बन्द दरवाज़ों का शहर- रश्मि रविजा

अंतर्जाल पर जब हिंदी में लिखना और पढ़ना संभव हुआ तो सबसे पहले लिखने की सुविधा हमें ब्लॉग के ज़रिए मिली। ब्लॉग के प्लेटफार्म पर ही मेरी और मुझ जैसे कइयों की लेखन यात्रा शुरू हुई। ब्लॉग पर एक दूसरे के लेखन को पढ़ते, सराहते, कमियां निकालते और मठाधीषी करते हम लोग एक दूसरे के संपर्क में आए। बेशक एक दूसरे से हम लोग कभी ना मिले हों लेकिन अपने लेखन के ज़रिए हम लोग एक दूसरे से उसके नाम और काम(लेखन) से अवश्य परिचित थे। ऐसे में जब पता चला कि एक पुरानी ब्लॉगर साथी और आज के समय की एक सशक्त कहानीकार रश्मि रविजा जी...

पिशाच- संजीव पालीवाल

बचपन में बतौर पाठक मेरी पढ़ने की शुरुआत कब कॉमिक्स से होती हुई वेदप्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों तक जा पहुँची.. मुझे खुद ही नहीं पता चला। उन दिनों में एक ही सिटिंग में पूरा उपन्यास पढ़ कर खत्म कर दिया करता था। उसके बाद जो किताबों से नाता टूटा तो वो अब कुछ सालों पहले ही पूरी तारतम्यता के साथ पुनः तब जुड़ पाया जब मुझे किंडल या किसी अन्य ऑनलाइन प्लैटफॉर्म के ज़रिए फिर से वेदप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक के दमदार थ्रिलर उपन्यास पढ़ने को मिले।हालांकि मैं गद्य से संबंधित सभी तरह के साहित्य में...

उजली होती भोर- अंजू खरबंदा

साहित्य के क्षेत्र में अपने मन की बात को कहने के लिए लेखक अपनी सुविधानुसार गद्य या फिर पद्य शैली का चुनाव करते हैं। गद्य में भी अगर कम शब्दों में अपने मनोभावों को व्यक्त करने की आवश्यता..प्रतिबद्धता..बात अथवा विचार हो तो उसके लिए लघुकथा शैली का चुनाव किया जाता है।लघुकथा एक तरह से तात्कालिक प्रतिक्रिया के चलते किसी क्षण विशेष में उपजे भाव, घटना अथवा विचार, जिसमें कि आपके मन मस्तिष्क को झंझोड़ने की काबिलियत हो..माद्दा हो, की नपे तुले शब्दों में की गई प्रभावी अभिव्यक्ति है। मोटे तौर पर अगर लघुकथा की...

सिंगला मर्डर केस- सुरेन्द्र मोहन पाठक

हमारी पीढ़ी के लोगों के बारे में एक तरह से कहा जा सकता है कि.. हम लोग बॉलीवुडीय फिल्मों के साए तले पले बढ़े हैं। शुरुआती तौर पर दूरदर्शन पर रविवार शाम को आने वाली पुरानी हिंदी फिल्मों ने और सिंगल स्क्रीन पर लगने वाली ताज़ातरीन हिंदी फिल्मों ने हमें इस कदर अपना मुरीद बनाया हुआ था कि हर समय बस उन्हीं को सोचते..जीते और महसूस करते थे। उन फिल्मों में कभी रोमांटिक दृश्यों को देख हम भाव विभोर हो उठते थे तो कभी भावुक दृश्यों को देख भावविह्वल हो उठते थे। कभी कॉमेडी दृश्यों को देख पेट पकड़ हँसते हुए खिलखिला...

माफ़ कीजिए श्रीमान- सुभाष चन्दर

व्यंग्य..साहित्य की एक ऐसी विधा है जिसमें आमतौर पर सरकार या समाज के उन ग़लत कृत्यों को इस प्रकार से इंगित किया जाता है की वह उस कृत्य के लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति के मस्तिष्क से ले कर अंतर्मन में एक शूल की भांति चुभे मगर ऊपरी तौर पर वो मनमसोस कर रह जाए..उफ़्फ़ तक ना कर सके। दोस्तों..आज व्यंग्य से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं जिस व्यंग्य संकलन की बात करने जा रहा हूँ..उसे 'माफ़ कीजिए श्रीमान' के नाम से हमारे समय के सशक्त व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी ने लिखा है। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित सुभाष चन्दर जी की...

Money कथा अनंता- कुशल सिंह

पिछले कुछ सालों में हमारे देश में नोटबंदी.. जी.एस.टी..किसान आंदोलन से ले कर कोरोना महामारी तक की वजह से ऐसे-ऐसे बदलाव हुए कि मज़दूर या मध्यमवर्गीय तबके के आम आदमी से ले कर बड़े बड़े धन्ना सेठों तक..हर एक का जीना मुहाल हो गया। इनमें से भी खास कर के नोटबंदी ने तो छोटे से ले कर बड़े तक के हर तबके को इस हद तक अपने लपेटे में ले लिया कि हर कोई बैंकों की लाइनों में लगा अपने पुराने नोट बदलवाने की जुगत में परेशान होता दिखा। इन्हीं दुश्वारियों में जब हास्य..सस्पैंस और थ्रिल का तड़का लग जाए तो यकीनन कुछ मनोरंजक...

अभ्युदय-1 - नरेन्द्र कोहली

मिथकीय चरित्रों की जब भी कभी बात आती है तो सनातन धर्म में आस्था रखने वालों के बीच भगवान श्री राम, पहली पंक्ति में प्रमुखता से खड़े दिखाई देते हैं। बदलते समय के साथ अनेक लेखकों ने इस कथा पर अपने विवेक एवं श्रद्धानुसार कलम चलाई और अपनी सोच, समझ एवं समर्थता के हिसाब से उनमें कुछ ना कुछ परिवर्तन करते हुए, इसके किरदारों के फिर से चरित्र चित्रण किए। नतीजन...आज मूल कथा के एक समान होते हुए भी रामायण के कुल मिला कर लगभग तीन सौ से लेकर एक हज़ार तक विविध रूप पढ़ने को मिलते हैं। इनमें संस्कृत में रचित वाल्मीकि...

आड़ा वक्त- राजनारायण बोहरे

आम इनसान की भांति हर लेखक..कवि भी हर वक्त किसी ना किसी सोच..विचार अथवा उधेड़बुन में खोया रहता है। बस फ़र्क इतना है कि जहाँ आम व्यक्ति इस सोच विचार से उबर कर फिर से किसी नयी उधेड़बुन में खुद को व्यस्त कर लेता है..वहीं लेखक या कवि अपने मतलब के विचार या सोच को तुरंत कागज़ अथवा कम्प्यूटर या इसी तरह किसी अन्य सहज..सुलभ..सुविधाजनक साधन पर उतार लेता है कि विचार अथवा सोच का अस्तित्व तो महज़ क्षणभंगुर होता है। इधर ध्यान हटा और उधर वह तथाकथित विचार..सोच या आईडिया तुरंत ज़हन से छूमंतर हो ग़ायब। अपनी स्मरणशक्ति...

अपेक्षाओं का बियाबान- डॉ. निधि अग्रवाल

आमतौर पर किसी भी कहानी को पढ़ते वक्त ज़हन में उसकी स्टेबिलिटी को ले कर यह बात तय होनी शुरू हो जाती है कि वह हमारे स्मृतिपटल पर लंबे समय तक राज करने वाली है अथवा जल्द ही वह हमारी ज़हनी पकड़ से मुक्ति पा..आम कहानियों की भीड़ में विलुप्त होने वाली है। इसी बात के मद्देनज़र यहाँ यह बात ग़ौर करने लायक है कि जहाँ एक तरफ़ कुछ कहानियाँ अपने कथ्य..अपनी स्टोरी लाइन..अपनी रचनात्मकता..अपनी रोचकता की वजह से उल्लेखनीय बन जाती हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ कुछ कहानियाँ अपने अलग तरह के ट्रीटमेंट.. शिल्प और कथ्य की बदौलत हमारी ज़हनियत...

काने मच्छर की महबूबा- अतुल मिश्रा

*** 'काने मच्छर की महबूबा' पर प्रख्यात व्यंग्यकार श्री राजीव तनेजा जी की पुस्तक-समीक्षा आप सबके आनंदार्थ प्रस्तुत है !!!! *** ************************************************आमतौर पर किसी भी किताब को पढ़ते हुए मैं एक तरह से उसमें पूरा डूब जाता हूँ और यथासंभव पूरी किताब के दौरान उसी पोज़ या मूड में रहता हूं। अपनी तरफ़ से मेरा भरसक प्रयास रहता है कि मेरी नज़र से कोई उल्लेखनीय या अहम..तवज्जो चाहने लायक बात ना छूट जाए। ऐसे में अगर तमाम तरह के चुनिंदा प्रयासों के बावजूद किसी किताब को पढ़ते पढ़ते औचक ही...
 
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