जो रंग दे व्व रंगरेज़- रोचिका अरुण शर्मा

ये बात 1978-80 के आसपास की है। तब हमारे घर में सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाऐं आया करती थी। बाद में इनमें गृहशोभा और गृहलक्ष्मी जैसी पत्रिकाओं का नाम भी इसी फेहरिस्त में जुड़ गया। तब उनमें छपी पारिवारिक रिश्तों की गंध में रची बसी कहानियों को मेरी माँ के अलावा मैं भी बड़े चाव से पढ़ा करता था। उस समय जो भी...जैसा भी मिले, मौका पाते ही मैं ज़रूर पढ़ता था। अब उसी तरह के कलेवर से सुसज्जित कहानियों को पढ़ने का मौका मुझे रोचिका अरुण शर्मा जी के कहानी संग्रह  "जो रंग दे वो रंगरेज़" से मिला। 

अपनी कहानियों के लिए उन्हें अपने पात्रों को कहीं से ढूँढ कर लाना या गढ़ना नहीं पड़ता। वे अपने आसपास के माहौल से ही अपनी कहानी का प्लॉट ले उस पर अपनी सोच के अनुसार कहानी लिखती हैं। उनकी इस किताब की एक कहानी में ऐसी नवविवाहित युवती के दुखों एवं संघर्षों की दास्तान है जो अपने विवाह के कुछ समय बाद ही विधवा हो घर से निकाल दी जाती है। अपने बच्चे के भविष्य और समाज की भूखी नज़रों से बचने के लिए वो मायके वालों के दबाव में आप पुनर्विवाह  कर तो लेती है मगर क्या इससे उसके दुखों का अंत हो पाता है? 

इसी किताब की एक अन्य कहानी एक ऐसे युवक और युवती की कहानी है जिसमें युवक के बार बार आग्रह करने के पर भी युवती, उसे बहुत चाहने के बावजूद भी, अपनी मजबूरियों के चलते उससे विवाह करने को राज़ी नहीं होती है। ऐसे में किस तरह युवक की समझदारी से एक बड़ी बात छोटी सी बात में तब्दील हुई जाती है। 

इस संकलन की एक कहानी ऐसे नवविवाहित जोड़े की कहानी है जिसमें युवती दिन भर तो सामान्य एवं खुश रहती है मगर एकांत पलों में जाने उसे क्या हो जाता है कि उनके आपसी सम्बन्ध सामान्य नहीं रह पाते। इस संकलन की एक कहानी में अपने बच्चों की अवहेलना झेल रहे बुज़ुर्गों की जिंदगी को लेकर कहानी का प्लॉट रचा गया है कि किस तरह वे सब मिल कर अपनी बची खुची ज़िंदगी को खुशनुमा बनाने का प्रयास करते हैं।

रोचक अंदाज़ में सहज..सरल एवं आम बोलचाल की भाषा में लिखी गयी उनकी कहानियां हमें अपने आसपास घट रही घटनाओं सी लगती हैं। अपनी कहानियों के पात्रों की मानसिक अवस्था, उनके भीतर चल रहे अंतर्द्वंद्व को, उनकी मानसिक परेशानियों को, भीतर उमड़ रहे झंझावातों को उकेरना रोचिका अरुण शर्मा जी अच्छी तरह से जानती हैं। पारिवारिक रिश्तों की आपसी उधेड़बुन, उनमें आए उतार चढ़ाव  और भावनाओं से लबरेज़ कहानियाँ अपनी सधी हुई भाषाशैली की वजह से प्रभावित करने में सक्षम हैं।

इन कहानियों को पढ़ने के बाद मैंने अनुभव किया कि अपने तमाम उतार चढ़ावों और दुश्वारियों, परेशानियों के बावजूद इन सभी कहानियां का अंत साकारात्मकता लिए हुए है जो कि प्रशंसनीय है। 
हालांकि सभी कहानियां पठनीयता के हिसाब से बढ़िया हैं लेकिन अंत की कुछ कहानियों में मुझे एक पाठक की हैसियत से थोड़ा कच्चापन लगा। कुछ जगहों पर मात्रात्मक चिन्हों का ना होना या फिर सही नहीं होना थोड़ा खला। 

हालांकि यह किताब मुझे उपहारस्वरूप मिली फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए में बताना चाहूँगा कि उम्दा क्वालिटी के इस 128 पृष्ठीय किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹ 150/- जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।

जुहू चौपाटी- साधना जैन

मायानगरी बॉलीवुड और उससे जुड़ी कहानियाँ सदा से ही हमारे चेतन/अवचेतन में आकर्षण का केंद्र रही हैं। फिल्मी सितारों का लक्ज़रियस जीवन, लैविश रहनसहन, लंबी चौड़ी गाड़ियाँ, उनकी मस्ती, नोक झोंक, गॉसिप, जलन, प्रतियोगिता/प्रतिस्पर्धा के चलते रंजिशें, साजिशें, बंदिशें और रोज़ाना होते करोड़ों के हेरफेर के साथ साथ हर समय असुरक्षा की बातें कभी अफ़वाह बन कर तो तड़के मिश्रित सच्ची/झूठी खबर बन कर टीवी चैनलों, अखबारों और  पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हमारा ध्यान तो अपनी तरफ़ खैर..खींचती ही है। इसमें कभी कोई रातों रात अर्श से फर्श पर पहुँच खुदकुशी कर बैठता है तो कोई अचानक कामयाबी पा..सीधा आसमानी बुलंदियों की ऊँची ऊँची बातें कर खुद को खुदा समझने लगता है।

अब यही सब अगर पढ़ने की रुचि रखने वालों को किसी उपन्यास की शक्ल में नज़र आ जाए तो फिर कहने ही क्या। दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ बॉलीवुडीय पृष्ठभूमि पर लिखे गए साधना जैन के उपन्यास 'जुहू चौपाटी' की, जो संयोग से उनकी पहली किताब भी है। पहली किताब के नज़रिए से देखें तो उनका लेखन काफ़ी परिपक्व एवं कसावट लिए हुए नज़र आता है।

कहानी की शुरुआत में ही एक नामी हीरोइन का कत्ल हो चुका है जो कैरियर की चाह में पंद्रह साल पहले शिमला से दिल्ली और फिर मुंबई आ कर बसी थी। इस कत्ल और उसके पीछे की वजहों को तलाशने की कहानी है "जुहू चौपाटी" जिसमें अधिकांश लोगों का मत है कि उसने आत्महत्या की है। मगर जो बात इस कहानी को ख़ास बनाती है, वो है कि हत्या या आत्महत्या के बीच पशोपेश में झूल रही पुलिस के अलावा खुद हीरोइन की आत्मा भी अपने कातिल को ढूँढ़ रही है क्योंकि खुद उसका खुद का मानना है कि वह आत्महत्या जैसे कायराना काम को किसी भी सूरत में अंजाम नहीं दे सकती।

हिरोइन के आत्मकथ्यात्मक नज़रिए से कहानी चलते हुए बार बार पाठकों को फ्लैशबैक में ले जा कर  पुनः वर्तमान परिस्थितियों में ले आती है। अपनी मौत की वजह को तलाशने के संदर्भ में लेखिका हमें हीरोइन के बचपन, दोस्तों से ले कर उसकी अच्छी बुरी आदतों, पिता से बनते बिगड़ते रिश्तों के अतिरिक्त ज़िन्दगी को ले कर उसके नज़रिए..उसकी सोच से भी रूबरू करवाती है।

इस उपन्यास एक तरफ कास्टिंग काउच और मी.टू जैसी घटनाएँ हैं तो दूसरी तरफ बेशुमार पैसा और शोहरत को  ले कर अभिनेता/अभिनेत्रियों के बीच स्ट्रगल, जलन, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, असुरक्षा , द्वेष, ग़लतफ़हमी जैसी आम मानवीय भावनाएँ भी अपने पूरे शबाब पर हैं।

इसमें अगर एक तरफ कला के सच्चे पारखी नज़र आते हैं तो दूसरी तरफ खूबसूरत लड़कियों को कॉन्ट्रैक्ट/पैसे का लालच दे शोषण के अवांछित..अनैतिक प्रस्ताव रखने वाले प्रोड्यूसरों /फाइनेन्सरों की भी कमी नहीं है।
 
इसमें मातहतों से बनते बिगड़ते रिश्तों की अगर बात है तो दोस्ती को नयी सोच..नए आयाम..नयी मंज़िल तक पहुँचाने की भी बात है। इसमें कला के उम्दा पारखी हैं तो झूठे आश्वासनदाताओं का भी जिक्र है। इसमें अगर ब्लैकमेलिंग के साथ साथ धमकाते राजनीतिज्ञों का दबंगपना भी है।

इसमें किसी को जुनून की हद तक चाहने, खून से खत लिखने की बात कहीं कहीं 'डर' फ़िल्म से प्रेरित लगी।

सधी हुई मोहक शैली में लिखे गए इस रहस्य..रोमांच और उत्सुकता से भरे कंप्लीट पैकेज में कहीं कहीं बुद्धिजीवी टाइप की बातें लिखी भी दिखाई जिन्हें सही अर्थों एवं संदर्भों में समझने के लिए उन्हें फिर से पढ़ना पड़ा। उपन्यास के कुछ पृष्ठों में एक विदेशी किरदार के आ जाने से दोनों किरदारों के संवाद सिर्फ़ अंग्रेज़ी में लिखे दिखाई दिए। अधिकतम पाठकों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए उन वाक्यों का सरल हिंदी अनुवाद भी साथ में दिया जाना चाहिए था। 

इनके अलावा कुछ छोटी छोटी कमियां भी दिखाई दी जैसे..

• पेज नम्बर 32 पर एक जगह हीरोइन अपने हीरो के बारे में बता रही है कि.."फलाने हीरो के साथ मेरी सारी फिल्में सुपरहिट रही हैं।" 

जबकि अगले ही पेज पर वह कहती है कि.."हमारी फ़िल्म पहले ही दिन दर्शकों ने नकार दी थी।" 

• पेज नम्बर 59 पर बताया है कि अपने मम्मी पापा की शादी के दो वर्षों बाद वह पैदा हुई याने के कुल मिला कर तीन सदस्य जबकि इसके अगले पैराग्राफ में लिखा है कि..

"हर रविवार को हम चारों माल रोड और रिज पर घूमने जाया करते थे।" 

मेरे हिसाब से किसी भी किताब की तरफ पाठकों की उत्सुकता जगाने एवं उसके ध्यानाकर्षण के लिए किताब के कवर का आकर्षक एवं लुभावना होना बेहद ज़रूरी है। इस कसौटी पर यह उपन्यास मात खाता दिखा। साथ ही उपन्यास पर लेखिका का नाम थोड़ा बोल्ड और बड़े अक्षरों में होता तो बेहतर था। 
खैर..इस तरह की छोटी छोटी कमियों की तरफ ध्यान देने पर इन्हें आगामी संस्करणों में आसानी से दूर किया जा सकता है। 

हालांकि यह उपन्यास मुझे लेखिका से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 172 पृष्ठीय बढ़िया उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका दाम रखा गया है 150/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

लाइफ आजकल- आलोक कुमार

कहते हैं कि किसी भी चीज़ के होने ना होने का पहले से तय एक मुक़र्रर वक्त होता है। किताबों के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। कुछ किताबों को पढ़ने की इच्छा से आप मँगवा तो लेते हैं मगर उन्हें पढ़ने का जाने अनजाने में मुहूर्त नहीं निकल पाता। कई बार हम एक साथ इतनी किताबें मँगवा लेते हैं कि कुछ किताबें हमारी आँखों के सामने होते हुए भी हमें नज़र नहीं आती या अगर कभी भूल से नज़र आ भी जाती हैं तो हम अन्य किताबों को पहले तरजीह देते हुए किसी अन्य किताब की तरफ बढ़ जाते हैं। मगर ऐसे में कई बार कुछ अच्छी किताबों को हमारे द्वारा उन्हें पढ़े जाने के इंतज़ार में चुपचाप दुबक कर मायूस हो बैठे रह जाना पड़ता है। 

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ आलोक कुमार द्वारा रचित कहानियों के एक उम्दा संग्रह 'लाइफ आजकल' की। जिसे मेरे द्वारा कम से कम छह महीने पहले पढ़ लिया जाना चाहिए था मगर वो कहते हैं ना कि..हर चीज़ या बात का एक तय वक्त होता है। तो चलो..अब ही सही। उनके पहले उपन्यास 'the चिरकुट्स' से अगर तुलना कर के देखूँ तो इस कहानो संग्रह में उनकी लेखनी एकदम आश्चर्यजनक ढंग से परिष्कृत हो कर सामने आयी है। 

आजकल की युवा पीढी और तत्कालीन माहौल को ले कर रची गयी कहानियों में आपको बीच बीच में ऐसी बातें पढ़ने को मिलती हैं कि आप मुस्कुराते हुए उनकी लेखनी के हर कहानी के साथ मुरीद होते चले जाते हैं। इस संकलन की पहली कहानी 'अधूरी ज़िन्दगी' फ़िल्मनगरी मुंबई में लिव इन में रह रहे एक संघर्षरत जोड़े की है। परिस्थितिवश अलग हो चुके इस जोड़े का अलग होने के बाद एक बेटा पैदा होता है जिसकी युवक को खबर नहीं है। कुछ वर्षों बाद परिस्थितियाँ उन्हें फिर फिर मिलाती हैं मगर क्या वो फिर से एक हो पाते हैं? 

अगली कहानी 'जस्ट फ्रैंड्स' एक ऐसे लड़के की है जिसे उसकी दोस्ती, जो दोस्त के लेवल से कुछ ज़्यादा आगे बढ़ चुकी है, का वास्ता दे कर एक लड़की ने अपनी शादी के दिन अपने घर में बुलाया है। प्यार की तरफ़ बढ़ती कहानी किस तरह सिर्फ दोस्ती तक में सिमट जाती है? यह जानने के लिए तो कहानी को पढ़ना होगा। 

अगली कहानी 'सपने' इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहे एक ऐसे लड़के की है जो अपने माँ बाप के दबाव में आ..वहाँ एडमिशन तो ले लेता है मगर उसका असली रुझान..असली ध्यान पेंटिंग में अपना कैरियर बनाने को ले कर है। जो उसके घरवालों को बिल्कुल भी मंज़ूर नहीं। एक दिन तंग आ कर वो बिना किसी को बताए कॉलेज से गायब हो जाता है। क्या उसके सपने कभी पूरे हो पाते हैं या वो भी औरों की देखादेखी खुदकुशी कर बैठता है?

उनकी किसी कहानी में कहीं लड़के की चाह में पैदा हो ..उपेक्षित जीवन झेल रही बेटी ही,अपने बीमार बाप की जान बचाने के लिए बेटे के बजाय, काम आती है। 

मनमोहक शैली में लिखे गए इस बारह कहानियों के 152 पृष्ठीय मज़ेदार संग्रह को छापा है फ्लाइड्रीमज़ पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 150/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

और प्राण- बन्नी रुबेन( अजीत बच्छावत- अनुवाद)

किसी भी फ़िल्म में नायक के व्यक्तित्व को उभारने में खलनायक की भूमिका का बड़ा हाथ होता है। जितना बड़ा..ताकतवर खलनायक होगा, उतनी ही उसे हराने पर..पीटने पर..नायक के लिए तालियाँ बजती हैं। खलनायक की शातिर चालों पर जब नायक नहले पे दहला मारते हुए उसे पटखनी देता है तो नायक का नाम ऊँचा और बड़ा होता जाता है। खलनायक की महत्ता दर्शाने के लिए एक चली आ रही रवायत के अनुसार फ़िल्म के शुरू में नंबरिंग दिखाते वक्त खलनायक के नाम को अलग से महत्त्व देते हुए दर्शाया जाता है जैसे कि..and Pran (और 'प्राण') या and  Amrish Puri (और अमरीश पुरी) इत्यादि।  

दोस्तों..आज मैं बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री के एक ऐसे दिग्गज अभिनेता 'प्राण' के बारे में लिखी गयी किताब एक अँग्रेज़ी किताब "And Pran" के हिंदी अनुवाद "और प्राण" के बारे में बात करने वाला हूँ जिसे प्राण साहब के एवं उनके परिचितों के साक्षात्कार तथा गहन शोध के बाद 'बन्नी रुबेन' के द्वारा लिखा गया जो कि स्वयं भी एक फिल्मी पत्रकार एवं सिनेमा के प्रचारक थे। इस किताब की भूमिका हिंदी फिल्मों के महानायक 'अमिताभ बच्चन' ने लिखा है तथा इसके सफ़ल हिंदी अनुवाद की ज़िम्मेदारी को अजीत बच्छावत ने बहुत ही बढ़िया तरीके से पूरा किया है।

 'प्राण'..जिन्हें उनके रुतबे एवं अहमियत की वजह से हमेशा 'प्राण साहब' कह कर पुकारा गया। दिखने में हीरो के माफ़िक हैंडसम..स्मार्ट और सलीकेदार होने के साथ साथ वे इस कदर विश्वसनीयता के साथ पर्दे पर खलनायक के रूप में खुद को पेश करते थे कि जहाँ एक तरफ़ खुद को सभ्य और शरीफ़ मानने वाले लोग उनसे बचने..कतराने का प्रयास करते। तो वहीं दूसरी तरफ़ अधेड़ महिलाओं से ले कर नवयौवनाएँ तक भी भय के मारे आक्रांत हो..उनके आजू बाजू से हो कर गुज़रने से भी परहेज़ करती।

इनके अभिनय की रेंज का लोहा मल्लिका के तरन्नुम 'नूरजहाँ' से ले कर राजकपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार तथा अमिताभ बच्चन और गोविंदा तक की तमाम पीढ़ी ने माना। कहने का मतलब ये कि फ़िल्म जगत के अपने लगभग 67 वर्षों के सफ़र के दौरान उनके साथ हर बड़े छोटे कलाकार ने काम किया और उन्हें..उनके अभिनय एवं मिलनसार स्वभाव को सराहा। 

इसी किताब से हमें पता चलता है कि लाहौर में चल रहे अपने फ़ोटोग्राफ़ी के व्यवसाय से 200/- रुपए महीना कमाने वाले प्राण साहब ने खुशी खुशी मात्र 50/- रुपए मासिक की तनख्वाह पर फिल्मों में काम करना मंज़ूर किया कि इससे लोग उन्हें नकारा समझने के बजाय अभिनेता और कलाकार समझने लगेंगे। हालांकि जिस वक्त उन्होंने फिल्मों में कदम रखा उस समय इस पेशे को शरीफ़ लोगों के लिए सही नहीं समझा जाता था क्योंकि फ़िल्म के लिए अभिनेत्रियों के तलाश कोठों और वैश्यालयों में की जाती थी क्योंकि पैसे के लालच में वे कैमरे के सामने हर तरह की अदाएँ दिखाने के लिए बिना किसी झिझक के तैयार हो जातीं थीं।

इसी किताब में कहीं फैशनेबल कपड़ों और निजी रखरखाव के शौकीन प्राण साहब के लाहौर में तफ़रीह के लिए निजी तांगा रखे होने की बात नज़र आती है। तो कहीं किसी अन्य संस्मरण में उनकी वाकपटुता के बल पर अदालत का जज भी, उन पर चल रहे मोटर एक्सीडेंट के विभिन्न अभियोगों में, उनसे प्रभावित हो जुर्माने की राशि कम करता दिखाई देता है।

इसी किताब के ज़रिए प्राण साहब को फिल्मों में पहला मौका देने वाले दलसुख पंचोली से जुड़े एक अन्य संस्मरण में पता चलता है कि किस तरह मात्र दस साल की एक छोटी सी बच्ची की आवाज़ में मौजूद कशिश से प्रभावित हो उन्होंने उसे पंजाबी फिल्म 'यमला जट' में प्राण के साथ एक छोटा सा रोल दिया। जो कि प्राण साहब की भी पहली फ़िल्म थी। वही छोटी लड़की बेबी 'नूरजहाँ' बाद में गायिका-नायिका बन 'पंजाब की बुलबुल' और बाद में पाकिस्तान की 'मल्लिका ए तरन्नुम- नूरजहाँ' के नाम से जानी गयी। 

इसी किताब में कहीं उनकी उर्दू के मशहूर लेखक, सआदत हसन 'मंटो' से दोस्ती के बारे में पता चलता है। तो कहीं अपनी सुरक्षा के मद्देनज़र प्राण के सदा अपने साथ उस रामपुरी चाकू के रखे होने की बात पता चलती है जिसे उन्होंने सिंगापुर के एक पब में अचानक हुए झगड़े के दौरान निकाल भी लिया था। 

इस किताब में कहीं दोस्तों..परिचितों संग उनकी पार्टीबाज़ी और पीने पिलाने के दौरों और आदतों के बारे में विस्तार से पता चलता है तो कहीं कुत्तों के प्रति उनके मन का भावुक कोना भी परिलक्षित होता दिखाई देता है। इसी किताब में कहीं देव आनंद..राजकुमार और धर्मेन्द्र से होती हुई प्रकाश मेहरा की सुपरहिट फिल्म 'ज़ंज़ीर' अमिताभ बच्चन को मिलती दिखाई देती है। जिसके बाद उस समय के संघर्षरत अमिताभ बच्चन 'एंग्री यंग मैन के नाम से रातों रात प्रसिद्ध हुए और बदलते वक्त के साथ महानायक के मुकाम तक पहुँचे।

इसी किताब में कहीं प्राण, आपातकाल के दौरान तत्कालीन इंदिरा सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ बोलते दिखाई देते हैं। तो इसी किताब में कहीं उनके समय के पाबंद होने की बात का पता चलता है कि वे किस तरह सेट पर शूटिंग के समय से दो घंटे पहले ही पहुँच अपना मेकअप वगैरह करवा के तैयार हो जाया करते थे।  इसी किताब से उनकी लोगों के हाव भाव परखने एवं चाल ढाल और लहज़े की नकल करने की काबिलियत एवं पारखी नज़र का पता चलता है कि किस तरह वे अपनी हर फिल्म..हर किरदार के साथ उनके बोलने चालने.. पान खाने अथवा सिग्रेट पीने तक के..यहाँ तक कि चाय पीने के अलग-अलग अंदाज़ की हूबहू कॉपी कर लिया करते थे। 

इसी किताब से पता चलता है कि आज के प्रसिद्ध प्रोड्यूसर डायरेक्टर रोहित शेट्टी के पिता 'शैट्टी' जो कि खुद भी हिंदी फिल्मों के फाइट मास्टर और एक्टर थे, कभी प्राण के लिए उनके डुप्लीकेट का काम किया करते थे। साथ ही प्रसिद्ध अभिनेता अजय देवगन के पिता, वीरू देवगन जो कि एक जाने माने स्टंट डायरेक्टर थे, भी कभी प्राण के लिए उनके डुप्लीकेट का काम किया करते थे। 

इस किताब में कहीं उनकी क्रिकेट, फुटबॉल और हॉकी जैसे खेलों के प्रति उनकी दीवानगी ज़ाहिर होती है। अपने एक संस्मरण में वे बताते है कि किस तरह क्रिकेट मैच देखने के लिए उन्होंने CCI की सदस्यता ली और अपने मित्र के साथ हर बार किन्हीं खास सीटों को कब्जाने के लिए वे सुबह 5 बजे ही टिकट की लाइन में लग जाया करते थे। इसी मज़ेदार किस्से में वर आगे बताते हैं कि प्रतिबंधित होने के बावजूद वे फ्लास्क में चोरी से व्हिस्की भर कर स्टेडियम के अन्दर ले जाया करते थे। 

इसी किताब से पता चलता है दक्षिण भारत में बनने वाली हिंदी फिल्मों में सबसे पहले काम करने की शुरुआत भी प्राण ने ही की थी। यही किताब किसी जगह यह सत्यापित करती नज़र आती है कि एक तरफ़ जहाँ बॉलीवुड की फिल्मों में खलनायक के किरदार सीमित आयाम लिए एक ढर्रे के इर्दगिर्द सिमटे हुए होते थे जबकि साउथ की फिल्मों के खलनायक चरित्र बहुआयामी हुआ करते थे। 

इसी किताब में आगे प्राण बताते हैं कि किस तरह अपनी भूमिकाओं में वे किरदार की मनोदशा के हिसाब से अपनी भाव भंगिमा तय किया करते थे।  इसका एक उदाहरण देते हुए वे बताते हैं कि फ़िल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' के डकैत 'राका' के अभिनय के दौरान अपने हर दृश्य में वे अपने एक कान से दूसरे कान तक तक आहिस्ता आहिस्ता उँगली फिराते रहे। जिसके द्वारा वे यह दर्शाना चाहते थे कि हर डकैत या मुज़रिम को अंततः फाँसी लगने या फिर किसी के द्वारा गला रेत कर मार दिए जाने का ख़तरा सताता रहता है। 

इसी किताब में कहीं प्राण बताते हैं कि किस तरह उन्होंने मनोज कुमार की फ़िल्म 'शहीद' के डाकू कहर सिंह वाले रोल को इसलिए ठुकरा दिया था कि रोल बहुत छोटा था और उस वक्त उनका नाम भारतीय सिनेमा के बड़े नामों में शुमार हो चुका था। बाद में मनोज कुमार के ये कहने पर कि..

 "इस रोल को मैंने सिर्फ़ आपको ज़हन में रख कर ही लिखा था। अगर आप इस रोल को नहीं करेंगे तो मैं इस रोल को ही फ़िल्म से हटा दूँगा।" 
 
अपने प्रति मनोज कुमार के इस विश्वास को देखते हुए उन्होंने अपने निर्णय पर पुनर्विचार किया और इस अविस्मरणीय रोल को पूरी शिद्दत से निभाया। 

इस फ़िल्म की रिलीज़ के बाद एक समीक्षक ने लिखा कि फ़िल्म में जेल के दृश्य वास्तविक नहीं लगे जबकि सच्चाई तो यह थी कि इस फ़िल्म में शामिल जेल के दृश्यों को किसी सेट के माध्यम से नहीं बल्कि लुधियाना की वास्तविक जेल में शूट किया गया था। 

इसी फ़िल्म से जुड़े एक रोचक संस्मरण में प्राण बताते हैं कि पहली तीन रील बनने पर उसके रश प्रिंट्स देखने के बाद एक प्रोड्यूसर ने मनोज कुमार के सामने दावा किया था कि..

"पहली बात तो तुम ये फ़िल्म पूरी नहीं कर पाओगे और अगर पूरी कर भी तो बेच नहीं पाओगे और अगर किसी तरीके से बेच भी ली तो ये फ़िल्म कभी नहीं चलेगी और यदि यह फ़िल्म चल गई तो मैं अपना नाम बदल लूँगा।"

अब इस बात का तो खैर..इतिहास गवाह है कि फ़िल्म रिलीज़ हुई तो कितनी बड़ी हिट हुई।

एक अन्य संस्मरण में उपकार फ़िल्म के हिट गीत 'कसमें वादे प्यार वफ़ा' के बारे में पता चला है कि संगीतकार कल्याण जी-आनंद जी ने प्राण की नकारात्मक भुनिकाओं से बनी इमेज से आशंकित हो..अपनी तरफ़ से भरसक प्रयास किया कि इस गीत को मनोज कुमार, अभिनेता प्राण पर फिल्माने के बजाय इसे बेशक़ बैकग्राउंड म्यूज़िक की तरह इस्तेमाल कर लें लेकिन मनोज कुमार अपने निर्णय के प्रति पूर्णतया आश्वस्त थे। यहाँ तक कि प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार ने भी प्राण के लिए ये गीत गाने से इनकार कर दिया। बाद में खैर..इस सफ़ल गीत को मन्नाडे ने गाया। 

इसी किताब में अभिनेता अशोक कुमार के साथ अपने सामंजस्य के बारे में बताते हुए प्राण बताते हैं कि 'कठपुतली' फ़िल्म से हुए घाटे से उबरने के लिए निर्माता निर्देशक ब्रज सदाना द्वारा 'विक्टोरिया नम्बर 203' फ़िल्म को आनन फानन में बिना स्क्रिप्ट के बस कलाकारों की सहमति से शुरू किया गया और फ़िल्म के सेट पर ही तुरंत प्राण और अशोक कुमार द्वारा मिल कर चुटीले संवाद लिखे गए। उनकी आपसी कैमिस्ट्री और निर्देशक की समझदारी से यह मनोरंजक फ़िल्म सुपरहिट हुई। 

इसी किताब से पता चलता है कि 'बेईमान' फ़िल्म में बेस्ट सह कलाकार की भूमिका के लिए प्राण को फिल्मफेयर अवार्ड देने की घोषणा हुई मगर उन्होंने इस अवार्ड को लेने से इसलिए इनकार कर दिया कि उसी वर्ष रिलीज़ हुई फ़िल्म 'पाकीज़ा' के संगीतकार 'ग़ुलाम मोहम्मद' को श्रेष्ठ संगीत के लिए एवं इसी फिल्म के लिए श्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार, काबिलियत होने के बावजूद 'मीना कुमारी' को नहीं बल्कि 'सीता और गीता' के लिए 'हेमा मालिनी' को दिया गया क्योंकि उस वक्त गुलाम मोहम्मद और मीना कुमारी का देहांत हो चुका था। 

ज़ंज़ीर फ़िल्म से जुड़े एक रोचक संस्मरण में प्राण बताते हैं कि निर्देशक प्रकाश मेहरा की फ़िल्म की कहानी सुनने के बाद उन्होंने पठान शेरखान के रोल को करने के लिए हामी भर दी। उन्हीं दिनों मनोज कुमार भी 'शोर' फ़िल्म बनाने की तैयारियों में जुटे थे। उन्होंने भी अपनी फिल्म 'शोर' में उन्हें ज़ंज़ीर फ़िल्म के उनके पठान वाले रोल से मिलते जुलते रोल का ऑफर दिया। जिसमें उन्हें पठान ही बनना था। दोनों फिल्मों में एक जैसा ही रोल होने की वजह से उन्हें विनम्रतापूर्वक मनोज कुमार का ऑफर ठुकराना पड़ा कि वे एक वक्त में दो फिल्मों में एक जैसे ही रोल नहीं करना चाहते थे। 

ज़ंज़ीर फ़िल्म से जुड़े एक अन्य रोचक किस्से में प्रकाश मेहरा बताते हैं कि प्राण के कहने पर वे हीरो के रोल के लिए देव आनंद से जब मिले तो उन्होंने फ़िल्म में उन पर दो तीन गाने फिल्माने की शर्त रख दी जबकि फ़िल्म में स्क्रिप्ट के हिसाब से हीरो के लिए गानों की गुंजाइश ही नहीं थी। तब देव आनंद ने उनसे उनकी कहानी खरीदने और उस अपने बैनर नवकेतन के तले..उन्हीं के निर्देशन में फ़िल्म बनाने का ऑफर भी दिया। जिसे उन्होंने आपस में हँसी मज़ाक से टाल दिया। 

इसी किताब में एक जगह प्रसिद्ध अभिनेता/निर्देशक टीनू आनंद बताते हैं कि उन्होंने बतौर निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म 'कालिया' के लिए अमिताभ बच्चन को नायक तथा कठोर जेलर की भूमिका के लिए संजीव कुमार को चुना था लेकिन किसी ग़लतफ़हमी की वजह से संजीव कुमार ने हाँ करने के बाद भी काम करने से इनकार कर दिया। अंततः यह दमदार भूमिका प्राण ने निभाई। 

इसी किताब में अगर कहीं प्राण के दयालु प्रवृति के होने के बारे में तो कही कारों के प्रति उनके गहरे शौक के बारे में पता चलता है। तो कहीं किसी अन्य जगह पर उनके एक दिन में औसतन तीन पैकेट सिग्रेट ( 20 सिग्रेट ) पीने और तम्बाकू पीने में इस्तेमाल होने वाले पाइप इकट्ठा करने के शौक का पता चलता है। रंगीन तबियत और मिज़ाज़ के प्राण साहब को विभिन्न प्रकार के बियर ग्लास इकट्ठा करने तथा सहारा ले कर चलने में इस्तेमाल होने वाली छड़ियाँ इकट्ठी करना भी बहुत पसंद था। के शौक का पता चलता है। 

ऐसे ही अनेक रोचक किस्सों से सजी इस किताब के बीच में जगह जगह विभिन्न फ़िल्मी साथियों के साथ प्राण साहब के पुराने चित्र एवं उनके द्वारा निभाए गए फिल्मी चरित्रों की पेंटिग्स, किताब की शोभा को और अधिक बढ़ाने में मददगार साबित होती हैं। 

धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी इस 510 पृष्ठीय रोचक किताब के अंतिम 40 पृष्ठ 1940 में उनके लाहौर में शुरू हुए फिल्मी सफर से लेकर 2001 तक की उनकी फ़िल्मी यात्रा को बयां करते हैं। हालांकि यह किताब अपने आरंभ से ले कर अंत तक प्रभावित करती है लेकिन बहुत सी जगहों पर एक जैसी बातें मसलन उनकी अनुशासनप्रियता ..उनकी प्रभावी एक्टिंग..अथवा किस फ़िल्म के लिए उनकी किस समीक्षक या पत्रिका ने क्या तारीफ़ की इत्यादि जैसी बातें या फिर एक फ़िल्म से जुड़े अलग अलग व्यक्तियों से संबंधित बातें बार बार अलग अलग जगहों पर आ मानों पाठक का इम्तिहान सा लेती दिखाई देती हैं। अगर समझदारी एवं विवेक से काम ले इस किताब को सही से संपादित किया जाता तो आसानी इस किताब के कम से कम 100 पृष्ठ कम कर पाठकों का थोड़ा समय और पैसा बचाया जा सकता था। 

संग्रहणीय क्वालिटी की इस मनोरंजक किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्द पॉकेट बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 375/- रुपए। अमेज़न पर फिलहाल यह डिस्काउंट के बाद मात्र 249/- रुपए में मिल रही है।

कालो थियु सै- किशोर चौधरी

इस बार के पुस्तक मेले में हिन्दयुग्म के स्टॉल पर जब मैंने किशोर चौधरी जी की किताब "कालो थियु सै" ली तो यही ज़हन में था कि इसमें शीर्षकानुसार कुछ अलग सा पढ़ने को मिलेगा। ज़्यादा उम्मीद मुझे राजस्थानी कलेवर और वहाँ की मिट्टी की खुशबू में रची बसी कहानियों की थी मगर इस किताब में यात्रा संस्मरण, बिछड़े दोस्त, बाड़मेर जिले, मृत्यु, प्रेम, दार्शनिकता के साथ साथ भांग और विज्ञान के संगम से उपजी विशुद्ध गप्पबाज़ी भी है। 

भाषाशैली रोचक है। आप एक बार पढ़ना शुरू करते हैं तो पढ़ते चले जाते हैं। कहीं कहीं ऐसा आभास होता है जैसे लेखक पुरानी यादों को सहेजने के बहाने अपनी आत्मकथा लिख रहा है। इस पुस्तक में एक तरफ यार की यारी है तो साथ ही बाड़मेर जिले के चप्पे चप्पे की यादें भी अपनी मौजूदगी दर्शा रही हैं। इसमें रेगिस्तान की रेतीली कहानियाँ हैं तो कहीं कहीं मायानगरी बम्बई का जिक्र भी है। इसमें नागौर और बीकानेर के मन को बहलाने वाले किस्से हैं तो ठेठ दार्शनिकता का पुट भी कई जगह दिखाई देता है।

 इस सारे रेतीले सफर के दौरान बीच बीच में जानकारी से परिपूर्ण रोचक किस्से शीतलता प्रदान करने को ताज़ा हवा के झोंके के समान यदा कदा अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने को आते रहते हैं। उदाहरण के लिए अपनी किताब में किशोर चौधरी जी बताते हैं कि बीकानेर और नागौर रियासतों के बीच एक अजब लड़ाई लड़ी गयी थी जो कि एक तरबूज के लिए लड़ी गयी थी और इतिहास के पन्नों में "मतीरे की राड़" (वॉर फ़ॉर ए वॉटर मेलन) के नाम से प्रसिद्ध है। उसका किस्सा कुछ इस प्रकार है कि तरबूज़ की बेल एक रियासत में उगी लेकिन उसका तरबूज़ दूसरी रियासत में जा कर उगा और फिर दोनों रियासतों ने उस तरबूज़ पर अपना अपना दावा ठोंक दिया। 
 
वे बताते हैं कि  नागौर जिले की सूखी मेथी बहुत मशहूर है। पाकिस्तान के कसूर इलाके की सूखी मेथी ही कसूरी मेथी कहलाती है। महाशिया दी हट्टी के नाम से मशहूर अंतराष्ट्रीय ब्रैंड MDH ने भी अपना धंधा देगी मिर्च और नागौर की सूखी मेथी बेच कर जमाया था जो कि पाकिस्तानी कसूर जिले की सूखी मेथी से भी बेहतर थी। इनके अलावा और भी कई किस्से साथ साथ चलते हुए रोचकता बनाए रखते हैं। विज्ञान और भांग में गप्पबाज़ी के तड़के से उपजे किस्से तो आपको औचक ही हँसने पर मजबूर कर देते हैं। 

अगर आप बाड़मेर जिले समेत राजस्थान की यात्रा कुछ रोचक किस्सों के और यादों के ज़रिए करना चाहते हैं तो यह संस्मरणात्मक/ रेखाचित्रीय टाइप की किताब आपके मतलब की है। 144 पृष्ठीय इस किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹125/-..
आने वाले भविष्य के लिए लेखक और प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।

काली धूप- सुभाष नीरव(संपादन)

जब किसी दुख भरी कहानी को पढ़ कर आप उस दुःख.. उस दर्द..उस वेदना को स्वयं महसूस करने लगें। पढ़ते वक्त चल रहे हालात को ना बदल पाने की अपनी बेबसी पर कुंठित हो..कभी आप  तिलमिला उठें छटपटाते रहें या कभी सिर्फ सोच कर ही आप सहम जाएँ और आपके रौंगटे खड़े होने लगें। कहानी को पूरा पढ़ने के बाद भी आप घंटों तक उसी कहानी..उसी माहौल और उन्हीं घटनाओं के बीच पात्रों की बेबसी और मायूसी के बारे में सोच कर कसमसाते हुए उन्हीं की जद्दोजहद में अपने अंतःकरण तक डूबे रहें। तो इसे एक लेखक की सफलता कहेंगे कि वो आपको उस वक्त..उस माहौल और उन परिस्थितियों से सफलतापूर्वक रूबरू करवाते हुए जोड़ पाया जिनसे वह खुद उस कहानी को लिखते वक्त कई कई मर्तबा जूझता रहा। । उस पर भी बात अगर किसी अनुवादित कहानी या उपन्यास की हो तो इस सफ़लता का श्रेय लेखक के साथ साथ उसके अनुवादक को भी जाता है कि वह लेखक की बात को सही ढंग से..सही अर्थों एवं सही संदर्भों में पाठकों तक कुशलतापूर्वक पहुँचा पाया। 

किसी भी प्रांत, राज्य या देश के रहन सहन, भाषा, खानपान, संस्कृति और वहाँ के लोगों की स्थिति-परिस्थिति..दशा-दुर्दशा के बारे में जानने समझने का सबसे आसान तरीका है कि आप खुद को उस क्षेत्र विशेष के साहित्य से खुद को अप टू डेट रखें लेकिन उसके लिए भी उस जगह की स्थानीय भाषा एवं वहाँ की लिपि का हमें ज्ञान होना बेहद ज़रूरी हो जाता है। जो कि एक आम पाठक के लिए लंबा, दुरूह, थकाऊ एवं कभी- कभी नीरस प्रवृति का भी  होता है। 

ऐसे में मदद के लिए हमारे आगे अनुवादक का काम आता है जो बड़ी ही ज़िम्मेदारी से अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद कर उस साहित्य, उस दस्तावेज की पहुँच को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक सुगम एवं व्यापक बनाता है। एक अच्छा एवं सफल अनुवादक अपनी तरफ़ से भरसक प्रयास करता है कि अनुवाद करते समय किसी भी साहित्य की भाषा, संस्कृति और आत्मा को हूबहू लेखक की ही भाषा में पन्नों पर इस प्रकार उतार दे कि वह अपने सही मंतव्य एवं मंशा से अन्य लोगों तक पहुँचे।

दोस्तों.. आज मैं बात कर रहा हूँ पिछले 40 वर्षों से पंजाबी भाषा के उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी में अनुवाद कर रहे प्रसिद्ध साहित्यकार सुभाष नीरव जी और उनकी नयी अनुवादित कृति "काली धूप" की जिसमें उन्होंने पंजाबी के प्रसिद्ध रचनाकारों की छह लंबी कहानियाँ को सम्मिलित किया है। वे अब तक 600 से ज़्यादा पंजाबी कहानियों का हिंदी में सफलतापूर्वक अनुवाद कर चुके हैं और उनके द्वारा अनुवादित पुस्तकों की संख्या फिलहाल 50 है। 

पंजाब का नाम ज़हन में आते ही हमारी आँखों के सामने से, लहलहाते हरे भरे खेत, हँसते मुस्कुराते..खाते पीते..भाँगड़ा डाल यहाँ वहाँ ऊधम मचाते वहाँ के अति उत्साहित बाशिंदें, गुज़र जाते हैं। मगर जैसा कि सब जानते हैं कि हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। ठीक वैसे ही पंजाब के इस चमकते दमकते चेहरे के पीछे की कालिमा ली हुई भयावह सच्चाई के बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं। 

पंजाब के इसी काले सच से रूबरू करवाने वाली इन कहानियों को सुभाष नीरव जी ने अपने इस संग्रह में संकलित किया है जो पहले ही हिंदी की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छप कर एक अहम मुकाम पा चुकी हैं। 

इस संकलन की पहली कहानी 'अंधी गली का मोड़' के रचियता 'गुरदयाल दलाल' हैं। इनमें बात है नशे की गिरफ्त में दिन प्रतिदिन घिरते पंजाब के युवाओं और उनकी बेअदबी भरी बेतरतीब ज़िन्दगी की। इसमें बात है विधवा माँ की बेबसी और  नशे-सैक्स की  यौवन मिश्रित आँधी में तमीज़ खो चुके जवान बेटे और बेटी की। इसमें बात है हालातों के इस हद तक बिगड़ जाने की कि एक मजबूर माँ अपने ही जवान बेटे का कत्ल तक कर उठती है।

अगली कहानी 'काली धूप' को लिखा है 'जिन्दर' ने। इसमें बात है धोखे..फरेब और जालसाज़ी के चपेट में आए मुंगेरीलाल माफ़िक हसीन सपनों की। इसमें बात है दलालों के ज़रिए, लाखों रुपए खर्च कर अवैध तरीके से, दूसरे देशों में बसने की तमन्ना रखने वाले पंजाब के लाखों युवाओं और नित उड़नछू होते उनके हवा हवाई सपनों की। इसमें बात है बीच रेगिस्तान के कष्टमयी सफ़र ना झेल पाने से लावारिस मरने वाले सैंकड़ों युवाओं और मजबूरीवश उन लाशों से पिंड छुड़ाते, बेदर्द बने उन्हीं के अपने हमसफ़र.. हमवतन साथियों की। 

अगली कहानी 'जून', जिसका अर्थ है मनुष्य योनि, के रचियता 'मनिंदर सिंह कांग' हैं। इसमें बात है आतंक की चपेट से बाहर निकलने को प्रयासरत पंजाब और इसी कोशिश में जुटे, नशे में धुत, बर्बर पुलिस वालों और उनके अमानवीय टॉर्चर की। इसमें बात है मुखबिरों की मदद से शह मात का खेल खेलती पुलिस और उनसे लुकाछिपी खेलते खाड़कूओं(उग्रवादियों) की। इसमें बात है अमानवीय यातनाओं से त्रस्त आमजन के घुन माफ़िक आटे में पिसने.. पिसते रहने और अंततः थक हार कर दम तोड़ देने की। 

अगली कहानी "अगर मैं अपनी व्यथा कहूँ" के लेखक 'बलजिंदर सिंह नसराली' हैं। इसमें बात है कर्ज़ में डूबे आम भारतीय गरीब किसान और उसकी कष्टपूर्ण राह में नित नयी खड़ी होती छोटी बड़ी  कठिनाइयों की। इसमें बात है पारिवारिक झगड़ों में उल्लेखनीय दखल रखती बहुओं के बढ़ते वर्चस्व एवं नित नए बढ़ते चाहे/अनचाहे योगदान की। इसमें मार्मिक व्यथा है आढ़तियों और रेहड़ी वालों के बीच, नयी राह खोजते, असमंजस में डूबे आम छोटे व मझोले किसान की। 

अगली कहानी "कूकर" के रचियता 'बलराज सिद्धू' हैं। इसमें बात है यौवन की आग में सही गलत का फ़ैसला ना कर पाने वाले आम युवाओं की मनोस्थिति की। इसमें बात है प्रेम-कामुकता और भोग-लिप्सा के मद में अँधी हवस के हावी होने और उस पर समय रहते अपने अंतर्मन के ज़रिए संयम पा लेने की। 

अंतिम कहानी "लंगड़ा कुक्कड़" को लिखा है बलविंदर सिंह बराड़ ने। इसमें बात है विधुर हो चुके, अँधी हवस के पुजारी, अधेड़ बाप और उसके, उस जवान बेटे की। जो अपने प्यार से शादी करने के लिए महज़ इसलिए हामी नहीं भरता कि कहीं उसके लंपट बाप की गंदी नज़र, उसकी अपनी बहू पर ही ना पड़ जाए। 

कुछ जगहों पर एक आध अक्षर छूटा हुआ या आधे अक्षर सही से नहीं छपे दिखाई दिए जैसे..गुरुद्वारा, गुरुद् वारा लिखा दिखाई दिया। 

हालांकि यह किताब मुझे मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि अलग अलग विषयों और कलेवर से सुसज्जित कहानियों के इस 196 पृष्ठीय संग्रहणीय क्वालिटी के उम्दा पेपरबैक संस्करण को छापा है शुभदा बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 360/- रुपए जो कि मुझे आम हिंदी पाठक के नज़रिए से ज़्यादा लगा। बतौर पाठक मेरा मानना है कि पहले दाम ज़्यादा और बाद में डिस्काउंट देने से अच्छा है कि प्रकाशक अपनी किताबों की क्वालिटी और दाम..

*औसत
*बढ़िया और 
*हार्ड बाउंड 

के हिसाब से पढ़ने वालों की जेब के अनुसार रखे। इससे उसे ज़्यादा पाठक/ग्राहक मिलेंगे और मुनाफ़ा कमाने का उसका मंतव्य भी आसानी से पूरा हो जाएगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

डार्क हॉर्स- नीलोत्पल मृणाल

कई बार कुछ कहानियाँ या उपन्यास अपनी भाषा...अपने कथ्य..अपनी रोचकता..अपनी तारतम्यता के बल पर  आपको निशब्द कर देते हैं। उनको पूरा पढ़ने के बाद भी आप उसी कहानी..उसी परिवेश और उन्हीं पात्रों के साथ खुद को उसी माहौल में विचरता पाते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ इस बार हुआ जब मैंने नीलोत्पल मृणाल का उपन्यास "डार्क हॉर्स" पढ़ने के लिए उठाया।

इस उपन्यास में कहानी है दिल्ली के एजुकेशन हब माने जाने वाले इलाके मुखर्जी नगर और उसके आसपास के सटे इलाकों की जहाँ पर पूरे साल देश भर से गाँव देहात के हज़ारों लाखों युवा कुछ कर दिखाने का सपना, ज़ुनून और माद्दा ले कर आते हैं। वो साल दर साल इसी उम्मीद में जीते चले जाते हैं कि एक ना एक दिन वो अपना...अपने परिवार का सपना पूरा कर सफल होते हुए आई.ए.एस या फिर आई.पी.एस बन के दिखाएँगे।

इसमें कहानी उन युवाओं की है जो भेड़चाल के तहत गांव देहात से ऊँचे ऊँचे सपने पाल यहाँ शहर में आ तो जाते हैं मगर तमाम तरह की जद्दोजहद और जीतोड़ मेहनत के बाद भी क्या उनके सपने  पूरा हो पाते हैं या फिर बीच में ही हार मान अपना रस्ता बदलते हुए दम तोड़ देते हैं। 

इसकी कहानी में जहाँ एक तरफ कोचिंग सैंटर्स के गोरखधंधे हैं तो दूसरी तरफ प्रॉपर्टी डीलर्स की मनमानी भी है। इसमें युवाओं के खिलंदड़पने के किस्से हैं तो मनचले..रोमियों टाइप के उत्साही युवाओं की मस्तियां भी हैं। इस कहानी में लड़की देख लार टपकाते नवयुवक हैं तो बढ़ती उम्र के अधेड़ होते युवा भी किसी मामले में उनसे कम नहीं हैं। इसमें गरीब माँ- बाप का प्यार, मोहब्बत और उम्मीदें है तो उनकी बेबसी का त्रासद खाका भी है। इसमें आज़ादी की चाह में हर बंधन को नकारने वाले अगर हैं तो एक तयशुदा सीमा तक इसका मर्यादित समर्थन करने वाले भी अपनी जगह पर अडिग खड़े नज़र आते हैं।

इसमें असफलता के चलते हार मान चाय का ठियया लगाने वाला पढ़ाकू युवा अगर है तो टिफिन सप्लाई करने वाला ब्रिलियंट प्रोफेसर भी है। इसमें हँसने खिलखिलाने के पल हैं तो दुखदायी मौके भी कम नहीं है। इसमें मस्ती के आलम हैं तो संजीदगी के पल भी अपने पूरे शबाब पर हैं।

पहले ही उपन्यास से अपनी लेखनी की धाक जमाने वाले नीलोत्पल मृणाल ने कोई ऐसी कहानी नहीं रची है जो अद्वितीय हो या फिर ऐसे अनोखे पात्र नहीं गढ़े हैं कि जिनके मोहपाश से बच  निकलना नामुमकिन हो या फिर उनका कोई सानी ना हो मगर इस उपन्यास में उनका कहानी कहने का ढंग, उसका ट्रीटमेंट, कसी हुई पटकथा, अपने आसपास दिखते...बोलते बतियाते किरदार, कहीं कहीं भोजपुरी कलेवर से सजी सीधी..सरल आम बोलचाल की भाषा...सब का सब एक दम सही नपे तुले अनुपात में। कहीं भी किसी चीज़ की अति नहीं।

एक खास बात और कि हो सकता है कि पुरानी साहित्यिक भाषा के मुरीदों को इसकी भाषा थोड़ी असाहित्यक लगे और इसे देख व पढ़ के उनकी त्योरियां चढ़ने को उतारू हो उठें लेकिन यही तो नयी वाली हिंदी है जनाब। अगर युवाओं को हिंदी और साहित्य से जोड़ना है तो इस तरह के प्रयोग भी ज़रूरी हैं। अगर आप आई.ए.एस या आई.पी.एस करने के इच्छुक हैं या फिर उनकी ज़िंदगी को करीब से जानना चाहते हैं तो यह उपन्यास आपके मतलब का है। अच्छी व रोचक कहानी के इच्छुक पाठकों को भी ये उपन्यास बिल्कुल निराश नहीं करेगा।

176 पृष्ठीय के इस सहेज कर रखे जाने वाले उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म और वेस्टलैंड पब्लिकेशंस प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹175/- मात्र जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटेंट को देखते हुए बहुत ही कम है। आने वाले भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

साँझी छत- छाया सिंह

आमतौर पर किसी का शुरुआती लेखन अगर पढ़ने को मिले तो उसमें से उसकी अनगढ़ता या सोंधी महक लिए कच्चापन स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। मगर सुखद आश्चर्य के रूप में कई बार किसी का शुरुआती लेखन ही अपने आप में संपूर्ण परिपक्वता लिए मिल जाता है। दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ छाया सिंह जी के पहले कहानी संकलन "साँझी छत"  की। 

23 कहानियों के इस संकलन में उनके धाराप्रवाह लेखन को देख कर लगता है कि पूरी तैयारी के साथ  साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने अपना आगाज़ किया है। 
मानवीय संबंधों को ले कर साकारात्मक ढंग से लिखी गयी उनकी कहानियों के मध्यमवर्गीय पात्रों को हम आसानी से अपने आसपास के माहौल में देख सकते हैं। 

इस संकलन की पहली कहानी 'सुनहरी भोर' में बीस साल बाद जब बिछुड़ी हुई सहेलियाँ मिलती हैं तो एक दूसरे के जीवन में आई रिक्तता को अपने अपने ढंग से दूर करने का प्रयास करती हैं। अगली कहानी 'सौदा' में एक बस एक्सीडेंट में अपने बेटे और बहू को खो चुकी कुसुमिया को जब झाड़ियों में फेंकी हुई एक लावारिस बच्ची मिलती है तो ममतावश उसे अपने अपाहिज हो चुके नाती के साथ पालने के लिए अपने घर ले आती है मगर अपने अपाहिज नाती का सही से इलाज करवाने की शर्त पर वो उस लावारिस बच्ची का सौदा एक अमीर औरत से कर बैठती है।

एक अन्य कहानी 'साँझी छत' में विदेश में रह रहे बेटे- बहू के बारे जब दादी को पोते के ज़रिए पता चलता है कि वे  यहाँ..भारत का मकान बेच कर, उसे अपने पास विदेश में बतौर उनके घर की केयर टेकर इस्तेमाल करना चाहते हैं।  तो वो कुछ ऐसा साहसी कदम उठाने का फैसला कर लेती है कि उसके बच्चे अपनी मनमर्ज़ी ना कर पाऍं। 

आम मध्यमवर्गीय घरों के भीतर अहमियत रखने वाले छोटे बड़े मुद्दों को ले कर रची गयी उनकी छोटी छोटी कहानियाँ वैसे तो प्रभावित करती हैं। कुछ जगहों पर छोटी छोटी वर्तनी की अशुद्धियाँ दिखाई दी। इसके अलावा एक कहानी 'अपना अपना आसमान'  में कुछ खामी भी दिखाई दी कि मालकिन और कामवाली बाई, दोनों की दोनों अपने अपने पतियों की बुरी आदतों की वजह से त्रस्त हैं। तो ऐसे में मालकिन, कामवाली बाई को तो राय देती है कि...वो अपनी बच्ची के साथ घर छोड़, क्रेच खोलने में उसकी मदद करे। मगर वहीं खुद, लगभग एक जैसी ही परिस्थिति में, अपने पति के साथ ही रहने का फैसला करती है। 

साथ ही प्राइवेट कम्पनी से पति को मिले फ्लैट के गेस्ट हाउस में कोई कैसे अपना निजी काम(क्रेच) खोल सकता है? कुछ कहानियों में बहुत छोटे छोटे वाक्य पढ़ने को मिले जिन्हें आसानी से बड़े वाक्य में सम्मिलित कर और अधिक प्रभावी एवं परिपक्व वाक्य बनाया जा सकता था।

किसी भी किताब का मुख्य आकर्षण उसका शीर्षक तथा कवर डिज़ायन होता है। कवर ऐसा होना चाहिए जो पाठक की एक नज़र पड़ते ही उसे किताब को हाथ में उठा कर उलटने पलटने के लिए मजबूर कर दे। साथ ही किताब का दमदार या अनोखा शीर्षक, किताब के प्रति पाठकों की जिज्ञासा एवं उत्सुकता को जगाने का काम करता है। उस लिहाज़ से यह संकलन इन मुद्दों पर थोड़ा कमज़ोर लगा। उम्मीद है कि किताब के अगले संस्करण में इन छोटी छोटी कमियों को यथासंभव दूर करने का प्रयास किया जाएगा।

144 पृष्ठीय उम्दा क्वालिटी के इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है अनामिका प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- जो कि मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

मिसेज फन्नी बोन्स- ट्विंकल खन्ना

माना जाता है कि किसी को हँसाना सबसे मुश्किल काम है। इस काम को आसान बनाने के लिए कुछ लोगों द्वारा किसी एक की खिल्ली उड़ा, उसे हँसी का पात्र बना सबको हँसाया जाता है लेकिन यकीन मानिए ऐसे..इस तरह..किसी एक का माखौल उड़ा सबको हँसाने की प्रवृति सही नहीं है। ना ही ऐसे हास्य की लंबी उम्र ही होती है। बिना किसी को ठेस पहुँचाए खुद अपना मज़ाक उड़ा, दूसरों को हँसाने का तरीका ही सही मायनों में श्रेयस्कर होता है। किसी की वजह से अगर किसी को मुस्कुराने की ज़रा सी भी वजह मिल जाती है तो समझिए कि उसका दिन बन जाता है। ऐसे ही मुस्कुराने की ढेरों वजह दे जाती हैं ट्विंकल खन्ना अपनी पुस्तक "मिसेज फनीबोन्स" के माध्यम से जो कि इसी नाम से आयी उनकी अंग्रेज़ी पुस्तक का हिंदी अनुवाद है।

ट्विंकल खन्ना ने अंग्रेज़ी अखबारों में बतौर कॉलम लेखिका अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी की कुछ खट्टी मीठी बातों को इन कॉलमज़ के ज़रिए शेयर किया और इसमें प्रसिद्धि पा लेने के बाद इन्हीं छोटी छोटी बातों को पुस्तक का रूप दिया। इन कॉलमज़ में वह अपनी हताशा, अपनी कुंठा, अपनी मूर्खताओं, अपनी वर्जनाओं, अपनी खुशियों और परिस्तिथिजनक स्तिथियों पर खुद ही कटाक्ष कर, खुद को  ही हँसी का पात्र बना लेती हैं और उनकी इस हाज़िरजवाबी पर पढ़ने वाले मुस्कुराए बिना नहीं रह पाते।

हँसी के लिए उन्हें झूठे...काल्पनिक पात्रों या छद्म नामों को गढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती बल्कि इस मामले में वह अपने घर के ही सदस्यों मसलन खुद (ट्विंकल खन्ना), उनके पति (फ़िल्म स्टार अक्षय कुमार, उनकी माँ डिम्पल कपाड़िया(खन्ना), सास, बच्चे, नौकर चाकर, मिलने जुलने वालों, मेहमानों समेत अपने पालतू जानवरों में से किसी को नहीं बख्शती। सबको हँसाने के लिए वे अपनी मूर्खतापूर्ण बातों को भी नहीं छिपाती और उन्हें इस तरह से और ज़्यादा हाई लाइट कर के प्रेसेंट करती हैं कि कोई भी मुस्कुराए बिना रह नहीं पाता। ये भी नहीं है कि उनकी बातों में सिर्फ हँसी या मुस्कुराने के पल ही होते हैं। कई बार उनकी इन हल्की फुल्की बातों में भी गहन अर्थ, गहरी वेदना एवं सामाजिक चेतना या जागरूकता से भरे संदेश छिपे होते हैं। 

ये सही है कि उनका लिखा आमतौर पर आपको ठठा कर हँसने का मौका बहुत ही कम या फिर लगभग नहीं के बराबर देता है लेकिन हाँ!...मुस्कुराहट का सामान आपको लगातार मिलता रहता है। ये शायद इसलिए होता है कि वह अंग्रेज़ी में लिखती हैं और समाज के एलीट वर्ग से आती हैं। समाज के एलीट वर्ग के बारे में तो आप समझते ही हैं कि वहाँ पर ठठा कर या फिर ठहाके लगा कर हँसना असभ्यता की निशानी माना जाता है लेकिन आम मध्यमवर्गीय लोगों के लिए खुल कर हँस पाना ही असली खुशी का साधन एवं सामान होता है। उम्मीद करनी चाहिए कि इस बात को ज़हन में रखते हुए उनकी आने वाली किताबों में मुस्कुराहट के साथ साथ हँसी का भी ज़्यादा से ज़्यादा सामान होगा।

अगर आप एलीट वर्ग में अपनी जगह बनाना चाहते हैं या फिर बुद्धिजीवी टाइप के व्यक्तियों में अपनी पैठ जमाने के इच्छुक हैं या फिर यार दोस्तों को अपनी उम्दा चॉयस से रूबरू करवाना चाहते हैं तो  इस किताब को सहेज कर रख सकते हैं वर्ना पढ़ने के बाद इसे किसी और को पढ़ने के लिए एज़ के गिफ्ट दे देना भी एक अच्छा एवं उत्तम विचार है। उनकी इस किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रभात पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य ₹200/- रखा गया है। आने वाले भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को ढेरों ढेर बधाई।

वाया मीडिया- गीताश्री

सतही लेखन में क्या होता है कि विषय पर इधर उधर से थोड़ा बहुत मालूमात करो और फिर तुरत फुरत में उस पर अपनी कलम घसीटी कर जय राम जी की करते हुए आप उससे निज़ात पा लो लेकिन अगर किसी भी विषय पर आपको व्यापक रूप से तथ्यों एवं प्रमाणिकता के साथ लिखना है तो  उस पर आपका गहन शोध या फिर सालों का तजुर्बा बहुत मायने रखता है। ऐसा ही अनुभव एवं शोध झलकता है जब आप गीताश्री जी का उपन्यास "वाया मीडिया"  पढ़ने के लिए उठाते हैं। शुरू के पन्नों से ही उपन्यास अपनी पकड़ बनाता हुआ चलता है और अंत तक पाठक को कहीं भी निराश नहीं करता है। 

इस उपन्यास में नायिका के माध्यम से उन्होंने एक तरह से प्रिंट मीडिया की ढकी छिपी..अच्छी-बुरी सब तरह की परतों को उधेड़ कर रख दिया है। ऊपर से चकाचक चमकते हुए इसके खोल के पीछे की दुनिया कितनी गंदी, कितनी मतलबी, कितनी मौकापरस्त है...यह इस उपन्यास को पढ़ कर जाना जा सकता है। इस उपन्यास के ज़रिए उन्होंने दिखाया है कि किस तरह जोश से भरपूर..कुछ करने का माद्दा रखने वाले...नए भर्ती हुए पत्रकारों  के अरमानों, महत्त्वाकांक्षाओं एवं लगन पर उनके ही वरिष्ठों द्वारा किस तरह कुठाराघात किया जाता है। 

किस तरह महिला पत्रकारों के साथ भेदभाव कर उन्हें जानबूझ कर ऐसे मुश्किल काम सौंपे जाते हैं कि जिन्हें करना नामुमकिन तो नहीं लेकिन हाँ..मुश्किल बहुत होता है। सॉफ्ट टार्गेट समझ कर उन्हें कभी भावनाओं के द्वारा तो कभी सरासर दबंगई के ज़रिए इस तरह निशाना बनाया जाता है कि वे हार मान घुटने टेकने को मजबूर हो जाएँ।

स्वार्थवश वरिष्ठों द्वारा अपना उल्लू सीधा करने की नीयत से एक महिला पत्रकार को नीचा दिखाते हुए जानबूझ कर दूसरी महिला पत्रकार को पदोन्नति के अधिक तथा उत्तम अवसर प्रदान किए जाते हैं। तब प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप उत्पन्न हुई कुदरती डाह के चलते वे कठपुतली के माफ़िक उनके इशारों पर चलने लगती हैं जो उनसे फायदा उठाना चाहते हैं। 

प्रवाहमयी भाषा के साथ रोचकता एवं उत्सुकता बनाए रखते हुए पूरा उपन्यास कहीं पर भी अपनी तयशुदा मंज़िल से भटकता नहीं है। प्रिंट मीडिया को अंदर से जानने के इच्छुक पाठकों के लिए यह एक रोचक शैली में लिखा गया जानकारी से परिपूर्ण...दस्तावेजी टाइप का उपन्यास है जिसमें भावनाओं के साथ साथ साजिशों एवं चालाकियों का भी प्रचुर मात्रा में समावेश है। आने वाले समय में  निर्धारित लक्ष्य को लेकर लिखा गया उनका यह उपन्यास इस क्षेत्र में अगर मील का पत्थर भी साबित हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। 

183 पृष्ठीय इस समय और पैसा वसूल टाइप के संग्रणीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है वाणी प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹225/- जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से बिल्कुल भी ज़्यादा नहीं है। आने वाले भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

क्लीन चिट- योगिता यादव

आज के दौर के सशक्त कहानीकारों के बारे में जब मैं सोचता हूँ तो ज़हन में आए नामों में एक नाम योगिता यादव जी का भी होता है। यूँ तो अंतर्जाल पर या फिर साझा संकलनों में उनकी कुछ रचनाएँ मैं पहले भी पढ़ चुका हूँ लेकिन अब जा कर मुझे उनका पूरा कहानी संकलन "क्लीन चिट" पढ़ने का मौका मिला। 

सहज, सरल...प्रवाहमयी भाषा में लिखी गयी इस संकलन की कहानियों में खासी रवानगी है। अपने साथ..अपने सफ़र पर ले जाती हुई ये कहानियाँ कहीं पर भी पाठक को बोझिल नहीं करती हैं और वो उन्हें  एक के बाद एक पढ़ता हुआ किताब को बिना खत्म किए चैन नहीं लेने पाता। 

इस कहानी संकलन की एक कहानी में जहाँ एक तरफ ऐसे सामाजिक तुग़लकी फरमानों के खिलाफ एक बेटी का विद्रोह है जिसको जारी करने की कोई तुक ही नहीं थी वनहीं दूसरी तरफ एक कहानी में 84 के दंगों में दोषियों को अदालत द्वारा क्लीन चिट दिए जाने की ख़बर को आधार बना कर एक सशक्त प्रेम कथा का सारा ताना-बाना रचा गया है। 

इस संकलन की किसी कहानी में बड़े निजी स्कूलों द्वारा बच्चों के भबिष्य से होने वाले खिलवाड़ को बोन्साई वृक्ष के माध्यम से सांकेतिक रूप में दिखाया है तो किसी कहानी में आधुनिक पढ़े-लिखे तबके को भी ग्रह नक्षत्रों के चक्कर में फँस उल्टे सीधे उपाय अपनाते हुए दिखाया गया है। किसी कहानी में दूर के ढोल सुहावने दिखते हुए भी सुहावने नहीं निकलते तो आँखें मूंद उन्हें ही सुहावना मान लिया जाता है तो किसी कहानी में कश्मीर में गली-मोहल्लों से बच्चों के गायब होने की कहानी को विस्तार दिया गया है तो किसी कहानी में वक्त ज़रूरत के हिसाब से भेड़ियों द्वारा रूप और चोला बदलने की कहानी है।

 किसी कहानी में संयुक्त परिवार में खुद का बच्चा ना होने की वजह से हिस्सा ना मिलने के डर से एक युवती नाजायज़ रिश्ते से एक बच्चे की माँ तो बन जाती है मगर फिर भी क्या उसे, उसका हक़ मिल पाता है? 
 
इस संकलन की कुछ कहानियों में मुझे अलग तरह के ट्रीटमेंट दिखाई दिए जैसे...कहानी 'नेपथ्य में' का ट्रीटमेंट मुझे उसके शीर्षकानुसार नाटक के जैसा ही लगा। कहानी 'नागपाश' मुझे आम पाठक की नज़र से थोड़ी कॉम्प्लीकेटेड लगी। अपनी समझ के हिसाब से अगर देखूँ तो एक कहानी "काँच के छह बरस' मुझे थोड़ी कन्फ्यूजिंग लगी लेकिन मैं जल्द ही इसे फिर से पढ़ना चाहूँगा क्योंकि कुछ कहानियाँ धीरे-धीरे परत दर परत आपकी समझ के हिसाब से खुद को खोलने वाली होती हैं।

कहने का तात्पर्य ये कि पूरे संकलन में कई छोटे-बड़े लेकिन महत्त्वपूर्ण मुद्दों को आधार बना कर सभी कहानियों का ताना बाना बुना गया है। शिल्प के हिसाब से अगर देखें तो कसी हुई बुनावट एवं चुस्त भाषा शैली पाठक को अपनी तरफ आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती।

इस संकलन में कुल 19 कहानियाँ हैं जिनमें से कुछ कहानियों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उनके नाम इस प्रकार हैं:

• क्लीन चिट
• साइन बोर्ड
• 108वाँ मनका
• शो पीस
• झीनी-झीनी बिनी रे चदरिया 
• ग़ैर बाग से

132 पृष्ठीय इस संग्रणीय संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भारतीय ज्ञानपीठ ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹180/- जो कि किताब की क्वालिटी और कंटैंट के हिसाब से बहुत ही कम है। आने वाले भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

अम्बपाली(एक उत्तरगाथा)- गीताश्री

बचपन में एक समय ऐसा भी था जब मैं फंतासी चरित्रों एवं राजा महाराजाओं की काल्पनिक कहानियों से लैस बॉलीवुडीय फिल्मों का दीवाना हुआ करता था। कुछ बड़ा हुआ तो दिमाग़ ने तार्किक ढंग से सोचना प्रारम्भ किया और मुझे 
तथ्यों पर आधारित ऐतिहासिक चरित्रों एवं पौराणिक घटनाओं से प्रेरित फिल्में.. किताबें और कहानियाँ रुचिकर लगने लगी। उसके बाद तो इस तरह की जितनी भी सामग्री जहाँ कहीं से भी..जिस किसी भी रूप में उपलब्ध हुई..अपनी तरफ़ से मैंने उसे पढ़ने का पूरा पूरा प्रयास किया।

समय के साथ साथ एक ही विषय पर अलग अलग लेखकों के लेखकीय नज़रिए से लिखी गयी सामग्री, जिसमें किसी से भावों..मनोभावों पर ज़ोर दिया तो किसी ने भावनाओं की अपेक्षा तथ्यों को ज़्यादा महत्त्वपूर्ण करार दिया, को भी पढ़ने का मौका मिला। दोस्तों.. आज मैं कल्पना और तथ्यों के मेल से जन्मे एक ऐसे उपन्यास की बात करने वाला हूँ जिसे 'अम्बपाली-एक उत्तरगाथा' के नाम से लिखा है हमारे समय की प्रसिद्ध कथाकार गीताश्री ने।

मूल रूप से इस उपन्यास में 600-500 ई.पू. के बौद्धकाल में जन्मी वैशाली राज्य की प्रसिद्ध नृत्यांगना, आम्रपाली उर्फ़ 'अम्बपाली' के अपने ऐश्वर्ययुक्त विलासी जीवन से हुए मोहभंग के बाद,  सब कुछ त्याग, बुद्ध की शरण में जाने की कहानी है। इस उपन्यास में बातें हैं उस अम्बपाली की, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह इतनी ज़्यादा सुंदर थी कि लिच्छवि कुल की परंपरा एवं नियमों में बँधे होने के कारण उसके पिता को उसे, अपनी सहमति से सर्वभोग्या बनाना पड़ा अर्थात वह किसी एक की अमानत ना हो कर पूरे राज्य..पूरे समाज के मनोरंजन के लिए निमित मात्र हो गयी। स्वयं की इच्छा ना होते हुए भी अम्बपाली ने राजनर्तकी का पद तो स्वीकार किया मगर अथाह धन दौलत और ताकत पाने की अपनी मनचाही शर्तों के पूरा हो जाने के बाद।

इस उपन्यास में कहानी है उस अम्बपाली की, जिसे समय के साथ किसी ना किसी से प्रेम तो अवश्य हुआ मगर विडंबना यह कि नियमों में बँधी होने के कारण वह उनमें से किसी भी एक की ना हो सकी। साथ ही इस उपन्यास में कहानी है वैशाली के दुश्मन राज्य, मगध के राजा बिंबिसार से ले कर उसके बेटे अजातशत्रु तक के अम्बपाली पर मोहित हो.. उसे अपनी पटरानी बनाने की इच्छाओं.. इरादों और मंसूबों की, जिन्हें नियमों से बँधी होने के कारण उसने कभी भावनात्मक तरीके से तो कभी दृढ़ता से नकार दिया। 

इस उपन्यास में कहानी है वैशाली की राजकुमारी, उस चेलना की जिससे बिंबिसार ने, अम्बपाली के उससे गर्भवती होने के बावजूद भी, विवाह किया। हालांकि इस विवाह में उसकी अपनी खुद की इच्छा या सहमति नहीं बल्कि अम्बपाली की ही मर्ज़ी थी कि इससे दोनों शत्रु राज्य आपस में एक दूसरे के शत्रु ना रह कर मित्र बन जाएँगे। साथ ही उपन्यास की गति में रवानगी एवं रोचकता बढ़ाने के लिए तथा उस समय के माहौल एवं परिस्थितियों से पाठकों को परिचित कराने के लिए लेखिका ने अम्बपाली की  दासियों..सखियों एवं अन्य साध्वियों के माध्यम से कुछ काल्पनिक कहानियों को भी गढ़ा है। जो उपन्यास में मुख्य कहानी के साथ समांतर रूप से चलती हैं। इन कहानियों के माध्यम से लेखिका ने उनकी दशा..मनोदशा का ख़ाका खींचने का प्रयास किया है कि किस तरह अपनी अपनी परेशानियों से आज़िज़ आ..उन्होंने बौद्ध धर्म को अपना लिया। 

इसी उपन्यास में बौद्ध धर्म के प्रचार.. प्रसार एवं मठ स्थापना के लिए अम्बपाली कभी धन धान्य से तो कभी अपने आम्रवन इत्यादि को दान दे कर महात्मा बुद्ध की मदद करती नज़र आती है। तो कहीं वह उनकी अनुयायी बन..नयी साध्वियों को बौद्ध धर्म की शिक्षा एवं उपदेश देती तथा उन्हें अपनी कहानी को कहने एवं लिपिबद्ध करने के लिए प्रेरित करती नज़र आती है। 

इस उपन्यास में कहीं तथागत के महानिर्वाण से जुड़ी बातें हैं तो कहीं उसके बाद उसकी अस्थियों के ले अपनी अपनी दावेदारी ठोंकते मगध एवं वैशाली के लोग नज़र आते हैं। 

इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने कहानी के समयकाल के हिसाब से उपन्यास की भाषा को यथासंभव शुद्ध हिंदी रखने का प्रयास किया जो कि बेहद ज़रूरी भी था लेकिन इससे मुझ जैसे गंगा जमुनी भाषा के आदि पाठक को इसे पढ़ने में कहीं कहीं थोड़ी असहजता भी हुई। साथ ही उपन्यास में दो एक जगह लेखिका ने ग़लती से अँग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल भी कर दिया जैसे कि..
पेज नंबर 25 पर लिखा दिखाई दिया कि...

'सोने की पिन से सजे और अलंकृत'

'पिन' हिंदी का नहीं बल्कि अँग्रेज़ी भाषा का शब्द है।

इसी तरह पेज नंबर 268 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'एक इंच भी भूमि ना देने के हठ पर वह तन गया।'

यहाँ 'इंच' एक अँग्रेज़ी शब्द है और ये घटना/कहानी लगभग 483 ई.पू. वर्ष की है जब भारत में अँग्रेज़ी का कहीं नामोनिशान तक नहीं था।

 उपन्यास के शुरू में बताया गया कि मगध के सम्राट बिम्बिसार को अम्बपाली से प्रेम हुआ मगर उसके इनकार करने पर उन्होंने अम्बपाली के ही कहने पर ही वैशाली की राजकुमारी चेलना से विवाह किया। मगर बाद में पेज नंबर 241 पर लिखा दिखाई दिया कि बिंबिसार की महारानी चेलना तड़प तड़प कर मरी। उपन्यास के शुरू में चेलना से बिम्बिसार के विवाह की बात के बाद सीधा इस पेज पर दिखाई दे लिखा दिखाई दिया कि चेलना तड़प तड़प कर मरी। इस बीच की सारी कहानी उपन्यास से गायब दिखी।

पेज नंबर 172 पर बताया गया कि सिंहा जब आम्रवन में स्थानीय स्त्रियों को देखकर चौक जाती है कि उनमें नगरसेठ की वधु के साथ साथ कुछ जानी मानी गणिकाएँ और एक राजकुमारी भी थी। इससे अगले पेज पर वह खुद ही अंदाज़ा लगा रही है कि देवी अंबा को किसी की अंकशायिनी नहीं बनना था इसलिए वह साध्वी बन गयी। नगरसेठ की  भार्या अपने स्वर्ण आभूषणों का भार नहीं उठा पायी होगी, इसलिए वह भी साध्वी बन गयी।  राजकुल की राजकुमारी जयंता को अवश्य ही राजप्रासादों में श्वास की घुटन होती होगी, इसलिए सब छोड़-छाड़ कर वह साध्वी बन गयी एवं सामन्त की भार्या अपने स्वामी के आचरण से आहत होगी इसलिए वह भी यहाँ आ गयी। 

इन सभी बातों का सिंहा बिना किसी से पूछे स्वयं ही अंदाज़ा लगा रही है जबकि उसे इन सब कारणों के बारे में स्वयं उन स्त्रियों द्वारा अगर बताया जाता तो यह दृश्य ज्यादा स्वाभाविक एवं विश्वसनीय बनता।

अब इसे संयोग कहें या फिर प्रकाशक की ग़लती कि मेरे पास आए उपन्यास की प्रति में जगह जगह छपाई के रंग उड़े हुए दिखाई दिए जिसकी वजह से पढ़ने में कुछ जगहों पर ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी। कुछ जगहों पर वर्तनी की चंद त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ जगहों पर छोटी छोटी कमियाँ दिखाई दीं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। 

अगर आप ऐतिहासिक विषयों लिखी गयी सामग्री पढ़ने के शौकीन हैं तो यकीनन यह उपन्यास आपके मतलब का है। आकर्षक कवर डिज़ायन वाले इस 290 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है वाणी प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

कॉनमैन- सुरेन्द्र मोहन पाठक

लुगदी साहित्य से जब मेरा पहले पहल परिचय हुआ तो वेदप्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों ने मुझ पर अपना इस कदर जादू चलाया कि मैं मंत्रमुग्ध हो कई मर्तबा उनके एक एक दिन में दो दो उपन्यास पढ़ जाया करता था। तब कईयों ने मुझे कहा कि एक बार सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का लिखा भी पढ़ो तो जाने क्या सोच कर मैंने तब उनके लेखन को तवज्जो नहीं दी। अब जब मुझे सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की आत्मकथा का पहला भाग पढ़ने को मिला तो पाया कि सुरेन्द्र मोहन पाठक जी भी जादुई लेखनी के स्वामी हैं। उनके उपन्यास परत दर परत इन्वेस्टिगेटिव नेचर के होते हुए हर क्रिया प्रतिक्रिया के पीछे तर्कसंगत लॉजिक ले कर चलते हैं। ये उनका 299वां उपन्यास है।

अब हाल ही में मुझे उनका उपन्यास "कॉनमैन" पढ़ने को मिला। कॉनमैन अर्थात एक ऐसा शातिर ठग जो बहुत ही आत्मविश्वास से कुछ इस तरह..आपको अपने पूरे विश्वास में ले कर ठगता है कि आप अपना बहुत कुछ गंवा बस..ठगे से रह जाते हैं। सुनील सीरीज़ के इस उपन्यास में कहानी है सुनील नाम के एक खोजी पत्रकार की जिसके पास एक युवती अपनी व्यथा ले कर आती है कि किस तरह एक शातिर ठग(कॉनमैन) ने उसकी भावनाओं से खेलते हुए उसके साथ उन्नीस लाख की ठगी की है और संयोग से इन दिनों वो शातिर ठग उसी शहर के फाइव स्टार होटल में उसे दिखाई दिया है। 

अपनी तफ़्तीश के दौरान होटल के कमरे में सुनील उस कॉनमैन को मरा हुआ पाता है। वहाँ से बरामद सुरागों में उसे एक फोटो फ्रेम में पाँच लड़कियों के फोटो एक के पीछे एक लगे मिलते हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर..कातिल कौन है? बढ़ती कहानी के साथ शक के दायरे में इन पाँच युवतियों के अलावा अन्य लोग भी आ जाते हैं।  पृष्ठ दर पृष्ठ अनेक रोमांचक मोड़ों से गुज़रती हुई सुनील और पुलिस की मिली जुली खोजबीन इस कदर कसे हुए अंदाज़ में लिखी गयी है कि अंत तक पाठक भी संशय में पड़े रह जाते हैं कि आखिर..असली कातिल कौन है? 

मज़ेदार संवादों से लैस इस तेज़ रफ़्तार धाराप्रवाह उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है Westland बुक्स ने और इसका दाम 175/- रुपए रखा गया है जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

मैं भारत में पाकिस्तान का जासूस था- मोहनलाल भास्कर


किसी भी देश की सुरक्षा के लिए यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि सेना के साथ साथ उसकी गुप्तचर संस्थाएँ और देश विदेश में फैला उनका नेटवर्क भी एकदम चुस्त..दुरुस्त और चाकचौबंद हो। जो आने वाले तमाम छोटे बड़े खतरों से देश के हुक्मरानों एवं सुरक्षा एजेंसियों को समय रहते ही आगाह करने के साथ साथ चेता भी सके। साथ ही दुश्मन देश की ताकत में होने वाले इज़ाफ़े..तब्दीलियों तथा कमज़ोरियों का भी सही सही आकलन कर वह भावी तैयारियों के मामले में अपने देश की मदद कर सके। 

आज गुप्तचरों से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं पाकिस्तान में भारत के जासूस रह चुके मोहनलाल भास्कर द्वारा लिखी गयी उनके संस्मरणों की किताब 'मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था' की बात करने वाला हूँ। जिसमें उन्होंने गिरफ्तार हो..पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में रह रहे भारतीय/पाकिस्तानी कैदियों की दशा..दुर्दशा के साथ साथ उनकी मौज मस्ती और ऐश के बारे में विस्तार से लिखा है। 22 दिसंबर, 2005 को इनका निधन हो चुका है। 

इस किताब में एक तरफ़ जहाँ अपने ही एक साथी की गद्दारी के परिणामस्वरूप जासूसी के आरोप में पकड़े गए लेखक एवं कुछ अन्य भारतीय कैदियों पर पाकिस्तानी सेना के अमानवीय टॉर्चर की बातें नज़र आती हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें उनमें से कुछ पुलिस वालों एवं जेल के अफ़सरों के सहृदय एवं मानवीय होने की बातें भी नज़र आती हैं। इस किताब में कहीं वहाँ के कट्टरपंथियों का बोलबाला नज़र आता है तो कहीं कुछ के दोस्ताना और सभी धर्मों की इज़्ज़त करने वाले व्यवहार का वर्णन भी पढ़ने को मिलता है।

इस किताब में कहीं लाहौर के तिब्बी बाज़ार, रंगमहल, शाही मोहल्ला और गुलबर्ग जैसे ऊँची सोसाइटियों में पॉलिटिकल सपोर्ट के ज़रिए चल रहे रंडीखाने नज़र आते हैं।  तो कहीं सरेआम अवैध हथियार बिकते नज़र आते हैं। कहीं आधे दामों पर दुनिया के हर देश की नकली करैंसी की खरीद फ़रोख़्त होती दिखाई देती है। 

इस किताब में कहीं जनरल अय्यूब..याह्या खाँ और ज़ियाउल हक़ जैसे क्रूर अफ़सरों के द्वारा अंजाम दी गयी तख़्तापलट की घटनाओं का पता चलता है तो कहीं इस किताब में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो जैसे अपनी बात..अपने वायदे पे कायम रहने वाले सहृदय पाकिस्तानी नेता भी नज़र आते हैं। इस किताब में कहीं बांग्लादेशियों पर पाकिस्तान के हुए अमानवीय अत्याचार नज़र आते हैं तो कहीं धोखे से वहाँ के प्रमुख नेता, मुजीबुर्रहमान को गिरफ़्तार कर बांग्लादेश देश से पाकिस्तान ले जाए जाने की बात भी तवज्जो हासिल करती नज़र आती है। 

इसी किताब में कहीं मार्शल लॉ के दौरान लेखक को फौजियों की अंधाधुंध फायरिंग की बदौलत लाशों से भरी गाड़ियाँ दिखाई दीं। तो कहीं सरेआम सड़कों पर अपनी ही आवाम के प्रति पाकिस्तान के फौजी हुक्मरानों की मनमानी चलती दिखाई दी। इसी किताब में कहीं चलती फिरती अदालतें बतौर सज़ा सड़कों पर ही लोगों को कोड़े मारती और जुर्माने लगाती दिखाई दीं। तो कहीं इसमें दुश्मन देश के जासूसों की टोह में सादे कपड़ों में घूमते मुखबिर और वहाँ की सी.आई.डी दिखाई दी।

इसी किताब के ज़रिए पाकिस्तान के हर बड़े शहर में फैले वेश्यालयों एवं कॉल हाउसेज़ के बारे में पता चलने के साथ साथ वहाँ पर समलैंगिकों के बड़ी तादाद में होने का पता चलता है। तो कहीं डकैतों..स्मगलरों की पुलिस और सेना के बड़े अफ़सरों से साठ गांठ होती दिखाई दी। कहीं जेल वार्डन की मिलीभगत से जेल में फाँसी के कैदियों को कॉलगर्ल्स की सप्लाई होती भी दिखाई दी।

वहाँ की जेलों में जहाँ एक तरफ़ लेखक को जेब तराशने वालों से ले कर तस्कर..डाकू..अफीमची और खूनी तक मिले। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी किताब में कहीं लेखक के दुश्मन देश के जासूस होने की बात का पता चलने पर वह कट्टर पाकिस्तानी कैदियों द्वारा बुरी तरह पीटा जाता दिखाई दिया। कहीं लेखक को वहाँ की जेलों में सरेआम सिगरेट..शराब और अफ़ीम बिकती दिखाई दी तो कहीं सिग्रेट के बचे हुए टोट्टों के लिए भी कुछ कैदी तरसते और उनमें इसके लिए झपटमारी तक भी होती दिखी।   

इसी किताब से हमें पता चलता है कि अमानवीय अत्याचारों के तहत कभी लेखक को जबरन बिजली के झटके दिए गए तो कभी उसके जिस्म में भीतर तक मिर्चें ठूस दी गईं। कभी उसे नग्न बर्फ़ पर लिटा कर तो कभी उसे नंगा कर पेड़ की गाँठों वाली मोटी टहनी से बुरी तरह पीटा गया। कभी उसे उलटा लटका निरंतर ऊपर खींचते हुए छह छह फौजियों द्वारा एक साथ इस कदर पीटा गया कि एक वक्त पर मार के सब एहसास भी खत्म होने लगे। 

 इसी किताब में कहीं लेखक, जानवरों की तरह सीधे मुँह से खाना खाने और चाय पीने के लिए मजबूर किया जाता दिखा तो कहीं पाकिस्तानी सेना के अफ़सर उसे लालच दे कर भारत के ख़िलाफ़ बरगलाते..भड़काते एवं उकसाते दिखाई दिए। कहीं लेखक को इतना ज़्यादा टॉर्चर किया गया कि उसने खुद विक्षिप्तों की सी हालात में इस डर से अपनी दाढ़ी मूछों के बाल खुद ही नोच कर अपने शरीर से अलग कर डाले कि नहीं तो अगले दिन पाकिस्तानी जेल के अफ़सर अपनी इसी धमकी को खुद अंजाम दे देंगे।

इस किताब को पढ़ते वक्त जहाँ एक तरफ़ पाकिस्तानी अफसरों की बर्बरता देख पाठकों के रौंगटे खड़े होने को आते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ 
किताब में शामिल कुछ रोचक किस्सों को पढ़ कर बरबस चेहरे पर हँसी या फिर राहत स्वरूप मुस्कान तैर जाती है। धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी इस रोचक किताब में और भी ऐसा बहुत कुछ है जो पाठक की लगातार उत्सुकता जगाते हुए उसे आगे पढ़ने पर मजबूर कर देता है। 


संग्रहणीय क्वालिटी की इस 215 पृष्ठीय रोचक किताब के 13 वें पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए जो कि बहुत ही जायज़ है। अमेज़न पर यह किताब किताब डिस्काउंट के बाद मात्र 177/- रुपए में और इसका किंडल वर्ज़न 136/- रुपए में उपलब्ध है। अगर आप किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्राइबर हैं तो इसे फ्री में भी पढ़ सकते हैं। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 


कसाब.गांधी@यरवदा.in- पंकज सुबीर

एक समंदर मेरे अन्दर- मधु अरोड़ा

कोई लंबी कहानी या उपन्यास अगर एक बार में ही आपके ज़रिए खुद को पूरा पढ़वा जाए तो इसे लेखक/ लेखिका की सफलता ही कहेंगे कि उसने अपनी रचना में इतने विविध रंग भर दिए कि पढ़ना वाला उनसे सराबोर हुए बिना रह नहीं सका। इस बार ऐसा ही हुआ जब मैंने मधु अरोड़ा जी का उपन्यास "एक समंदर मेरे अन्दर" पढ़ने के लिए उठाया। उनसे मेरा परिचय 2014 के पुस्तक मेले के दौरान साहित्य मंच की दर्शक दीर्घा में बैठे हुए हुआ  था। जाने क्या सोच के बिना किसी जान पहचान के  मैंने उन्हें नमस्ते कहा तो प्रतिउत्तर में सामने से स्नेहसिक्त मुस्कान के साथ उन्होंने भी नमस्ते के साथ मेरा अभिवादन स्वीकार किया। कुछ देर बाद पता चला कि मधु अरोड़ा जी प्रख्यात साहित्यकार सूरज प्रकाश जी की अर्द्धांगिनी हैं।

 बाद में खैर फेसबुक पर भी हम लोग मित्र बने। हमारे द्वारा संचालित सुरभि संगोष्ठी के एक कहानी पाठ में भी उन्होंने अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज करवाई। मेरे दोनों कहानी संकलनों पर उनकी समीक्षाओं ने मेरा हौंसला भी बढ़ाया। 

अब बात करते हैं उनके उपन्यास की। तो इसमें एक तरफ कहानी में नायिका की अब तक की जीवन यात्रा को उसके दुखों, तकलीफों, शिक्षा, बेरोज़गारी, प्यार, मोहब्बत, हिम्मत और दृढ़ निश्चय  के दर्शाया गया है तो दूसरी तरफ बार बार घर बदलने की मजबूरी से जुड़े हुए विस्थापन के दर्द को भी प्रभावी ढंग से उठाया गया है। इसी उपन्यास में नायिका की कहानी के साथ साथ एक और कहानी भी बिना कहे ही हमारे साथ चलती रहती है और वो कहानी है बम्बई की जो कि अब मुम्बई बन चुका है। 

इसमें पुरानी बम्बई के तौर तरीके हैं तो वहाँ बारिशों के बाद आने वाली बाढ़ की विभीषिका भी है, इसमें गैंग वॉर भी है तो दंगों और विस्थापितों का दर्द भी है। इसमें लोकल ट्रेन में एक दूसरे को धकियाते हुए धक्के हैं तो ट्रेन में सफर के दौरान आपसी बातचीत और भजन कीर्तन के ज़रिए यात्रियों का उल्लास भी देखते बनता है। इसमें रहने को पुरानी टूटी फूटी चाल भी हैं तो नए पुराने बड़े बड़े बंगलों की बड़ी बड़ी रौनकें भी हैं। इसमें मतलबी लोगों की भरमार भी है तो निस्वार्थ भाव से दोस्ती निभाने वाले लोग भी हैं। इसमें एक तरफ चमकती मुंबई के चमकदार इलाके हैं तो दूसरी तरफ कमाठीपुरा जैसे रेडलाईट एरिया के नंगपने वाले अड्डे भी पूरी शिद्दत के साथ मुंबई को आबाद रखे हुए हैं। 

इसमें एक तरफ अय्याश लोगों की भरमार है तो दूसरी तरफ अच्छे लोगों की भी कमी नहीं है। इसमें ईमानदार पिता भी है तो घृणित तरीकों से पैसा बनाने वाला मामा भी है। इस उपन्यास में कहीं ईमानदारी का जज़्बा है तो कहीं पर बेईमानी भी कम नहीं है। इसमें गरीब इलाकों में पानी की दिक्कतें हैं तो तो पॉश इलाकों में खुल कर खुले दिल से पानी की बरबादी भी है। 

इस उपन्यास में पुरानी यादों के ज़रिए पूरी कहानी को विस्तार दिया गया। एक तरह से कह सकते हैं कि मुम्बई शहर ही पूरे उपन्यास की जान है। बाकी के सभी पात्र तो कहानी को आगे बढ़ने में सहायता देने वाले निमित मात्र हैं। अगर आप बम्बई शहर के मुंबई होने तक के विस्तार को जानने के इच्छुक हैं तो ये उपन्यास आपके मतलब का है। 

पूरे उपन्यास का ताना बाना सरल...आम बोलचाल की भाषा में बुना गया है, इसलिए आम पाठक को इसकी तरफ आकर्षित होना चाहिए।कहानी मुंबई की है तो स्वाभाविक है इसमें विश्वसनीयता को बरकरार रखने के लिए मराठी में संवाद भी हैं। मुख्य किरदार का परिवार चूंकि उत्तरप्रदेश से है तो कहीं कहीं पर वहाँ की भाषा का समावेश भी है। किरदारों की मांग के अनुसार कुछ संवाद पंजाबी में भी लिखे गए है।अच्छा होता अगर अन्य भाषा के संवादों के साथ उनका हिंदी में अनुवाद भी दिया जाता तो मुझ जैसे उन भाषाओं को ना समझने वाले पाठकों को काफी मदद मिलती मगर चूंकि पाठक उपन्यास के साथ जुड़ चुका होता है, इसलिए काफी हद तक वो खुद अंदाज़ा लगाने का प्रयास करता है कि क्या कहा जा रहा है। अब ये विचार करने वाली बात है कि वो उन संवादों पर कहानी का मर्म कितना समझ पाता है और कितना नहीं।

158 पृष्ठीय इस उपन्यास को छापा है इंडिया नेटबुक्स ने और इसकी कीमत ₹150/- रखी गयी है जो कि पुस्तक की क्वालिटी और कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा नहीं है। हालांकि फ्लिपकार्ट पर अभी ये उपन्यास डिस्काउंट के बाद ₹130/- का मिल रहा है। आने वाले भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
 
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