मेरा खुला पत्र पं.डी.के.शर्मा "वत्स" उर्फ ‘बनवारी लाल’ के नाम
आदरणीय पंडित जी,प्रणाम
अभी कुछ घंटे पहले ही फोन पर आपसे सोहाद्रपूर्ण तरीके से बतियाने के बाद आपकी ये ताज़ी पोस्ट
बुद्धिमानों का सम्मेलन और बनवारी लाल जी की मन की पीडा अनायास ही पढ़ने को मिली …जान कर अच्छा लगा कि आप तो पूरे किस्सागो टाईप के होते जा रहे हैं…ठीक अपुन के जैसे ही…ज़रा सी बात का बतंगड कैसे बनाया जाता है?…ये भी आपसे सीखने को मिला …उम्मीद है कि मेरे इस पत्र के बाद आपको भी मुझ से काफी कुछ सीखने को मिलेगा|
चलिए!…पहले बात करते हैं आपकी उक्त पोस्ट की तो आपकी इस पोस्ट के नायक बनवारी लाल ने एक नहीं दो नहीं बल्कि कई बेवकूफियां एकसाथ …एक ही टाईम पे की की…
पहली बेवकूफी तो ये कि साफ़-साफ़ …एकदम क्लीयरकट पता होने के बावजूद कि दिल्ली में सिर्फ और सिर्फ बुद्धिमान व्यक्तियों का सम्मलेन हो रहा है और वहाँ बेवकूफों के लिए कोई जगह ही नहीं है…तो ऐसे हालात में मौके की नजाकत को समझते हुए उन्हें वहाँ जाने के बारे में सोचना ही नहीं चाहिए था और चलो…अगर सोच भी लिया तो उसे अमल मे नहीं लाना चाहिए था और अगर अमल मे लाना इतना ही ज़रुरी था कि उसके बिना चैन नहीं पड़ रहा था तो थोड़ी तो बुद्धिमत्ता दिखानी थी अपनी कम से कम कि अपने पल्ले से धेला रुपिय्या खर्च करने के बजाए किसी छकड़े वाले से या फिर किसी बैलगाडी वाले से चिरौरी कर मुफ्त में दिल्ली तक की यात्रा कर लेनी थी
चलो!…मान लिया कि उस समय काम का सीज़न और बिज़ी शैड्यूल होने की वजह कोई भी छकड़ा या बैलगाड़ी खाली नहीं थी…स्पेयर नहीं थी लेकिन दिमाग तो खाली नहीं था आपके उन तथाकथित बनवारी लाल जी का?…क्योंकि गोबर तो उसमें पहले से ही आलरेडी भरा हुआ था…थोड़ा गुड़ और डाल देते तो कुल मिला के पूरा गुड़-गोबर होने में कोई कसर बाकी नहीं रहती| पट्ठे को…ज़रा सी भी अक्ल होती तो उस समय इधर-उधर व्यर्थ में अपना पैसा धेला फूंकने के बाद आज इतने महीनों बाद पछताता तो नहीं…
आप तो उनके अपने थे…थे क्या?..हैं…आप ही उन्हें ये नेक राय दे देते कि…
“वत्स!…क्यों बेकार में ..उल-जलूल बंदों के लिए अपना मेहनत से…लोगों को पागल बना कमाया पैसा लुटाता है?…अक्ल से काम ले और ध्यान से देख…ये नैशनल हाइवे है और ठीक इसके बगल में ही ये फ्री-फंड का धोबीघाट खुला हुआ है…चुरा ले वहीँ से एक-आध तन्दुरस्त सा मोटा-ताज़ा गधा और किसी रण में हारे बांकुरे की भांति झट से छलांग लगा और फट से सवार हो जा उस मरदूद की घिन्नियाती पीठ पर|दो-चार…या ज्यादा से ज्यादा दस-बारह दुलत्तियाँ ही तो पड़ेंगी…उनसे ना घबरा क्योंकि गिरते हैं शहसवार ही मैदान ऐ जंग में”
अब आप अगर यहाँ अपनी दिन पर दिन कम होती बुद्धि से ये बेफिजूल का तर्क भी देना चाहें तो बेहिचक…बिना किसी संकोच के दे सकते हैं कि …
“इरादा तो मेरा भी यही था कि बनवारी लाल गधे पे बैठ के ही दिल्ली तक का सफर तय करे लेकिन इसमें डर यही था कि… देर ना हो जाए…कहीं देर ना हो जाए"…
“अरे!…अगर इतनी ही चिंता थी देर होनी की तो घर से हफ्ते-दो हफ्फ्ते पहले निकलना चाहिए था ना उस मरदूद को"…
आगे आप लिखते हैं कि… “आपके वो बनवारी लाल जी जैसे तैसे रास्ता खोजते-खोजते उस आयोजन स्थल तक पहुँच ही गए”
तो भाई मेरे!.…इत्ती ढेर सारी मगजमारी करने की ज़रूरत ही क्या थी भला?…माना कि आपका बनवारीलाल आला दर्जे का बेवाकूफ था लेकिन वो धोबीघाट का चुराया हुआ गधा तो कम से कम समझदार था ना? …उन्हें…उसे ही अपना हमजोली बना..अपनी मिचमिचा कर फड़फड़ाती हुई(चिपचिपी सी) बायीं आँख को ज़रा सा कष्ट देना था और काम ने देखते ही देखते अपने आप बनते चले जाना था|
“क्या हुआ?…नहीं समझे?…ऊपर से निकल गई बात?”…
“कोई बात नहीं…कोई बात नहीं….इसमें आपका तनिक भी कसूर नहीं…विनाश काल मे अक्सर विपरीत बुद्धि हावी हो जाती है"..
“अब भी नहीं समझे?”…
“अरे यार!…सिम्पल सी बात है…आपके उस बनवारी लाल जी ने उस मनमोहने गधे को हौले से आँख मारते हुए एक ज़रा सा…तनिक सा इशारा भर कर देना था कि वो बेचारा…उनके इस एहसान के बोझ का मारा …पल भर के लिए भी क्रोधित हुए बिना अपनी प्यार भरी मुस्कान के साथ उन्हें ऐसी धोबीपछाड़ दुलत्ती मारता कि वो शूं ssss करते हुए सीधा आसमान में कई गोते लगाने के बाद सीधा दिल्ली में हो रहे उस तथाकथित गोल मेज़ सम्मलेन की उस बड़ी सी ही टेबल पर सर पटकते हुए आराम से धूम-धडाम कर चुपचाप से लैंड कर जाते|
इसके बाद कई-छोटी-छोटी बातों के बाद जैसा आपने बताया कि…
थोडी देर बाद सभा समाप्त हुई तो, आयोजकगण वहाँ उपस्थित सभी मेहमानों को भोजन का आग्रह करने लगे. बनवारी लाल जी तो पहले ही उनके स्नेहभाव से अभिभूत थे, चाहकर भी उनके द्वारा बारम्बार किए गए इस विनम्र आग्रह को टाल न सके.......और भोजन पश्चात आयोजकगण की शिष्टता, मिलनसारिता एवं सत्कारभावना से अभिभूत उन्होंने सभी सदस्यों सहित विदा ली..........
आपके अनुसार…अब यहाँ तक तो सब ठीक रहा.....किसी से कैसी भी कोई शिकायत नहीं लेकिन सम्मेलन के बहुत समय बाद की बात है कि एक दिन एक बुद्धिमान व्यक्ति उस सम्मेलन के औचित्य को लेकर कुछ सवाल खडे कर रहे थे तो भूलवश अपने बनवारी लाल जी का अचानक ही उधर को जाना हो गया और वहाँ प्रसंगवश उन्हे ये बात कहनी पडी कि…
"जी गलती से मैं भी उस सम्मेलन में उपस्थित था"..
यहाँ आपने कहा कि आपके बनवारीलाल जी भूलवश वहाँ चले गए थे तो ऐसा अगर सच में सही था तो उन्हें उसी वक्त अपनी भूल को सुधारते हुए बिना कुछ कहे चुपचाप वापिस लौट चले आना था जैसा कि कईयों ने किया होगा| वहीँ माथा टेक के उलटी जुगाली करने की ज़रूरत क्या थी उनको?
अब यहाँ आप तर्क दे सकते हैं कि…
“तो क्या हुआ?… मुफ्त का खा-पी कर और हकने-मूतने के बाद उलटी जुगाली करने की तो बहुतों की आदत होती है…अपने बनवारीलाल जी ने ऐसा किया तो क्या गलत किया?”..
आप बेशक अपनी बात से इतेफाक रखते हों लेकिन मुआफ कीजिये…मेरी नज़र में तो ऐसे घटिया और ओछे लोगों को तो सरे बाज़ार ऐसे ज़लील किया जाना चाहिए…ऐसे ज़लील किया जाना चाहिए कि उनकी आने वाली सात पुश्तें तक अपनी बेशर्मी से भरे इस किस्से को याद रखें और बतौर विरासत अपनी अगली पीढ़ी को फारवर्ड करती चलें
गुस्सा आ गया होगा आपके उस तथाकथित अशिष्ट, अभद्र व्यक्ति जो कि उस सम्मेलन मे भी शामिल था…अब जैसा बीज बोएंगे…वैसी फसल भी तो काटनी ही पड़ेगी ना?…क्यों?…है कि नहीं?…
अब आप ही बताइए कि …बोया पेड़ बबूल का तो फल कहाँ से होए?
गुस्से में कह बैठा होगा बेचारा कि…
" बनवारी लाल जी, आप सम्मेलन मे खाना तो बडे चपर-चपर कर खा रहे थे, अब आप अपने सम्मिलित होने को गलती बता रहे हैं"…
अब आपके बनवारी लाल जी ऐसा अंट-शंट बकेंगे तो जूते तो पडेंगे ही पड़ेंगे…क्यों?…है कि नहीं?” …..
खैर!…जो हुआ..सो हुआ…अब बीती बातों को बिसार कर आगे चलते हैं…और हाँ!…अब आगे की कहानी आप नहीं बल्कि मैं सुनाऊंगा क्योंकि या तो बनवारी लाल जी ने आपको पूरी बात नहीं बताई या फिर आप जानबूझकर एक अहम बात सबसे छिपा रहे हैं(शायद!…आपकी नीयत में खोट है)… कि सम्मलेन से विदा लेते वक्त आपके बनवारी लाल जी ने उसी तथाकथित ‘अभद्र’ एवं ‘अशिष्ट’ व्यक्ति के साथ…उसी की काली कार में …फर्राटे भरते हुए लक्ष्मीनगर से किंग्जवे कैम्प तक का सफर हंसी-खुशी से बतियाते हुए किया था..
हो सकता है कि मेरी इस बात को आप सिरे से ही नकार दें और अपनी सफाई में दो बातें रखें….
पहली तो ये कि…बनवारी लाल जी के पास तो उनकी…खुद की निजी सवारी…याने के एक बेजोड़ ‘गधा’ थी…उन्हें भला किसी की काली-पीली गाड़ी में बैठ फ़ोकट में इतराने की ज़रूरत क्या थी?…
तो इसके जवाब में आप चाहें तो सुदूर जर्मनी में बैठे अपने एक ब्लॉगर साथी से इस बात की तस्दीक भी करवा सकता हूँ कि आपके बनवारी लाल जी उस ‘अभद्र’ एवं ‘अशिष्ट’ व्यक्ति के साथ हंस-हंस कर बतिया रहे थे कि नहीं?
अब चलते हैं दूसरी बात की तरफ…तो दूसरी बात ये है कि समय बड़ा बलवान है…उसके आगे किसी का बस नहीं चलता है…दुर्भाग्य से किसी अनहोनी के चलते ये भी हो सकता है कि पल भर के लिए ही सही…आपकी मति अल्प समय के लिए किसी ना किसी कारण भ्रष्ट हो जाए आप सीधे-सीधे उस ‘अभद्र’ एवं ‘अशिष्ट’ व्यक्ति पर ही खुलेआम आरोप लगा दें कि वो खुद ही होक्के पे होक्का लगाए जा रहा था कि….
“आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा..आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा"…
“वन वे जाएंगे…फुल स्पीड जाएंगे…कहीं रुकेंगे ना हम"..
तो ऐसे बनवारी लाल क्या करते?…बैठ गए बेचारे फट से छलांग लगा कूदी मारते हुए गाड़ी में…इसमें उनकी गलती ही क्या है?
मेरे हिसाब से ये गलती नहीं…गलता है…
अब आप पूछेंगे कि…क्यों?”…
तो मेरा जवाब बस यही होगा कि…
“अरे!…अगर हांडी का मुंह खुला हुआ हो तो लार टपकाने वालों को तो कम से कम कुछ शर्म करनी चाहिए कि नहीं?
इसके बाद आपने कहा कि… “हालाँकि अपने बनवारी लाल जी इतनी हैसियत रखते हैं कि बुद्धिमानी का नकाब पहने ऎसे चपड़गंजूओं के पूरे खानदान को बरसों तक मुफ्त में घर बैठे खिला सकते हैं”…
अरे!…तो फिर देर किस बात की है?…आप न्योता भेज के तो देखिए…एक छोटा सा सम्मेलन करा के तो देखिए …संपूर्ण भारत से पूरी बरात बराबर चपड़गंजू आपके घर-द्वार और आले-द्वाले ना आ के धमक पड़ें तो फिर कहना
ओह्हो!…ये मैं क्या कह गया?… मुआफ कीजिये बेध्यानी में छोटी सी बहुत बड़ी गलती हो गई…
आपके वो बनवारी लाल जी तो ठहरे सुसंस्कारित व्यक्ति,जो कि चाहकर भी उस स्तर पर नहीं उतर सकते जहाँ ये सभ्य समाज के तथाकथित सभ्य इन्सान खडे हैं”…
“जी!…हाँ …आपके वो बनवारी लाल जी अपनी ओछी…घटिया एवं निंदनीय हरकतों की वजह से अपने लाख चाहने के बावजूद भी हम जैसे सभ्य इंसानों के बीच कहीं पर भी खड़े होने के लायक ही नहीं हैं
आपने कहा कि… “बनवारी लाल जी समझ नहीं पा रहे थे कि ऎसे घटिया लोगों को अपनी अशिष्टता का परिचय देने और अपनी औकात दिखाने से भला क्या हासिल हो जाता है?...
तो यहाँ मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा कि औकात के साथ-साथ अपनी ज़ात भी आपके उन तथाकथित चपड़गंजुओं ने नहीं बल्कि बनवारी लाल जी ने दिखाई है …
पता नहीं ऐसे घटिया लोगों को अपनी अशिष्टता का परिचय देने और अपनी औकात दिखाने से भला क्या हासिल हो जाता है?..
आपने आगे कहा कि ….ऎसे लोगों के रहते इस दुनिया के भाग्य में अभी बहुत से दुर्दिन देखने बाकी है.......यहाँ मैं भी आपसे सहमत हूँ कि बनवारी लाल जी जैसे घटिया और ओछे व्यक्तियों के रहते इस दुनिया के भाग्य में अभी बहुत से दुर्दिन देखने बाकी है.......
अंत में आपने कहा कि… बेचारे बनवारी लाल जी अपनी आत्मा पर एक बहुत बड़ा बोझ लिए बैठे हैं…
तो मैंने पहले भी अपने इसी वक्तव्य में आपको समझाया था कि ऐसा क्यूँ हो रहा है?……अब उसी बात को नए तरीके से…नए लहजे में जोर दे के फिर से समझाता हूँ कि ….
“जैसे कर्म करेगा…वैसे फल देगा भगवान”…
“ये है गीता का ज्ञान…ये है गीता का ज्ञान"…
आपने कहा कि… “आयोजकगण अथवा वहाँ उपस्थित अन्य ज्ञानियों में से कोई उन्हे अपना पता अथवा बैंक एकाऊंट नम्बर ही भेज दे, ताकि उन्हे उस भोजन की मूल्यराशि चुकाई जा सके”…
तो भइय्या मेरे!..क्यों खुद भी इनकम टैक्स के पचड़े में फंसते हो और हम जैसे मासूमों को भी फंसाते हो?…समझदारी के ढक्कन को खोल उसमें थोड़ी ताज़ी हवा को भर जाने दो…एक से एक नायब आईडिए आएंगे एहसान चुकाने के …जल्दी क्या है?…अपना आराम से सोच-समझ के चुकाते रहना… और हाँ!…अगर बाज़ार में छाई मंदी के चलते नीयत में कभी खोट भी आ जाए तो घबराना मत…ये सोच के खुद को तसल्ली देते हुए संतोष कर लेना कि…
“मैं तो ब्राह्मण आदमी हूँ…किसी का खा लिया तो क्या गुनाह किया?”…
और हाँ!…ये आपने सही कहा कि… इस जीवन का क्या भरोसा?… प्राण निकलते कोई देर थोड़े ही लगा करती है?...
और अगर देर हो भी रही हो तो घबराना मत…सीधा ऊपरवाले का नाम ले के चुल्लू भर पानी में डूब मरना …
और हाँ!…इस बात की कतई चिंता ना करना कि बिना कीमत चुकाए अगर कल को मर-मुरा गए तो पता नहीं उसके बदले में आगे चलकर क्या कुछ भुगतान करना पड जाए?....
जो लेना होगा…हम आप ही ले लेंगे…बक्शने वाले बिलकुल नहीं हैं…बस इतना समझ लीजो
और अंत में ये छोटा सा डिस्क्लेमर भी हो जाए…
डिस्क्लेमर: हाँ!…सच में ये आपसे करबद्ध निवेदन है कि इसे कृ्प्या हास्य न समझ लें…
विनीत:
सदा से आपका ‘राजीव तनेजा’