और नहीं तो क्या?…
“हद हो गयी यार ये तो बेईमानी की…मुझ…मुझ पर विश्वास नहीं है पट्ठों को….सब स्साले बेईमान….मुझको…मुझको भी अपने जैसा समझ रखा है…एक एक..एक एक पाई का हिसाब लिखा हुआ है मेरे पास…जब चाहो…जहाँ चाहो...लैजर…खाते सब चैक करवा लो….
“क्या हुआ तनेजा जी?…किस पर राशन पानी ले के गरिया रहे हैं?”…
“एक बात बताइए शर्मा जी”….
“जी..
“म्म्म…मैं क्या आपको चोर दिखता हूँ?”…
“क्या बात कर रहे हैं तनेजा जी आप भी?…आपकी ईमानदारी के किस्से तो पूरे डिपार्टमैंट में..ऊपर से नीचे तक..पूरे शोरोगुल के साथ जबरन मशहूर हैं”….
“वोही तो…. इसलिए तो डिपार्टमैंट में सब मेरा मान करते हैं…इज्ज़त करते हैं..सबसे ज्यादा मेरा ख्याल रखते हैं"…
“मुआफ कीजिए तनेजा जी..ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती…आप मेहनत भी तो सबसे ज्यादा करते हैं…हमेशा खुद आगे बढ़कर..एक से एक मुश्किल चैलेंज अपने हाथ में लेते हैं”..
“जी!..ये बात तो है"..
“मई-जून के सूखे नींबुओं में से भी प्याली भर रस..वो भी दिसंबर के महीने में..निचोड़ निकालना कोई आपसे सीखे..तनेजा जी"…
“हें…हें…हें…चने के झाड पे चढ़ाना तो कोई आपसे सीखे शर्मा जी"…
“अब क्या करूँ तनेजा जी?…मेरा तो स्वाभाव ही ऐसा है कि…मेरी सिंपल सी कही बात को भी हर कोई सीरियसली ले..हवा में उड़ना चालू कर देता है"…
“वोही तो”..
“लेकिन इन स्सालों को इस बात से भला क्या मतलब कि सामने वाला बंदा कितना सिंसियर है?..कितना ईमानदार है?….ये क्या कि सबको एक ही फीते से हर बार नाप दो"..
“जी!…
“पहले सामने वाले की पोजीशन…..उसकी हैसियत तो देखो….फिर सोच समझ के कोई इलजाम लगाना है तो लगाओ..
“जी!..
“सब के सब स्साले…टटपूंजिए..कबाड़ी टाईप के..सो काल्ड रईस लोग….5-6 इंची स्क्रीन का एंड्राइड फोन ले के सोचते हैं कि वो तो खुदा हो गए”..
“हम्म!…
“स्सालो..पहले अपने बाप के पास ‘आई फोन’ 6 प्लस तो देख लो”मैं हांफता हुआ अपना फोन हवा में लहरा कर चिल्लाया…
“हम्म!….
“दस…दस बीस हज़ार के लिए भी स्सालों को मुझ पर विश्वास नहीं है…कहते हैं कि..”आप तो ले गए थे”…स्साले..बेशर्म कहीं के"मैं दांत पीसते हुए बडबडा रहा था…
“ओह!…
“अरे!…भाई अगर ले गया था तो कहीं ना कहीं तो कुछ ना कुछ हिसाब में आना चाहिए था ना?”मेरा तेज़ स्वर मद्ध्यम होने को हुआ …..
“जी!…बिलकुल"…
“वोही तो….कई बार मैंने खुद ही डेल्ले फाड़ फाड़ के सारे खाते खुद कर लिए लेकिन एंट्री का कहीं नामों निशाँ तक नहीं"मेरे स्वर में आत्मविश्वास झलक रहा था…
“ओह!…
“अब अगर होती तो…कहीं ना कहीं दिखती तो?”…
“जी!…बिलकुल"..
“और नहीं तो क्या"…
“कहीं ऐसा तो नहीं तनेजा जी कि..आपने कच्चे पे चढ़ा लिया हो लेकिन पक्के पे चढाने से….(शर्मा जी के स्वर में शंका सी थी)
“क्या बात करते हैं शर्मा जी आप भी?…घर जाने के बाद मेरा सबसे पहला काम होता है चिकन टिक्के के साथ दो पटियाला पैग मारते हुए पूरे दिन की रिपोर्ट अपनी श्रीमती जी को देना”मैं तैश भरे स्वर में उत्तेजित होता हुआ बोला..
“ओह!..
“उसके बिना तो खाना तक हजम नहीं होता मुझे"…
“अरे!…वाह..फिर तो दाद देनी पड़ेगी तनेजा जी आपकी भी कि..इस तरह के कलयुग में भी आप जैसे पत्नी भक्त सक्रिय तौर पर जिंदा हैं..मौजूद हैं"शर्मा जी के स्वर में प्रशंसा का भाव था..
“अजी!..काहे के पत्नी भक्त?..खाना देगी तभी तो हजम होगा"मैं खिसियानी सी आवाज़ में खुद अपनी ही खिल्ली उड़ाता हुआ बोला..
“ओह!…फिर तो आपसे गलती होने का कोई मतलब ही नहीं"शर्मा जी संतुष्ट से दिख रहे थे….
“वोही तो….
“छोड़ो तनेजा जी…हो जाता है कई बार ऐसा भी"…
“क्या छोड़ो?…मेरी इज्ज़त दाव पे लगी है और आप कह रहे हैं कि छोड़ो..ऐसे कैसे छोड़ो?”मेरा उत्तेजित हुआ स्वर उफान पकड़ने को हुआ..
“इन्हीं स्सालों से किसी दिन अठारह के छत्तीस ना वसूल किए तो मेरा भी नाम….
“लेकिन तनेजा जी…क्या ऐसा करना जायज़ होगा?….आपकी ईमानदारी के किस्से तो….
“वोही तो…मन तो नहीं करता है किसी के साथ गलत करने के लिए लेकिन क्या करूँ?…कई बार लोग खुद ही इतना मजबूर कर देते हैं कि…
“छोडी तनेजा जी….क्षमा करने वाला ही महान होता है"…
“टट्टू…ऐसी महानता भला किस काम की कि आपकी…अपनी साख ही दाव पर लग जाए?”…
“जी!..ये बात तो है लेकिन...
“एक तरफ दिल कहता है कि..”छोड़ तनेजा…दस बीस हज़ार से भला तुझे क्या फर्क पड़ जाएगा?..ऊपरवाले का दिया सब कुछ तो है तेरे पास..भर दे अपनी जेब से”..
“जी!…ये बात तो है..ऊपरवाले की बड़ी मेहर है आप पर..आँख मूँद कर भी दिल खोलते हुए खर्च करें तो भी आपकी सात पुश्तें बड़े आराम से…
“लेकिन उसके बाद का क्या?”..
“क्या?”…
“बाकी की पुश्तें क्या गुरूद्वारे में जा के अपनी ऐसी तैसी करवाएंगी?”..
“ओह!….इस बारे में तो मैंने सोचा ही नहीं"…
“वोही तो…अपनी सोच हमेशा ऊँची और दूर तक मार करने वाली होनी चाहिए"…
“जी!..लेकिन ये भी तो सच है ना कि..पूत कपूत तो क्यों धन संचय..पूत सपूत तो क्यों धन संचय?”…
“जी!…माना कि मेरी सभी औलादें…
“जायज़ भी और नाजायज़ भी?”…
“जी!..बिलकुल..नाजायज़ हुई तो क्या हुआ..हैं तो सब मेरी अपनी ही”..
“जी…
“मैं मानता हूँ कि मेरी सभी औलादें..पैदायशी रूप से नालायक पैदा हुई हैं लेकिन उनका इकलौता बाप होने के नाते…
“इकलौता?”…
“जी!..
“ओह!..वैरी स्ट्रेंज”…
“वैसे..सच कहूँ तो मुझे भी कई बार ऐसा शक सा हो जाता है कि मैं पहले से ही चूसे हुए आम को आँखें मूँद कर जाने किस धुन में चूसे चला जा रहा हूँ लेकिन…
“लेकिन?”…
“लेकिन खुद को हीन भावना से ग्रस्त होने से बचाने के लिए ना चाहते हुए कई बार ऐसा मान या सोच लेता हूँ कि मैं सिंगल हैंडिड…सैल्फ ओंड गाडी..
“अपने मन मुताबिक ढंग और स्पीड से…पोजीशन बदल बदल कर..गियर को आगे पीछे करते हुए चला रहा हूँ?"…
“जी!..बिलकुल"मेरे स्वर में आत्मविश्वास हिलोरें ले उछल कूद कर रहा था..
“ओह!..फिर तो सब ठीक है"…
“क्या ठीक है?”…
“वही जो आपने कहा"…
“क्या कहा?”..
“यही कि..
“पोज़ीशन बदल बदल कर?”..
“नहीं"…
“गियर को आगे पीछे करते हुए?”…
“नहीं…
“तो फिर?”..
“यही कि…दस बीस हज़ार से भला तुझे क्या फर्क पड़ जाएगा?..ऊपरवाले का दिया सब कुछ है तेरे पास..भर दे अपनी जेब से”..
“हाँ!…ये बात तो है…दस बीस हज़ार से तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला"..
“वोही तो"..
“लेकिन शर्मा जी..एहसान उन पर करना चाहिए जो उसके लायक हों..
“जी!..ये बात तो है"..
“चलो!..एक बार के लिए मैं सब कुछ भूल भाल भी जाऊँ लेकिन उन लोगों को कुछ अक्ल तो हो कम से कम…सब स्साले..एक से बढ़कर एक बेवाकूफ”…
“कोई कहता है यहाँ ले लो..कोई कहता है वहाँ ले लो”…
“ओह!…
“तुम्हारे बाप का मैं नौकर नहीं जो तुम्हारे कहने से कहीं भी ले लूँगा”..
“जी!..बिलकुल..सैल्फ रिस्पेक्ट नाम की भी कोई चीज़ होती है"..
“जी!..बिलकुल…उन्हें बेशक अपनी इज्ज़त प्यारी हो ना हो लेकिन मेरे लिए तो भय्यी..इज्ज़त से बढ़कर कुछ भी नहीं..एक बार गयी तो समझो हमेशा के लिए गयी”…
“जी!..बिलकुल"…
“मैंने तो एकदम साफ़ साफ़ डंके की चोट पे उन्हें कह दिया कि मैं जब भी लूँगा..अपनी मर्जी से..अपनी मनपसंद जगह पर लूँगा”..
“जी!..बिलकुल सही किया"..
“जी!..मैंने तो सही किया लेकिन उन लोगों को भी तो कुछ अक्ल हो"…
“क्या हुआ?”…
“सब के सब स्साले..अनपढ़..गंवार..अक्ल घास चरने चली गयी थी पट्ठों की"…
“क्या हुआ?”…
“ये पूछो कि क्या नहीं हुआ?”..
“क्या नहीं हुआ?”..
“अरे!..ये नहीं..पूछो कि क्या हुआ?”…
“क्या हुआ?”…
“पहले तो सब स्साले…बीच सड़क ही देने लगे”…
“एक साथ?”…
“जी!…एक साथ”…
“ओह!..
“मैंने कहा भी कि एक साथ इतने ज्यादा ठीक नहीं लेकिन वो सब माने..तो ना"…
“ओह!..
“मैंने कई बार समझाया भी कि..ये क्या तरीका है ऐसे..बीच सड़क..तमाशा खडा करने का..अपना ढंग से दो..खुश हो कर दो"..
“वैसे..बुरा ना मानें तनेजा जी अगर तो एक बात कहूँ?”..
“जी!..ज़रूर"…
“कोई खुश हो कर तो किसी को देता नहीं हैं..सबकी अपनी अपनी मजबूरी होती है"…
“अब मैं कुछ कहूँ?”..
“जी!..ज़रूर"…
“आपको उन बेचारों की तो मजबूरी दिख गयी…हमारे बारे में बिलकुल नहीं सोचा..कोई बेशक माने या ना माने…हमारी भी अपनी..अलग किस्म की मजबूरियां होती हैं..बिना लिए हमें…
“खाना हजम नहीं होता है?”…
“जी!..खट्टे..खट्टे से..अजीब किस्म के डकार से आने लगते हैं..हर वक्त पेट आफ़रा आफ़रा सा लगता है..
“ओह!..
“यही सब सोच के फिर भी मैंने सोचा कि चलो..नादान उम्र के हैं..गलतियाँ इस उम्र में अक्सर हो जाया करती हैं..
“जी!..वक्त के साथ खुद समझ जाएंगे"..
“ख़ाक समझ जाएंगे…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“अगर समझ होती तो ऐसे तो ना करते..
“कैसे ना करते?”…
“तमीज नहीं है स्सालों को एक पैसे की..पैसा दे रहे हैं लेकिन पैसे को संभालने की तमीज तक नहीं कि..पैसे को ऐसे..खुल कर..खुले में नहीं दिया जाता है"…
“तो फिर कैसे दिया जाता है?..
“अपना लिफ़ाफ़े में डाल कर..टेबल के नीचे से"..
“लिफ़ाफ़े में डाल कर तो चलो..ठीक है लेकिन ये टेबल के नीचे से क्यों?”…
“तुम पागल हो?”…
“क्यों?..क्या हुआ?”..
“रिश्वत का पैसा भला क्या टेबल के ऊपर से लिया जाता है?”…
“क्क्क्या?”…
“और नहीं तो क्या?”..
(कथा समाप्त)