"मेरी तीसरी कहानी नवभारत टाईम्स पर"
"नामर्द हूं, पर मर्द से बेहतर हूं"
बचाओ ... बचाओ ... की आवाज़ सुनकर मैं उठ बैठा। देखा तो आसपास कोई नहीं था। घड़ी की तरफ नज़र दौड़ाई तो रात के 2 बज रहे थे। पास पड़े जग से पानी का गिलास भरकर मैं पीने को ही था, कि फिर वही रुदन मेरे कानों में गूंज उठा। पिछले कई दिनों से बीच रात यह आवाज़ मुझे सोने नहीं दे रही थी।
अन्दर ही अन्दर अपराध भाव खाए जा रहा था कि उस दिन, अगर मैंने थोड़ी हिम्मत दिखाई होती तो शायद आज मैं यूं परेशान ना होता। जो हुआ उसका मुझे अफसोस है , लेकिन मैं अकेला निहत्था उन हवस के भेड़ियों से उसे बचाता भी तो कैसे ? लगा, जैसे मेरे अन्दर का राजीव अचानक बोल पड़ा हो। क्यों ! शोर तो मचा ही सकते थे कम से कम ? कोशिश भी कहां की थी तुमने ? ज़बान तालू से चिपक के रह गई थी ना ? बोल ही नहीं फूट रहे थे ज़ुबान से तुम्हारे। अपना पांव झटके से छुडाकर चल दिए थे। क्यों ! यही सोचा था ना कि कोई मरे या जिए ... क्या फर्क पड़ता है तुम्हें ?
हां !.. नहीं पड़ता फर्क , कौनसी मेरी सगे वाली थी ? अचानक मैं बोल पड़ा। क्यों ? इंसानियत नाम की भी कोई चीज़ होती है कि नहीं ? वैसे ! .अगर तुम्हारी सगी वाली होती तो तुम क्या करते ? अंतर्मन पूछ बैठा -बचाते क्या उसे ? हुह !.. क्या मैंने उसे कहा था कि यूं देर रात फैशन कर बाहर घूमो फिरो। मैंने तड़प कर जवाब दिया।
अब निबटो इन सड़कछाप लफंगों से खुद ही .. मैं तो चला अपने रस्ते। कौन पड़े पराए पचड़े में ? यह सोच तुम तो पतली गली से भाग लिए थे और वह बेचारी बस दयनीय नज़रों से आंखों में आंसू लिए तुम्हें मदद के लिए पुकारती रही। क्यूं !.. कुछ फर्ज़ नहीं बनता था तुम्हारा ? जैसे अंतरात्मा ने धिक्कारा हो।
बिना बात के मैं पंगा क्यों मोल लूं ? मैंने बिना किसी लाग लपेट के जवाब दिया..यही घुट्टी में घोल - घोल कर पिलाया गया है हमें बचपन से कि अपने मतलब से मतलब रखो। किसी की मुश्किलों में मत अड़ाओ अपनी टांग। ...और वैसे भी किस - किसको बचाता फिरूं मैं ? हर जगह तो यही हाल है। अब उस दिन की ही लो . ..क्या मैंने कहा था शर्मा जी से कि बैंक से मोटी रकम निकलवाओ और फिर पालथी मार वहीं गिनने बैठ जाओ। .. . अब यूं शो - ऑफ करेंगे तो भुगतना तो पड़ेगा ही ना। पड़ गए थे ना गुंडे पीछे ? हो गई थी ना तसल्ली ? बाद में बचाओ - बचाओ कर के काहे पुकारते थे ? सबको अपनी जान प्यारी है, कौन आएगा बचाने ? ऊपर से लगे हाथ नोकिया का मंहगा फोन ( N91 ) निकालकर लगे पुलिस का नम्बर घुमाने !
क्या डॉक्टर ने कहा था कि हर जगह अपनी शेखी बघारो ? फोन का फोन भी गया और दुनिया भर के सवाल - जवाब अलग से।
कितने का लिया था. . .बिल वाला है या नहीं ... कोई प्रॉब्लम तो नहीं ? महाशय बडे मज़े से लुटेरों को ही एक - एक कर खूबियां बताने चले थे। साढ़े अठाईस हज़ार ... आठ जीबी इनबिल्ट हार्ड डिस्क ... स्टील बॉडी ... म्यूज़िक इडिशन .. 2 मेगा पिक्सल कैमरा ... ब्लू टुथ और न जाने क्या-क्या।
पहले आराम से लुटपिट लो ... बाद में करते रहना कंप्लेंट - शंमप्लेंट। लुटेरे भी बड़े इत्मीनान से और कॉन्फिडेंस से बोले।
जब तक बात समझ में आती तब तक तो वो रफूचक्कर हो चुके थे। अब पुलिस ... पुलिस चिल्लाने से क्या फायदा जब चिड़िया चुग गई खेत ? हुह !.. कभी टाइम से आई भी है पुलिस,जो उस दिन आ जाती ? अरे !.. जिसे पुकार रहे थे ... उन्हीं की शह पर तो होता है यह सब ।
कहते हैं न कि सैयां भए कोतवाल .. . तो डर काहे का। हर चोरी - चकारी में .. . हर राहजनी में . , . हर जेबतराशी में ... हर अवैध धन्धे में...इन्हें सब पता रहता है कि ... कब, किसने और किस वारदात को अंजाम दिया। चाहें तो दो मिनट में ही चोर को माल समेत थाने में चाय - नाश्ते पर बुलवा लें। ये चाहें तो शहर में हर तरफ अमन और शांति का माहौल हो जाए।
छोड़ो ये बेकार में इधर - उधर की बातें ... सीधे - सीधे कह क्यों नहीं देते कि ... दम नहीं है तुममें। चूक चुके हो तुम लड़ने से...हौसला नहीं है तुममें विरोध करने का...नपुंसक हो तुम, मर्द नहीं। किन्नर हो तुम...अंतर्मन बिना रुके ताव में बोले चला जा रहा था। मालूम भी है तुम्हें कि हुआ क्या था उस दिन ? तुम तो मस्त होकर भजन - कीर्तन में जुटे थे और वहां बाहर मेरी ऐसी की तैसी हुई पड़ी थी।
‘ चल यहां से फूट ले वरना चीर डालेंगे, ‘ कहकर उन्होंने मुझे धमकाया था। दिसम्बर की सर्द रात में भी पसीना - पसीना हो उठा था मैं। क्या मैंने गलत किया जो घबरा कर वापस मुड़ गया था ? पता नहीं क्या हुआ होगा उसका, अचानक मन चिंतित स्वर में बोल उठा। बस तब से उसका ये बचाओ - बचाओ का स्यापा मुझे सोने नहीं दे रहा है। न चाहते हुए भी बार बार उसी का ख्याल आने लगता है। पता नहीं ! क्या हुआ होगा उसके साथ ? ज़िन्दा भी होगी या ...? आगे बोला नहीं गया मुझसे।
छोड़ो यह खोखली हमदर्दी ... कुछ नहीं धरा इसमें, एक बार फिर अंतर्मन ताना मारता हुआ बोल पड़ा। हां ! मर्द नहीं हो तुम क्योंकि उस दिन जब वे चार मिल कर बीच-बाज़ार उस निहत्थे को बिना बात पीट रहे थे तब . . . समूची नपुंसक भीड़ के साथ तुम भी तो खड़े तमाशा ही देख रहे थे न !
हां ! मर्द नहीं हो तुम क्योंकि, वह पुलिस वाला तुम जैसे नामर्द लोगों के सामने सिर्फ इसलिए उन बेचारे गरीब को बुरी तरह धुन रहा था कि उन्होंने हफ्ता टाइम पर नहीं दिया। हां-हां मर्द तो वो सरकारी बाबू हैं ना जो हमारे बार - बार रिक्वेस्ट करने के बावजूद बेचारे वर्मा जी की बुढ़ापा पेंशन पिछले छब महीने से रोके बैठा है, क्योंकि उन्होंने घूस नहीं दी।
मैं भड़क उठा। हां ! मर्द तो वह सरकारी डॉक्टर हैं, जो ड्यूटी के समय ही डंके की चोट पर अपने विज़िटिंग कार्ड हाथ में थमाता है कि यहां छोड़ो और मेरे क्लिनिक पर आकर अपनी इलाज करवाओ। हां ! मर्द तो वह बिजली विभाग का मीटर रीडर है, जो मुझ नपुंसक को चंद नोटों की खातिर बिजली चोरी के गुर सिखाने को तैयार बैठा है। हां ! मर्द तो वह ढाबे वाला है, जो परसों उस बाल मज़दूर को दो रोटी ज़्यादा खाने पर बुरी तरह मार रहा था।
हां ! असली मर्द तो वे हैं जो मर्दाना जिस्म, मर्दाना ताकत रखने के बावजूद किसी अबला नारी की अस्मत लुटते देख नज़रें फेर लेते हैं। हो गया भाषण पूरा .. या अभी भी कुछ बाकी है ? अंतर्मन मेरा मखौल उड़ाता-सा बोला, इन्हें मर्द कहते हो तुम ? बड़ी छोटी सोच है तुम्हारी।
अरे ! असली जवां मर्द तो नंदीग्राम में हैं, गोधरा में हैं और पूरे गुजरात में हैं। मर्द तो वे हैं जिन्होंने, कश्मीर से हिन्दुओं का पलायन करवा दिया। मर्द तो वे हैं, जिन्होंने गुजरात छोड़ने के लिए मुस्लिमों को मजबूर कर दिया। मर्द तो वे थे जिन्होंने धार्मिक उन्माद में आकर बाबरी विध्वंस को अंजाम दिया था। ...और उसे कैसे भूल गए ? वह भी तो असली मर्द ही था, जिसने एक पंथ दो काज करते हुए तंदूर में अपने प्यार को भून ‘ तंदूर कांड ’ को जन्म दे लगे हाथ .. अमूल मक्खन वालों का एड भी कर डाला था मुफ्त में। अंतर्मन मेरी हां में हां मिलाता हुआ बोला।
मर्द तो वे थे, जिन्होंने दिनदहाड़े हमारी संसद में घुसकर हमारे लोकतांत्रिक ढांचे को ही नष्ट करने की साजिश रची थी।
वो मर्द कहां थे, जिन्होंने हमारे महा ईमानदार नेताओं को बचाने की खातिर अपने प्राण न्योछावर कर दिए ? मेरा अंतर्मन जैसे खुद से ही बातें करने लगा था। मैंने बात आगे बढ़ाई। मर्द तो वह बाहूबली का बेटा है न...वह भाई था, जिसे अपनी बहन की खुशी से ज़्यादा अपने परिवार, अपने खानदान की इज़्ज़त प्यारी थी। इसी को ध्यान में रखते हुए उसने अपनी बहन के प्यार का अपहरण करवा कर उसे मार डाला था। मेरी आवाज़ भी जैसे तीखी हो चली थी। ..और उसे कैसे भूल गए ?.. मर्द तो वह मंत्री का बेटा भी था, जिसने बारबन्द होने की बात सुन गुस्से में आकर बार बाला को ही टपका डाला था।
मर्द तो वह मंत्री था न, जिसने अपनी प्रेमिका मधुमिता को मौत के घाट उतारा था...अंतर्मन उछलता हुआ बोल पड़ा। हां !.. वे सिक्योरिटी वाले मर्द ही तो थे, जिन्होंने हमारी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गोलियों से छलनी कर मार डाला था। शायद वे लिट्टे वाले भी मर्द ही रहे होंगे, जिन्होंने राजीव गांधी को मारा था। ...और वे एसटीएफ वाले नामर्द साले. ... जिन्होंने वीरप्पन को मार गिराया था ? ...मैं व्यंग्यबाण चलाता बोल उठा।
तुम क्या सोचते हो कि मर्द बिरादरी सिर्फ भारत में ही बसती है ? मेरी बात अनसुनी करता हुआ, अंदर का राजीव बोलता चला गया। ..अरे बुद्धू !... पूरी दुनिया भरी पड़ी है मर्दों से ... वो मर्द ही तो थे, जिन्होंने 9-1 1 की घटना को अंजाम दे हज़ारों बेगुनाहों को ज़िन्दा दफना डाला था।
हां, एक नई बात सुनो ... इन्सानों के अलावा देश भी मर्द-नामर्द दोनों किस्मों के हुआ करते हैं। अच्छा !... व कैसे ? अब ये अमेरिका को ही लो ... असली जवां मर्द देश है ... किसी से भी नहीं डरता ... सिवाय लादेन के। ... मैं हंसी उड़ाता हुआ बोला.. देखा नहीं, कैसे उसने तेल के खातिर ... ताकत के खातिर ... पैसे के खातिर ... मित्र देशों को बरगला कर इराक पर कब्ज़ा जमा लिया। हां, असली जवां मर्द ही तो है, जिसने सद्दाम का बेवजह तख्तापलट कर उसे फांसी पर चढ़ा दिया।
इसे कहते हैं ... मर्द। ...और तुम ... हुह !
तुम कहते हो कि मर्द नहीं हूं मैं. .. क्योंकि मुझे दर्द नहीं होता ? हां ! मुझे दर्द होता है जब कोई मर्द किसी अबला नारी की इज़्ज़त लूटता है। हां ! मुझे दर्द होता है, जब कोई मुशर्रफ सारे कानूनों को ताक पर रख पाकिस्तान का बादशाह और सेनापति दोनों बन बैठता है। हां ! मुझे दर्द होता है, जब कोई मर्द मुल्क हिन्दी - चीनी भाई - भाई का नारा दे हमारी पीठ में ही छुरा भोंकता है। हां ! मुझे दर्द होता है, जब कोई मर्द मुल्क धोखे से करगिल पर कब्जा जमाता है।
हां !. मुझे दर्द होता है, जब देखता हूं कि तथाकथित बड़े स्कूल - कॉलेजों के मर्द प्रिंसिपल तथा अध्यापक यौन शोषन में लिप्त नज़र आते हैं। हां ! मुझे दर्द होता है, जब नकली स्टिंग ऑपरेशन करवा के कोई मर्द पत्रकार किसी अध्यापिका की इज़्ज़त सरेआम नीलाम करवा डालता है। अगर यही सब मर्दानगी की निशानियां हैं तो लानत है ऐसी मर्दानगी पर और ऐसे मर्दों पर।
इससे तो अच्छा मैं नामर्द ही सही। किसी के साथ गलत तो नहीं करता ... बुरा तो नहीं करता। मैं डरपोक ही सही ... लेकिन फिर भी इन बहादुरों से लाख गुना अच्छा हूं। नहीं बनना है मुझे ऐसा मर्द जो दूसरों के दर्द को न समझ सके। ऐसे ही सही हूं मैं ... नामर्द ही सही ... किन्नर ही सही। हां !... नपुंसक हूं मैं. .. नपुंसक हूं .... नपुंसक हूं...।
राजीव तनेजा