स्वयंसिद्धा- मंजरी शुक्ला

आमतौर पर किसी भी किताब को पढ़ने के बाद मेरी पहली कोशिश होती है कि उस पर एक आध दिन के भीतर ही मैं अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया लिख लूँ। मगर इस बार संयोग कुछ ऐसा बना कि पहली बार किसी किताब को लगभग 4 महीने पहले पढ़ने के बावजूद भी उस पर बस इसलिए नहीं लिख पाया कि उसे मैंने हार्ड कॉपी के बजाय किंडल पर पढ़ा। मगर अपन तो ठहरे देसी टाइप के एकदम सीधे साधे जलेबी मार्का बंदे। जब तक ठोस किताब हाथ में ना आ जाए..पढ़ने का मज़ा बिल्कुल नहीं आता या कह लो कि सब कुछ होते हुए भी तसल्ली नहीं होती।

खैर..अब किताब को पढ़ तो लिया लेकिन उस पर कुछ लिखने से पहले ही इस कंमबख्तमारे किंडल के सब्सक्रिप्शन ने खड़े पाँव अपने हाथ झाड़ कर खड़े कर दिए कि पहले मुँह दिखाई के शगुन के रूप में सब्स्क्रिप्शन रिन्यू करवाओ और उसके बाद जो मन में आए लिखते रहना।  अब हमने सोचा कि फिलहाल रिन्यू करवाने के बजाय थोड़ा टाइम ठोस याने के पेपरबैक का ही इंतज़ार कर लें। क्या पता बात बन जाए?  अब बात को तो बनना था..तो लो जी..बात बन ही गयी। आ गया हार्ड कॉपी वर्ज़न। 

धन भाग साड्डे..जो दर्शन होए तवाडे।

अब हम तो इसी ताक में बैठे। आते ही अमेज़न पर ऑर्डर किया लेकिन आग लगे इस कंबख्तमारी याद को। पिछला सारा पढ़ा काफी हद तक उड़नछू हो..फुर्र हो चुका था। चलो...जी कोई दिक्कत नहीं, बढ़िया किताब हो तो बार बार पढ़ी जाती है।

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ प्रसिद्ध लेखिका मंजरी शुक्ला जी के कहानी संग्रह "स्वयंसिद्धा" की। उस स्वयंसिद्धा की, जो बचपन से अपनी माँ को हमेशा पिता द्वारा प्रताड़ित.. अपमानित होते हुए देखती है और उसे भी अपनी माँ के तमाम आश्वासनों के बावजूद, विवाह उपरांत वही सब झेलना पड़ता है। ऐसे में उसके जीवन में किसी शुभचिंतक का आगमन क्या उसके दुखों को कम या ज़्यादा कर पाता है अथवा नहीं? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ तीन साल तक एक ऐसी बुर्का पहने युवती से प्रेम करने, मगर उसका चेहरा ना देख पाने के बावजूद जब एक युवक उसे अपने घर..अपनी माँ से मिलाने के लिए ले जाता है। वहाँ पहली बार उसे पता चलता है कि उसकी चाहत का चेहरा एक तरफ से पूरा जला हुआ है। 

तो वहीं दूसरी तरफ एक अन्य कहानी में बूढ़े माँ बाप अपने उस बेटे की पिछले आठ महीनों से प्रतीक्षा करते दिखाई देते हैं जो काम के सिलसिले में शहर जाने की बोल वापिस आने का नाम नहीं ले रहा। क्या महज़ बेटे के भेजे ख़त और पैसों से उनकी तसल्ली हो पाएगी?

एक अन्य कहानी में कुदरत की ग़लती से स्त्रीयोचित गुणों एवं स्वभाव वाला लड़का बचपन में अपने पिता एवं दादी की उपेक्षा..प्रताड़ना एवं नफ़रत झेलने को मजबूर होता है। ऐसे बच्चे की ज़िन्दगी में सहारा एवं संबल बन कर उसकी बेबस माँ के सामने एक किन्नर आता है और अपने प्रयासों से उस बच्चे को अव्वल नंबरों से तालीम दिला उस पोज़ीशन पर पहुँचा देता है कि उससे बुरा बर्ताव करने वाले उसके अपने ही शर्मिंदा हो उठते हैं। 

अगली कहानी अलग अलग धर्मों में विश्वास करने वाले ऐसे दो लंगोटिया यारों की है जिनका एक दूसरे के बिना बिल्कुल भी गुज़ारा नहीं। मगर उनमें से एक की माँ कट्टर हिन्दू होने के कारण बेटे के दोस्त को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करती मगर कुछ ऐसा घटता है कि वो अपनी सारी नफ़रत भूल उससे भी अपने बेटे जैसे ही प्रेम करने लगती है। 

एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ पुत्र मोह में जलन का मारा एक प्रिंसिपल माली की होनहार लड़की की सफलता को देख कर इस कदर जलन से भर उठता है कि सही या ग़लत का फैसला भी नहीं कर पाता है। तो वहीं एक दूसरी कहानी में बात है आजकल के कामकाजी जोड़ों की कि किस तरह 
अपनी उच्च आकांक्षाओं की बलि चढ़ाते हुए अक्सर कामकाजी जोड़े अपने बच्चों को महँगे क्रैचेज़ में डाल बस अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं मगर क्या वहाँ.. उन हाई फाई क्रैचेज़ में उनके बच्चों को सही पोषण..ममता और लाड़ प्यार मिल पाता है, जिसके वो असलियत में हकदार हैं?

इसी संकलन की एक कहानी "गीला तौलिया" हमें सोशल मीडिया के चक्रों कुचक्रों से आगाह करती है कि इसके चंगुल में फँसने से पहले सजग आँखों एवं खुले मस्तिष्क से हम अपना अच्छा बुरा पहले सोच लें। 

इसी संकलन कहीं कोई कहानी हल्के फुल्के ढंग दहेज और पैसे के लालच में हो रहे बेमेल रिश्तों की कहानी कहती है तो किसी कहानी में नाउम्मीदी तक जा पहुँची एक अधूरी प्रेम कहानी अपनी आखिरी पंक्तियों में पूर्णता को प्राप्त करती है। तो कोई कहानी इस बात की तस्दीक करती है कि बेईमान से बेईमान व्यक्ति का भी कभी ना कभी ईमान जाग उठता है। 

पठनीयता की दृष्टि से अगर देखें तो सभी कहानियों की भाषा प्रवाहमयी है। अलग अलग कलेवरों से सुसज्जित इस संकलन की कुछ कहानियों ने मुझे प्रभावित किया। उनके नाम इस प्रकार हैं: 

*स्वयंसिद्धा
*अम्मा
*पार्वती आंटी
*विदाई
*गुरु दक्षिणा
*क्रेश
*मिलन
*प्रायश्चित 

प्रवाहमयी भाषा में लिखी गयी इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे पुरानी नींव पर नयी इमारत जैसी तो कोई कोई थोड़ी फिल्मी टाइप भी लगी। किसी को जल्दबाज़ी में समाप्त कर दिया गया सा प्रतीत हुआ  तो कोई थोड़ी खिंची हुई सी भी लगी। इन कहानियों पर अभी और मेहनत की जानी चाहिए। इसके अलावा कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियाँ भी दिखाई दी जिन्हें दूर  किया जाना चाहिए।

*पेज नम्बर 111 में एक जगह "हूर के गले में लंगूर" की जगह ग़लती से "हूर के गले में अंगूर" टाइप हो गया है। जिससे इस वाक्य को जिस संदर्भ में लिखा गया है, वह निरर्थक हो गया है। 

*पेज नम्बर 140 में एक जगह "दोषी" शब्द के साथ ग़लती से "गवाह" शब्द भी टाइप हो गया है। जिससे उस वाक्य का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। या तो सिर्फ "दोषी" होना चाहिए था या फिर उसकी जगह "मुजरिम" शब्द का इस्तेमाल किया जाता तो बेहतर था। 

150 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है फ्लाई ड्रीम्स पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

1 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

संग्रह के प्रति उत्सुकता जगाता आलेख। जल्द ही पढ़ने की कोशिश रहेगी।

 
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