टीं...टीं...बीप...बीप- राजीव तनेजा

***राजीव तनेजा***
“एक लम्बे..तन्दुरस्त और गोरे-चिट्टे जवाँ मर्द (दिल्ली निवासी) पैंतालिस वर्षीय व्यवसायी को  आवश्यकता है एक खुले विचारों वाली सुन्दर…सुघड़ एवं सुशील कन्या की…जो उसके संग मित्रता कर हफ्ते-दो हफ्तों के लिए मॉरिशस के अन-अफिशियल टूर पे चल सके।
नोट:
  • रंग..उम्र..जाति भेद की कोई बाधा नहीं…कोई समस्या नहीं।
  • गृहणी…कुँवारी…विधवा तथा तलाकशुदा  भी स्वीकार्य
  • अच्छे संस्कारों वाली वैल मैनर्ड महिलाएँ कृप्या संपर्क ना करें
अपने लेटेस्ट पासपोर्ट साईज़ फोटो…बॉयोडाटा तथा मोबाईल नम्बर को ठरकीनम्बरवन@बिगबॉस.कॉम पर तुरंत मेल करें।आपकी पहचान शर्तिया तथा यकीनी तौर पर गुप्त रखी जाएगी।मुफ्त में खाने-पीने… रहने..घूमने-फिरने के अलावा आपकी परफार्मैंस के हिसाब से उचित एवं जायज़ पारिश्रमिक भी दिया जाएगा।
विशेष:दिल्ली तथा ‘एन.सी.आर’ की रहने वाली महिलाओं को विशेष प्राथमिकता



“सुनो!…मैँ हो आऊँ?”बीवी अखबार लपेट ..साईड पे रख मेरी तरफ प्यार भरी नज़रों से ताकती हुई बोली
“पागल तो नहीं हो गई हो कहीं?”…
“कितनी बार मना किया है कि तुम ये मित्रता-वित्रता की बे-फिजूल…बेफाल्तू की खबरें पढ फोकट में ही एक्साईटिड ना हो जाया करो लेकिन तुम हो कि मानती ही नहीं”…
“कुछ नहीं धरा है इनमें”…
“फॉर यूअर काइंड इंफार्मेशन…ये खबर नहीं बल्कि विज्ञापन है”…
“तो?”…
“वो भी कोई ऐरा-गैरा नहीं बल्कि बोल्ड अक्षरों से सुज्जित एक धांसू क्लासीफाईड विज्ञापन है”…
हाई लाईटिड वाला”…
“तो?”….
“पहले तो ये तो-तो की तोते माफिक रट लगाना छोड़ो और ध्यान से सुनो”….
“क्या?”…
यही कि ‘हाई लाईटिड’ वाले विज्ञापन का मतलब है कि…पार्टी सॉलिड है”…
“ऐसा इसलिए भी किया जाता है कि पढने वाला एक बार में ही समझ जाए कि इश्तेहार देने वाला कोई छोटी नहीं बल्कि मोटी आसामी है”…..
“गुड”…
“तो फिर मैँ हो आऊँ?”….
“लेकिन तुम्हारी ये सॉलिड पार्टी कहीं ‘आसाम-नागालैण्ड’ का रहने वाला..मिचमिची आँखो वाला कोई ‘आसामी’ हुआ  तो?”..
“क्या फर्क पड़ता है?…कैसा भी हो?”..
“क्या फर्क पड़ता है…मतलब?”…..
“तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता?”…
“कुछ बताओगे…तभी तो पता चलेगा कि क्या फर्क पड़ना चाहिए मुझे इस सब से?”…
“अरे!..ये भी तो देखना पड़ेगा ना कि तुम्हारी-उसकी रुचियाँ तथा गुण-दोष भी मिलते हैँ कि नहीं?”…
“ओह!…
“तुम दोनों का जोड़ा सही ढंग से…..भली-भांति मैच करता है कि नहीं?…वगैरा वगैरा”….
“अरे यार!…बिज़नस में थोड़ा बहुत काम्प्रोमाईज़ तो करना ही पड़ता है”…
“तो इसका मतलब तुमने फाईनली मॉरिशस जाने का मन बना लिया है?”…..
हाँ”…
“मतलब!…सब कुछ पहले से ही तय करने के बाद मुझे सिर्फ औपचारिकता भर निभाने के लिए बताया जा रहा है?”…
“अरे यार!…मैँने तुमसे कभी कुछ छुपाया है जो इस बार छुपाती?”…
“इरादा तो तुम्हारा कुछ ऐसा ही लग रहा है”…
“अच्छी तरह जानती भी हो कि तुम्हारे बिना मुझे कितनी प्राब्लम…कितनी मुश्किल हो जाती हैँ”….
“उसके बावजूद भी…..
“अरे यार!…बस कुछ दिनों की ही तो बात है”…
“मैँ ये गई और…वो आई”…
“यार!..तुम समझ नहीं रही हो….अगर टूर खत्म होने के बाद भी…
“अल्ले…अल्ले…मेरे राजा बेटे को तो अभी से डर सताने लगा कि मैँ कहीं हमेशा के लिए उसके साथ…..
“ओ.के…बाबा!…प्रामिस…
गॉड प्रामिस!…वादा है तुमसे कि टूर खत्म होने के बाद उससे किसी भी किस्म का कोई कांटैक्ट नहीं…कोई सरोकार नहीं”…
“पक्का?”…
“बिलकुल!…उसके बाद वो अपने रस्ते और मैँ अपने रस्ते”…

“खैर!…बाकि सब तो मैँ जैसे-तैसे मैनेज कर लूंगा लेकिन मुझे चिंता इस बात की खाए जा रही है कि बिना माँ के आँचल की छांव के बच्चे कहीं बिगड़ ना जाएँ?”…
“एक तो तुम्हारे जाने के बाद बच्चों के पास रह जाएगा सिर्फ मेरा लाड़ भरा प्यार”….
“ऊपर से उन पर कोई बंदिश…कोई बंधन नहीं”….
“अरे!…एक हफ्ते के लिए बच्चों को उनकी ‘नानी’ के पास छोड़ देंगे और एक हफ्ता तुम छुट्टी ले लेना पानीपत से”….
“मैँ?”…
“हाँ!…तुम”….
“अरे वाह!…तुम तो मज़े से विदेश में पराए मर्द के साथ जहाँ चाहे ऐश करती फिरो और मैँ यहाँ..घर में पड़ा-पड़ा तुम्हारे इन नमूनों की पौट्टी साफ कर नैप्पी बदलता फिरूँ?”…
“अरे!..कुछ दिन घर पे रह जाओगे तो कोई आफत नहीं आ जाएगी”…
“वैसे भी रोज़ाना बिना किसी नागे के पानीपत जा-जा के ही तुम कौन सा तीर मार रहे हो?”…
“मतलब?”….
“रोज़ाना सौ-दो सौ फूंक के खाली हाथ वापिस मुँह लटकाए ही तो लौटते हो”
“अरे यार!…मंदा चल रहा है आजकल”…
“तो भला तेज़ी ही कब होती है तुम्हारे बिज़नस में?”….
“पिछले चार साल से ही तो यही सुन रही हूँ कि अब सीज़न आएगा…अब सीज़न आएगा”…
“तो?”…
“अरे!…पता नहीं कितने सीज़न आए और कितने सीज़न चले गए लेकिन तुम्हारा मंदा है कि सुरसा का मुँह?”…
“कभी खत्म ही नहीं होता”…
“अभी पिछले महीने ही तो अच्छा काम चला था”…
“हाँ!..चला था…..
अपना दो दिन ठीक से बिक्री होती नहीं है कि मैँ ये वाला चॉयनीज़ मोबाईल ले लूँ और….मैँ वो वाला लैपटॉप भी ले  ही लूँ”…
“हो जाती है ना फिर वही….खाली की खाली जेब”….
“कितनी बार समझा चुकी हूँ कि आड़े वक्त के लिए कुछ पैसे बचा के रखा करो”…
“वक्त-बेवक्त काम आएंगे”…
“तो क्या तुम्हारे पिताजी की तरह ‘मूंजीराम’ बन…तिजोरी पे साँप के माफिक लोटता फिरूँ?”…
“पट्ठा!..पता नहीं कब लुड़केगा?”….
“क्या बुड़बुड़ कर रहे हो?”…
“क्कुछ नहीं”….
“सब सुन लिया है मैँने”…
“अब यही बात अगर मैँ तुम्हारे पिताजी के लिए भी बोलूँ तो?…
“अरे यार!…मैँ तो ऐसे ही मज़ाक कर रहा था”….
“सब समझती हूँ तुम्हारे मज़ाक-शज़ाक”…
“अरे यार!…सेल नहीं हो रही तो क्या अब ग्राहकों को भी मैँ खुद ही पकड़ के ले आऊँ उनके घर से?”…
“ऐसा मैँने कब कहा?”…
“और क्या मतलब था तुम्हारी बात का?”…
“मैँ तो यही कह रही थी कि अगर तुम्हारे बस का नहीं है तो क्यों ना मैँ ही कुछ काम कर-करा के पैसे कमा लूँ?”…
“ये काम है?”…..
“इश्तेहार से ही साफ पता चल रहा है उसकी मंशा का”…
“स्साला!…लंपट कहीं का”…
“अरे!…ये तो सोचो कि जो इश्तेहारों पर इतनी रकम फूंक रहा है….
वो सच में कितनी फूंकेगा?”…
“हाँ!…ये तो है”….
“मैँ तो सीधे-सीधे घूमने-फिरने …शापिंग करने और मौज मनाने के अलावा पचास हज़ार कैश अलग से माँग लूँगी”…
“पचास हज़ार?”…..
“हाँ!…पूरे पचास हज़ार”…
“रहने दो…रहने दो”…
“इतना पागल भी नहीं होगा वो”….
“इस से कहीं कम में वो तुमसे लाख गुणा अच्छी का…वहीं के वहीं जुगाड़ कर लेगा”…
“तो क्या मैँ तुम्हें ऐव्वें ही ढीली-ढाली…बेकार की नज़र आती हूँ?”…
“अरे!..अभी भी मुझमें इतना दम-खम बाकि है कि अच्छे-अच्छों को अपनी उँगलियों पे नाच नचा ठण्डा कर सकूँ”…
“क्यों?…है कि नहीं”
“हाँ!..बिलकुल…वो तो मैँ अपनी ये मरी हालत देख के ही समझ रहा हूँ”….
“लेकिन तुम्हारा पासपोर्ट?”… “चिंता ना करो!….सब बात कर चुकी हूँ”….
“गुड”…
“तो क्या ‘पासपोर्ट’ बनवाने को भी राज़ी हो गया है?”…
“हाँ!..दो-चार दिन पहले ही इस बारे में बात हुई है उससे”….
“ओह!..तुम कब मिली उससे?”…
“मिली तो नहीं”…
“तुमने अभी कहा कि बात हुई”….
“ओह!…वो तो बस ऐसे ही फोन पे दो-तीन दफा बात हुई थी उससे”… “बात करने से कैसा इनसान लग रहा है?”…
“कैसा लग रहा है…मतलब?”…
“अरे!…नेचर वाईज़ कैसा है?”…बात करने के लहज़े से कुछ तो पता चला होगा”….
“सच कहूँ?…तो वो एक नम्बर का हरामी जान पड़ता है मुझको”…
“ऐसी-ऐसी बातें करता है कि जवाब देते नहीं बनता”….
“फिर?”…
“मैँ तो हँस कर उसकी हर बात टाल देती थी”…
“गुड!…लेकिन फिर ऐसे बंदे से पंद्रह दिन तक टैकल कैसे करोगी?”…
“चिंता ना करो!….जब तक सहा जाएगा…सहूँगी और पूरी तरह से…जितना हो सकेगा…खूब को-ऑपरेट करूँगी…
“गुड”….
“लेकिन!…जैसे ही उसने अपनी लिमिट...अपनी हद पार करने की कोशिश करनी है…मैँने फट से बिना किसी देरी के शोर मचा भीड़ इकट्ठी कर देनी है”….
“गुड”…
“एक्चुअली!..ऐसे लोग बड़े ही फट्टू किस्म के इनसान होते हैँ”….
“इसलिए!..पट्ठा…अपनी बदनामी के डर से फाल्तू की चूँ-चपड़ करने की भी जुर्रत नहीं करेगा”…
“हम्म!…”
“वैसे तुम्हारी बात उस से इस बारे में कब से चल रही है?”…
“एक्चुअली!…ये इश्तेहार कोई पन्द्रह दिन पहले छपा था”…
“बस!..तभी से बात चल रही है”…
“तो फिर पहले क्यूँ नहीं बताया?”….
“दरअसल!…मैँ तुम्हें सरप्राईज़ देना चाहती थी”…
“गुड!…समय के साथ नीरस और सुस्त हो चुके दांपत्य जीवन को ये सरप्राईज़-वरप्राईज़ का फलसफा चलता रहना चाहिए”…
“लेकिन एक बात है”…
“क्या?”…
“तुम कह रही हो कि तुम उस से कभी नहीं मिली?”…
“हाँ”…
“तो क्या ऐसे किसी अजनबी के साथ ‘ब्लाईंड डेट’ पे जाना ठीक रहेगा?”..
“क्या फर्क पड़ता है?”…
“पता नहीं कैसा?…किस नेचर का आदमी होगा?”…
“कहीं राह चलते उसके साथ तुम्हारी जोड़ी ऊटपटांग और अजीबो-गरीब नज़र आई तो?”…
“तुम चिंता ना करो…मैँ उसके साथ चलती हुई अजीब बेशक नज़र आऊँ लेकिन गरीब तो बिलकुल भी नहीं”…
“मतलब?”….
“मॉरिशस के लिए कूच करने से पहले ही मैँ…एक महँगे ट्रैक सूट…एक हाई-फाई बिकनी…एक अदद ब्रैंडिड मिनी प्ल्स माईक्रो स्कर्ट की डिमांड पहले ही रख चुकी हूँ उसके सामने”…
“गुड”…
“तो क्या तुम वहाँ सिर्फ यही फिरंगी कपड़े पहन के घूमोगी-फिरोगी?”…
“अपने पल्ले से तो मैँ एक ‘कच्छी’…ऊप्स!…सॉरी….पैंटी तक नहीं ले जाने वाली”…
“इसलिए!…ना चाहते हुए भी यही कपड़े पहनने पड़ेंगे”…
“क्या करें?…मजबूरी का नाम महात्मा गान्धी सही”….
“देखो!…हम पढे-लिखे…सभ्य और समझदार लोग हैँ”…
“हमारी भी समाज में कोई इज़्ज़त है”…
“इसलिए ये मुझे बिलकुल भी गवारा नहीं कि तुम वहाँ ये छोटे-छोटे अल्ट्रा माड्रन तथा एक्स्ट्रा थिन(महीन) कपड़े पहन इधर-उधर मुँह मार यूँ बेफिक्री से गुलछर्रे उड़ाती फिरो”…
“लेकिन यार!…बीच पे एंजॉय करते वक्त तो यही कपड़े अच्छे लगते हैँ और यही कपड़े पूरी दुनिया में पहने भी जाते हैँ”…
“और तुम जानते ही तो हो कि मेरा बॉडी फिगर बड़ा ही फोटोजैनिक है”…
“हाँ!…वो तो है”…
“तो इस नज़रिए से देखा जाए तो क्या मैँ बीच वगैरा पे साड़ी या सूट पहन घूमती अच्छी लगूँगी?”…
“नहीं!…बिलकुल नहीं”…
“वोही तो”…
“लेकिन!…अच्छी लगो ना लगो….मुझे कोई परवाह नहीं”…
“समझा करो यार”…
“ओ.के…तुम्हारी मर्ज़ी….पहनो ना पहनो”….
“लेकिन कोई बकरा अगर अपनी मर्ज़ी से खुद ही हलाल होने को उतावला बैठा हो तो हमें ऐसा हरजाई भी नहीं होना चाहिए कि हम उसकी इस दिली तमन्ना को अपने जीते जी यूँ ही बेफाल्तू में खाक के सुपुर्द कर उसके हिलोलें खा मचलते हुए अरमानों को ज़िन्दा दफ्न कर डालें”….
“हाँ!…ये तो है”…
“ओ.के…फिर ठीक है”…
“तुम अभी के अभी उसे फोन लगाओ और कहो कि वो तुम्हें रितु बेरी के ‘M2K’ वाले बुटीक से कम से कम चार डिज़ायनर सूट तथा ‘रामचन्द्र कृष्ण चन्द्र’ की दुकान से दो हैवी वाली बनारसी साड़ियाँ अलग से ले के दे”…
“लेकिन क्या ये ज़्यादती नहीं होगी उस बेचारे के साथ?”…
“क्या बात?”
“बड़ा तरस आ रहा है तुम्हें…तुम्हारे इस बेचारे पर?”…
“कहीं उस के साथ कोई चक्कर-वक्कर?”….
“नहीं!…ऐसी कोई बात नहीं है”…
“पक्का?”…
“बिलीव मी!..आई एम नाट एट ऑल सीरियस विद हिम”…
“एक बात अच्छी तरह समझ लो कि मैँ चाहे लाख मर्दों के साथ इधर-उधर घूम-फिर के खूब एंजाय करूँ लेकिन….
मैँ दिल से…तुम्हारी थी…तुम्हारी हूँ और सदा तुम्हारी रहूँगी”…
“सिर्फ दिल से?”मैँने मन ही मन सोचा…
“खैर!…कोई बात नहीं”….
“गुड!…वैरी गुड”…
“इसे कहते हैँ जन्म-जन्मांतर का सच्चा प्यार”…
“और वैसे भी बिज़नस में पर्सनल इमोशनज़ का कोई काम नहीं होता”…
“बिलकुल”…
“एक बात और उससे अच्छी खोल लेना”….
“क्या?”…
“यही… कि ये सब सामान टूर से वापसी के बाद भी तुम ही रखोगी”…
“इतनी पागल भी नहीं हूँ कि ये सब छोटी बातें भी ना समझूँ”…
“मैँने तो पहले ही ये सब चीज़ें उस से मुँह-दिखाई के नाम पर माँग लेनी हैँ”…
“वाऊ!…दैट्स नाईस”…
“सिर्फ नाईस?”…
“नहीं!…इट्स वैरी…वैरी नाईस”….
“लेकिन यार!…एक बात मुझे कुछ परेशान सा किए जा रही है”…
“क्या?”…
“यही कि अगर वो कहीं  ऊँट के समान लम्बा हुआ और तुम उसके सामने बौनी नज़र आओ तो?”…
“मैँ लंबी हील वाले सैण्डिल खरीद लूंगी”…..
“खरीद लूंगी?”…
“अरे बाबा!..चिंता क्यों करते हो?…उसी से खरीदवा लूंगी”
“हम्म!…फिर ठीक है”..
“अब खुश?”…
“बहुत”….
“लेकिन अगर वो कोई मोटा…भद्दा और थुलथुला इनसान हुआ तो?”…
“तो?”…
“तुम ठहरी…पतली और दुबली नाज़ुक कली”…
“इसका मतलब!…कोई ना कोई ऐसा आईडिया खोजना पड़ेगा कि आम के स्वाद के साथ-साथ गुठली का भी भरपूर दाम मिले”…
“हम्म!…
“एक आईडिया है”…
“क्या?”…
“यही कि जहाँ कहीं तुम थोड़ी भीड़भाड़ देखो …वहाँ तुम उस से कुछ दूरी बना के चलना और ऐसे बिहेव करना कि जैसे तुम उसकी बेटी और वो तुम्हारा पापा हों”…
“हू…हा….हा….हा”…
“ये सही एकदम झकास आईडिया खोजा है तुमने”…
“और नहीं तो क्या?”…
“लगता है कि रोज़ाना ट्रेन से पानीपत आते-जाते तुम्हें ऐसे ही बेफिजूल और बेमतलब के नायाब आईडिए ही सूझा करते हैँ”….
“बिलकुल”…
“लेकिन एक चिंता अब भी मेरे दिमाग को पकाए किए जा रही है”…
“अब ये कौन सी?…और कैसी?…दिमाग पकाऊ चिंता आ के टपक पड़ी”…
“यही कि…मैँ ये सोच-सोच के परेशानी के मारे पस्त हुआ जा रहा हूँ कि अगर उसका रंग तवे के माफिक काला-कलूटा हो हुआ तो?…
“तो क्या हुआ?….मेरा रंग तो एकदम साफ और गोरा-चिट्टा है ना?”…
“अरे यार!..आजकल कंट्रास्ट का नहीं बल्कि मैचिंग का ज़माना है”…
“लेकिन अल्ट्रा व्हाईट पेपर के साथ ब्लैक कॉरबन की जोड़ी भी तो खूब जमती ही है”…
“नहीं!…बिलकुल नहीं”….
“तुम्हारे साथ-साथ लोग मेरा भी मज़ाक उड़ाएँ…ऐसा मुझे बिलकुल भी…किसी भी कीमत पर गवारा नहीं”…
“अरे यार!…कौन सा मैँ उसके साथ परमानैंटली सैटल होने जा रही हूँ?”…
“लेकिन!…फिर भी….
“और वैसे भी वो मुझे झुमरी तलैय्या नहीं…बल्कि मॉरिशस घुमाने ले जा रहा है”…
“वहाँ भला मुझे जानता ही कौन होगा?”…
“और क्या पता वहाँ कौन सा फैशन चल रहा हो?”
“हाँ!…क्या पता?…वहाँ आजकल ‘कंट्रास्ट’ ही डिमांड में हो”…
“जी”..
“तो फिर कल तक हर हालत में डील फाईनल कर लो”…
“कल तक क्यों?”…
“अरे!…सुनहरा मौका है…कोई भी अच्छी और भले घर की लड़की इसे गंवाना नहीं चाहेगी और वैसे भी बड़े-बुज़ुर्ग कह के तो गए हैँ”…
“क्या?”….
“यही कि…….
“काल करे सो आज कर….आज करे सो अब”…
“पल में प्रलय होएगी…बहुरी करेगा कब”….
“तो फिर मैँ अभी फोन कर दूँ?”…
“ये भी कोई पूछने की बात है?”….
टीं…टीं…टीं….बीप…बीप…बीप…
ओफ्फो!…ये उसका नम्बर इतना बिज़ी क्यों जा रहा है?”…
“ठहरो!…मैँ अपने फोन से मिला के देखता हूँ”…
“ज़रा नम्बर तो बताना”…
किसका नम्बर पूछ रहे हो जनाब?”…
“और ये नींद में…टीं…टीं…बीप…बीप…कह …क्या बड़बड़ा रहे हो?”…
कितनी बार कह चुकी हूँ कि ये मुय्ये मित्रता-वित्रता के पुट्ठे विज्ञापन पढ अपनी रातें खराब ना किया करो”…
“ये देखो!…रात भर लाईट ऑन रही है तुम्हारे कमरे की”….
“पिताजी ने देख लिया तो गज़ब हो जाएगा”…
“ये तो वही हैँ जो थोड़ा-बहुत कह-सुन के हमारा बिल भी भर देते हैँ”…
“लेकिन कितने दिन तक ऐसा चलेगा?”…
“जब खुद ही बिल भरना पड़ेगा तभी अकल आएगी जनाब को”…
***राजीव तनेजा***
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+919213766753

"खबरों में से खबर सुनो"

 

***राजीव तनेजा*** 

begger-handicap     

"खुश खबरी...खुश खबरी...खुश खबरी"...

पूरे पानीपत शहर के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी नामी और बिगड़ैल रईसजादे ने अपने अनुभवों को..अपनी भावनाओं को...अपनी कामयाबी के रहस्यों को खुलेआम सार्वजनिक करने की सोची है ताकि आने वाली पीढियाँ उन्हें अमल में ला कामयाबी के रास्ते पे चल सकें।जी हाँ!...शहर के जाने-माने सेठ और समाजसेवी श्री फकीर चन्द जी साक्षातकार के लिए मान गए हैँ और उन्हें राज़ी करने के लिए हँसते रहो वालों की पूरी टीम (जिसमें सिर्फ मैँ शामिल हूँ) को काफी पापड़ ही नहीं बेलने पड़े बल्कि उनके साथ-साथ कुछ मसालेदार 'पंजाबी वड़ियाँ' तथा 'गुजराती ढोकला' भी बनाना और खाना पड़ा।

हाँ!...तो अब आप पाठकों के समक्ष पेश है उनके साथ हुई बातचीत का अक्षरश ब्योरा:

हँसते रहो:हाँ तो!...फकीर चन्द जी....इंटरव्यू शुरू करें?...

फकीर चन्द:जी बिलकुल...

हँसते रहो:ठीक है!...तो मैँ ये टेप रेकार्डर ऑन किए देता हूँ ताकि बाद में किसी किस्म का कोई कंफ्यूज़न पैदा ना हो...

फकीर चन्द:मतलब?

हँसते रहो:वो क्या है कि बड़े लोगों को बाद में अक्सर ये मुगाल्ता लग जाता है कि उनके ब्यान के साथ अनावश्यक रूप से छेड़छाड़ की गई है

फकीर चन्द:ओह!...फिर तो आप ज़रूर ही ऑन कर दें....

ये तो बहुत ही बढिया आईडिया है...इसमें किसी भी तरह के शक और शुबह की गुंजाईश ही नहीं

हँसते रहो:जी बिलकुल....तो फिर शुरू करें?...

फकीर चन्द:शौक से

हँसते रहो:ओ.के...

"पहले तो मैँ राजीव तनेजा अपने सभी पाठकों की तरफ से आपको धन्यवाद देता हूँ कि आप हमसे बात करने के लिए राज़ी हुए।बेशक!...इस काम में मुझे अपने हाथ-मुँह-कान और कपड़े...सब लिबेड़ने पड़े।

फकीर चन्द:नहीं जी!...ऐसी कोई बात नहीं है...बात करने के लिए तो मैँने कभी किसी को इनकार ही नहीं किया और ना ही कभी ऐसा करने का इरादा है लेकिन ये और बात है कि किसी दूसरे को मुझसे बात करने की कभी सूझी ही नहीं।

हे हे हे हे ...

हँसते रहो:आप तो शहर के जाने-माने उद्यमी हैँ और गुप-चुप ढंग से गरीबों में दाल-चावल से लेकर कम्बल बाँटने तक और....

रक्तदान से लेकर नेत्रदान तक सभी तरह के समाजसेवी  कामों में बढ-चढ कर भाग लेते रहते हैँ

फकीर चन्द:ये आपसे किसने कहा?....

हँसते रहो:मेरी बीवी संजू ने...वो लॉयंस क्लब की एक्टिव मैम्बर है ना...

"उसी ने आपको कई बार रुबरू देखा है ऐसे प्रोग्रामों में"...

फकीर चन्द:ओ.के...

हँसते रहो:आपका कभी मन नहीं हुआ कि आपको भी लाईम लाईट में चर्चा का विष्य बनना चाहिए?

फकीर चन्द:नहीं!....बिलकुल भी नहीं....

"अब अपने इन्हीं 'पासाराम बाबू' जी को ही लो"...
"आ गए ना 'सी.बी.आई' के लपेटे में?"...

"बड़ा शौक चर्रा रहा था ना 'टी.वी' में आ के राम कथा करने-कराने का"..

"अब भुक्तो"...

"कितनी बार समझाया कि ये मीडिया वाले किसी के सगे नहीं होते...इनकी लाईम लाईट में आना ठीक नहीं"

"अरे!..साधू हो तुम...साधू की तरह रहो"...

"क्या ज़रूरत थी हाई प्रोफाईल साधू बनने की?"...

"अपना आराम से जो करना-कराना था चुपचाप करते रहते"...

"लेकिन नहीं!...हीरो बनना चाहते थे ना?"...

"क्या हुआ?"..

"बहुत बन लिए ना हीरो?"...

"अब पब्लिक जूते मार-मार के ज़ीरो ना बना दे तो कहना"....

"क्या ज़रूरत थी किसी अबला नारी के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती करने की?"....

"अपना प्यार से...आराम से...कुछ लालच वगैरा दे दिला के मना लेना था"...

"ज़्यादा ही मन कर रहा था तो चले जाना था बैंकाक-शैंकाक अपनी गर्मी निकालने"...

"लेकिन नहीं!...वहाँ भी कैसे जाते?"...

"इन मुय्ये टी.वी चैनलों की वजह से आपका चेहरा भी तो घर-घर जाना-पहचाना हो गया है"...

खैर हमें क्या?...

"जैसे कर्म करेगा...वैसे फल देगा भगवान....ये है गीता का ज्ञान....ये है गीता का ज्ञान"..

हँसते रहो:जी

फकीर चन्द:हाँ!...तो पूछें आप...क्या पूछना है आपको?

हँसते रहो:हमें विश्वसनीय सूत्रों से जानकारी मिली है कि आपने हर तरह के विरोधों को धता बताते हुए अपनी मर्ज़ी से रिटायर होने का मन बना लिया है और ये भी पता चला है कि आप देश छोड़ कर विदेश में सैटल होने की योजना बना रहे हैँ।

फकीर चन्द:किस गधे ने आपसे ऐसा कह दिया?....रिटायर हों मेरे दुश्मन...

"अभी उम्र ही क्या है मेरी?....अभी तो पूरे छप्पन साल तक मैँ और एक्टिव रहने वाला हूँ"...

हँसते रहो:अपने 'एम.डी.एच मसाले' वाले बाबा की तरह" Happy 

फकीर चन्द:हा...हा...हा

हँसते रहो:आप कहना चाहते हैँ कि हमें जो खबर मिली है...वो सही नहीं बल्कि गलत है?

फकीर चन्द:कौन सी खबर?...कैसी खबर?

हँसते रहो:यही कि आपने अभी हाल ही में अपनी स्पिनिंग मिल लाला जगत नारायण  के मंझले बेटे 'सीता नारायण' को 'नकद नारायण' याने के हार्ड कैश के बदले में बेच दी है।

फकीर चन्द:तो क्या उसे जैसे दो कौड़ी के मूंजीराम को उधार में बेच अपना ही डब्बा गुल कर लेता?...और वैसे भी आजकल ज़माना कहाँ है उधार में माल बेचने का?"...

हँसते रहो:जी!...लोग बातें तो बड़ी-बड़ी धन्ना सेठों जैसी करते हैँ लेकिन जब पैसे देने की बारी आती है तो वही पुराना बहाना....आज....कल-आज...कल"...

फकीर चन्द:तेरह उधार से तो नौ नकद ही बढिया हैँ भईय्या

हँसते रहो:और ये जो आपके फर्टिलाईज़र वाले कारखाने का सौदा चल रहा है...क्या वो भी आप 'नकद नारायण' के बदले ही करेंगे?

फकीर चन्द:ओह!...तो उसकी भी आपको खबर लग ही गई....सचमुच..काफी तेज़ हैँ आप.....

हँसते रहो:काफी नहीं....सबसे तेज़...

"इसका मतलब!...हमारी जानकारी सही है?"

फकीर चन्द:नहीं!..पूरी तरह गलत नहीं है तो सोलह ऑने  सही भी नहीं है।

हँसते रहो:मतलब?

फकीर चन्द:ये सही है कि मैँ अपने तमाम काम-धन्धे बन्द कर पैसा इकट्ठा कर रहा हूँ लेकिन ये आरोप सरासर गलत है कि मैँ देश छोड़ विदेश में बसने की सोच रहा हूँ।

"दरअसल!...मैँ एक सच्चा देशभक्त हूँ और मुझे अपनी मातृभूमि से बेहद प्रेम और लगाव है"...

"इस नाते देश छोड़ना तो मेरे लिए प्राण छोड़ने के बराबर है और वैसे भी इस देश में वेल्ले रहकर जो उन्नति और तरक्की की जा सकती है....वैसी किसी और देश में नहीं"

हँसते रहो:लेकिन फिर आप अपने सारे कारखाने...सारे शोरूम बेच क्यों रहे हैँ?

फकीर चन्द:पहली बात...कि मेरा माल है..मैँ जो चाहे करूँ...किसी को क्या मतलब?...

हँसते रहो:जी...

फकीर चन्द:और फिर बेचूँ नहीं तो और क्या ऐसे ही बिना रस के इस सूखे भुट्टे को हाथ में लिए-लिए चूसता फिरूँ?"...

"यहाँ कभी सेल्स टैक्स का पंगा तो कभी.....इनकम टैक्स का लोचा"...

"कभी बिजली ना होने के कारण माल तैयार नहीं हो पाता  है तो कभी...लेबर हड़ताल कर सारी प्राडक्शन ठप्प करे पाती है"...

"ऊपर से कभी एक्साईज़ वालों रिश्वत दो तो कभी लेबर इंस्पैक्टर का मुँह बन्द करो"

हँसते रहो:तो फिर आप ऐसी हेराफेरी करते ही क्यों हैँ कि किसी को रिश्वत दे उसका मुँह बन्द करना पड़े?"

फकीर चन्द:क्या करे?..कम्पीटीशन ही इतना है...

"ईमानदारी से बन्दा सिर्फ दाल-रोटी ही खा सकता है...चापें या मलाई-कोफ्ते नहीं"

हँसते रहो:लेकिन क्या सिर्फ इस अदना सी चसकोड़ी ज़बान के पीछे अपने जमे-जमाए काम-धन्धों को बन्द कर सैंकड़ों लोगों को बेरोज़गार कर देना ठीक है?"

फकीर चन्द:अरे!...कल के बन्द होते आज बन्द हो जाएँ...मेरी बला से"...

"मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता"...

"ना मुझे इस सब की पहले कभी कोई परवाह थी और ना ही अब मुझे लोगों की रोज़गारी या बेरोज़गारी से कोई लेना-देना है"...

"कौन सा मेरे सगे वाले है?...जो मैँ परवाह करता फिरूँ".....

"और वैसे!...सगे वाले भी कौन सा सचमुच में सगे होने का फर्ज़ निभाते हैँ?"....

"हुँह!...बाहर वालों पे बस नहीं चलता तो हर कोई अपने सगे वालों को ही लूटने-खसोटने में जुटा रहता है"

हँसते रहो:लेकिन फिर भी....

फकीर चन्द:अरे यार!...समझा कर....

"और वैसे भी ये सब मेरे कौन से मेन बिज़नस थे?"...

"साईड बिज़नस ही थे ना?"..

हँसते रहो:क्या मतलब?...आपका मेन बिज़नस कोई और है?...

फकीर चन्द:और नहीं तो क्या?...

हँसते रहो:तो फिर आपका मेन बिज़नस क्या है?"...

फकीर चन्द:इटस ए बिज़नस सीक्रेट

हँसते रहो:लेकिन....

फकीर चन्द:सीक्रेट नहीं!...बल्कि टॉप सीक्रेट कहना ही सही रहेगा 

हँसते रहो:लेकिन पब्लिक को मालुम तो होना चाहिए कि उनका ऑईडल...उनका प्रेरणा स्रोत उन्नति के इस उच्च शिखर पे कैसे विराजमान हुआ?

फकीर चन्द:नहीं!...बिलकुल नहीं....टेप रेकार्डर के सामने तो बिलकुल नहीं...

हँसते रहो:ओ.के!...ओ.के...मैँ इसे ऑफ किए देता हूँ  

"ये लीजिए ऑफ कर दिया इसे"....

फकीर चन्द:हम्म!...ठीक है...

"ना चाहते हुए भी मैँ आज तुम्हें सब सच बता देता हूँ क्योंकि आज आंशिक चन्द्रग्रहण का दिन है और मुझे मेरे ज्योतिषी ने कहा है कि...."आज के दिन अगर तू सच बोलेगा तो तेरा कल्याण होगा".....

हँसते रहो:जी

फकीर चन्द:लेकिन ध्यान रहे कि ये सारी बात सिर्फ मेरे और तुम्हारे बीच ही रहनी चाहिए 

हँसते रहो:जी बिलकुल...आप चिंता ना करें

फकीर चन्द:तो सुन!...मेरा मेन काम है बच्चों...औरतों और अपाहिजों से मन्दिरो...मस्जिदों तथा भीड़ भरे तीर्थ स्थानों पर भीख मंगवाना

हँसते रहो:क्या?

फकीर चन्द:क्यों?...झटका लगा ना ज़ोर से?...

हँसते रहो:जी!...

इसका मतलब आप भिखारियों की कमाई खाते हैँ?...

फकीर चन्द:बिलकुल...

हँसते रहो:आपको शर्म नहीं आती?..

फकीर चन्द:कैसी शर्म?....और किस बात की शर्म?...

अपना जीवन यापन में कैसी शर्म?

हँसते रहो:लेकिन ये धन्धा तो अवैध की श्रेणी में आता है...इसलिए दो नम्बर में गिना जाता है इसे

फकीर चन्द:अरे!...इन एक नम्बर के धन्धों में इतनी कमाई ही कहाँ है कि हम आराम से ऐश ओ आराम की ज़िन्दगी जी सकें?....

"इससे पहले की सरकार अपनी  निराशावादी नीतियों के चलते हमें बेइज़्ज़त कर हमारे हाथ में कटोरा थमाए..beggar2

क्यों ना हम खुद ही शान से कटोरा उठा खुद भीख मांगना चालू कर दें?

हँसते रहो:मांगना चालू कर दें या मंगवाना?

फकीर चन्द:एक ही बात है...किसी से कोई काम करवाने से पहले खुद को वो काम करना आना चाहिए

हँसते रहो:तो क्या आप भी?.....

फकीर चन्द:बिलकुल!...ये देखो....

"अल्लाह के नाम पे दे दे बाबा...मौला के नाम पे दे दे बाबा...

"भगवान तेरा भली करेंगे बाबा"....

"दो दिन से इस अँधे लाचार ने कुछ नहीं खाया है बाबा".....

हँसते रहो:हा हा हा हा...

"आप तो बड़े ही छुपे रुस्तम निकले"...

"लेकिन ये हालात के मारे बेचारे गरीब-गुरबा क्या खाक आपकी कमाई करवाते होंगे?...

फकीर चन्द:देखिए!...आप एक जिम्मेदार नागरिक हैँ और समाज के प्रति आपका भी कुछ कर्तव्य बनता है कि नहीं?
हँसते रहो:जी!...बिलकुल बनता है
फकीर चन्द:तो फिर बिना सोचे समझे ये  'गरीब-गुरबा' जैसे ओछे और छोटे इलज़ाम लगा कर आप भिखारियों को नाहक बदनाम ना करें...

हँसते रहो:जी

फकीर चन्द:क्या आप जानते हैँ कि एक भिखारी पूरे दिन में कितने रुपए कमाता है?"...

हँसते रहो:जी नहीं"...

फकीर चन्द:तरस आता है मुझे आपके भोलेपन और नासमझी पर....

"आज की तारीख में कोई टुच्चा-मुच्चा अनस्किल्ड भिखारी भी पाँच-सात सौ से ज़्यादा की दिहाड़ी आराम से बना लेता है और वो भी बिना किसी प्रकार का ओवरटाईम किए हुए"

हँसते रहो:तो क्या टैलैंटिड भिखारी और ज़्यादा बना लेते हैँ?

फकीर चन्द:और नहीं तो क्या?"...

"अगर आप में कोई एक्स्ट्रा हुनर...कोई अतिरिक्त कला है तो आप इस से कहीं ज़्यादा कमा सकते हैँ"...

हँसते रहो:जैसे?...

फकीर चन्द:जैसे अगर आपकी आवाज़ अच्छी है या आपका चेहरा भयानक है...या आप किसी अंग से लाचार हों याने के अपाहिज हों...

हँसते रहो:तो क्या आवाज़ का सुरीला होना भी ज़रूरी है?..

फकीर चन्द:नहीं!...बिलकुल नहीं...

"बस!..आपकी आवाज़ सबसे अलग...सबसे जुदा होनी चाहिए"...

हँसते रहो:बेशक!..वो निहायत ही भद्दी और कर्कश क्यों ना हो?

फकीर चन्द:जी

हँसते रहो:लेकिन कर्कश और बेसुरी आवाज़ वालो को भला कौन भीख देगा?

फकीर चन्द:अरे!...कुछ तरस खा के भीख देंगे तो कुछ तंग आ के

हँसते रहो:तंग आ के?

फकीर चन्द:बिलकुल...

"कुछ लोग तो भिखारियों को सिर्फ इसलिए भीख दे देते हैँ कि उनको ज़्यादा देर तक उनकी कसैली आवाज़ ना सुननी पड़े"

हँसते रहो:क्या एक सफल भिखारी बनने के लिए चेहरे का भयानक होना भी ज़रूरी है?

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फकीर चन्द:नहीं!..ऐसी कोई कम्पलसेशन नहीं है हमारे बिज़नस में कि आपका चेहरा भयानक ही हो...

अगर आप उम्र में बच्चे हैँ तो आपका चेहरा मासूमियत भरा होना चाहिए और अगर आप एक फीमेल हैँ तो आपके गुरबत लिए चेहरे में एक हल्का सा सैक्सी लुक होना चाहिए"...

"वैसे ज़्यादातर हमने इस सब के लिए प्रोफैशनल मेकअप मैन रखे होते हैँ जो ज़रूरत के हिसाब से चेहरों पर कालिख वगैरा पोत उन्हें आवश्यक लुक देते रहते हैँ"

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हँसते रहो:अभी आपने कहा कि भिखारी का अपाहिज या लाचार होना भी एक्स्ट्रा क्वालीफिकेशन में आता है

फकीर चन्द:जी!...बिलकुल...

"अब आम आदमी तो उसी पे तरस खाएगा ना जो किसी ना किसी कारणवश लाचार होगा"...

"किसी हट्टे-कट्टे और मुस्सटंडे पे तो कोई अपनी कृपा दृष्टी दिखाने से रहा"

हँसते रहो:इसका मतलब जो जन्म से तन्दुरस्त है वो कभी भी सफल भिखारी नहीं बन सकता?

फकीर चन्द:ऐसा मैँने कब कहा?

हँसते रहो:तो फिर?...

फकीर चन्द:अरे भईय्या!...आज के माड्रन ज़माने में पईस्सा फैंको तो क्या नहीं हो सकता?...

हँसते रहो:मतलब?

फकीर चन्द:हमने अपने पैनल में कुछ अच्छे टैक्नीकली क्वालीफाईड डाक्टरों को भी भर्ती किया हुआ है

हँसते रहो:वो किसलिए?

फकीर चन्द:अरे!..वोही तो हमारी डिमांड के हिसाब से नए उदीयमान भिखारियों के अंग-भंग करते हैँ....

हँसते रहो:ओह!....लेकिन इस सब में काफी खर्चा आता होगा ना?

फकीर चन्द:हाँ!...आता तो है...

"लेकिन क्या करें?....मजबूरी जो ना कराए...अच्छा है"....

लेकिन हम भी कौन सा अपने पल्ले से ये सब खर्चा करते हैँ?...

हँसते रहो:तो फिर?...

फकीर चन्द:फाईनैंस करा लेते हैँ

हँसते रहो:बैंक से?...

फकीर चन्द:नहीं!...रिज़र्व बैंक ने सभी बैंको पर इस सब तरह के अंग-भंग के लिए लोन देने पर आजकल पाबन्दी लगा रखी है

हँसते रहो:तो फिर?..

फकीर चन्द:कुछ एक है भले मानस...जो डाक्टरी के धन्धे के साथ-साथ पैसा ब्याज पे चढाने का काम भी करते हैँ...

"उन्हीं से करा लेते हैँ फाईनैंस"...

हँसते रहो:लेकिन उनकी ब्याज दर तो कुछ ज़्यादा नहीं होती होगी?...

फकीर चन्द:होती है लेकिन औरों के लिए...

"सेठ फकीर चन्द की गुडविल ही ऐसी है कि कोई फाल्तू ब्याज मांगने की जुर्रत ही नहीं करता"...

"बस!..इस सब के बदले हमें कई कागज़ातों पे अँगूठा टेक ऐग्रीमैंट करना पड़ता है उनके साथ"....

हँसते रहो:ऐग्रीमैंट?...किस तरह का ऐग्रीमैंट?"


फकीर चन्द:यही कि हम हमेशा अपने क्लाईंटों के हाथ...नाक...कान....पैर तथा उँगलियाँ वगैरा उन्हीं से कटवाएंगे और....

जब तक हम समस्त कर्ज़ा सूद समेत चुका नहीं देंगे ...तब तक किसी और महाजन या बैंक का मुँह नहीं तकेंगे"....

हँसते रहो:ओह!...लेकिन क्या ये अँगूठा टिकाना भी ज़रूरी होता है?

फकीर चन्द:बिलकुल!...धन्धे में तो वो अपने बाप पे भी यकीन नहीं करते हैँ

"इसलिए सिग्नेचर के साथ-साथ अँगूठा टिकाना भी निहायत ही ज़रूरी होता है"...

हँसते रहो:क्या इस धन्धे में इतनी कमाई है कि ब्याज वगैरा के खर्चे निकाल के भी काफी कुछ बच जाए?

फकीर चन्द:अरे!...कमाई तो इतनी है कि हमारी सात पुश्तों को भी इस धन्धे के अलावा कुछ और करने की ज़रूरत ही नहीं है लेकिन ये स्साले!...मॉफिया और पुलिस वाले ढंग से जीने दें तब ना....

"हमारी कमाई का एक मोटा हिस्सा तो इनका हफ्ता देने में ही चुक जाता है"...

हँसते रहो:अगर इन्हें ना दें तो?

फकीर चन्द:ना दें तो शारीरिक तौर पे मरते हैँ और...दें तो आर्थिक तौर पे मरते हैँ

हँसते रहो:आपकी सारी बातें सही हैँ लेकिन एक बात समझ नहीं आ रही कि आप इतने भिखारियों का जुगाड़ कैसे करते हैँ?

फकीर चन्द:अरे!..जैसे हर धन्धे में सप्लायर होते हैँ ठीक वैसे ही हमारे इस धन्धे में भी सप्लायर होते हैँ जो समय-समय पर हमारी माँग के हिसाब से गली-मोहल्लों से अबोध व मासूम बच्चों का अपहरण कर उन्हें गायब करते रहते हैँ।

हँसते रहो:अगर अबोध बच्चों का जुगाड़ नहीं हो पाए तो?

फकीर चन्द:तो थोड़े बड़े बच्चों को भी उठवा लिया जाता है और जेब तराशी से लेकर उठाईगिरी तक के धन्धे में लगा दिया जाता है।

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हँसते रहो:इसका मतलब आपके धन्धे में ...हर तरह का मैटिरियल खप जाता है

फकीर चन्द:जी!...चाहे वो दूध-पीता न्याणा हो या फिर हो अधेड़ उम्र का उम्रदराज़...सबके लिए कोई ना कोई काम निकल ही आता है

हँसते रहो:गुड!...लेकिन जिन्हें आप ऐसे गली-मोहल्लों से ज़बरदस्ती उठवा लेते हैँ...वो क्या आसानी से मान जाते होंगे आपके कहे अनुसार करने के लिए?

फकीर चन्द:नहीं ...लेकिन डण्डे के ज़ोर के आगे किसकी चली है...जो उनकी चलेगी?....

"हम भी कम नहीं हैँ...ऐसे अड़ियल टट्टओं को सबक सिखाने के लिए हम उनके हाथ-पैर तोड़ डालते हैँ और अगर फिर भी ना माने तो 'प्लास' या 'जमूर' की मदद से नाखुन तक नोच डालते हैँ...

हँसते रहो:ओह!...तो क्या सब के साथ ऐसा बर्ताव?...

फकीर चन्द:नहीं!...इतने निर्दयी भी ना समझें आप हमें..

ऐसा घनघोर अनर्थ तो हम बस चौधरी बन रहे ढेढ स्याणों के  साथ ही करते हैँ...बाकि सब तो डर के मारे अपने आप ही हमारी ज़बान बोलने लगते हैँ

हँसते रहो:तो क्या सिर्फ बच्चों को ही इस काम में लगाया जाता है?

फकीर चन्द:नहीं!..डिमांड के हिसाब से कई बार नाबालिग लड़्कियों को भी बहला-फुसला कर छोटे शहर और कस्बों से लाया जाता है...किसी को शादी करने का लालच दे कर...तो किसी को अच्छी नौकरी लगवाने के नाम पर....

किसी-किसी छम्मक-छल्लो टाईप की लड़की को फिल्मों में हेरोईन बनाने का झाँसा दे कर भी अपने जाल में फँसाया जाता है

हँसते रहो:हम्म!...लेकिन इतनी लड़कियों का आप क्या करते हैँ?...क्या सब की सब भीख....

फकीर चन्द:नहीं...इतने बेगैरत भी नहीं हम कि इन फूल सी नाज़ुक और कोमल कलियों से ये भीख माँगने जैसा ओछा और घिनौना काम करवाएँ....

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हँसते रहो:तो?

फकीर चन्द:हमारी दिल से पूरी कोशिश होती है कि इन्हें कोई भी ऐसा काम ना दिया जाए जो इनके ज़मीर को गवारा ना हो

हँसते रहो:गुड

फकीर चन्द:इसलिए हर एक की काबिलियत और टैलेंट को अच्छी तरह भांपने के बाद ही उन्हें उसी तरह का काम सौंपा जाता है...जिस काम के वो लायक होती हैँ

हँसते रहो:जैसे?

फकीर चन्द:जैसे अगर कोई तेज़-तरार और फुर्तीली होती है तो उसे भीड़ भरे बाज़ारों में उठाईगिरी के लिए तथा बसों-ट्रेनों में जेब तराशी के लिए भेजा जाता है...

हँसते रहो:ठीक

फकीर चन्द:अगर किसी में दूसरों को अपने रूपजाल से सम्मोहित करने की कला होती है तो उसे हाई सोसाईटी की कॉल गर्ल बना

शहर के नामी क्लबों...गैस्ट हाउसों तथा बॉरों में अमीरज़ादों को रिझा उनकी जेबें ढीली करने के वास्ते भेजा जाता है

हँसते रहो:लेकिन क्या आपकी कृपा दृष्टी सिर्फ और सिर्फ महिलाओं पर ही केन्द्रित रहती है?

फकीर चन्द:नहीं!...बिलकुल नहीं...हमारी नज़र में लड़के-लड़कियाँ सब बराबर हैँ...यहाँ ना कोई छोटा है...और ना ही कोई बड़ा

हँसते रहो:लेकिन आपने सिर्फ लड़कियों के ही बारे में विस्तार से बताया...इसलिए कंफ्यूज़न सा क्रिएट होने लगा था...

फकीर चन्द:ये जो आप बड़ी-बड़ी रैड लाईटों पे हॉकरो की जाम लगाती भीड़ देखते हो ना?..उनमें ज़्यादातर लड़के ही होते हैँ

हँसते रहो:तो क्या ये भी आप ही के चेले-चपाटे होते हैँ?...

फकीर चन्द:बिलकुल!...ये तो तुम जानते ही होगे कि लड़के अच्छी सेल्समैनी कर लेते हैँ...इसलिए उन्हें चौक वगैरा पे माल बेचने में लगा दिया जाता है

हँसते रहो:लेकिन आप लड़कियों को भी किसी से कमतर ना आँके...इनमें भी कई ऐसी होती हैँ जो बात-बात में ही मरे गधे को ज़िन्दा कह बेच डालें

फकीर चन्द:जी!...ये तो है

हँसते रहो:लेकिन इन हॉकरों से ये रुमाल...संतरे...मिनरल वाटर....खिलौने और टिशू पेपर वगैरा बिकवा के आपको मिलता ही क्या होगा कि आपकी झोली भी भर जाए और इनका पेट भी खाली ना रहे?

फकीर चन्द:अरे!..बुद्धू!..ये सब दिखावा तो वाहन चालक और सवारियों की धूप और गरमी से बेसुध हुई आँखों में धूल झोंकने के लिए होता है..

हँसते रहो:वो कैसे?

फकीर चन्द:इनकी ही मदद से कुछ ना कुछ उल्टा-सीधा शोर-शराबा कर के चालक समेत सभी का ध्यान बंटाया जाता है कि मौका लगते ही गाड़ी में से ब्रीफकेस...थैला...झोला या जो भी हाथ लगे गायब किया जा सके

हँसते रहो:गुड...लेकिन मैँने तो उन्हें कई बार आपस में ही लड़ते-भिड़ते और खूब गाली-गलौच करते देखा है

फकीर चन्द:हा...हा...हा...

"ये भी हमारे बिज़नस की एक उम्दा टैक्नीक है"...

हँसते रहो:मतलब?"...

फकीर चन्द:अरे यार!...हर किसी को दूसरे के फटे में टांग अड़ाने की आदत होती है कि नहीं?

हँसते रहो:जी!...होती है...

फकीर चन्द:बस!..हम लोगों की इस कॉमन ह्यूमन हैबिट का फायदा उठाते हैँ और सबका ध्यान भंग कर अपना काम बड़ी ही सफाई और नज़ाकत से कर जाते हैँ

हँसते रहो:गुड!...वैरी गुड

लेकिन आप चाहे कुछ भी कहें...मुझे इस काम का कोई स्टैंडर्ड...कोई भविष्य...कोई फ्यूचर नज़र नहीं आता

फकीर चन्द:क्या बात करते हो?

"आज की डेट में भीख मांगना या मंगवाना कोई छोंटा-मोटा नहीं बल्कि एक वैल आर्गेनाईज़्ड...वैल प्लैंनड धन्धा है

हँसते रहो:वो कैसे?

फकीर चन्द:बकायदा शहर के नामी-गिरामी 'सी.ए' तथा 'एकाउंटैंट' तक खुद आ के हमारी 'बैलैंसशीट' और 'प्राफिट एण्ड लास

एकाउंट'  मेनटेन करते हैँ

हँसते रहो:गुड

फकीर चन्द:आज देश का पढा-लिखा तबका भी खुशी-खुशी हमारी जमात में शामिल हो रहा है...

हँसते रहो:अच्छा?...

फकीर चन्द:बेशक!...उनके काम करने का तौर तरीका बाकि सब से जुदा है और होना भी चाहिए क्योंकि सब धन्धों की तरह इसमें कम्पीटीशन न हो तो बेहतर

हँसते रहो:तो ऐसे लोग क्या करते हैँ कि पब्लिक की सहानुभूति उन्हें मिले?

फकीर चन्द:ऐसे लोग एकदम वैल ड्रैस्ड...अप टू डेट बनकर बिलकुल अलग ही स्टाईल से मिनटों में आप जैसे लोगों को फुद्दू बना आपकी सहानुभूति हासिल कर...आपसे इस अन्दाज़ में पैसे ऐंठ लेते हैँ कि आपको इल्म ही नहीं होता

हँसते रहो:वो कैसे?...

फकीर चन्द:अरे!...उनके पास एक से एक नायाब बहाना तैयार रहता है गढने के लिए

हँसते रहो:जैसे?

फकीर चन्द:जैसे कभी वो रोनी सूरत बना बस अड्डे या रेलवे स्टेशन से सामान चोरी हो जाने के नाम पर आप से पैसे ऐंठ लेते हैँ....

तो कभी जेब कट जाने के नाम पर...तो कभी रास्ता भटक अनजान शहर में पहुँच जाने के नाम पर

हँसते रहो:गुड

फकीर चन्द:हमारे होनहार प्यादों में से जो कुछ थोड़े-बहुत लड़ने-भिड़ने में अव्वल रहते हैँ उन्हें किसी लोकल गैंग या फिर अंतर्राजीय मॉफिया में प्रापर ट्रेनिंग लेने के लिए भेज दिया जाता है ताकि वो वहाँ से अव्वल नम्बरों से पास हो शार्प शूटर जैसी काबिले तारीफ  डिग्री हासिल कर के जब बाहर निकलें तो उन्हें उनके भविष्य को उज्वल बनाने में इससे मदद मिले

हँसते रहो:अरे वाह!...इसका मतलब तो आप देश की नौजवान पीढी को रोज़गार मुहय्या करवाने में मदद कर रहे हैँ

फकीर चन्द:देश की क्या...हम से तो विदेशी भी अछूते नहीं हैँ...

हँसते रहो:मतलब?

फकीर चन्द:हमारे लिए सब बराबर हैँ...

इसीलिए हम बिना किसी भी प्रकार के जातीय भेदभाव के  उन सभी कर्मठ स्वंयसेवकों की भर्ती बेधड़क हो के कर रहे हैँ...जो हम में शामिल हो अपने साथ-साथ ...अपने देश का नाम भी रौशन करना चाहते हों...भले ही वो बाँग्लादेश से हों...या फिर नेपाल से हों या फिर वो पाकिस्तान से भी हों तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं..... 

हँसते रहो: हैरत की बात है कि आपको पाकिस्तान के नाम से भी ऐतराज़ नहीं

फकीर चन्द:एक्चुअली!....सच कहूँ तो ये आपस में नफरत भरा प्रापोगैंडा तो सिर्फ दोनों देशों के नेताओं द्वारा अपनी-अपनी गद्दी को बचाने भर के लिए ही किया जाता है

और हमारी आस्था...हमारा विश्वास वृहद  भारत में है ना कि संकुचित भारत में

हँसते रहो:गुड!...वैरी गुड

फकीर चन्द:मैँ तो चाहता हूँ कि भारत की हर गली...हर कूचे से ...हर मकान से ...हर आंगन में से कम से कम एक भिखारी निकले जो हमारे काम...हमारे धन्धे का नाम पूरे विश्व में रौशन करे

हँसते रहो:जी

"वैसे देखा जाए तो कौन भिखारी नहीं है आज के ज़माने में"...

फकीर चन्द:मतलब?

हँसते रहो:क्या भारत अमेरिका से यूरेनियम की भीख नहीं माँग रहा है?...या फिर अमेरिका पाकिस्तान से लादेन को सौंप देने की भीख नहीं मांग रहा है

फकीर चन्द:बिलकुल!...जिसे देखो वही कोई ना कोई भीख मांग रहा है कोई आज़ाद कश्मीर की....तो कोई खालिस्तान की...

कोई गोरखा लैंड की तो कोई पृथक झारखण्ड प्रदेश की...

हँसते रहो:हाँ!..सभी तो देश के टृकड़े-टुकडे करने पे तुले हैँ

फकीर चन्द:फिलहाल तो सारा देश बीजिंग ओलम्पिक में अपने खिलाड़ियों से मैडल लाने की भीख माँग रहा है

हँसते रहो:वैसे देखा जाए तो इस भीख माँगने के ट्रेनिग हमें बचपन से ही...अपने घर से ही मिलनी शुरू हो जाती है

फकीर चन्द:वो कैसे?

हँसते रहो:जब घर की औरतें अपने बच्चों को पड़ोसियों के घर कभी एक कटोरी चीनी....तो कभी लाल मिर्च...तो कभी आटा....तो कभी एक चम्मच मट्ठा माँगने के लिए भेजती हैँ तो ये भी तो एक तरह से भीख मांगना ही हुआ ना?

फकीर चन्द:बिलकुल!...बड़ी ऊँची सोच है यार तुम्हारी...

"मेरा तो कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं गया"...

"अब से मैँ अपने हर लैक्चर...हर मीटिंग में इस बात का ज़रूर जिक्र किया करूँगा

"ट्रिंग...ट्रिंग"....

फकीर चन्द:हैलो....

"हाँ जी!...बोल रहा हूँ"...

"अच्छा!...दोनों के दोनों हॉल बुक हो गए हैँ?"...

"गुड!...वैरी गुड"...

"कितने बजे का शो है?"....

"क्या कहा?...शुरू होने वाला है".....

"बस!...यही कोई दस-पन्द्रह मिनट में पहुँच रहा हूँ"...

"हाँ!...नज़दीक ही हूँ"....

हँसते रहो:क्या हुआ?.
फकीर चन्द:ऐसा है कि अब ये साक्षातकार-वाक्षातकार वगैरा यहीं खत्म करते हैँ...

"मुझे ज़रूरी काम है"...

हँसते रहो:क्या कोई फैशन शो वगैरा?...

फकीर चन्द:नहीं यार...

हँसते रहो:तो फिर?...

फकीर चन्द:अगर वो शेर का बच्चा है तो मैँ भी फकीरों का सरताज हूँ

"क्या समझता है वो *&ं%$#@ अपने आप को?"....

"क्या अकेले उसी के खीसे में दम है?"...

"हुँह!...बड़ा आया अकेले पूरे हॉल को बुक करा के "सिंह इज़ किंग" देखने वाला"...

"देख!...हाँ मुझे देख"...

"मैँने एक नहीं बल्कि पूरे दो सिनेमा हॉल बुक करवाए हैँ सिर्फ और सिर्फ अपने लिए...और दोनों में सिर्फ मैँ ही अकेले बैठ के फिल्म देखूँगा"...

"दूजा कोई नहीं"...

"अब तुझे इससे से आम लेने हैँ कि मैँ एक ही टाईम पे दो अलग-अलग सिनेमा हॉलों में फिल्म कैसे देखूँगा?"...

"रहा ना तू वही का वही ढक्कन"....

"अरे बुद्धू!...इंटरवैल से पहले एक सिनेमा हॉल में और बाकि की फिल्म दूसरे सिनेमा हॉल में...सिम्पल"...

 

फकीर चन्द:अच्छा तो 'राजीव बाबू' !...हम चलते हैँ".....

हँसते रहो:फिर कब मिलोगे?"....

फकीर चन्द:ये इंटरवियू छपने के बाद"...

हँसते रहो:ज़रूर...

फकीर चन्द:बाय...

हँसते रहो:ब्बाय...

हाँ!  फकीर चन्द जी हम ज़रूर मिलेंगे इस साक्षातकार के छपने के बाद लेकिन आपके या मेरे दफ्तर में नहीं बल्कि जेल में"....

"आप क्या सोचते थे कि मैँ घर से एक ही टेप रेकार्डर ले के निकला था?"...

"ये!...ये देखो...यहाँ अपनी इस अफ्लातूनी जैकेट के अन्दर मैँने एक मिनी वीडियो कैमरा और एक वॉयस रेकार्डर भी छुपाया हुआ है"...

"मुझे बेताबी से इंतज़ार रहेगा आप जैसे @#$%ं&* को जेल की सलाखों के पीछे देखने का"....

 

संजू:अरे!...ये नींद में बड़बड़ाते हुए किसे जेल की सलाखों के पीछे करने की बात कर रहे हो?...

"उठो!...सुबह के आठ बज चुके हैँ...और याद है कि नहीं?...आज तुम्हें शहर जे जाने-माने समाजसेवी श्री फकीर चन्द जी का साक्षातकार लेने जाना है"...

राजीव:ओह!...

संजू:कपड़े पहनो और पहुँचो फटाफट...

"बड़ी मुश्किल से राज़ी हुए हैँ इंटरविय्यू के लिए"....

"अपने ब्लॉग को पापुलर करने का अच्छा मौका हाथ लगा है तुम्हारे"...

राजीव:हाँ...

संजू:जानते तो हो ही कि अपने इलाके का सबसे बिगड़ैल शहज़ादा है"...
"कहीं देर से आने की वजह से सनक गया तो साफ मना कर देना है उसने"...

"कहीं अपने ढीलेपन की वजह से सुनहरे मौके को गवां ना देना"

राजीव:बस!...निकल रहा हूँ...

"ज़रा ये कैमरा और वॉयस रेकार्डर अपनी जैकेट के अन्दर छुपा लूँ"

संजू:मैँने तो आपकी नई पोस्ट की पंच लाईन भी तैयार कर ली है जी

राजीव:क्या?

"खबरों में से खबर सुनो.....खबर सुनो  तुम बिलकुल सच्ची

'फकीर चन्द' पकड़ा गया

नाचो गाओ खुशी मनाओ...खाओ फलूदा औ पिओ लस्सी"

 

हा....हा....हा....हा

 

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

Delhi(India)

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+919896397625

एक बराबर

"एक बराबर" 

***राजीव तनेजा***

rape

"बाप रे!...क्या ज़माना आ गया है"...

"क्या हुआ?"...

"कलयुग!...घोर कलयुग"...

"क्यों सुबह-सुबह ज़माने को कोसे चली जा रही हो?"...

"कुछ बताओगी भी या यूँ ही बेफाल्तू में घोर कलयुग...घोर कलयुग नाम का एक ही डॉयलाग मार फुटेज खाती

रहोगी?"...

"मुझे नहीं पता...बस अभी के अभी तुम अपना ये ब्लॉग डिलीट कर दो"...

"क्यों?...क्या हुआ?"...

"आखिर!...पता तो चले"...

"क्यों मैडम जी हाथ धो के पड़ गई हैँ मेरे  ब्लॉग के पीछे?"...

"कह दिया ना एक बार!...बस अभी एक अभी ये ब्लॉग डिलीट हो जाना चाहिए"....

"और नहीं किया तो?"...

"तो सम्भालो अपनी धर्मशाला....मैँ तो चली अपने मायके"...

"दो दिन में नानी ना याद आ जाए तो मैँ भी अपने बाप की बेटी नहीं"...

"हद है!...अच्छा भला लोगों को हँसा रहा हूँ और इसमें भी तुम्हें दिक्कत हो रही है?"...

"छोड़ अब!..बहुत हो ली हँसी-हँसाई"...

"जितना वक्त तुम अपने इस निगोड़े ब्लॉग को देते हो ना...उतना अगर कहीं और लगाओ तो जम कर नोट बरसें...नोट"...

"ये नहीं होता जनाब से कि ये वेल्ला काम छोड़ के कोई ढंग का काम कर लें"...

"एक दिन इसी मुय्ये ब्लॉग के चक्कर में तुम्हारी खुद की जग हँसाई ना हो जाए तो मेरा नाम 'पारो  से बदल कर 'चँद्रमुखी' रख देना"...

"क्यों क्या हुआ?"...

"क्या दिक्कत है तुम्हें इतने बढिया नाम से?"...

"अच्छा भला तो है ...'पारो'...

"मुझे दिक्कत अपने नाम से नहीं बल्कि तुम्हारे ब्लॉग से है"...

"क्यों?..क्या हुआ है मेरे ब्लॉग को?"...

"अच्छा भला तो चल रहा है"...

"बिना कोई पोस्ट डाले ही दस-बीस रीडर रोज़ाना के हिसाब से अपनी हाजरी बजा जाते हैँ"...

"वोही तो...पता नहीं कैसे कैसे लोग पढते होंगे तुम्हारी कहानियाँ?और...

इस लिखने-लिखाने के चक्कर में कैसे-कैसे लोगों से तुम्हारा दोस्ताना हो रहा होगा आजकल" ...

"गलत लोगों की सोहबत में पड़कर कहीं तुम भी...

"क्या हुआ?...

"ये देखो!...ये ब्लॉगर लोग आजकल कैसी लो स्टैंडड की  गिरी हुई ओछी हरकते करने लग गए हैँ?"...

"कमीने कहीं के"..

"क्यों?...क्या हुआ है ब्लॉगरों को?"...

"क्यों ब्लॉगरों जैसे सीधे-साधे जंतुओं को उनकी पीठ पीछे नाहक बदनाम कर रही हो?"..

"पीठ पीछे?"...

"अरे!...वो *&ं%$#@ मेरे सामने आ जाए सही...अभी के अभी जूतियाँ मार-मार के सर गंजा ना कर दूँ तो मेरा भी नाम.....

"पारो नहीं"...

"अरे यार!...क्यों गुस्सा खा रही हो इतना?"...

"पता तो चले कि आखिर हुआ क्या है?"...

"एक बात बताऊँ?"...

"जिसे तुम गंजा करने की प्लानिंग बना रही हो ना...वो तो शुरू से ही टकला है"

"हा हा हा हा"...

"तुम भी ना!...कुछ ना कुछ बकवास कर के वक्त-बेवक्त हँसा दिया करो"...

"अरे यार!..तुम गुस्से में थी तो मैँने सोचा कि....

अरे!...गुस्सा कहाँ खा रही हूँ?"...

"मैँ तो जैसा पढ रही हूँ...वैसा ही बता रही हूँ"

"क्या पढ रही हो?"...

"ये देखो!...इन ब्लॉगर सज्जन को ही लो....कोतवाली पुलिस पकड़ कर ले गई है थाने"...

"हुँह!...बनते तो बहुत बड़े समाज सुधारक हैँ और...काम ऐसे-ऐसे?"...

"छी"....

"किसकी बात कर रही हो?"...

"अरे!..उसी की बात कर रही हूँ जिसने अपनी तथा अपने साथियों की भड़ास उगलती पोस्टस के जरिए समाज को सुधारने का ठेका लिया हुआ है"...

"नहीं!...वो नहीं..कोई और होगा"..

"ज़रूर!..तुमसे कोई मिस्टेक हुई है"...

"ज़रा!..ध्यान से पढ के बताओ"...

"शायद!...कुछ और लिखा हो"...

"गलतफहमी भी हो सकती है"

"ये देखो!...साफ साफ तो लिखा है...तुम खुद ही पढ लो"...

"एक मिनट!...पहले ये मटर तो छील लूँ"...

"रहने दो!...थोड़े ही बचे हैँ...मैँ अपने आप छील लूँगी"

"नहीं!...बाद में तुम्हीं ने ताना मारना है कि....मेरी कोई हैल्प नहीं करते"

"तो मैँ क्या झूठ बोलती हूँ?"...

"बताओ...कब की है मेरी हैल्प?"...

"ये मटर क्या ऐंव्वे ही छील रहा हूँ?"...

"हुँह!...ज़रा से मटर हैँ....ये तो मैँ खुद भी छील लेती ...इसमें कौन सा पहाड़ तोड़ना है?"...

"तो क्या मैँ भी 'खली दा ग्रेंट' की तरह पत्थर तोड़ूँ?" ...

"रहने दो...रहने तो तुम्हारे बस की नहीं है ये सब"...

"वो पत्थर तोड़ते तोड़ते पता नहीं कहाँ का कहाँ पहुँच गया और 'शाहरुख' से लेकर 'तेंदुलकर' तक के बच्चे उसके दिवाने हैँ और खुद उसे अपने घर पे लंच और डिनर के लिए इनवाईट करते हैँ"....

"अब तो फिल्मों में भी उसे चाँस मिलने लगा है"...

"चिंता ना करो!.मेरे भी दिन पलटने वाले हैँ"....

"मेरे लिए तो बस तुम  ये मटर...टिण्डा...खीरा....और मूली वगैरा छीलते-काटते एक दिन छोटे-मोटे लिक्खाड़ बन जाओ..यही बहुत है"...

"हाँ!...हो गया"...

"अब बताओ कि...क्या हुआ है?"मैँ तौलिए से हाथ पोंछता हुआ बोला...

"यही कि..तुम्हारा चहेता ब्लागर साथी रेप के इलज़ाम में पकड़ा गया है"...

"रेप?"...

"कौन सा?"...

"अरे वही!...जो हमेशा कुछ उगलने...उगलवाने की बात करता है"...

"ओह!...फिलहाल कहाँ है?"...

"क्या अभी भी अन्दर है?"...

"नहीं!...ज़मानत तो उसी दिन शाम को ही हो गई थी उसकी"...

"बाकि केस तो चलता ही रहेगा"...

"पता नहीं ऐसे निगोड़े लोगों को भी ज़मानती कैसे आसानी से मिल जाते हैँ"...

"ये देखो...मोटे अक्षरों में साफ-साफ लिखा है कि "भड़ास उगलता नामी बलॉगर बलात्कार की कोशिश में पकड़ा गया"...

"कहाँ?"...


"अरी बेवाकूफ!....ये तो कोई दो-ढाई महीने पुरानी बासी खबर है और तू मुझे आज सुना रही है?"...

"इसके बारे में तो मुझे पहले से ही पता था"...

"तो फिर मुझे क्यों नहीं बताई ये बात?"...

"वो बस ऐसे ही...दिमाग से उतर गया होगा"...

"हुँह!...दिमाग से उतर गया होगा"...

"सब जानती हूँ मैँ...तुम्हें भी और तुम्हारे दिमाग को भी"...

"क्या सोचा था? कि तुम नहीं बताओगे तो  मुझे पता नहीं चलेगी ये खबर"...

"अरे यार!...रात गई ..बात गई"...

"अब इस बारे में बात कर के क्या फायदा?"...

"तो क्या हुआ?"...

"खबर है तो सच्ची ही है ना?"...

"पता नहीं"...

"एक काम करो"....

"क्या?"...

"चिट्ठाजगत या फिर ब्लॉगवाणी की साईट ओपन करो और उनके पुराने अर्काईव चैक करो"...

"अगर डिलीट नहीं हुए होंगे तो इस बारे में कुछ मालुमात तो अभी भी मिल ही जाएँगे"...

"ओ.के"...

"ओह!...यहाँ तो लगभग हर ब्लॉग पे इसी बारे में कोई ना कोई पोस्ट है"...

"इसका मतलब दो महीने पुराना ये मुद्दा अभी भी ब्लॉगजगत की सुर्खियों में छाया हुआ है"...

"पागल हैँ स्साले!...सब के सब ...मेहनत कोई करे...और मौके का फायदा ये मुफ्त में उठाना चाहते हैँ"...

"अरे!...अगर तुम में दम है तो खुद करो ना बलात्कार की कोशिश और बाद में उसे अपने ब्लाग की हैडलाईन बना सुर्खियों में रहो"...

"ऐसे ही मुफ्त में नहीं हो जाता किसी से बलात्कार"...

"इसके लिए... ये बड़ा...कलेजा चाहिए होता है पत्थर का"...

"गुर्दे में दम होना चाहिए"...

"रोते बिलखते आँसुओं को नकारने की हिम्मत होनी चाहिए"...

"चीखती चिल्लाती आवाज़ों को बहरा बन अनसुना करने की कला होनी चाहिए"...

"इसका मतलब...बड़ी मतलब परस्त है तुम ब्लॉगरों की ये दुनिया"...

"यहाँ तो लगे हाथ हर कोई जलते तवे पे रोटियाँ सेंक अपने ब्ळॉग की रीडरशिप बढाना चाहता है"...

"हाँ!..उन्हें इस से कोई सरोकार नहीं कि क्या बीत रही होगी उस बेचारी अबला नारी पर?...उसके पति पर?...उसके बच्चों पर?...उसके रिश्तेदारों पर?"

"क्या बात?...बड़ा तरस आ रहा है तुम्हें उस औरत पर"....

"कहीं तुम भी उसी की नेचर के तो नहीं हो?"...

"अरे यार!...क्या बात करती हो?"...

"मैँने तो ऐसे ही सरसरी तौर पर कह दिया था"...

"यही तो कमी है तुम मर्दों में कि बिना सोचे-समझे कुछ भी कह डालते हो"..

"मुझे देखो!...कोई भी बात मुँह से निकालने से पहले ये सोचती हूँ कि मैँ ये बोलूँगी तो सामने वाला क्या सोचेगा? और क्या जवाब देगा?"...

"फिर वो ये जवाब देगा तो मुझे उसके उत्तर में ये कहना होगा और अगर वो ये नहीं बल्कि  कुछ और कहेगा तो मुझे भी ये नहीं कुछ और ही कहना होगा"...

"ओफ्फो!...क्या बेकार में...बेफाल्तू का कंफ्यूज़न क्रिएट कर रही हो?"...

"हमें क्या पता कि किसकी गल्ती है और किसकी नहीं?"...

"ये भी तो हो सकता है कि सारा कसूर उस औरत का ही हो और हम बेकार में नाहक ही अपने बलॉगर भाई को बदनाम कर रहे हों"...

"क्या ये नहीं हो सकता कि खुद उसी औरत ने उकसाया हो इस सब के लिए और किसी के द्वारा देख लिए जाने के कारण खुद को सती-सावित्री साबित करते हुए बेचारे ब्लॉगर पे ही सारा का सारा इलज़ाम लगा दिया हो"

"और नहीं तो क्या?"...

"हाँ!...होने को तो कुछ भी हो सकता है"..

"ये देखो क्या लिखा है?"...

"क्या लिखा है?"...

"यही कि वो(दोस्त की बीवी) उसकी चहेती सहेली थी"...

"चहेती माने?"...

"उड़ती-उड़ती सी अफ्फाहें सी सुनी हैँ कईयों ने कि दोनों रोज़ शाम को एक साथ घूमा करते थे कभी पालिका बाज़ार तो कभी हॉट बाज़ार"...

"हाँ!...एक ने तो उन्हें चाँदनी रात के सन्नाटे में इण्डिया गेट पे हाथों में हाथ डाले घूमते हुए भी देखा था"....

"ओह"...

"लेकिन उसकी बात का कोई भरोसा नहीं"...

"क्यों?"...
"स्साले!...के चश्मे का नम्बर ना जाने कब से बढा हुआ है और वो कंजूस-मक्खीचूस अभी भी वो दो दशक पुराना चश्मा ही घसीटे जा रहा है"...

"देख के बताओ तो ज़रा कि क्या दिल्ली की ही रहने वाली है वो?"
"नहीं?"...

"फिर वो उसे कहाँ मिल गई?"...

"बाहरले गाँव से आ के ठहरी हुई थी उसी के यहाँ"...

"काहे को?"...

"अरे!...उसके पति की एक्सीडैंट में मौत हो गई थी"...

"तो?"...

"काम की तलाश में दिल्ली आई थी कि यहाँ रहकर ...

"आई क्या होगी?...

इसी ने खुद ज़िद कर के बुलवा लिया होगा कि यहाँ दिल्ली आ जाओ...नौकरी लगवा दूँगा"...

"फिर?"...

"अरे!...नौकरियाँ क्या पेड़ पे लटकती फिरती हैँ कि जब जी चाहा...कोई अच्छी सी  लपक ली?"...

"कई दिनों तक लारा-लप्पा लगाता रहा कि आज मिलेगी नौकरी या फिर कल मिलेगी नौकरी"...

"खुद की बीवी मायके गई हुई थी तो पीछे से एक दिन नीयत डोल गई और कर बैठा बलात्कार"...

"अभी तुम तो कह रही थी कि कोशिश में पकड़ा गया"....

"एक ही बात है....वहाँ इज़्ज़त आबरू बच गई तो क्या?....

"ये मीडिया और पुलिस वाले वकीलों के साथ मिलकर वाले बार-बार बेहूदे सवाल पूछ के उसकी रही सही इज़्ज़त भी निलाम कर देंगे कि नहीं?"...

"पता नहीं इनके घर में भी माँ-बहन होती होंगी या नहीं?"...

"सारा दोष उस बेचारे अकेले के ही नाम क्यों ...गलती तो उसकी बीवी की भी है इसमें"...

"क्यों?...क्या गल्ती है इसमें बीवी की?"...

"उसने क्या किया है?"...

"सौ ना सही!...तो कम से कम चालीस परसैंट भागीदार तो उसकी बीवी भी है"...

"इस बलात्कार में?"...

"और नहीं तो क्या"...

"वो कैसे?"...

"डाक्टर ने नहीं कहा था उसे कि सूखी घास-फूस को जलती डिबिया(दिया)के पास रख कर खुद मायके चली जाओ"...

"अरे!...उसके सामने तो भैय्या-भैया ही करती रहती होगी"

"तो क्या राखी भी बाँध दी थी?"

"मन तो करता है कि ध्यान ही ना दूँ ऐसी बातों पर लेकिन घूमफिर के फिर दिमाग उसी तरफ चला जाता है"...

"छोड़ो ना!..हमें क्या लेना दूसरे के पचड़े में खुद को फँसा के?"...

"कल की अखबार देखी कि नहीं?"...

"क्यों?...क्या लिखा है उसमें?"...

"यही कि एक कलयुगी भाँजा अपनी 55 वर्षीय लकवा ग्रस्त वृद्ध मामी के साथ ब्लात्कार कर भाग निकला"...

"ओह"...

"पता नहीं क्या होता जा रहा है हमारे समाज को"...

"रोज़ ही ऐसी खबरे मीडिया वाले बढा-चढा कर छाप रहे होते हैँ कि फलानी-फलानी जगह पर...फलाने फलाने मोहल्ले में में एक नाबालिग से ब्लात्कार किया गया"...

"ऐसी भी क्या अँधी हवस?"....

"मेरे एक बात समझ नहीं आती कि आखिर क्या मिलता होगा तुम मर्दों को किसी के साथ ऐसे ज़ोर-ज़बरदस्ती कर के?"...

"अरे!...मिलना-मिलाना क्या होता है?"...

"कु6थित मानसिकता के अलावा और कुछ नहीं है ये"...

"ये भी तो हो सकता है कि उस ब्लॉगर की ईगो को उस औरत ने जाने-अनजाने हर्ट किया हो और उसने अपने अहम की...अपने आत्म सम्मान की रक्षा की खातिर ऐसा कदम उठाया होगा"...

"हाँ!..जैसे तुम लड़कों का ही आत्म सम्मान होता है ..ईगो होती है...हम लड़कियों को तो भगवान ने ऐसे ही बेफाल्तू में बना के छोड़ दिया है ना?"...

"अब कोई फायदा है ऐसी बेफाल्तू की बेवजह में बहस करने का?"...

"तो मैँ कहाँ कह रही हूँ कि तुम मुझसे इस टॉपिक पे बात करो?"...

"मेरे ख्याल से तो इस सब पे रोक लगाने के लिए सरकार को ही पहल करनी होगी"...

"सख्त से सख्त कानून बना के?"...

"नहीं"...

"फिर?"...

"मेरे ख्याल से इसे वैध ठहरा के ही इस सब से मुक्ति पाई जा सकती है"...

"किसे वैध ठहरा के?"...

"ब्लात्कार को?"...

"अरे नहीं"...

"फिर किसे?"...

"ओपन सैक्स को"...."

"माने?"..

"अरे यार!...जैसे थाईलैंड और बैंकाक में होता है ना?"......

"ठीक वैसे ही अपने देश को भी सैक्स फ्री होना चाहिए?"...

"हाँ"...

"पागल हो गए हो क्या?"...

"ये तो सोचो कि कितनी लड़कियों को इस सब से रोज़गार मिलेगा...देश तरक्की के पथ पर दौड़ेगा"...

"दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा"...

"अगर वो कम समय में..कम मेहनत से ज़्यादा पैसा कमाएंगी...तो इसमें हर्ज़ ही क्या है?"..

"ऊँचा रहन-सहन..ऊँचा खान-पान...फुल एंजायमैंट"...

"बस!..बहुत हो गया...

चुप हो जाओ अभी के अभी और ऐसे बेवाकूफी भरे फितूर अपनी दिमाग के भीतर ही रहने दो तो ज़्यादा अच्छा है"...

"क्यों?...आखिर बुराई ही क्या है इसमें?"..

"तुम खुद मर्द हो ना...इसलिए अपनी अय्याशी को लीगल तरीके से वैध ठहराना चाहते हो"...

"अरे!...मैँ तो देश के भले के लिए ऐसी राय दे रहा था"...

"ताकि तुम्हारे मशवरों पे अमल कर के दुनिया भर की बिमारियाँ हमारे देश में भी गली-गली घर बनाती फिरें?"...

"अरे! बढिया रहेगा ना फिर...जनसंख्या बोझ में भी तो कमी आएगी इस सब से"...

"सही कह रहे हो"...

"किसी और को ना कह देना ये सब...वर्ना इतने जूते पड़ेंगे कि गिनते-गिनते थक जाओगे"...

"कमाल की बात कर रही हो तुम भी....

tsunami 

'सुनामी'...'नर्गिस' जैसे तूफानों से...या फिर भूकंप जैसी किसी प्राकृतिक आपदा से तड़प-तड़प के मरने से या फिर किसी सीरियल ब्लास्ट की चपेट में आने और मंदिरों में रेलिंग टूटने से मचने वाली भगदड़ॉं में दब कर मरने से तो कहीं ज़्यादा अच्छा है ऐश ओ आराम की ज़िन्दगी जीते हुए शान ओ शौकत से मरा जाए"...

"क्यों?...है कि नहीं"...

"सब बकवास...निरी बकवास"...

"तो चलो!...तुम्हीं बता दो कि ब्लात्कार ना करें तो अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कहाँ जाएँ हम मर्द?"...

"ये तो तुम्हें तब सोचना चाहिए था जब हम लड़कियों की तुम हमारे पेट में ही भ्रूण हत्या करवा रहे थे"...

"जानते भी हो कि तुम मर्दों की इस करनी के चलते आज देश में लड़के-लड़कियों के अनुपात में कितना फर्क आ गया है?"...

"कितना?"...

"आज प्रति 1000 लड़कों के पीछे लगभग 712 के आस-पास लड़कियाँ हैँ पूरे देश में"...

"ओह"...

"हरियाणा और पँजाब में तो और भी बुरे हालात हैँ"...

"यहाँ के कई गांव तो बिना लड़कियों के सूने-सूने हो गए हैँ"...

"और गावों में काम का ज़्यादा बोझ होने की वजह से भी लोगों ने अपनी लड़कियों को गांवों में ब्याहना बन्द कर दिया है"...

"मजबूरी में इन गावों के लोग उड़ीसा और झारखण्ड से बीस-बीस हज़ार...पच्चीस-पच्चीस हज़ार में लड़कियाँ खरीद कर ला रहे हैँ और अपना वंश चलाने की खातिर उनसे ब्याह भी रचा रहे हैँ"..

'हाँ!..ये तो मैँने भी अखबार में पढा था"...

"यही तो कमी है तुम मर्दों में"...

"क्या?"...

"यही कि सब जानते बूझते हुए भी आने वाले समय के भयावह हालात को अनदेखा कर रहे हो"...

"तो क्या करें?"...

"अपना घर फूंक तमाशा देखें?"...

"क्यों?...इसमें तमाशा देखने की क्या बात है?"...

"क्या गलत कह दिया मैँने?"...

"क्यों नहीं पढाते हो अपनी बच्चियों को?"....

"क्यों उन्हें लड़कों के बराबर अधिकार नहीं देता है तुम्हारा ये समाज?"...

"अरे!...जिसे घरवाले खुद ही बोझ समझ दुत्कार दें...स्वीकार ना करें...तो उसकी और भला कौन इज़्ज़त करेगा?"...

"अभी के हालात तो ये सिर्फ चेतावनी भर हैँ...अगर अभी भी नहीं चेते तो यकीनन एक दिन तुम्हें तमाशा भी देखना पड़ेगा"...

"हम्म!..बात में तो तुम्हारी दम है"..

"तो फिर उठाओ झण्डा...और लगाओ नारा कि ....

"लड़के-लड़कियाँ...एक बराबर"....

"एक बराबर....एक बराबर"....

"जय हिन्द"...

"भारत माता की जय"...

नोट:यह कहानी पूर्ण रूप से काल्पनिक है और इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है।

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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कहानी एक रक्तजीवी की - राजीव तनेजा

blood-donation-1

"हाँ!...मैँ एक रक्तजीवी हूँ और ऐसा कहने में मुझे कोई शर्म....कोई ग्लानि..नहीं कि मैँ जीवन से थक-हार  कर टूट चुके... बेसुध हो चुके मरीज़ों को अपना खून बेच  उनमें नए जोश...नई उमंग और नई स्फूर्ति का संचार करता हूँ और इसी नाते मैँ खुद को रक्तजीवी(अपना रक्त....अपना खून बेच के ज़िन्दा रहने वाला) कहलाना पसन्द करता हूँ।
"अब आप सोचेंगे कि धर्म-कर्म के काम में पैसे का क्या काम?"...

"तो इसके जवाब में मैँ बस इतना ही कहूँगा कि आपका कहना शत-प्रतिशत सही है कि ये रक्त दान...ये अंग दान वगैरा सब धर्म-कर्म और इनसानियत के दायरे में आने वाली चीज़ें हैँ और इनमें किसी भी कीमत पर पैसे को इनवाल्व नहीं करना चाहिए लेकिन ये भी तो सच है ना कि भाषण देना कितना आसान है? कहने को तो आपने फट से मुँह खोला और झट से लैक्चर झाड़ दिया कि ये सब गलत है...अनैतिक है।
तो चलो आप ही बता दो कि हमारे देश में नैतिकता से चल ही क्या रहा है?
  • क्या सरकारी डाक्टर अपने ड्यूटी धर्म को निभाते वक्त मरीज़ों को जो पर्सनल विज़िटिंग कार्ड थमा उन्हें अपने निजी क्लीनिक पे आने का  न्यौता देते हैँ...वो सही है?...
  • या सरकारी डिस्पैंसरियों से आपसी बन्दर बांट के चलते दवाईयों का वक्त-बेवक्त गायब हो जाना जायज़ है?...
  • या वो नुक्कड़ पे खोखा जमाए पांडुरंग जूस वाला जो आपको जूस के नाम पे सिंथैटिक रंगो और फ्लेवरों से सुसज्जित ज़हर परोस रहा है...वो जायज़ है?
  • क्या वो जो हलवाई अट्टे की 6 x6 की दुकान में ठिय्या जमाए बैठा झोलाछाप डाक्टर लड़का होने की शर्तिया दवाई दे अपना उल्लू सीधा कर रहा है...वो सही है?...
  • या वो 'बाबा बन्ने खाँ बंगाली'...जो तंत्र-मंत्र और मुठकरनी के बल पर बरसों से बिगड़े काम महज़ दो घंटे में हल करने का दावा कर भोली जनता को सरेआम लूट रहा है...सही है?...
नहीं ना?...
अब..जब अपने देश में किसी को आवाम की चिंता ही नहीं है तो मैँ अकेला चना भाड़ फोड़ूँ भी तो कैसे?...और क्योंकर फोड़ूँ?....क्या मेरे साथ पेट नहीं लगा हुआ है?...या सिर्फ हवा और पानी पे ज़िन्दा रह मुझे अपने वजूद को बचाना आता है?
आप बात करते हो धर्म और कर्म की....एकता और समानता की...बौधिकता और नैतिकता की लेकिन आज के ज़माने में नैतिकता बची ही किसके पास है?
ये कहाँ की और कैसी समानता है कि आप लोगों के लिए आपका अपना खून.....'खून' है और हमारा खून...महज़ 'पानी'?...
आपको ज़रा सी...माड़ी-मोटी खरोंच भी लग जाए सही..रो-रो के...हाँफ-हाँफ के बुरा हाल हो जाता है जनाब का।बिना किसी प्रकार की देरी किए…पूरी स्फूर्ति और तत्परता के साथ आप तुरंत हाय-तौबा मचाना शुरू कर देते हैँ और गिरते-पड़ते..जैसे-तैसे कर के किसी क्लीनिक... अस्पताल या नर्सिंग होम का रुख कर अँधाधुँध दौड़े चले आते हैँ और यहाँ हम...हम तो अच्छी तरह से नतीजा जानते हुए भी जानबूझ कर बिना किसी नानुकुर और नागे के रोजाना अपने बदन को सुईयों से छलनी  करवा खुद को आनंदित महसूस करते हैँ।
redcross
प कहते हैँ कि पैसे लेकर खून जैसे पवित्र और पावन चीज़ को बेचना सही नहीं है क्योंकि ये हमारी बनाई हुई नहीं बल्कि ऊपरवाले द्वारा हमें बक्शी गई नेमत है।
चलो!…मानी आपकी बात कि ये सब सही नहीं है…गलत है लेकिन अब…जब आप इतना सब समझा ही दिए हो हमको तो तनिक ई शिक्षा भी तो लगे हाथ देते जाओ कि अपना खून बेचे के बदले हम पईस्सा ना लें तो कईसन पेट भरें अपना और कईसन पालें आपन बचवा को ई निष्ठुर दिल्ली जईसन्न मँहगे सहर में?
"बाबू!...का हम कोरी धूल फाँक के और सूखी हवा निगल के जिन्दा रहें?”
लाख कोशिशों के बावजूद ये बात मेरे पल्ले आज तक नहीं पड़ी कि जब अपनी बारी में आप काजू-किशमिश और चिलगोज़े जैसे सूखे मेवों से लेकर बोर्नवीटा तथा हॉर्लिक्स तक में से किसी को नहीं बक्शते तो हमारी बारी में आप हमें दो-तीन रुपए का पॉरले जी का पैकेट...एक फ्रूटी या माज़ा के साथ थमा अपने कर्तव्य को तिलांजली क्यों दे डालते हैं?
हमें इस चीज़ का गम नहीं कि हमें दोयम दर्ज़े का नागरिक मान हमारे साथ भेदभाव किया जा रहा है वरन हमें चिंता है...
"अमीर-गरीब में बढती खाई की...देश में बढती मँहगाई की"
"क्या आप बता सकते हैँ कि हमारी बारी में ही क्यों साँप सूँघने लग जाता है आपको?
"क्या हम पेट से और...आप आसमान से टपके हैँ?"...
या फिर....
"आप इनसान की और...हम जानवर की औलाद हैँ?"
अगर ऊपर दिए गए कारण सही हैँ तो मेरी राय में तो आप लोगों को बिना किसी देरी के तुरंत हमसे ये खूनी लेन-देन बिलकुल बन्द कर देना चाहिए क्योंकि फिलहाल किसी भी देश में इनसानों में जानवरों के अंगों का प्रत्यारोपण वैध घोषित नहीं हुआ है।
आप कहते हैँ कि हम कुछ क्रिएटिव काम करने के बजाय वेल्ले बैठ हरदम हँसी-ठट्ठा क्यों करते हैँ?"
तो पहले आप ही बता दें कि पूरा दिन मगज मारी के बाद आप ही क्या कमा लेते हैँ? माना...कि आप इनकम टैक्स और सेल टैक्स वालों के झमेले में फँसने के डर से अपनी कमाई ..अपनी आमदनी को उजागर नहीं करना चाहेंगे लेकिन सच कहूँ तो दिहाड़ी बजाने से आखिर मिलता ही क्या है? पूरे दिन पसीने से लथ-पथ होने के बाद जो सौ-सवा सौ रुपए या ज्यादा से ज्यादा डेढ़…दो सौ रुपये मिलते भी हैँ तो उसमें तो हमारा चाय-पानी ही बड़ी मुश्किल से चल पाता है और हम इतने पागल भी नहीं है कि सौ सवा सौ रुपल्ली के लिए पूरे दिन पस्त होते फिरें।
आज हम पूरा दिन कुछ ना करते हुए भी शाम से पहले-पहले ऑन एन एवरेज चार सौ से पाँच सौ तक अपने बना लेते हैँ।इन पैसों  ने अगर साथ दिया और किस्मत अच्छी हुई तो हम रोज़ाना के कई हज़ार बनाने से भी नहीं चूकते हैँ।एक्चुअली!..इसमें हमारा पत्ते सैट करने का बरसों पुराना हुनर काम आता है।इसी कमाई से हमारी खुराक...हमारा नशा वगैरा चलता है।
nasha
"आप कहें तो एक राज़ की बात बताऊँ?"....
"स्मैक और ब्राउन शुगर से लेकर पोस्त तथा गांजे वगैरा जैसे मँहगे नशों में से कोई भी हमसे अछूता नहीं है लेकिन ये सब हम अपने शौक के लिए नहीं करते हैँ बल्कि रोज़ाना सुइयों के चुभने से होने वाले दर्द को...तकलीफ को भूलने के लिए हम इनका सेवन करते हैँ।हम में से कुछ तो नशे के इतने आदि हो चुके हैँ कि सारे पैसे इसी पर बर्बाद करने के बाद भी उन पर ये ये मामुली नशे असर ही नहीं करते और मजबूरन हम में से कुछ को नाक के जरिए पैट्रोल सुड़क कर....1245
तो कुछ को छिपकली वगैरा निगल कर अपने वजूद को ज़िन्दा रखना पड़ रहा है।तरस आता है मुझे इनकी दयनीय हालत पर जब मैँ किसी गरीब बेचारे को पैसे ना होने के कारण मजबूरी में पैट्रोल पाईप में जमी हुई गर्द को फांकते हुए देखता हूँ।
Bloodbank-4
आप कहते हैँ कि हम आपके इस कथातथित बढिया शहर के बढिया माहौल के नाम पर धब्बा हैँ।
सच कहूँ!...तो मेरा या मेरे जैसा का पूरा वजूद ही आप जैसे उन नामर्दों के दम पे टिका है जो अपने भाईयों को ..अपनी बहनों को... अपने सगे वालों तक को अपना खून देने से कतराते हैँ और वक्त-ज़रूरत के समय इधर-उधर बगलें झाँकने लगते हैँ।अरे!...पढी-लिखी दुनिया के बेवाकूफो!...क्या इतना भी नहीं जानते कि दिया गया खून चौबीस घंटे में वापिस पूरा हो जाता है और ये तो सोचो कम से कम कि तुम्हारा दिया खून एक ज़िन्दगी को बचाएगा...एक घर को आबाद कराएगा।
हमें देखो!....जिसे हम खून देते हैँ हम उसका नाम तक नहीं जानते...ना वो हमारा कोई भाई होता है और ना ही कोई सगे वाला।फिर भी हम उसे अपना खून दे उसकी जान बचाने को तत्पर रहते हैँ।लेकिन आप तो शायद!...उसके अपने ..उसके सगे वाले हैँ ना?...
"आप क्यों कन्नी काटने लगे?"...
"क्या सिर्फ पैसे देने से ही आप हमारे अहसानों का बदला चुका पाओगे?..और ये जो हम पैसे लेते हैँ ना आपसे?.....वो किसी शौक या हॉबी को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि खुद ज़िन्दा रहने के लिए ताकि हम फिर अगले दिन किसी ज़रूरतमन्द के काम आ उसकी जान बचा सकें"...
blood donation-2
वैसे तो हम रक्तजीवी लोग अपनी ज़िन्दगी से बेहद खुश हैँ ..कोई नाराज़गी नहीं है ऊपरवाले से हमें लेकिन अभी भी कुछ बातें हैँ जो अन्दर तक बेध जाती हैँ हमें जैसे कि हमारे रक्त के सहारे आप लोग जीते हैँ...ज़िन्दा रहते हैँ लेकिन विडंबना ये कि आप हमें ही अपने पास बिठा दो प्यार भरी बातें करने से कतराते हैँ।
पहले तो जी!...हाँ जी और....बाद में...आक!...थू..."..
अरे!...इतने गए गुज़रे भी नहीं हैँ हम कि इज़्ज़त होने में और बेइज़्ज़त होने में फर्क महसूस ना कर सकें।वो कहते हैँ ना कि मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं।कई बार आप जैसे निष्ठुर लोगों की जमात को देख के तो दुखी हो मन करता है कि सब छोड़-छाड़ के वापिस बिजनौर...अपने वतन ...अपने शहर लौट जाऊँ लेकिन जो एक बार दिल्ली जैसे बड़े शहर में टिक गया ना..उसे भला गांव-कस्बों का जीवन कहाँ रास आना है?
ना वहाँ..यहाँ की तरह चमचमाती जल-बुझ करती बत्तियाँ...
ना वहाँ...यहाँ की तरह लंबी चमचम चमचमाती हुई एक से बढकर एक गाड़ियाँ ...
ना वहाँ..यहाँ की तरह आसमान से बात करती ऊँची अटालिकाएँ।
और दूसरे मुझे शिकायत है बिचौलियों की उस पूरी जमात से जो कैमिस्ट से लेकर जूते पॉलिश करने वाले तक ...ब्लड बैंक के चपरासी से लेकर सिक्योरिटी पर तैनात पुलिस वाले ठुल्ले तक और.........ऑटो-टैक्सी वालों से लेकर....रिक्शे वालों तक का भेष धारण किए बैठी हैँ।ये हमारी कमाई का एक मोटा...तगड़ा हिस्सा खुद निगल जाते हैँ।
स्सालों!...को हराम की कमाई की लत लग चुकी है।...ये कहाँ का इंसाफ है कि दर्द सहें हम...कमज़ोरी सहें हम...खून निचोड़ा जाए हमारा और मज़े-मज़े में कुछ ना करते हुए भी मज़े लूट ले जाएँ ये?”
phone
"ट्रिंग...ट्रिंग"...
"हैलो"...
"हाँ जी!...बोल रहा हूँ"...
"बी पॉज़िटिव?"...
"कितने यूनिट?"...
"हाँ जी!...मिल जाएगा"..
"आप चिंता ना करें"...
"एकदम तंदुरुस्त भेजूँगा"...
"वोही पुराना रेट है....आपसे क्या ज्यादा लेना?”…
"फी यूनिट बाईस सौ रुपए"...
"नहीं!...इस से कम में तो मुशकिल है"...
"पूरी दिल्ली में यही रेट चल रहा है"...
"आप बेशक!...कहीं और ट्राई कर लीजिए"...
"बस!..एक घंटे में पहुँच जाएगा"....
"ओ.के"...
"बॉय"...
"जैसा कि आपने अभी देखा...बिज़नस का टाईम हो गया है"...
"इसलिए!...बाकी की राम कहानी फिर कभी"...
"हैलो!...
"हाँ!..छगनमल?"...
"एक काम कर...खोसला हास्पीटल पहुँच जा"...
"हाँ!..अभी"...
"अर्जैंट केस है"...
"बात तो मैँने बाईस सौ में फाईनल करा है लेकिन...तू तीन हज़ार से कम के लिए साफ नॉट जाईयो"....
"स्साले!...अपनी फटती को आप देंगे"...
blood
***राजीव तनेजा***
 
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