शोर्टकट- गाँव से शहर तक
ट्रिंग ट्रिंग..
“हैलो….कौन बोल रहा है?”..
“डॉक्टर साहब घर पर हैं?”…
“हाँ!…जी बोल रहा हूँ…आप कौन?”..
“जी!..मैं शर्मा…
“शरमाइए मत…सीधे सीधे फरमाइए कि…आप हैं कौन?”…
“ज्ज…जी!…म्म..मैं…
“अब यूँ ही मिमियाते रहेंगे या अपना नाम..पता ठिकाना कुछ बताएँगे भी?”डॉक्टर साहब के स्वर में थोड़ी सी झुंझलाहट थी..
“जी!…मैं शर्मा…आपका दोस्त”…
“ओहो!..शर्मा जी…आप हैं…पहले नहीं बता सकते थे क्या?….कहिए…कैसे हैं आप?”..
“बहुत बढ़िया…आप कैसे हैं"….
“एकदम बढ़िया…फर्स्ट क्लास"…
“जी!..
“क्या बात?….बड़े दिनों बाद याद किया"…
“जी!…बस ऐसे ही…आलतू फालतू का काम ही इतना हो जाता है आपकी कृपा से कि बस…बेफिजूल की बातों के लिए टाईम ही नहीं निकल पाता"…
“फालतू बातों के लिए या फालतू लोगों के लिए?”…
“एक ही बात है”…
“जी!…ये बात तो है..अब मुझे ही लो…अगर पहले से पता होता कि आपका फोन है तो मैं…
“उठाता ही नहीं?"…
“एग्जैकटली"…
“वैरी गुड…आप तो मेरे मुँह पर ही मुझे नीचा दिखाने का प्रयास कर रहे हैं"…
“मुँह पर नहीं…फोन पर"…
“ओह!…
“वैसे इसमें बुरा मानने की कोई बात है नहीं…...जिस गाँव जाना ही नहीं..उस गाँव का पता भी अगर हम पूछें तो पूछें मगर किसलिए?”…
“जी!…ये बात तो है लेकिन ध्यान रहे…मेरे गाँव से गुज़रे बगैर आपका शहर पहुँच पाना नामुमकिन है"..
“कुछ ज्यादा ही गुरूर में नहीं उड़ रहे तुम आजकल?’…
“जी…बस…ऐसे ही…आजकल कामधंधा ही इतना ज्यादा बढ़ गया है आप जैसे सुधि..निर्लज्ज जनों की वजह से कि….
“तुमने आसमान में उड़ना शुरू कर दिया?”…
“अब मैं कुछ कहूँगा तो अपने मुँह..मियां मिट्ठू बनने जैसे होगा…वैसे!…आप खुद समझदार हैं"…
“वैरी गुड…लेकिन यहाँ…मेरे मामले में तुम किसी गुमान में मत रहना…तुम्हारे जैसे कई गाँवों से शोर्टकट निकल गए हैं आजकल शहर तक पहुँचने के”…
“अच्छा?’…
“और नहीं तो क्या…तुम कहों तो कल से ही..कल क्या?..आज से ही मैं अपना रस्ता बदल….
“हें…हें…हें…म्म..मैं तो बस….ऐसे ही…बेफाल्तू में मज़ाक कर रहा था और आप हैं कि….
“तुम्हें अच्छी तरह पता है ना कि मुझे मज़ाक बिलकुल भी पसंद नहीं"…
“जी!…तभी तो…
“तभी तो जानबूझ कर मुझसे पंगा ले रहे थे?”..
“ज्ज…जी!…बस..ऐसे ही…टाईम पास”…
“महज़ टाईम पास के लिए तुम मुझसे पंगे ले रहे थे?”..
“ज्ज…जी!…कोई और मिला नहीं तो सोचा कि…
“मुझसे ही पंगा ले लिया जाए?”…
“एग्जैकटली"…
“ओह!…फिर ठीक है”…
“जी!…और बताएँ..सब कुशल मंगल?”..
“जी!…बिलकुल..मेरी गैर हाज़िरी में दुकान कुशल संभाल लेता है और मंगल….
“दुकान?…लेकिन आपका तो अपना..खुद का…
“क्लीनिक तो यार वो दूसरों के लिए है..हमारे अपने लिए तो वो ठिय्या ही…मतलब..दुकान ही है"…
“ज्ज…जी!…ये बात तो है…घोड़ा घास से यारी कर लेगा तो फिर खाएगा क्या?”…
“जी!…बिलकुल"…
“जी!..
“अच्छा!…कुछ खबर पता चली?”...
“उड़ती उड़ती सी?”…
“हाँ!…उड़ती उड़ती सी"…
“नहीं तो…किस बारे में?”…
“अपने उसी गोर्टीस के बारे में”…
“क्या?”…
“यही कि…लूट मचा रखी है स्सालों ने…सालों से सरासर..अंधेरगर्दी का ऐसा आलम बरपाया है पट्ठों ने कि बस..पूछो मत"…
“हुआ क्या?”…
“क्या हुआ?…ये पूछो कि क्या नहीं हुआ?”….
“मैं कुछ समझा नहीं?”…
“वो अपने ‘नपुंसक राम’ जी का मंझला वाला छोरा है ना?”…
“कौन?….वीर्यप्रधान?”..
“हाँ..हाँ..वही"…
“क्यों?…क्या हुआ उसे?”…
“पूरे 20 हज़ार की लाटरी लग गयी पट्ठे की?”…
“अरे!…वाह…फिर तो अपनी पार्टी पक्की….आज शाम को ही मैं उससे…
“शश्श…नाम भी मत लेना पार्टी का उसके आगे"…
“क्यों?…बिदक जाएगा?”…
“हम्म!…
“लेकिन क्यों?”…
“मना किया है उसने”…
“पार्टी के लिए?”…
“नहीं…जिक्र करने के लिए?”…
“पार्टी का?”…
“नहीं!…उस बात का"…
“किस बात का?”…
“वही जो मैं तुमसे करने वाला हूँ"…
“तो फिर कीजिए ना..सोच क्या रहे हैं?…
“लाटरी लग गयी पट्ठे की"…
“ये तो आप मुझे बता चुके…आगे?”…
“तुम्हें तो पता है..वो उस नामी गिरामी अस्पताल में वार्ड ब्वाय का काम करता है"…
“हम्म!…पता है…मेरे पिताजी की ही सिफारिश से तो…
“उसे वार्ड ब्वाय की नौकरी मिली थी?”…
“नहीं!..उसके खिलाफ बदसलूकी के लिए एक्शन ले…दो हफ़्तों के लिए सस्पैंड कर दिया गया था”…
“ओह!…उसी ने बताया कि यही कोई तीन चार दिन पहले उसके यहाँ इमरजेंसी में एक केस आया…काफी क्रिटिकल कंडीशन थी"…
“ये तो आम बात है…बड़ा अस्पताल है…क्रिटिकल केस तो आने ही हैं…जान से बढ़ कर कुछ नहीं है…जान बचनी चाहिए बस..पैसा तो आनी जानी चीज़ है…जितना मर्जी लग जाए..क्या फर्क पड़ता है?”…
“हम्म!…डॉक्टरों ने सीधे आई.सी.यू में भर्ती किया और जी जान लगा दी….
“बेडागर्क करने में?”…
“आप सुनो तो सही"…
“जी!…
“डॉक्टरों ने आई.सी.यू में भर्ती कर..जी जान लगा दी….
“लेकिन मरीज़ बच नहीं पाया?”…
“क्या शर्मा जी?…आपको तो हर वक्त…पहले आप मेरी बात सुनो तो सही…
“जी!…
“एक से एक महँगी..इम्पोर्टेड दवाईयाँ….बढ़िया से बढ़िया…कॉस्टली… इंजेक्शन….
“मरीज़ ने रातों रात रंग बदल लिया?”…
“जी!…गोरे से एकदम….
“मटमैला पड़ गया?”…
“नहीं!…काला…
“ओह!…उम्र क्या थी मरीज़ की?”…
“यही कोई 22-23 साल का बांका…खूबसूरत..एकदम हट्टा कट्टा नौजवान था”…
“अपने..हृतिक रौशन जैसा?”…
“नहीं!…सलमान खान जैसा"….
“ओह!…शादी वगैरा?”…
“अभी कहाँ?….शादी तो अभी नहीं हुई थी बेचारे की लेकिन ऊपरवाले के फज़ल और उसके अपने…खुद के करम से बच्चे एकदम गोरे चिट्टे…दुद्ध मलाई वरगे”…
“वैरी गुड…लिव इन का यही तो फायदा है कि शादी करो ना करो…बच्चे तुरंत…एक से एक नायाब डिलीवर हो जाते हैं"…
“जी!…ये बात तो है”….
“लेकिन यार…इम्पोर्टेड दवाईयों और महँगे इंजेक्शनों वगैरा से तो मरीज़ की तबियत रातों रात संवर जाती है”…
“जी!…लेकिन कई बार फँस..बीच भंवर भी जाती है"…
“हम्म!…
“यही हुआ…यहाँ..इस केस में भी..जाने कैसे…दिन पर दिन बिगड़ती चली गयी"…
“नर्स?”…
“नहीं!…तबियत"…
“डॉक्टरों की?”..
“नहीं!…रिश्तेदारों की"…
“डॉक्टर के?”..
“नहीं!…मरीज़ के"…
“लेकिन क्यों?”…
“बिल ही जो इतना तगड़ा बना दिया था अस्पताल वालों ने?”..
“ओह!..
“सीधे वेंटीलेटर पर लाना पड़ा"…
“रिश्तेदारों को?”…
“नहीं!…मरीज़ को”..
“ओह!…
“धीरे धीरे सेहत में कुछ सुधार आना शुरू हुआ?”…
“मरीज़ की?"…
“नहीं!…उसके रिश्तेदारों की"…
“ओह!…वैरी गुड"…
“क्या ख़ाक वैरी गुड?”…
“क्यों?…क्या हुआ?”…
“रिश्तेदार ठीक हुए थे…मरीज़ थोड़े ही ना"…
“हम्म!..
“इतने दिनों की आपाधापी में उनका बजट टैं बोल गया"…
“हम्म!…इन बड़े बड़े अस्पतालों के चक्कर में तो अच्छे अच्छों के पायजामे ढीले हो जाते हैं…इसमें कौन सी बड़ी बात है?"…
“जी!…अगले..इधर उधर से पैसे पकड़ कर फिर भी इस आस में इलाज करवाते रहे कि…एक ना एक दिन अच्छे दिन ज़रूर आएँगे”…
“ख़ाक अच्छे दिन आएँगे?…इस प्याज़ के दाम तो अभी से…
“जी!…ये बात तो है….
“फिर क्या हुआ?”..
“होना तो वही था..जो ऊपरवाले को मंज़ूर था…उसी की कृपा ने बड़े डॉक्टर के जरिए राह दिखाई दी कि..एक बड़े आपरेशन के बाद(अगर कामयाब रहा?) उनका लड़का एकदम ठीक हो जाएगा”…
“वाउ!…दैट्स नाईस"…
“लेकिन खर्चा कम से कम 3 लाख रूपए आएगा"…
“ओह!…
“मरते क्या ना करते….कहीं से जुगाड़ कर करा के बेचारे पैसे जमा करवाने जा ही रहे थे कि अचानक…
“मरीज़ टैं बोल गया?”…
“नहीं!..अपने नपुंसक राम जी का छोरा..वीर्यवान भगवान बन के बीच रस्ते में ही टपक पड़ा"…
“हनुमान के जैसे?”…
“नहीं!…हापुज़ आम के जैसे"…
“ओह!…इसे कहते हैं किस्मत का धनी होना…बेशक जेब में मनी ना होना”…
“हम्म!…किस्मत के तो वो बहुत धनी थे..पूरे 3 लाख बचवा दिए अगले ने”..
“वाह!…तभी उन्होंने उसे बतौर ईनाम 20 हज़ार दिए होंगे?"…
“हुंह!..बतौर ईनाम?…घंटों तो उससे झिकझिक करते रहे कि..कुछ कम कर ले..कुछ कम कर ले लेकिन पट्ठा इतना अड़ियल कि जो मुँह से निकल गया..सो..निकल गया…वही ले के माना”…
“हम्म!..अब तबियत कैसी है?”…
“मरीज़ की?”…
“नहीं!..वीर्यवान की?”…
“मज़े ले रहा है ज़िन्दगी के"…
“और उसकी?”..
“क्या?”…
“तबियत कैसी है अब मरीज़ की?”…
“वो तो उसी वक्त टैं बोल गया था”…
“किस वक्त?”…
“जब उसे वेंटीलेटर में रखा गया था"…
“ओह!..इसका मतलब बिना बात छला जा रहा था बेचारों को?”…
“जी!..बिलकुल…यही तो धंधा बना रखा है आजकल इन बड़े अस्पतालों ने…ऊपरी टीमटाम से इतना इम्प्रैस कर देते हैं आम पब्लिक को कि वो बस…बेचारी सोचती है कि यहीं..इसी फाईव स्टार अस्पताल में उसके नर्क समान जीवन का स्वर्ग समान उद्धार लिखा है"..
“बेशक..इसके लिए इधर उधर से क्यों अपना ज़मीर बेच के पैसा उधार लेना पड़े लेकिन इलाज करवाएंगे तो इन्हीं चंद..गिने चुने बड़े अस्पतालों में ही अपना इलाज करवाएंगे"…
“हम्म!…
“शर्म भी नहीं आती हरामखोरों को कि अगर अपनी छिलवानी ही है तो हम जैसों से…अपने आस पड़ोस के नातजुर्बेकार डॉक्टरों से छिलवाएं…ये क्या बात हुई कि ज़रा सी तकलीफ हुई नहीं और सीधा ऊह…आह….ऊह…आह कर..बिलबिलाते हुए जा पहुँचे इन बड़े अस्पतालों की शरण में?"…
“और नहीं तो क्या…ये गली कूचों में कुकुरमुत्तों के माफिक उग आए नर्सिंग होम…क्लीनिक और लैब क्या हमने अपनी ऐसी तैसी करने के लिए खोल रखे हैं?…आप जैसों के लिए ही तो खोल रखे हैं ना?”…
“जी!…ये तो वही…देवर…भाभी और खूंटे वाली कहानी हो गयी”…
“हम्म!..अपनी…अपनी अब रही नहीं..पराई वो जनानी हो गई”…
हा….हा…हा…हा… (हम दोनों का समवेत स्वर)
“आज तो यार सच में..बड़ा मज़ा आया तुमसे बात कर के"…
“जी!…मुझे भी…सच में पता ही नहीं चला कि हम आमने सामने बैठ के बात कर रहे हैं या फिर मोबाईल से"…
“क्क्या?…तुम इतनी देर से मोबाईल से बात कर रहे थे?”…
“जी!…क्यों?..क्या हुआ?”…
“फिर तो तुम्हारे बैलैंस का भट्ठा बैठ गया होगा आज तो?”…
“बिलकुल भी नहीं?”…
“वो कैसे?”…
“मैंने आज ही ‘टाटा’ टू ‘टाटा’ का अनलिमिटिड वाला रिचार्ज करवाया है"…
“ओह!..फिर तो कोई दिक्कत नहीं"..
“जी!…
“वैसे…किसी ख़ास काम से फोन किया था या फिर वैसे ही….टाईम पास…
“हें…हें….हें…आप भी कैसी बातें करते हैं डॉक्टर साहब…आजकल के बिज़ी शैड्यूल में भला किसके पास इतना वक्त है कि वो ऐसे ही खामख्वाह… बेफाल्तू में…अपने खर्चे पे किसी गैर का टाईम पास याने के मनोरंजन करता फिरे?”…
“जी!…ये बात तो है"…
“जी!…
“कहो फिर..कैसे याद किया था?”…
“कैसे क्या?…दिल से याद किया था"…
“रट्टा मार के?”…
“जी!…बिलकुल…रट्टा मार के"…
“खैर!..ये सब फोर्मैलिटी छोड़ो और सीधे सीधे बको कि..क्यों याद किया था?”…
“अब क्या बताऊँ?….दरअसल..मेरा बेटा अड़ा हुआ है..अर्टिगा के पीछे हाथ धो के पड़ा हुआ है…मान नहीं रहा है..जिद पे अड़ के समझो..ना बैठा हुआ है…ना खड़ा हुआ है..अब कैसे बताऊँ?…बूत्था उसका एकदम….बिलकुल सड़ा हुआ है”…
“ओह!…तो मान क्यों नहीं लेते उसकी बात?…कमाते किसके लिए हो?…बाल बच्चों के लिए ही ना?…तो फिर सोचते क्या हो?…जो माँगता है…जैसी माँगता है..ले दो"…
“ऐसे कैसे ले दो?…पूरे 9 लाख का है उसका डीज़ल वाला…डीलक्स वर्ज़न"…
“तो?”…
“तो क्या?…दुनिया भर के वैसे ही फालतू के खर्चे पाल रखे हैं मैंने..कभी इसका रिचार्ज करवाओ तो कभी उसका रिचार्ज करवाओ…कसम से..कभी कभी इतनी खुंदक आती मुझे अपनी इन माशूकाओं पर कि बस…पूछो मत”…
“ओह!…
“ऊपर से ये नवाबजादे..अड़ के खड़े हो गए कि…
“बस!..यही दिक्कत है या कोई और भी परेशानी है?”..…
“जी!…फिलहाल तो बस..यही…इसी ने जीना हराम कर…बेहाल कर रखा है..आगे रब्ब राक्खा”..
“इसकी तो तुम चिंता ना करो…कल से मेरा हर पेशेंट हमेशा की तरह टैस्ट वगैरा के लिए तुम्हारी ही लैब में आएगा लेकिन अब रूटीन टेस्टों के अलावा…अलग से लिस्ट में 2-4 आलतू फालतू के टैस्ट(महँगे वाले) भी होंगे…जिन्हें नहीं करना है”…
“जी!…मैं समझ गया”…
“बस..अपने हिसाब से उनकी रिपोर्ट भर दे देनी है..और कुछ नहीं करना है"..
“जी!…थैंक्स"…
“खाली जी..जी या थैंक्स से काम नहीं चलेगा…मेरा लिफाफा अब पहले से बड़ा और भारी हो जाना चाहिए"…
“ज्ज…जी!..बिलकुल…ये भी कोई कहने की बात है?”…
“अच्छा!..अब बताओ…सड़क गाँव से शहर जा रही है या शहर से गाँव आ रही है?”…
“हें…हें…हें…मैं तो बस…
“ऐसे ही मज़ाक कर रहा था?”…
“जी!…
{और फोन डिस्कनैक्ट हो गया या कर दिया गया…भगवान् जाने}