कितने मोर्चे- वन्दना यादव

“कितने मोर्चे”

Vandana Yadav जी का यह उपन्यास अपने आप में अनूठा है। अनूठा इसलिए कि अब तक सेना की पृष्ठभूमि और उसमें भी खास तौर पर हमारे फौजियों की अकेली रह रही बीवियों की व्यथा और उनकी कथा का इस उपन्यास में बहुत ही रोचक ढंग से ताना-बाना बुना गया है। ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि स्त्री नज़रिए से किसी ने इस सन्दर्भ में अपनी...अपने मन की बात कही हो। ये अलग नज़रिया भी इस उपन्यास को आम की श्रेणी से हटा कर ख़ास बनाता है।

रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के मुद्दों को लेकर इस उपन्यास में उनका विस्तार से विवरण या यूँ कह लें कि चित्रण किया गया है, तो भी ग़लत नहीं होगा। इसे लेखिका के लेखन की सफलता ही कहेंगे कि 350 पृष्ठों से भी ज़्यादा लंबा होने के बावजूद ये उपन्यास कहीं पर भी शिथिल नहीं पड़ता, बोझिल नहीं लगता। एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद पाठक उसे पूरा पढ़ने को मजबूर हो जाता है। सरल शब्दों से लैस वंदना यादव जी का धाराप्रवाह लेखन अपनी रौ में पढ़ने वालों को अपने साथ.. . अपनी ही दिशा में बहा ले जाता है।

किस तरह की तकलीफों से हमारे फौजिओं की अकेली रह रही पत्नियाँ और उनके बच्चे अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में रूबरू होते हैं, इसका पता भी हमें इस उपन्यास को पढ़ कर ही चलता है। जिस तरह के जर्जर हालत वाले फ्लैटों में रह कर उन्हें अपने दिन-रात काटने पड़ते हैं, वह भी हमें इसी उपन्यास से पता चलता है। अकेले रह कर किसी महिला के लिए बच्चों की परवरिश करना, उन्हें अच्छे संस्कार देना, अच्छी शिक्षा देना कितना मुश्किल है, उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक इन सभी घटनाओं को खुद झेलता एवं महसूस करने लगता है।

इस उपन्यास में जहाँ एक तरह बच्चों की शिक्षा, उनके भविष्य के बारे में चिंता जताई गई है, वहीं दूसरी तरफ प्रेम विवाह, महिलाओं का बाहर नौकरी कर खुद अपने वजूद, अपनी अलग पहचान हासिल करने की इच्छा को भी बखूबी दिखाया गया है। लंबे समय बाद मिल रहे पति-पत्नी के बीच प्यार, उनकी आपसी नोकझोंक, बच्चों के सुखद भविष्य की कामना एवं चिंता, मिलेट्री अस्पतालों में हो रही लापरवाही, मिलेट्री एरिया में सिविल वर्कस के लिए ज़िम्मेदार ‘एम.ई.एस’ की बदइंतज़ामी, अवैध एवं अवांछित लोग, ज़्यादा माँग के चलते नौकरानियों की मनमर्जी, अनुशासन एवं सिविलियंज़ के प्रति फौजिओं और उनके परिवारों का नज़रिया सहित बहुत से अनेक मुद्दों को प्रभावी ढंग से छुआ गया है।

सब कुछ हमें अपने आसपास घटता हुआ प्रतीत होता है। पढ़ते समय ऐसा एक बार भी नहीं लगा कि हम किसी निर्जीव किताब को पढ़ रहे हैं। हमेशा ऐसा ही लगा कि सब कुछ हमारे सामने ही चलचित्र के माफिक चल रहा है। इस उपन्यास को और अधिक चुस्त एवं क्रिस्प बनाने के लिए इसमें बार-बार लिफ्ट का खराब होने और उसके हर बार के विस्तृत विवरण से शायद बचा जा सकता था।

सबसे बड़ी खूबी इस उपन्यास कि मुझे यह लगी इसमें कहीं भी कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है। सरल एवं प्रचलित शब्दों के ज़रिए ही लेखिका ने अपनी.. अपने मन की बात कही है। शब्दों का सरल होना इस उपन्यास की विस्तृत पहुँच के मंसूबे को अमली जामा पहनाने में पूरी तरह सक्षम है। 

अनन्य प्रकाशन से प्रकाशित इस उम्दा उपन्यास के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

4 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (15-12-2021) को चर्चा मंच        "रजनी उजलो रंग भरे"    (चर्चा अंक-4279)     पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

उपन्यास रोचक और अलग विषय में लग रहा है। इसे खोजकर पढ़ने की कोशिश रहेगी।

मन की वीणा said...

बहुत सुंदर और गहन समीक्षा की गई है पुस्तक की झलकियां बता रही हैं पूर्ण कितना शानदार होगा।
सैनिकों के परिवारों पर हृदय स्पर्शी सृजन होगा अवश्य ही।
पुस्तक पर समीक्षा पुस्तक को पढ़ने को उकसा रही है।
बधाई एवं साधुवाद।

राजीव तनेजा said...

शुक्रिया

 
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