टीं...टीं...बीप...बीप- राजीव तनेजा
“एक लम्बे..तन्दुरस्त और गोरे-चिट्टे जवाँ मर्द (दिल्ली निवासी) पैंतालिस वर्षीय व्यवसायी को आवश्यकता है एक खुले विचारों वाली सुन्दर…सुघड़ एवं सुशील कन्या की…जो उसके संग मित्रता कर हफ्ते-दो हफ्तों के लिए मॉरिशस के अन-अफिशियल टूर पे चल सके।
नोट:
- रंग..उम्र..जाति भेद की कोई बाधा नहीं…कोई समस्या नहीं।
- गृहणी…कुँवारी…विधवा तथा तलाकशुदा भी स्वीकार्य
- अच्छे संस्कारों वाली वैल मैनर्ड महिलाएँ कृप्या संपर्क ना करें
विशेष:दिल्ली तथा ‘एन.सी.आर’ की रहने वाली महिलाओं को विशेष प्राथमिकता
“सुनो!…मैँ हो आऊँ?”बीवी अखबार लपेट ..साईड पे रख मेरी तरफ प्यार भरी नज़रों से ताकती हुई बोली
“पागल तो नहीं हो गई हो कहीं?”…
“कितनी बार मना किया है कि तुम ये मित्रता-वित्रता की बे-फिजूल…बेफाल्तू की खबरें पढ फोकट में ही एक्साईटिड ना हो जाया करो लेकिन तुम हो कि मानती ही नहीं”…
“कुछ नहीं धरा है इनमें”…
“फॉर यूअर काइंड इंफार्मेशन…ये खबर नहीं बल्कि विज्ञापन है”…
“तो?”…
“वो भी कोई ऐरा-गैरा नहीं बल्कि बोल्ड अक्षरों से सुज्जित एक धांसू क्लासीफाईड विज्ञापन है”…
“हाई लाईटिड वाला”…
“तो?”….
“पहले तो ये तो-तो की तोते माफिक रट लगाना छोड़ो और ध्यान से सुनो”….
“क्या?”…
“यही कि ‘हाई लाईटिड’ वाले विज्ञापन का मतलब है कि…पार्टी सॉलिड है”…
“ऐसा इसलिए भी किया जाता है कि पढने वाला एक बार में ही समझ जाए कि इश्तेहार देने वाला कोई छोटी नहीं बल्कि मोटी आसामी है”…..
“गुड”…
“तो फिर मैँ हो आऊँ?”….
“लेकिन तुम्हारी ये सॉलिड पार्टी कहीं ‘आसाम-नागालैण्ड’ का रहने वाला..मिचमिची आँखो वाला कोई ‘आसामी’ हुआ तो?”..
“क्या फर्क पड़ता है?…कैसा भी हो?”..
“क्या फर्क पड़ता है…मतलब?”…..
“तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता?”…
“कुछ बताओगे…तभी तो पता चलेगा कि क्या फर्क पड़ना चाहिए मुझे इस सब से?”…
“अरे!..ये भी तो देखना पड़ेगा ना कि तुम्हारी-उसकी रुचियाँ तथा गुण-दोष भी मिलते हैँ कि नहीं?”…
“ओह!…
“तुम दोनों का जोड़ा सही ढंग से…..भली-भांति मैच करता है कि नहीं?…वगैरा वगैरा”….
“अरे यार!…बिज़नस में थोड़ा बहुत काम्प्रोमाईज़ तो करना ही पड़ता है”…
“तो इसका मतलब तुमने फाईनली मॉरिशस जाने का मन बना लिया है?”…..
“हाँ”…
“मतलब!…सब कुछ पहले से ही तय करने के बाद मुझे सिर्फ औपचारिकता भर निभाने के लिए बताया जा रहा है?”…
“अरे यार!…मैँने तुमसे कभी कुछ छुपाया है जो इस बार छुपाती?”…
“इरादा तो तुम्हारा कुछ ऐसा ही लग रहा है”…
“अच्छी तरह जानती भी हो कि तुम्हारे बिना मुझे कितनी प्राब्लम…कितनी मुश्किल हो जाती हैँ”….
“उसके बावजूद भी…..
“अरे यार!…बस कुछ दिनों की ही तो बात है”…
“मैँ ये गई और…वो आई”…
“यार!..तुम समझ नहीं रही हो….अगर टूर खत्म होने के बाद भी…
“अल्ले…अल्ले…मेरे राजा बेटे को तो अभी से डर सताने लगा कि मैँ कहीं हमेशा के लिए उसके साथ…..
“ओ.के…बाबा!…प्रामिस…
गॉड प्रामिस!…वादा है तुमसे कि टूर खत्म होने के बाद उससे किसी भी किस्म का कोई कांटैक्ट नहीं…कोई सरोकार नहीं”…
“पक्का?”…
“बिलकुल!…उसके बाद वो अपने रस्ते और मैँ अपने रस्ते”…
“खैर!…बाकि सब तो मैँ जैसे-तैसे मैनेज कर लूंगा लेकिन मुझे चिंता इस बात की खाए जा रही है कि बिना माँ के आँचल की छांव के बच्चे कहीं बिगड़ ना जाएँ?”…
“एक तो तुम्हारे जाने के बाद बच्चों के पास रह जाएगा सिर्फ मेरा लाड़ भरा प्यार”….
“ऊपर से उन पर कोई बंदिश…कोई बंधन नहीं”….
“अरे!…एक हफ्ते के लिए बच्चों को उनकी ‘नानी’ के पास छोड़ देंगे और एक हफ्ता तुम छुट्टी ले लेना पानीपत से”….
“मैँ?”…
“हाँ!…तुम”….
“अरे वाह!…तुम तो मज़े से विदेश में पराए मर्द के साथ जहाँ चाहे ऐश करती फिरो और मैँ यहाँ..घर में पड़ा-पड़ा तुम्हारे इन नमूनों की पौट्टी साफ कर नैप्पी बदलता फिरूँ?”…
“अरे!..कुछ दिन घर पे रह जाओगे तो कोई आफत नहीं आ जाएगी”…
“वैसे भी रोज़ाना बिना किसी नागे के पानीपत जा-जा के ही तुम कौन सा तीर मार रहे हो?”…
“मतलब?”….
“रोज़ाना सौ-दो सौ फूंक के खाली हाथ वापिस मुँह लटकाए ही तो लौटते हो”
“अरे यार!…मंदा चल रहा है आजकल”…
“तो भला तेज़ी ही कब होती है तुम्हारे बिज़नस में?”….
“पिछले चार साल से ही तो यही सुन रही हूँ कि अब सीज़न आएगा…अब सीज़न आएगा”…
“तो?”…
“अरे!…पता नहीं कितने सीज़न आए और कितने सीज़न चले गए लेकिन तुम्हारा मंदा है कि सुरसा का मुँह?”…
“कभी खत्म ही नहीं होता”…
“अभी पिछले महीने ही तो अच्छा काम चला था”…
“हाँ!..चला था…..
अपना दो दिन ठीक से बिक्री होती नहीं है कि मैँ ये वाला चॉयनीज़ मोबाईल ले लूँ और….मैँ वो वाला लैपटॉप भी ले ही लूँ”…
“हो जाती है ना फिर वही….खाली की खाली जेब”….
“कितनी बार समझा चुकी हूँ कि आड़े वक्त के लिए कुछ पैसे बचा के रखा करो”…
“वक्त-बेवक्त काम आएंगे”…
“तो क्या तुम्हारे पिताजी की तरह ‘मूंजीराम’ बन…तिजोरी पे साँप के माफिक लोटता फिरूँ?”…
“पट्ठा!..पता नहीं कब लुड़केगा?”….
“क्या बुड़बुड़ कर रहे हो?”…
“क्कुछ नहीं”….
“सब सुन लिया है मैँने”…
“अब यही बात अगर मैँ तुम्हारे पिताजी के लिए भी बोलूँ तो?…
“अरे यार!…मैँ तो ऐसे ही मज़ाक कर रहा था”….
“सब समझती हूँ तुम्हारे मज़ाक-शज़ाक”…
“अरे यार!…सेल नहीं हो रही तो क्या अब ग्राहकों को भी मैँ खुद ही पकड़ के ले आऊँ उनके घर से?”…
“ऐसा मैँने कब कहा?”…
“और क्या मतलब था तुम्हारी बात का?”…
“मैँ तो यही कह रही थी कि अगर तुम्हारे बस का नहीं है तो क्यों ना मैँ ही कुछ काम कर-करा के पैसे कमा लूँ?”…
“ये काम है?”…..
“इश्तेहार से ही साफ पता चल रहा है उसकी मंशा का”…
“स्साला!…लंपट कहीं का”…
“अरे!…ये तो सोचो कि जो इश्तेहारों पर इतनी रकम फूंक रहा है….
वो सच में कितनी फूंकेगा?”…
“हाँ!…ये तो है”….
“मैँ तो सीधे-सीधे घूमने-फिरने …शापिंग करने और मौज मनाने के अलावा पचास हज़ार कैश अलग से माँग लूँगी”…
“पचास हज़ार?”…..
“हाँ!…पूरे पचास हज़ार”…
“रहने दो…रहने दो”…
“इतना पागल भी नहीं होगा वो”….
“इस से कहीं कम में वो तुमसे लाख गुणा अच्छी का…वहीं के वहीं जुगाड़ कर लेगा”…
“तो क्या मैँ तुम्हें ऐव्वें ही ढीली-ढाली…बेकार की नज़र आती हूँ?”…
“अरे!..अभी भी मुझमें इतना दम-खम बाकि है कि अच्छे-अच्छों को अपनी उँगलियों पे नाच नचा ठण्डा कर सकूँ”…
“क्यों?…है कि नहीं”
“हाँ!..बिलकुल…वो तो मैँ अपनी ये मरी हालत देख के ही समझ रहा हूँ”….
“लेकिन तुम्हारा पासपोर्ट?”… “चिंता ना करो!….सब बात कर चुकी हूँ”….
“गुड”…
“तो क्या ‘पासपोर्ट’ बनवाने को भी राज़ी हो गया है?”…
“हाँ!..दो-चार दिन पहले ही इस बारे में बात हुई है उससे”….
“ओह!..तुम कब मिली उससे?”…
“मिली तो नहीं”…
“तुमने अभी कहा कि बात हुई”….
“ओह!…वो तो बस ऐसे ही फोन पे दो-तीन दफा बात हुई थी उससे”… “बात करने से कैसा इनसान लग रहा है?”…
“कैसा लग रहा है…मतलब?”…
“अरे!…नेचर वाईज़ कैसा है?”…बात करने के लहज़े से कुछ तो पता चला होगा”….
“सच कहूँ?…तो वो एक नम्बर का हरामी जान पड़ता है मुझको”…
“ऐसी-ऐसी बातें करता है कि जवाब देते नहीं बनता”….
“फिर?”…
“मैँ तो हँस कर उसकी हर बात टाल देती थी”…
“गुड!…लेकिन फिर ऐसे बंदे से पंद्रह दिन तक टैकल कैसे करोगी?”…
“चिंता ना करो!….जब तक सहा जाएगा…सहूँगी और पूरी तरह से…जितना हो सकेगा…खूब को-ऑपरेट करूँगी…
“गुड”….
“लेकिन!…जैसे ही उसने अपनी लिमिट...अपनी हद पार करने की कोशिश करनी है…मैँने फट से बिना किसी देरी के शोर मचा भीड़ इकट्ठी कर देनी है”….
“गुड”…
“एक्चुअली!..ऐसे लोग बड़े ही फट्टू किस्म के इनसान होते हैँ”….
“इसलिए!..पट्ठा…अपनी बदनामी के डर से फाल्तू की चूँ-चपड़ करने की भी जुर्रत नहीं करेगा”…
“हम्म!…”
“वैसे तुम्हारी बात उस से इस बारे में कब से चल रही है?”…
“एक्चुअली!…ये इश्तेहार कोई पन्द्रह दिन पहले छपा था”…
“बस!..तभी से बात चल रही है”…
“तो फिर पहले क्यूँ नहीं बताया?”….
“दरअसल!…मैँ तुम्हें सरप्राईज़ देना चाहती थी”…
“गुड!…समय के साथ नीरस और सुस्त हो चुके दांपत्य जीवन को ये सरप्राईज़-वरप्राईज़ का फलसफा चलता रहना चाहिए”…
“लेकिन एक बात है”…
“क्या?”…
“तुम कह रही हो कि तुम उस से कभी नहीं मिली?”…
“हाँ”…
“तो क्या ऐसे किसी अजनबी के साथ ‘ब्लाईंड डेट’ पे जाना ठीक रहेगा?”..
“क्या फर्क पड़ता है?”…
“पता नहीं कैसा?…किस नेचर का आदमी होगा?”…
“कहीं राह चलते उसके साथ तुम्हारी जोड़ी ऊटपटांग और अजीबो-गरीब नज़र आई तो?”…
“तुम चिंता ना करो…मैँ उसके साथ चलती हुई अजीब बेशक नज़र आऊँ लेकिन गरीब तो बिलकुल भी नहीं”…
“मतलब?”….
“मॉरिशस के लिए कूच करने से पहले ही मैँ…एक महँगे ट्रैक सूट…एक हाई-फाई बिकनी…एक अदद ब्रैंडिड मिनी प्ल्स माईक्रो स्कर्ट की डिमांड पहले ही रख चुकी हूँ उसके सामने”…
“गुड”…
“तो क्या तुम वहाँ सिर्फ यही फिरंगी कपड़े पहन के घूमोगी-फिरोगी?”…
“अपने पल्ले से तो मैँ एक ‘कच्छी’…ऊप्स!…सॉरी….पैंटी तक नहीं ले जाने वाली”…
“इसलिए!…ना चाहते हुए भी यही कपड़े पहनने पड़ेंगे”…
“क्या करें?…मजबूरी का नाम महात्मा गान्धी सही”….
“देखो!…हम पढे-लिखे…सभ्य और समझदार लोग हैँ”…
“हमारी भी समाज में कोई इज़्ज़त है”…
“इसलिए ये मुझे बिलकुल भी गवारा नहीं कि तुम वहाँ ये छोटे-छोटे अल्ट्रा माड्रन तथा एक्स्ट्रा थिन(महीन) कपड़े पहन इधर-उधर मुँह मार यूँ बेफिक्री से गुलछर्रे उड़ाती फिरो”…
“लेकिन यार!…बीच पे एंजॉय करते वक्त तो यही कपड़े अच्छे लगते हैँ और यही कपड़े पूरी दुनिया में पहने भी जाते हैँ”…
“और तुम जानते ही तो हो कि मेरा बॉडी फिगर बड़ा ही फोटोजैनिक है”…
“हाँ!…वो तो है”…
“तो इस नज़रिए से देखा जाए तो क्या मैँ बीच वगैरा पे साड़ी या सूट पहन घूमती अच्छी लगूँगी?”…
“नहीं!…बिलकुल नहीं”…
“वोही तो”…
“लेकिन!…अच्छी लगो ना लगो….मुझे कोई परवाह नहीं”…
“समझा करो यार”…
“ओ.के…तुम्हारी मर्ज़ी….पहनो ना पहनो”….
“लेकिन कोई बकरा अगर अपनी मर्ज़ी से खुद ही हलाल होने को उतावला बैठा हो तो हमें ऐसा हरजाई भी नहीं होना चाहिए कि हम उसकी इस दिली तमन्ना को अपने जीते जी यूँ ही बेफाल्तू में खाक के सुपुर्द कर उसके हिलोलें खा मचलते हुए अरमानों को ज़िन्दा दफ्न कर डालें”….
“हाँ!…ये तो है”…
“ओ.के…फिर ठीक है”…
“तुम अभी के अभी उसे फोन लगाओ और कहो कि वो तुम्हें रितु बेरी के ‘M2K’ वाले बुटीक से कम से कम चार डिज़ायनर सूट तथा ‘रामचन्द्र कृष्ण चन्द्र’ की दुकान से दो हैवी वाली बनारसी साड़ियाँ अलग से ले के दे”…
“लेकिन क्या ये ज़्यादती नहीं होगी उस बेचारे के साथ?”…
“क्या बात?”…
“बड़ा तरस आ रहा है तुम्हें…तुम्हारे इस बेचारे पर?”…
“कहीं उस के साथ कोई चक्कर-वक्कर?”….
“नहीं!…ऐसी कोई बात नहीं है”…
“पक्का?”…
“बिलीव मी!..आई एम नाट एट ऑल सीरियस विद हिम”…
“एक बात अच्छी तरह समझ लो कि मैँ चाहे लाख मर्दों के साथ इधर-उधर घूम-फिर के खूब एंजाय करूँ लेकिन….
मैँ दिल से…तुम्हारी थी…तुम्हारी हूँ और सदा तुम्हारी रहूँगी”…
“सिर्फ दिल से?”मैँने मन ही मन सोचा…
“खैर!…कोई बात नहीं”….
“गुड!…वैरी गुड”…
“इसे कहते हैँ जन्म-जन्मांतर का सच्चा प्यार”…
“और वैसे भी बिज़नस में पर्सनल इमोशनज़ का कोई काम नहीं होता”…
“बिलकुल”…
“एक बात और उससे अच्छी खोल लेना”….
“क्या?”…
“यही… कि ये सब सामान टूर से वापसी के बाद भी तुम ही रखोगी”…
“इतनी पागल भी नहीं हूँ कि ये सब छोटी बातें भी ना समझूँ”…
“मैँने तो पहले ही ये सब चीज़ें उस से मुँह-दिखाई के नाम पर माँग लेनी हैँ”…
“वाऊ!…दैट्स नाईस”…
“सिर्फ नाईस?”…
“नहीं!…इट्स वैरी…वैरी नाईस”….
“लेकिन यार!…एक बात मुझे कुछ परेशान सा किए जा रही है”…
“क्या?”…
“यही कि अगर वो कहीं ऊँट के समान लम्बा हुआ और तुम उसके सामने बौनी नज़र आओ तो?”…
“मैँ लंबी हील वाले सैण्डिल खरीद लूंगी”…..
“खरीद लूंगी?”…
“अरे बाबा!..चिंता क्यों करते हो?…उसी से खरीदवा लूंगी”
“हम्म!…फिर ठीक है”..
“अब खुश?”…
“बहुत”….
“लेकिन अगर वो कोई मोटा…भद्दा और थुलथुला इनसान हुआ तो?”…
“तो?”…
“तुम ठहरी…पतली और दुबली नाज़ुक कली”…
“इसका मतलब!…कोई ना कोई ऐसा आईडिया खोजना पड़ेगा कि आम के स्वाद के साथ-साथ गुठली का भी भरपूर दाम मिले”…
“हम्म!…
“एक आईडिया है”…
“क्या?”…
“यही कि जहाँ कहीं तुम थोड़ी भीड़भाड़ देखो …वहाँ तुम उस से कुछ दूरी बना के चलना और ऐसे बिहेव करना कि जैसे तुम उसकी बेटी और वो तुम्हारा पापा हों”…
“हू…हा….हा….हा”…
“ये सही एकदम झकास आईडिया खोजा है तुमने”…
“और नहीं तो क्या?”…
“लगता है कि रोज़ाना ट्रेन से पानीपत आते-जाते तुम्हें ऐसे ही बेफिजूल और बेमतलब के नायाब आईडिए ही सूझा करते हैँ”….
“बिलकुल”…
“लेकिन एक चिंता अब भी मेरे दिमाग को पकाए किए जा रही है”…
“अब ये कौन सी?…और कैसी?…दिमाग पकाऊ चिंता आ के टपक पड़ी”…
“यही कि…मैँ ये सोच-सोच के परेशानी के मारे पस्त हुआ जा रहा हूँ कि अगर उसका रंग तवे के माफिक काला-कलूटा हो हुआ तो?…
“तो क्या हुआ?….मेरा रंग तो एकदम साफ और गोरा-चिट्टा है ना?”…
“अरे यार!..आजकल कंट्रास्ट का नहीं बल्कि मैचिंग का ज़माना है”…
“लेकिन अल्ट्रा व्हाईट पेपर के साथ ब्लैक कॉरबन की जोड़ी भी तो खूब जमती ही है”…
“नहीं!…बिलकुल नहीं”….
“तुम्हारे साथ-साथ लोग मेरा भी मज़ाक उड़ाएँ…ऐसा मुझे बिलकुल भी…किसी भी कीमत पर गवारा नहीं”…
“अरे यार!…कौन सा मैँ उसके साथ परमानैंटली सैटल होने जा रही हूँ?”…
“लेकिन!…फिर भी….
“और वैसे भी वो मुझे झुमरी तलैय्या नहीं…बल्कि मॉरिशस घुमाने ले जा रहा है”…
“वहाँ भला मुझे जानता ही कौन होगा?”…
“और क्या पता वहाँ कौन सा फैशन चल रहा हो?”
“हाँ!…क्या पता?…वहाँ आजकल ‘कंट्रास्ट’ ही डिमांड में हो”…
“जी”..
“तो फिर कल तक हर हालत में डील फाईनल कर लो”…
“कल तक क्यों?”…
“अरे!…सुनहरा मौका है…कोई भी अच्छी और भले घर की लड़की इसे गंवाना नहीं चाहेगी और वैसे भी बड़े-बुज़ुर्ग कह के तो गए हैँ”…
“क्या?”….
“यही कि…….
“काल करे सो आज कर….आज करे सो अब”…
“पल में प्रलय होएगी…बहुरी करेगा कब”….
“तो फिर मैँ अभी फोन कर दूँ?”…
“ये भी कोई पूछने की बात है?”….
टीं…टीं…टीं….बीप…बीप…बीप…
ओफ्फो!…ये उसका नम्बर इतना बिज़ी क्यों जा रहा है?”…
“ठहरो!…मैँ अपने फोन से मिला के देखता हूँ”…
“ज़रा नम्बर तो बताना”…
“किसका नम्बर पूछ रहे हो जनाब?”…
“और ये नींद में…टीं…टीं…बीप…बीप…कह …क्या बड़बड़ा रहे हो?”…
“कितनी बार कह चुकी हूँ कि ये मुय्ये मित्रता-वित्रता के पुट्ठे विज्ञापन पढ अपनी रातें खराब ना किया करो”…
“ये देखो!…रात भर लाईट ऑन रही है तुम्हारे कमरे की”….
“पिताजी ने देख लिया तो गज़ब हो जाएगा”…
“ये तो वही हैँ जो थोड़ा-बहुत कह-सुन के हमारा बिल भी भर देते हैँ”…
“लेकिन कितने दिन तक ऐसा चलेगा?”…
“जब खुद ही बिल भरना पड़ेगा तभी अकल आएगी जनाब को”…
***राजीव तनेजा***
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