लॉक उन डेज़- कामना सिंह

सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य समाज में सबके साथ घुल मिल कर रहने का आदि है। ऐसे में यह कल्पना करना भी मुश्किल हो जाता है कि हम जहाँ पर हों, वहाँ पर दूर दूर तक हमसे बात करने..बोलने बतियाने..गुफ्तगू करने वाला कोई ना हो। किसी इनसान को देखने तक को हमारी आँखें तरस जाएँ और हम बस एकालाप करते हुए हर समय गहन सोच में डूब, अपनी बीत चुकी ज़िन्दगी को याद एवं आने वाले भयावह दिनों की कल्पना मात्र से ही डर कर सिहरते रहें। सोते जागते हर समय बस यही दुआ करते रहें कि.. काश..कोई हमसे बात करने वाला..हमें देखने सुनने वाला आ जाए और उससे बोल बतिया कर हम अपनी व्यथा..अपनी परेशानी..अपना एकाकीपन हल्का या फिर थोड़ा बहुत कम कर लें। 

दोस्तों..ऐसे ही कुछ अनुभव से मुझे गुज़रना पड़ा जब मैने पढ़ने के लिए प्रसिद्ध लेखिका कामना सिंह जी का उपन्यास "लॉकडाउन डेज़" उठाया। जैसा कि नाम से ही विदित है कि यह उपन्यास कोरोना नामक महामारी के बाद दुनिया भर में फैलने के बाद सावधानी स्वरूप लगने वाले लॉक डाउन और उससे उत्पन्न स्थितियों एवं परिस्थितियों के गुणा भाग पर आधारित है। साथ ही साथ संयोग से यह हिंदी भाषा का पहला संपूर्ण उपन्यास बन गया है जो कोरोना की दहशत और संपूर्ण मानवजगत के उससे लड़ने के प्रयासों और उनकी सफलताओं और असफलताओं के बारे में है।

इस उपन्यास में कहानी एक ऐसे युवक की है जो अपनी नयी नौकरी के दफ़्तरी काम से कुछ दिन ऑस्ट्रेलिया में बिताने के बाद हवाई जहाज़ से वापिस दिल्ली लौटा है। कोरोना महामारी के बढ़ते फैलाव की वजह से हवाई अड्डे पर ही उसे ताक़ीद कर दी जाती है कि उसे कुछ दिनों तक अकेले क्वारैंटाइन रहना पड़ेगा। अब दिक्कत की बात ये कि लॉकडाउन की वजह से उसकी कम्पनी का वह गेस्टहाउस, जिसमें वह इन दिनों रहा करता था समेत देश के सभी होटल, रेस्टोरेंट, ऑफिस, धर्माशाला ओर सराय समेत सभी कुछ बंद हो चुका है। 

अपने पैतृक घर, बनारस वो इसलिए नहीं जाना चाहता कि अपने लिए बताए गए, उसकी ही बचपन की दोस्त के आए रिश्ते को नकार, वो अपने माँ बाप तथा उस लड़की के मन को आहत कर दिल्ली चला आया जो उसकी जीवनसंगिनी हो सकती थी। अब इस लॉक डाउन की वजह से होने वाली छटनियों के चलते उसे भी उसकी नौकरी का कोई भरोसा नहीं कि बचेगी या नहीं। ऐसे हालातों में मजबूरन उसे शहर की आबोहवा से दूर एकांत में बने दोस्त के फार्महाउस पर बने छोटे से दो कमरों के मकान में शरण लेनी पड़ती है जिसकी संयोग से चाबी कुछ दिनों से उसके पास है। 

इस उपन्यास में कहानी है महज़ नूडल्स, कॉर्नफ्लेक्स और थोड़े से सेबों पर गुज़ारे गए उसके उन 21 दिनों की जो उसने सिर्फ सोते..जागते..टीवी देखते और अपने हर अच्छे बुरे अपने फ़ैसले पर मंथन करते हुए, बिना चार्जर के बैट्री डेड मोबाइल के  साथ टूट चुके या भुलाए जा चुके रिश्तों को याद करते हुए बिताए हैं।

इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ एकाकीपन से उपजी उसकी हताशा..कुंठा..निराशा..अवसाद और खीज के साथ पल पल उभर कर अपने पाँव फैलाती नाकारात्मकता है तो वहीं दूसरी तरफ उसका संयम..उसका धैर्य..उसकी साकारत्मकता भी गुपचुप खिलते हुए अपना असर दिखा रही है।

इसमें बात है शहरों से गांवों की ओर पलायन करते मज़दूरों और अनजाने में उनके द्वारा फैलाए जा रहे कोविड 19 वायरस की। साथ ही इसमें बात है सरकारी अमले की जागरूकता..सजगता के साथ साथ उसकी निष्क्रियता एवं असफ़लता भरी कोताही की। इसमें बात है टीवी के ज़रिए पता चल रही देश दुनिया के ताज़ातरीन हालातों और चहुं ओर फैली आशा और निराशा की।

इसमें सजग..जागरूक एवं ज़िम्मेदार अवाम के साथ साथ बात है विदेशों से आने वाले उन लापरवाह भारतीयों की जो क्वारैंटाइन रहने के बजाय इधर उधर घूम..पार्टियाँ एन्जॉय करते हुए अपने बूते पर जगह जगह महामारी का संक्रमण फैलाते रहे। इसमें एक तरफ जहाँ बात है भारत के उन सजग नागरिकों की जिन्होंने ज़रा सा शुबह..शक होते ही देश..दुनिया एवं समाज हित में खुद को सबसे अलग थलग करना सहर्ष ही अपनी स्वेच्छा से मंज़ूर कर लिया। तो वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोगों का मान मर्दन भी है जो सन्देह के घेरे में आए अपने परिवार के लोगों को छिपा कर देश दुनिया के सामने अपनी ग़लत आचरण की मिसाल पैदा करते रहे अर्थात इसमें बात है पढ़े लिखे समझदारों के साथ साथ समझदार मूर्खों की भी।

इसमें बात है घरों से कूड़ा उठाने वाले छोटे तबके के सफाई कर्मचारियों और आंगनबाड़ी तथा आशा के कार्यकर्ताओं के जुझारूपन की। इसमें बात है अस्पतालों के इलाज को तत्पर डॉक्टरों, नर्सों और वार्ड बॉयज़ के ज़िम्मेदारी भरे योगदान की। इसमें धन्यवाद स्वरूप बात है शमशान घाट में शवों को नहलाने और अंतिम संस्कार करवाने वालों के योगदान की। 

इसमें पुलिस , सेना, समाजसेवियों के अथक प्रयासों के साथ साथ बात है देश दुनिया से हर पल जोड़े रखने वाले मीडियाकर्मियों और उनके सराहनीय योगदान की। इसमें बात है हर उस छोटे से बड़े व्यक्ति के योगदान की जिन्होंने किसी ना किसी बहाने जनजीवन को सुचारू रूप से चलाने में आम आदमी की मदद की। साथ ही इसमें बात है आपदा को अवसर में बदलने वाले मुनाफ़ाखोरों और दरियादिली की जीती जागती मिसालों की। इसमें बात है बनारस और उसके मणिकर्णिका घाट और वहाँ पर लगातार जलती लाशों की। इसमें बात है टूट चुके या भुलाए जा चुके रिश्तों को फिर से समेटने..सहलाने ओर पुचकारने की।

यूँ तो यह उपन्यास मुझे उपहारस्वरूप मिला। फिर भी मैं अपने पाठकों की जानकारी के लिए बताना चाहूँगा कि इस 216 पृष्ठीय उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है अनन्य प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-12-2021) को चर्चा मंच       "भीड़ नेताओं की छटनी चाहिए"  (चर्चा अंक-4293)     पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

उपन्यास के प्रति रुचि जगाता आलेख।

 
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