मृगया- अभिषेक अवस्थी

साहित्य क्षेत्र के अनेक गुणीजन अपने अपने हिसाब से व्यंग्य की परिभाषा को निर्धारित करते हैं। कुछ के हिसाब से व्यंग्य मतलब..ऐसी तीखी बात कि जिसके बारे में बात की जा रही है, वह तिलमिला तो उठे मगर कुछ कर ना सके। वहीं दूसरी तरफ मेरे जैसे कुछ व्यंग्यकार मानते हैं कि व्यंग्य में तीखी..चुभने वाली बात तो हो मगर उसे हास्य की चाशनी में इस कदर लपेटा गया हो कि उपरोक्त गुण के अतिरिक्त सुनने तथा पढ़ने वाले सभी खिलखिला कर हँस पड़ें।आज व्यंग्य की बात इसलिए दोस्तों कि आज मैं अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगातार...

नक़्क़ाशीदार कैबिनेट- सुधा ओम ढींगरा

अपनी सहज मनोवृति के चलते हर लेखक चाहता है कि उसकी किताब ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक असरदार ढंग से पहुँचे। किताबों की बेइंतिहा भीड़ में उसे पाठकों की ज़्यादा से ज़्यादा तवज्जो..ज़्यादा से ज़्यादा आत्मिकता..ज़्यादा से ज़्यादा स्नेह मिले। अपने मुनाफ़े को देखते हुए ठीक इसी तरह की ख्वाहिश रखते हुए प्रकाशक भी चाहते हैं कि उनकी किताब दूर-दूर तक और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचे। इसी वजह कई बार लेखक एवं प्रकाशक अपनी किताबों को कभी समीक्षा के मकसद से तो कभी अन्य मित्रों इत्यादि को उपहार स्वरूप भेंट कर खुश...

अंधेरे कोने@फेसबुक डॉट कॉम- अरविंद पथिक

जिस तरह एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हम लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए आपस में बातचीत का सहारा लेते हैं। उसी तरह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने एवं उनका अधिक से अधिक लोगो  तक संप्रेषण करने के लिए कवि तथा लेखक,गद्य अथवा पद्य, जिस भी शैली में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सहज महसूस करते हैं, को ही अपनी मूल विधा के रूप में अपनाते हैं। मगर कई बार जब अपनी मूल विधा में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में खुद को असमर्थ पाते हैं भले ही इसकी वजह विषय का व्यापक होना हो अथवा अत्यंत संकुचित...

सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री- वेद प्रकाश शर्मा

लुगदी साहित्य याने के पल्प फिक्शन का अगर आपको एक बार चस्का लग जाए तो फिर इसकी गिरफ्त से निकलना नामुमकिन तो नहीं लेकिन बड़ा मुश्किल है। आजकल की तरह हर जगह आसानी से उपलब्ध मनोरंजन के तमाम साधनों से पहले एक समय ऐसा भी था जब खाना पीना सब भूल, हम लोग लगभग एक ही सिटिंग में, आड़े तिरछे या फिर पोज़ बदल बदल कर बैठते हुए, पूरे के पूरे उपन्यास को एक तरह से चाट जाया करते थे। अब समयानुसार अपनी व्यस्तताओं और समय के बदलाव की वजह से बेशक़ कुछ समय के लिए इन्हें बिसरा भले ही दिया गया हो लेकिन अंतस में कहीं ना कहीं...

अधूरा..अव्यक्त किंतु शाश्वत- पराग डिमरी

कई बार जब हमें किसी नए लेखक का लेखन पढ़ने को मिलता है तो उस लेखक की शाब्दिक एवं विषय के चुनाव को ले कर समझ के साथ साथ वाक्य सरंचना के प्रति उसकी काबिलियत पर भी बरबस ध्यान चला जाता है। ऐसे में अगर किसी लेखक का लेखन आपको उसका लिखा पढ़ने के लिए बार बार उकसाए अथवा किताब को जल्द से जल्द पढ़ कर खत्म करने के लिए उत्साहित करे तो समझिए उस लेखक का लेखन सफ़ल है। दोस्तों..आज मैं ऐसे ही एक लेखक पराग डिमरी के कहानी संकलन "अधूरा..अव्यक्त किंतु शाश्वत" की बात करने जा रहा हूँ। इसी संकलन की एक कहानी में सुदूर ग्रामीण...

कारवां ग़ुलाम रूहों का- अनमोल दुबे

आज के टेंशन या अवसाद से भरे समय में भी पुरानी बातों को याद कर चेहरा खिल उठता है। अगर किसी फ़िल्म या किताब में हम आज भी कॉलेज की धमाचौकड़ी..ऊधम मचाते यारी-दोस्ती के दृश्यों को देखते हैं। या इसी पढ़ने या देखने की प्रक्रिया के दौरान हम, मासूमियत भरे झिझक..सकुचाहट से लैस उन  रोमानी पलों से गुज़रते हैं। जिनसे कभी हम खुद भी गुज़र चुके हैं। तो नॉस्टेल्जिया की राह पर चलते हुए बरबस ही हमारे चेहरे पर एक मुस्कुराहट तो आज भी तैर ही जाती है।आज प्रेम भरी बातें इसलिए दोस्तों..कि आज मैं महज़ तीन कहानियों के एक ऐसे...

कोस कोस शब्दकोश- राकेश कायस्थ

जब भी हम समाज में कुछ अच्छा या बुरा घटते हुए देखते हैं तो उस पर..उस कार्य के हिसाब से हम अपनी अच्छी-बुरी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं या फिर करना चाहते हैं। अब अगर कभी किसी के अच्छे काम की सराहना की जाए तो जिसकी वो सराहना की जा रही है, वह व्यक्ति खुश हो जाता है। मगर इससे ठीक उलट अगर किसी के ग़लत काम की बुराई करनी हो तो या तो हम पीठ पीछे उसकी बुराई कर उससे झगड़ा मोल ले लेंगे या फिर ऐसा कुछ भी करने से गुरेज़ करेंगे कि..खामख्वाह पंगा कौन मोल ले? लेकिन जब आपका मंतव्य किसी की पीठ पीछे नहीं बल्कि उसके सामने...
 
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