दिल आज कायर है...गम आज अपना है

***राजीव तनेजा***

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"दिल आज कायर है...गम आज अपना है...उफ!...ये...सैंत्रो मेरी"…

गैरों के दुखों पे ओ रोने वालो ...कभी हो मेरे भी गम में शरीक"...

"ये क्या कर रहे हैँ तनेजा जी?...हटिए...दूर हटिए...इस घिसे हुए...सड़े से पीपे के पास खड़े हो के आप क्या कर रहे हैँ?"...

"धूप-बत्ती कर रहा हूँ...तुमसे मतलब?"...

"वो तो मुझे दिखाई दे रहा है कि आप इसकी आरती उतार रहे हैँ लेकिन क्यो?"...

"मेरी मर्ज़ी"..

"लेकिन फिर ऐसी शुभ घड़ी में आपकी आँखों में ये छलकते आँसू क्यो?"...

"गुप्ता जी!...अपने चश्मे पे अटी हुई धूल को झाड़िए ज़रा और फिर इत्मीनान से...तसल्ली से देख के बताईए कि मेरी आँखों में ये खुशी और हर्ष के आँसू है या फिर दुख और विषाद के?"...

"ओ.के!...लैट मी चैक...अपना ये...ये दाँया वाला डेल्ला ज़रा फैलाईए तो"....

"इतना बहुत है?"...

"थोड़ा और"..

"अब ठीक है?"...

"बस!..थोड़ा सा और"...

"ओफ्फो!...क्या मुसीबत है?...अपना एक बार में ही नहीं बता सकते?"...

"क्या?"...

"कितना फैलाना है?"...

"बस!..थोड़ा सा और"...

"लो!...बाहर ही निकाल देता हूँ...आप अपना आराम से गोटी-गोटी खेल ले"...

"क्या मतलब?"...

"जब मैँने अपना पूरा जोर लगा के अपनी आँख फैला दी...फिर भी आप कहे जा रहे हैँ कि ..और फैलाओ..और फैलाओ...तो मैँ क्या करूँ?"...

"ओह!...आई एम सॉरी...मैँ तो समझा था कि कहीं सचमुच में ही...

"क्या?"...

"यही कि आप अपनी आँखों से गोटी-गोटी खेलते हों"...

"कमाल करते हैँ गुप्ता जी आप भी...ऐसा भी कहीं होता है?"...

"जी!...होता तो नहीं है लेकिन मैँने सोचा कि आप अभी-अभी विलायत से आए हैँ तो....

"तो?"...

"शायद!...वहीं से कोई नया कांसैप्ट लाए हों"...

"हें...हें...हें...कमाल करते हैँ गुप्ता जी आप भी...ऐसा भी कहीं होता है?"...

"होता तो नहीं है लेकिन ..चलिए छोड़िए...आप बस हिलिए-डुलिए नहीं...मैँ अभी चैक किए देता हूँ"...

"क्या?"...

"यही कि आपकी आँखों में आँसू खुशी के हैँ या फिर दुख के"...

"ओ.के...ओ.के"...

"अब ठीक है?"मैँ अपनी दायीं आँख की पुतली को फैलाता हुआ बोला...

"जी!...जी बिलकुल"...

"ठीक है!...तो फिर बताइए कि क्या नोटिस किया आपने?"...

"यही कि आँखे आपकी बता रही हैँ आप खुश हैँ...बहुत खुश"...

"जी"...

"लेकिन किसलिए?"....

"पट्ठे को सब जो सिखा दिया...आईन्दा से मेरे साथ पंगा नहीं लेगा"...

"किसे सबक सिखा दिया?...कौन पंगा नहीं लेगा?"...

"टॉप सीक्रेट"...

"जैसी आपकी मर्ज़ी"...

"और...और बताओ कि मेरे चेहरे पे क्या दिखाई दे रहा है?"..

"आपका पीला पड़ा चेहरा बता रहा है कि आप थोड़े दुखी भी हैँ"...

"थोड़े?...या फिर ज़्यादा?"...

"जी!...थोड़े"...

"यहीं तो  आपको गलती लग रही है जनाब...मैँ थोड़ा नहीं बल्कि...ज़्यादा...बहुत ज़्यादा दुखी हूँ"...

"क्या सच?"...

"जी"मैँ ठण्डी साँस लेता हुआ बोला...

"लेकिन एक ही टाईम पे आपके चेहरे पे ये दो-दो मिश्रित एक्सप्रैशन कैसे?"...

"यही तो अपना कमाल है बच्चू"...

"क्या?"...

"किसी को अपने अन्दर की बात नहीं पता चलने देता"...

"लेकिन कैसे?"...

"टॉप सीक्रेट"...

"ओह!...लेकिन इस तरह आड़े-तिरछे...विद्रूप से चेहरे बना के दुखी होने से फायदा?"...

"क्या मतलब?"...

"अपना आराम से दहाड़ें मार-मार के भी तो रोया जा सकता है"...

"जी!...रोया तो जा सकता है लेकिन...

"तो फिर इतनी सारी मेहनत?...इतना सारा स्यापा?...किसलिए?"...

"किसलिए...क्या?...बस!...ऐसे ही...ऐज़ हे हॉबी...पैदायशी शौक है मेरा"...

"ओह!...तो फिर ठीक है"...

"और फिर क्या फायदा?..ऐसे अनजाने लोगों के आगे ...बेकार में ही अपना दुखड़ा रो-रो अपना गला सुजाता फिरूँ?"..

"जी!..किसी ने कुछ करना-कराना थोड़े ही होता है?...उल्टा सब तमाशा और बना लेते हैँ"..

"बिलकुल सही कहा आपने"...

"लेकिन मैँ तो आपका बाल सखा हूँ...पुराना मित्र हूँ"...

"तो?"...

"इस नाते आप मुझे तो बता ही सकते हैँ"...

"जी!...बता तो सकता हूँ लेकिन क्या है कि...ऐन टाईम पे अपने कई मित्रों को रंग बदलते देखा है...इसलिए थोड़ा संकोच सा फील कर रहा हूँ"...

"क्या मतलब?"...

"मैँने दोस्तों को पीठ पीछे वार करते देखा है"...

"ओह!...लेकिन क्या आपने मुझे भी उन जैसा समझ लिया है?"...

"जी!...कुछ-कुछ...सब एक जैसे ही होते हैँ"...

"अगर ऐसा है तो मुझे पहले...बहुत पहले ही आपका साथ छोड़ कर चले जाना चाहिए था"...

"तो फिर गए क्यों नहीं?"...

"क्योंकि मेरी नज़र आपकी सैंत्रो पर थी"...

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"क्या मतलब?"..

"मैँ कई दिनों से सोच रहा था कि आपसे...आपकी सैंत्रो की बात करूँ?"...

"क्या मतलब?...मेरी सैंत्रो कोई लड़की है जो तुम उसका रिश्ता माँगने की सोच रहे थे?"...

"नहीं-नहीं!...मेरा ये मतलब नहीं था"...

"तो फिर क्या मतलब था?"...

"यही कि मैँ आपकी सैंत्रो खरीदना चाहता था"...

"क्या सच?"...

"जी बिलकुल"...

"लेकिन तुम्हारे पास तो अपना...खुद का टू-व्हीलर है ही और तुम उसी पे आते-जाते हो"...

"जी!...ऐसे तो एक थ्री-व्हीलर भी है"...

"मालुम है...उसे तुम्हारी बीवी चलाती है ना?"...

"जी"...

"तो फिर तुम इसका क्या करोगे?"...

"किसका?"...

"सैंत्रो का"...

"बात तो आपकी सही है लेकिन...

"लेकिन क्या?"...

"लेकिन जब से मेरी बीवी ने बगल वाले 'चौबे' जी की 'मिश्राईन' को उनके साथ उनकी ऐल्टो में घूमते हुए देखा है...ज़िद पे अड़ के खड़ी हो गई हैँ कि... "हमहु....अब सैंत्रो में घूमे-फिरेबा करि"...

"एक मिनट!..एक मिनट...आपने अभी कहा कि 'चौबे' जी की 'मिश्राईन'?"...

"जी"...

"ये कौन सी कास्ट हो गई?...'चौबे' जी की 'मिश्राईन'?...कायदे से तो 'चौबे' जी तो 'चौबाईन' होनी चाहिए  और मिश्रा जी की 'मिश्राईन'?"...

"जी!...मिश्रा जी की ही तो ये मिश्राईन है"...

"लेकिन कैसे?"...

"कैसे...क्या?...पाँच बरस पहले बिजनौर से ब्याह के लाए थे उसे"...

"अरे!...मेरा मतलब था कि अगर वो मिश्रा जी की मिश्राईन है तो फिर चौबे जी के साथ कैसे?"...

"ओह!...तो फिर ऐसे कहिए ना"...

"दरअसल!...क्या है कि आजकल अपने 'चौबे' जी दो नम्बर में बहुत नोट छाप रहे हैँ"...

"तो उन्होंने अपनी 'चौबाईन' को 'मिश्राईन' कह के बुलाना शुरू कर दिया?"...

"नहीं-नहीं!...बिलकुल नहीं"..'

"तो फिर?"...

"मिश्रा जी तो उनके बॉस हैँ"...

"तो?"...

"उन्हीं की बीवी के साथ तो टांका भिड़ा है अपने चौबे जी का"...

"ओह!..तो ये बात है"...

"जी"...

"तो फिर ठीक है...बोलो!...कितने में खरीदोगे?"..

"क्या?"...

"मेरी सैंत्रो"...

"कितने में क्या?...अपना बस वाजिब दाम पर मिल जाए तो मैँ खुद को गंगा नहाया समझूँ"...

"फिर भी!...कुछ बजट तो होगा आपका?"...

"जी!...यही कोई दो-पौने दो लाख तक मिल जाए तो मैँ आराम से अफोर्ड कर लूँगा"...

"पौने दो तो नहीं लेकिन हाँ!...अगर तुम एक लाख पिच्यासी हज़ार दे दो तो डील पक्की"..

"कुछ और कम नहीं हो सकता क्या?"...

"अरे!...इससे तो ज़्यादा मुझे वो 'कार बहार' वाला डीलर ही दे रहा था लेकिन...

"ठीक है!...मुझे मंज़ूर है"...

"तो फिर निकालो ब्याना"...

"जी!...ज़रूर...लैट मी चैक...

"नहीं!...चैक तो मैँ नहीं लूँगा...मुझे कैश चाहिए..चैक का कोई भरोसा नहीं कि कब बाऊँस हो जाए?...कुछ पता नहीं"...

"नहीं-नहीं!..आप गलत समझे..मैँ तो कह रहा था कि अभी चैक करता हूँ कि जेब में कितनी धन-माया पड़ी है?...और फिर हम ठहरे गुटखा...खैनी और तम्बाखू वाले...अपने कौन से बैंक में खाते हैँ?"...

"ओह!..तो फिर यू कैन चैक"...

"थैंक्यू"कह गुप्ता जी अपनी जेब खंगालने का उपक्रम करने लगते हैँ...

"अभी!...फिलहाल आपकी जेब में कितने रुपए हैँ?"..

"वोही तो देख रहा हूँ"...

"ओ.के"...

"रेज़गारी और चिल्लड़ वगैरा मिलाकर यही कोई दो-सवा दो हज़ार पड़े हैँ अभी फिलहाल मेरे पास"...

"बस?"..

"लीजिए!...फिलहाल तो आप इन्हें ही रखिए"...

"लेकिन सिर्फ दो हज़ार?...इससे क्या होगा?"...कम से कम दस हज़ार तो दीजिए"...

"आप अभी इसे...ऐज़ ए टोकन मनी रख लीजिए...बाकी के मैँ घर से ला के देता हूँ ना"...

"ठीक है!...तो फिर नो प्राबल्म"मैँ अपनी जेब में रुपए डालता हुआ बोला...

"तो फिर डिलीवरी लेने कब आऊँ?"...

"कब क्या?...जब मर्ज़ी ले लो...चाहो तो अभी ले लो"...

"अभी?"..

"हाँ!...अभी ले लो...क्या दिक्कत है?...मेरी तरफ से तो ये वैसे भी अब तुम्हारी हो चुकी है"...

"हें...हें...हें...ऐसा कैसे हो सकता है?"...

"क्या मतलब?"...

"अभी तो मैँने बस आपको 'टोकन मनी' ही दी है"...

"गुप्ता जी!...लगता है कि आपने मुझको अभी ठीक से पहचाना नहीं"...

"आपने अभी सिर्फ मेरा बाहरी रूप देखा है...कभी दिल के अन्दर भी तो झाँक के देखिए"...

"क्या मतलब?"...

"अरे!..जब जबान कर दी...तो कर दी...आप बस!...इसे अभी के अभी ही ले के जाईए"...

"लेकिन...

"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं...मैँने कह दिया ना...आप इसे अभी ले के जाईए"...

"लेकिन मैँ सोच रहा था कि पहले अपनी श्रीमति जी को भी दिखा देता तो...

"क्या आप सारे काम अपनी पत्नि को बता के करते हैँ?"...

"नहीं!...बिलकुल नहीं"...

"तो फिर?"...

"ओ.के...ओ.के!...अगर आप नहीं मानते हैँ तो फिर जैसी आपकी मर्ज़ी"...

"ठीक है!...तो फिर लो...चाबी पकड़ो"...

"ज्जी!....नेक काम में तो वैसे भी देरी नहीं करनी चाहिए"गुप्ता जी हाथ आगे बढाते हुए बोले...

"एक मिनट!...तनेजा जी...मेरे ख्याल से मैँ इसे आज के बजाय कल ले जाऊँ तो ज़्यादा अच्छा रहेगा.....

"कल?"...

"आपको कोई ऐतराज़ तो नहीं?"...

"नहीं!...ऐतराज़ तो खैर...क्या होना है?...लेकिन मेरे ख्याल से नेक काम में देरी नहीं करनी चाहिए"...

"दरअसल!...क्या है कि मैँ अभी...फिलहाल किसी काम से अपने ससुराल जा रहा था तो सोच रहा था कि आज के बजाय कल वापिस आने के बाद....

"अरे वाह!..ये तो और भी बढिया बात है...अपना सीधे...यहीं से...डगमग़-डगमग करते हुए सासू माँ के द्वार पे धावा बोल डालिए"....

"धावा?"...

"जी हाँ!...धावा...और वो भी फुलटू इम्प्रैशन से लैस...रुआब भरा धावा"...

"ठीक है!...तो फिर जैसा आप उचित समझें....चाबी कहाँ है?"...

"कहाँ क्या?...चौबीसों घंटे मेरी जेब में रहती है...लीजिए"मैँ जेब से चाबी निकाल पकड़ाता हुआ बोला...

"नहीं!...आज रहने दीजिए....कल पे ही रखते हैँ"...

"क्यों?...क्या हुआ?"...

"मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि आज शनिवार है"...

"तो?"...

"शनिवार के दिन तो मैँ किसी चीज़ का सौदा नहीं करता...लोहे का तो बिलकुल नहीं"...

"ओह!...

"आप चिंता क्यों करते हैँ?...कल होने में अब बचे ही कितने घंटे है?"...

"ठीक है!...तो फिर जैसी आपकी मर्ज़ी"मैँ ठण्डी साँस लेते हुए बोला...

"ओ.के!..तो फिर कल मिलते हैँ"...

"बाकी के पैसों के साथ?"...

"ज्जी!..जी बिलकुल...इसमें भला कहने की क्या बात है?"...

"ओ.के!...बॉय"..

"बॉय"...

"तनेजा जी!..एक बार गाड़ी के दर्शन करवा देते तो...

"हाँ-हाँ!..क्यों नहीं?...इसमें भला क्या दिक्कत है?...आप ही की चीज़ है...जब मर्ज़ी...जितने मर्ज़ी दर्शन कीजिए"ये कह के मैँ एक साईड हो जाता हूँ"...

"लीजिए!...कीजिए खुल के दर्शन कीजिए"...

"लेकिन गाड़ी है कहाँ?"...

"ये!...ये आपके सामने ही तो खड़ी है"...

"लेकिन कहाँ?"...

"ओफ्फो!...तुम्हारी आँखे हैँ या बटन?"...

"क्या मतलब?"...

"ये गाड़ी नहीं तो और क्या है?"मैँ अपनी कार की छत पे धौल जमा उसे बजाता हुआ बोला...

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"ओह!..तो ये फूटा कनस्तर आपका है?"...

"मेरा क्यों?...अब तो ये तुम्हारा है"...

"क्या मतलब?"...

"अभी तुमने मुझसे मेरी कार खरीदी है कि नहीं?"...

"जी!...खरीदी तो है लेकिन...ये तो...

"अभी इसी की ही तो 'टोकन मनी' दी है तुमने"... 

"इसकी?"गुप्ता जी चौंक कर परे हटते हुए बोले

"जी हाँ!...इसकी"...

"पागल समझ रखा है आपने मुझे?"...

"क्या मतलब?"..

"इस फूटे हुए कनस्तर को मैँ भला क्यों खरीदने लगा?"...

"मुझे क्या पता?"...

"नहीं!...बिलकुल नहीं...इसे तो मैँ बिलकुल भी नहीं खरीदने वाला"...

"ओए!...जबान कर के फिरता है?...तू आदमी है के घचक्कर?"...

"यही तो मैँ भी पूछ रहा हूँ"...

"क्या?"...

"ये पीपा है या कनस्त्तर?"...

"थप्पड़ इतने मारूँगा कान पे कि वहाँ पे भी पलस्तर चढवाते हुए नज़र आओगे"..

"लेकिन इसकी ये हालत कैसे?...अभी कुछ दिन पहले ही तो मैँ आपको आपके सात बच्चों के साथ धड़ल्ले से इस पर सवारी करते देखा था"...

"तो?"...

"अब तो ये इतनी खराब दिख रही है कि मैँ क्या?...कोई भी धोखा खा जाएगा"...

"किस बात का?"...

"यही कि ये पीपा है या फिर है कोई कनस्तर?"..

"तो फिर मुझ से मार नहीं खाएगा?"...

"लेकिन इसकी ये...इतनी बुरी हालत किसने कर दी?"...

"ऑफकोर्स मैँने!...और भला किसमें दम है जो मेरी किसी चीज़ की तरफ आँख उठा कर भी देखे"...

"जी!...लेकिन कब?...कैसे?...और क्यो?"...

"सब मेरी ही हठधर्मी का नतीज़ा है"...

"क्या मतलब?"...

"ना मैँ बोर्ड लगाता और ना ये सब होता"...

"कैसा बोर्ड?...कौन सा बोर्ड?"...

"नो पार्किंग का बोर्ड"...

"ओह!...तो इसका मतलब आपने 'नो पार्किंग' एरिया में अपनी गाड़ी खड़ी कर दी थी..तभी कोई इसे ठोक गया होगा"...

"मुझे क्या येड़ा समझ रखा है क्या?"..

"क्या मतलब?"...

"मैँ भला अपनी गाड़ी को 'नो पार्किंग' ऐरिया में क्यों खड़ी करने लगा?"...

"तो फिर किसने?"...

"वो तो उस हरामखोर ने अपनी बाईक खड़ी की थी"...

"कहाँ?"..

"नो पार्किंग ऐरिया में...स्साले!...को अच्छी भली आँखे होते हुए भी डेढ फुट बॉय डेढ फुट का 'नो पार्किंग' लिखा हुआ बोर्ड दिखाई नहीं दिया था"..

"वो कहाँ पर है?"...

"मेरे घर के सामने"...

"क्या मतलब?...आपका घर तो गली के अन्दर है"...

"तो?"...

"वहाँ कौन सी 'नो पार्किंग ज़ोन है"...

"मेरी अपनी...खुद की बनाई हुई...बकायदा मैँने बोर्ड लगाया हुआ है उस पर कि...

"यहाँ गाड़ी खड़ी करना सख्त मना है"...

"क्या मतलब?...ऐसा कैसे हो सकता है"...

"अरे वाह!...हो कैसे नहीं सकता...मेरा अपना...खुद का खरीदा हुआ घर है"...

"तो?"...

"उसका अगाड़ा और पिछवाड़ा भी तो मेरा ही हुआ ना?"...

"जी!...हुआ तो सही लेकिन सड़क तो सरकारी...

"सरकारी है तो क्या हुआ?...इसका मतलब ये तो नहीं हो जाता कि सारे जहाँ के कुत्ते-बिल्ली वहाँ आ के हकते-मूतते रहें?"...

"तो फिर इसके लिए तो आपको 'एम.सी.डी' वालों की कुत्ता पकड़ गाड़ी से संपर्क करना चाहिए"...

"अरे!...कुत्ते-बिल्लियों से लेकर बाघ-बकरियों तक के लिए तो मैँ अकेला ही काफी हूँ"...

"वो कैसे?"...

"ऐसी डरावनी आवाज़ में विद्रूप एवं विकृत चेहरे बना-बना के भौंकता हूँ कि आस-पड़ौस वाले भी कई बार मुझे सचमुच का कुत्ता समझ लेते हैँ"..

"ओह!...

"और डर के मारे इतना सहम जाते हैँ...इतना सहम जाते हैँ कि कोई जल्दी से चूँ तक करने की जुर्रत नहीं करता"...

"गुड!...वैरी गुड"...

"जब आदमियों की ये हालत है तो फिर मेरी हेठी के चलते इन पंछी-परिन्दों और जानवरों की औकात ही क्या है?...किस खेत की मूली हैँ वो?"...

"जी"...

"लेकिन स्साले!..इन उल्लू के पट्ठों को कैसे समझाऊँ?"...

"ओह!...तो क्या आपके घर-आँगन में उल्लुओं का भी बसेरा है?"...

"नहीं-नहीं!...बिलकुल नहीं...वो भला अपना डेरा मेरे यहाँ क्यों बसाने लगे?"..

"तो फिर?"...

"मैँ तो उन हरामज़ादों की बात कर रहा था जो मेरी तमाम तरह की जायज़-नाजायज़ वार्निंगों और चेतावनियों के बावजूद मुझे अनदेखा कर अपनी गाड़ी वहाँ खड़ी करते हैँ"...

"ओह!...तो फिर आपको एक काम करना चाहिए"...

"क्या?"...

"घर के बाहर कुछ गमले...पौधे वगैरा लगाकर वृक्षारोपण वगैरा करते रहा करें"...

"कई बार कर के देख लिया...हर बार कोई ना कोई हरामज़ादा...मेरी सारी मेहनत पे पानी फेर डालता है"...

"क्या मतलब?"...

"गमले समेत सारे पौधों और क्यारियों को तोड़-मरोड़ कर तहस-नहस कर डालता है"..

"ओह!...

"ये शहर नहीं चोरों की बस्ती है...चोरों की बस्ती"...

"क्या मतलब?"...

"यहाँ चोरों को भी मोर पड़ जाते हैँ"...

"क्या मतलब?"...

"एक तो मैँ बड़ी मुश्किल से रात-बिरात सरकारी नर्सरी से पौधे चुरा के लाता हूँ और अगले दिन ही मुझे कोई सवा सेर टकरा जाता है"...

"मतलब...कोई और आपके घर से उन्हें चुरा के ले जाता है?"...

"जी!...मेरी तमाम कोशिशों और सावधानियों के बावजूद"...

"आपको इन चोरों की वजह से ही दिक्कत और परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है ना?"..

"जी!...एक तो वैसे भी चोरी इतना पेचीदगी भरा काम है कि बस पूछो मत...ऊपर से इन चोरों ने जीना हराम कर रखा है"...

"इस चोरी वगैरा के पीछे आपका असली मकसद तो अपने घर के आगे दूसरों की गाड़ी खड़ी नहीं होने देना है ना?"...

"जी"...

"या फिर किसी किस्म का कोई लालच वगैरा?"...

"तौबा-तौबा...क्या बात कर रहे हैँ आप?...मैँ और लालच?...तौबा-तौबा"मैँ अपने कानों को हाथ लगाता हुआ बोला...

"ठीक है!...तो फिर आप इस चोरी जैसे पेचीदगी भरे काम को करने के बजाए आसान रास्ता अपनाया करें"...

"क्या?"...

"आप कोई पुराना सा...टूटा-फूटा...पाँच...सात सौ रुपए वाला टू-व्हीलर अपने घर के आगे इस तरह अड़ा कर खड़ा कर दिया करें कि किसी के और कुछ खड़ा करने लायक कोई जगह ही बाकी ना रहे"...

"जी!...सब कर के देख चुका हूँ लेकिन कोई फायदा नहीं"...

"क्या मतलब?"..

"उसके इंजर-पिंजर तक स्मैकिए लूट के ले गए"...

"ओह!...तो क्या आपको पता भी ना चला?"..

"पता कैसे चलता?...किसी दिन उसके टायर गायब हुए तो किसी दिन उसकी स्टैपनी"...

"वैसे उसमें अब बचा क्या है?"...

"एक मिनट...मुझे सोचने का ज़रा मौका दें...लैट मी थिंक"...

"ओ.के"...

"हैंडिल को तो मैँने परसों रात ही देखा था लेकिन शायद...आज....हाँ!...याद आया...आज तो वो भी गायब था"...

"ओह!...तो फिर आप एक काम करें"...

"क्या?"...

"आप परसराम बनिए से मिल लें?"...

"कौन सा परसराम बनिया?...वो कमेटी वाला?"..

"जी!...जी हाँ...वही"...

"उससे किसलिए"...

"उसके पास जब्त किए हुए रिक्शों की भरमार रहती है"...

"तो?...मैँने उनका क्या करना है"...

"उससे  दो-चार बिना सीट और गद्दी वाले जंग लगे रिक्शा ले आएँ...सस्ते ही दे देगा...अपना खास आदमी है"...

"लेकिन किसलिए?"..

"उन्हें अपने घर के बाहर सीमेंट में चिनवा के इस कदर जाम करवा दें कि किसी और के लिए वहाँ अपनी गाड़ी खड़ी करने की कोई जगह ही ना बचे"...

"नॉट ए बैड आईडिया!...लेकिन जाम करवाने की ज़रूरत क्या है?...उन्हें तो वैसे भी खड़ा कर सकते हैँ"...

"पागल तो नहीं हो गए हो कहीं?...टायर ही कहाँ होंगे उसमें"...

"क्या मतलब?"...

"अरे!...सस्ता...चालू सा जुगाड़ हमें करना है कि बस किसी तरह से जगह घिरी रहे"...

"जी"...

"और फिर साबुत रिक्शे खरीद के आपको अपना मेहनत से कमाया हुआ पैसा फिर चोरी करवाना है क्या?"...

"ओह!...ये बात तो मेरे दिमाग में ही नहीं आई"...

"कोई बात नहीं...बुढापे में कभी-कभी हो भी जाता है"...

"क्या?"...

"आदमी बावला"...

"जी!...ये तो है...अब मुझे देखिए...चालीस से ऊपर की उम्र नहीं है मेरी लेकिन दिमाग को जैसे अभी से ही जंग लगना शुरू हो गया है"...

"लेकिन इसमें चिंता की कोई बात नहीं है...अपना पाँच-सात सालों बाद अपने आप आपकी ये समस्या दूर हो जाएगी".....

"तो क्या इस बिमारी का असर पाँच-दस सालों तक ही रहता है?"...

"नहीं"...

"तो फिर?"...

"तब तक तो आप वैसे ही टैँ बोल जाएँगे"...

"अपने आप?"...

"जी!...ये बिमारी ही कुछ ऐसी है"...

"ओह!...इसका मतलब मेरे पास ज़्यादा वक्त नहीं है"..

"जी"...

"फिर तो मुझे जल्दी करनी चाहिए"...

"जी"...

"तो फिर यही...आपका बताया इलाज कारगर रहेगा ना इन ढीठों के लिए?"...

"जी"...

"और कोई चारा भी तो नहीं...सारे के सारे इंतज़ामात फेल जो हो चुके हैँ"...

"तो क्या इससे पहले आप और भी कुछ तरीके अपना चुके हैँ इस सब के लिए"...

"और नहीं तो क्या?...आपने मुझे क्या निठल्ला समझ रखा है जो मैँ ऐसे हाथ पे हाथ धरे बैठा रहूँ?"..

"तो फिर आपने...गाड़ियाँ खड़ी ना हों...इसके लिए किस तरह के?...और कैसे उपाय अपनाए?"...

"जैसे..कई बार मैँ बाहर खड़ी हुई गाड़ियों के टायरों में से हवा निकाल देता था...उन्हें पंचर कर दिया करता था वगैरा"....

"गुड!...वैरी गुड...इन नामाकूलों के साथ ऐसा ही सलूक किया जाना चाहिए"...

"लेकिन कोई फायदा नहीं"...

"क्या मतलब?"...

"रोज़ाना के केस आते देख नुक्कड़ के पंचर वाले मिस्त्री ने मेरे घर के सामने ही अपना नया ठिय्या जमा लिया"...

"ओह!...

"उसका काम चलता देख...दो-चार गैराज भी खुल गए...अब रोज़ाना  धुँआ-धक्कड़ से दो-चार होते हुए दिन भर उनकी चिल्लम पों सुननी पड़ती है"....

"रोज़ाना?"...क्या कोई छुट्टी वगैरा भी नहीं करते?"...

"जी नहीं...कोई छुट्टी नहीं करते...यही तो रोना है कि कम्बख्तमारे!..सनडॆ की भी छुट्टी नहीं करते"...

"ओह!...

"मैँ तो सोच रहा हूँ कि लेबर कमिश्नर को कुछ दे-दिला के स्सालों...पर बाल मज़दूरी का केस करवा दूँ"...

"नॉट ए बैड आईडिया"...

"लेकिन पट्ठा मुँह कुछ ज़्यादा ही बड़ा फाड़ रहा है जो कि मेरे बूते से बाहर है"...

"ओह!...तो फिर आपको कोई आसान सा..सुलभ सा तरीका सोचना चाहिए था"...

"सोचा ना"..

"क्या?"...

"मैँने अपने घर का बचा हुआ बासी खाना बाहर खड़ी हुई गाड़ियों पर फैंकना शुरू कर दिया"...

"अरे वाह!...ये तरीका तो बड़ा ही लाजवाब है"...

"खाक लाजवाब है"...

"क्या मतलब?"...

"मेरे घर के बाहर खाना माँगने के लिए भिखमंगों की लाईनें लगने लगी"...

"ओह!...

"इतने में ही बस कहाँ?...मुझे लोगों की गाड़ियाँ गन्दी करते देख....उन्हें साफ करने वालों का धन्धा चल निकला"...

"ओह!...

"उनकी देखादेखी...बरसों से मक्खियाँ मार रहे उस 'अग्रवाल पेंट्स' के मालिक भी मन्द पड़ा धन्धा ज़ोरों से चल निकला"...

"वो कैसे?"...

"दस-दस रुपए में इस्तेमाशुदा पुरानी धोतियों के टुकड़े जो बेचने लगा"...

"ओह!..

"अभी परसों तो हद ही हो गई...हद की?...हद नाल्लों वी वध हो गई"...

"ओह किवें?...वो कैसे?"...

"एक स्साला!...प्यार का मारा पूरे डेढ घंटे तक मेरे घर के आगे अपनी बाईक अड़ाए खड़ा रहा"...

"तो क्या आपने उसे डांटा नहीं"...

"डांटा क्यों नहीं?...बहुत डांटा...लेकिन कोई मेरी सुने तब ना?"...

"वो हरामखोर!...ज़रूर अपनी माँ #$%ं&%  होगा"...

"नहीं-नहीं!...बिलकुल नहीं"...

"तो फिर वो ज़रूर अपनी बीवी से बात कर रहा होगा"... 

"अजी कहाँ?...बीवी से बात करने की भला किसे फुर्सत होती है?....उससे भला कोई दो-दो घंटे तक क्या बात करेगा?...और वो भी मुस्कुरा-मुस्कुरा के?"...

"वो तो ज़रूर ही अपनी किसी माशूका के साथ गुटरगूँ कर रहा होगा"...

"जी"...

"आपको ज़ोर से चिल्ला के उसे डांटना चाहिए था"..

"डांटा ना...लेकिन कोई मेरी सुने तब ना?"...

"क्या मतलब?"..

"वो तो नीचे खड़ा था और मैँ दूसरी मंज़िल पे खड़ा चिल्ला रहा था...ऐसे में मेरी आवाज़ भला उस तक कैसे पहुँचती?"...

"ओह!...तो आपको नीचे आ जाना चाहिए था"...

"आया ना...लेकिन...

"कोई आपकी सुने...तब ना?"..

"जी!...स्साले के आगे चिल्ला-चिल्ला के  मेरा हलक सूख के कांटे समान हो गया लेकिन उस मिट्टी के माधो पर कोई असर नहीं...पट्ठा...टस से मस भी ना हुआ"...

"ओह!...तो फिर आपने क्या किया?"...

"करना क्या था?...गुस्सा तो इतना आ रहा था कि इस स्साले के हाथ-मुँह सब एक ही मुक्के में तोड़ दूँ लेकिन...

"लेकिन क्या?"...

"लेकिन फिर ठंडे दिमाग से सोचा कि ऐसे गन्दे...छिछोलेदार आदमी को हाथ लगाना भी तो महापाप की श्रेणी में आएगा"...

"जी!..मेरे ख्याल से वृहद तनेजा कोष के छटे अध्याय के पाँचवें प्रसंग की बारहवीं पंक्ति में आपके आदरणीय गुरूजी भी यही लिख गए हैँ ना कि...."ऐसे नामाकूल लोगों को छूना भी नर्क के दर्शन करने के बराबर है"...

"जी!...बिलकुल सही फरमा रहे हैँ आप"..

"तो इसका मतलब आपने अपने प्रयासों के जरिए अपने गुस्से पे काबू पा लिया?"...

"ऐसे-कैसे पा लिया?"..मेरा गुस्सा कोई रेत का भरा प्याला नहीं कि पल भर में ही ज़रा सी गर्मी पा कर आगबबूला हो उठूँ और ना ही मैँ नवरत्न तेल की ज़रा सी मसाज के बाद ठण्डा-ठण्डा...कूल-कूल हो जाता हूँ"..

"ओह!...

"पहली बात तो मुझे कभी गुस्सा चढता नहीं है और यदि चढ जाता है तो...फेर छेत्ती उतरदा कोणी"...

"तो फिर कैसे?"...

"फिर मैँने सोचा कि इस स्साले!...हरामखोर को सबक सिखाने के लिए ना चाहते हुए भी कोई ना कोई कठोर कदम तो ज़रूर ही उठाना पड़ेगा"...

"स्साले!...की बाईक में आग लगा देनी थी"...

"जी!...मेरे दिमाग भी पहले-पहल यही आईडिया आया था लेकिन बाहर बहता हुआ नाला देखकर मन मसोस कर रह गया कि पट्ठा उसी में अपनी बाईक धंसा के आग बुझा लेगा"...

"ओह!...

"फिर सोचा कि कुछ ना कुछ ऐसा करूँ कि ना रहे बाँस और ना बजे बाँसुरी"...

"तो फिर आपको उस स्साले की गड्डी तोड़ डालनी थी"...

"यही!...यही तो मेरे दिमाग में भी आ गया था कि आज इसकी बाईक का कचूमर निकाल के ही दम लूँगा"....

"गुड!...वैरी गुड..तो फिर क्या किया आपने?"...

"करना क्या था?...तुम तो जानते ही हो कि सैंत्रो की चाबी चौबीसों घंटे मेरी जेब में पड़ी रहती है"...

"जी"...

"तो बस सीधा अपनी सैंत्रो में चाबी लगाई और फिर अपने रैंप से फुल्ल-फ्लैज....बैक गियर में...उसे ये जाने दे...और वो जाने दे"...

"ओह!...बेचारा"...

"लेकिन.....

"लेकिन क्या?"...

"ऐन मौके पे पट्ठे ने बाईक हटा ली और उसकी जगह एक ट्रक आ के खड़ा हो गया"...

"ओह!...

"जी"...

"दिल आज कायर है...गम आज अपना है...उफ!...ये...सैंत्रो मेरी"…

गैरों के दुखों पे ओ रोने वालो ...कभी हो मेरे भी गम में शरीक"...

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

Delhi(India)

rajivtaneja2004@gmail.com

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12 comments:

Khushdeep Sehgal said...

राजीव भाई, आपका कसूर नहीं है...दरअसल आपकी हालत उस विज्ञापन जैसी है जिसमें एक कार वाला बच्चे से पूछता रहता है...अबे देख पीछे गाड़ी लग रही है क्या...बच्चा कहता रहता है, आजा...आजा...और जब गाड़ी लग जाती है तब कहता है, हां अब लग गई...एक बात और, राजीव भाई, गुस्से में अपना तांडव मत शुरू कर देना, क्योंकि दुनिया बेचारी को अभी बहुत कुछ देखना है...

Anil Pusadkar said...

एक बात तो समझ गया पार्किंग के लिये लफ़ड़ा नही करने का।

Mithilesh dubey said...

बहुत ही लाजवाब लगा पढ़ने में। लेकिन पोस्ट कुछ बड़ी थी।

अजय कुमार झा said...

समझ गया .....यानि कथा का कुल सार ये कि ...अगले ब्लोग्गर्स मीट में....आप भाभी जी के साथ उनके तिपहिये में पधारने वाले हैं...अजी उसका भी मजा ही अलग होगा..सेंट्रो से कम नहीं...जब भाभी जी ही चला रही होंगी तो....हां ये ट्रक वाले का नंबर दिजीये तो ...मुझे भी एक सेंट्रो ...उससे ऐसे ही...रिपेयर करवानी है...

राज भाटिय़ा said...

अरे बाबा इस तिपहिये के ऊपर ही वो सेंट्रो का ढांचा रख लो मन खुश हो जाये गा, आप की पोस्ट बहुत अच्छी लगी पार्किंग वाला आईडिया बुरा नही.
धन्यवाद

Anonymous said...

बहुत बढ़िया हास्य।

बाईक के बदले ट्रक का क्लाईमेक्स भी मज़ा दे गया।

बी एस पाबला

समयचक्र said...

बहुत बढ़िया हास्य पोस्ट . पोस्ट की समयचक्र की चिठ्ठी चर्चा में चर्चा . आभार

Unknown said...

मेरी भी एक साइकिल बिकवा देंगे क्या, एकसीडेंटल ही है .......????

आभार, शुभकामना........!!!

राजीव तनेजा said...

ई-मेल पर प्राप्त टिप्पणी:


from:anil k
masoomshayer@gmail.com

"ऐन मौके पे पट्ठे ने बाईक हटा ली और उसकी जगह एक ट्रक आ के खड़ा हो गया"...

"ओह!...

"जी"...

"दिल आज कायर है...गम आज अपना है...उफ!...ये...सैंत्रो मेरी"…

गैरों के दुखों पे ओ रोने वालो ...कभी हो मेरे भी गम में शरीक"...
waah jee kya baat hai kya climax diyaa hai

राजीव तनेजा said...

ई-मेल पर प्राप्त टिप्पणी:


from:madhu tripathi madhutripathi79@gmail.com
Re: दिल आज कायर है...गम आज अपना है


तनेजा जी, आपकी रचना आज के संदभॆ में ठीक ही है।

vijay kumar sappatti said...

rajeev ji

namaskar

deri se aane ke liye maafi chahunga..

sir , itni shaandar aur jjaandar post lagayi hai aapne ki kya kahun. waah ji waah , aaj ke zamane me jahan har pal mostly pareshaani me hi gujarta hai ...wahan aap hansa dete hai , iske liye mera salaam kabul kare..

post ka climax jabardasht hai ..

meri badhai sweekar karen..

regards

vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com

शिवम् मिश्रा said...

@ अजय भाई तो फिर कब हो रही है अगली ब्लॉगर मीट ???
राजीव भाई किलोमीटर के हिसाब से काहे लिखते है जी ??? आपको तो मालुम ही है ओलंपिक छोड़ और कहीं भी हम इतनी लम्बी पैदल दौड़ नहीं लगा पाते ... आखिर सेहत का सवाल है !!

 
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