुल की तरफ...क्या पता फिर मुलाकात हो जाए और पुन: चमत्कार हो जाए"...
"उफ!...तौबा...
"बेवाकूफ के बच्चे!....अभी तक तेरे भेजे में बात नहीं घुसी की कि ऊँचाई से नीचे आते वक्त गाड़ी की स्पीड अपने आप तेज़ हो जाती है"...
"ओह!...लेकिन वो चमत्कार...
"धन्य है तू....और तेरा चमत्कार"...
"ले...देख....तेरे चमत्कार को दण्डवत हो के नमस्कार करता हूँ"....
"अब खुश"....
"जी...बहुत"...
***राजीव तनेजा***
नोट:इस कहानी को लिखने का आईडिया मुझे तब आया जब एक सरदार जी ने मुझसे मेरी 'स्कूटरी'...ऊप्स सॉरी 'स्कूटर' पर लिफ्ट माँगी
Rajiv Taneja
http://hansteraho.blogspot.com
rajivtaneja2004@gmail.com
+919810821361
+919213766753