अपने पैरों पर- भवतोष पाण्डेय

कायदे से अगर देखा जाए तो अपने नागरिकों से टैक्स लेने की एवज में देश की सरकार का यह दायित्व बन जाता है कि वह देश के नागरिकों के भले के लिए काम करते हुए उसे अच्छी कानून व्यवस्था के साथ बेसिक सुविधाएँ जैसे साफ़-सफाई, शिक्षा, इलाज, रोज़गार इत्यादि तो कम से कम मुहैया करवाए। मगर यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि अब तक देश की चुनी हुई कोई भी निर्वाचित सरकार कभी भ्रष्टाचार की वजह से तो कभी आलस भरी लालफीताशाही अथवा निजी हितों के चलते के ऐसा करने में सफ़ल नहीं हो पायी है। ऐसे में अभी तक की चुनी हुई सभी सरकारों की नाकामी के चलते, उन्हीं बेहद ज़रूरी सुविधाओं को उपलब्ध कराने का बीड़ा निजी संस्थानों ने..बेशक अपने फायदे के लिए ही मगर इस कदर उठाया कि हर चीज़ पहले से महँगी.. और महँगी होती चली गयी। 

दोस्तों..आज मैं बात करने जा रहा हूँ विस्तृत आयामों से जुड़े शिक्षा और रोज़गार जैसे आवश्यक मुद्दों की विभिन्न परतों को परत दर परत खोलते एक ऐसे  उपन्यास की जिसे भवतोष पाण्डेय ने 'अपने पैरों पर' के नाम से लिखा है।

मूल रूप से इस उपन्यास में कहानी है दसवीं के बाद ग्यारहवीं में एडमिशन लेने कोटा के कोचिंग हब पहुँचे दक्ष की। इसमें कहानी है दक्ष के भावुक पिता देवेश की। जो हैसियत ना होने के बावजूद भी अपने बेटे को पढ़ा लिखा कर इंजीनियर बनाना चाहता है। इस उपन्यास में एक तरफ़ बातें हैं दिन प्रतिदिन बढ़ती मध्यमवर्गीय लोगों की दिक्कतों एवं परेशानियों के बीच उनके द्वारा देखे जाने वाले छोटे बड़े सपनों और उन सपनों को पूरा करने को आतुर प्रयासों से भरी उनकी तमाम जद्दोजहद की।

इसमें एक तरफ़ बातें हैं बढ़ती महँगाई के बीच और अधिक महँगी होती शिक्षा के निरंतर होते व्यवसायिकरण की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बातें है कोचिंग सेंटरों के धांधली भरे  मनमाने  रवैये की। इस उपन्यास में कहीं रैगिंग से जुड़े प्रसंग नज़र आते हैं तो कहीं इसमें वैश्विक मंदी के चक्कर में नौकरियों  में आयी भारी गिरावट की बात नज़र आती है। कहीं इसमें मुन्नाभाई सरीखा एजुकेशन माफ़िया अपनी पकड़ बनाए रखने को सतत प्रयास करता दिखाई देता है।  तो कहीं इसमें कोचिंग सेंटरों की जलेबीनुमा गोलमोल बातों से भरा इस कदर झोलझाल दिखाई देता है कि कोई पाली भाषा का एक्सपर्ट भी मात्र पंद्रह दिनों की मेहनत से तीन सौ मार्क्स लाने का दावा डंके की चोट पे खुलेआम ठोंकता दिखाई देता है। 

कहीं इसमें सिविल सर्विसिज़ और इंजीनियरिंग सर्विसिज़ जैसी दो नावों पर एक साथ सवारी करते विद्यार्थी दिखाई देते हैं। तो कहीं इस उपन्यास में संघर्ष से निराश हो कर कोई अभ्यर्थी टिफ़िन सर्विस जैसे काम में भी खुद को खपाता दिखाई देता है। तो वहीं कहीं कोई अन्य अभ्यर्थी, ब्रोकर बन, अपने हिस्से की कमीशन भी काटता दिखाई देता है। इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कहीं कोई कॉरपोरेट जगत में ताने मार दूसरों को हतोत्साहित करता दिखाई देता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ कहीं कोई अन्य औरों की बनिस्बत पहले तरक्की पा..बाकियों की जलन का शिकार होता दिखाई देता है। कहीं इसमें अथक मेहनत के बाद भी किसी की मलाई कोई और चट कर जाता दिखाई देता है। 

इस उपन्यास में कहीं सरकारी नौकरी वाले युवकों को अपना दामाद बनाने की ख़ातिर लाखों का दहेज देने को आतुर लोग भी पंक्तिबद्ध शैली में अपनी बारी का इंतज़ार करते दिखाई देते हैं। तो इसी उपन्यास में कहीं और दिखावे की जीवनशैली को ले कर मियाँ बीवी आपस में नोकझोंक करते..भिड़ते दिखाई देते हैं।

इसी उपन्यास के ज़रिए कोटा में चल रहे स्कूलों के बारे में एक अजब बात पता चली कि वहाँ क्लास अटैंड करने पर कम फीस देनी होती है जबकि गैरहाज़िर रहने पर ज़्यादा फीस देनी होती है। जबकि कायदे से अगर देखा जाए तो ऐसा होने पर उनका स्टॉफ एवं स्कूल की मेंटेनेंस का खर्चा भी बच रहा होता है मगर ग़लत काम में भागीदार बनने की एवज में यह जुर्माना भी विद्यार्थियों से ही वसूल जाता है।

बतौर पाठक मुझे इस उपन्यास में शिक्षा और स्लेबस से जुड़ी एक जैसी बातों के बार बार सामने आने की वजह से उपन्यास थोड़ा धीमा होता दिखाई दिया। जिसकी वजह से बीच बीच में थोड़ी उकताहट के साथ साथ उपन्यास एकरसता का शिकार होता भी दिखाई दिया। हालांकि राहत के छीटों के रूप में इस उपन्यास में टिया और दक्ष का अघोषित.. प्रेम भी है जो बिना पनपे ही साँप सीढ़ी के खेल की भांति पूरे उपन्यास में हाँ.. ना..ना..हाँ पर ही अटका रहा। एक जैसी बातों को हटा कर इस उपन्यास की लंबाई को आसानी से थोड़ा कम किया जा सकता था। हालांकि सभी का तजुर्बा अलग अलग होता है मगर एक जैसे ही विषय पर बहुत से उपन्यास एवं कहानियों के आ जाने से इस उपन्यास की कहानी भी पहले से पढ़ी और काफ़ी हद तक सुनी सुनाई सी लगी। 

इसके अतिरिक्त कुछ एक जगह पति-पत्नी या दोस्तों के बीच के संवाद भी ऐसे औपचारिक भाषा या शब्दों का इस्तेमाल करते दिखे मानों सरकारी दफ़्तर में कामकाज को ले कर ऑफिशियल पत्र व्यवहार चल रहा हो। प्रूफरीडिंग स्तर पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना भी खला। 

कुछ एक ग़लत छपे शब्दों ने भी अपनी तरफ़ ध्यान खींचा मसलन..

*सहभोजिता- सहभागिता
*कुतूहल- कौतूहल
*घबड़ा- घबरा 
*द् वन्द् व- द्वंद्व
*सेसन- सैशन 
*सिड्यूल- शिड्यूल( शेड्यूल)
*दरबे- दड़बे
*रविवासरीय- रविवारीय 

**कुछ एक जगहों पर वाक्यों में सही शब्द का प्रयोग ना होने की वजह से उनकी सरंचना बिगड़ती दिखाई दी जैसे कि पेज नंबर 4 पर लिखा दिखाई दिया कि.. 

"उस पर किसी चीज़ का दबाव ना हो और अर्थ का तो बिल्कुल भी नहीं।"

यहाँ 'अर्थ' शब्द से तात्पर्य 'पैसे' याने के 'आर्थिक स्तर' से है लेकिन इसके लिए 'अर्थ' शब्द का प्रयोग बड़ा अजीब लग रहा है।

** इसी तरह पेज नम्बर 5 पर स्टॉफ के कुछ सदस्यों द्वारा कुछ संवाद बोले गए हैं। हर एक के संवाद के बाद उस किरदार का नाम लेने के बजाय उन्हें इस तरह लिखा गया स्टॉफ नम्बर.1, स्टॉफ नम्बर.2, स्टॉफ नम्बर.3, स्टॉफ नम्बर.4, स्टॉफ नम्बर.5, स्टॉफ नम्बर.6 । जो कि बहुत ही अजीब लगा। इसके बजाय उन किरदारों को काल्पनिक नाम दे कर या फिर..'एक ने कहा' या फिर 'उसकी बात सुन कर दूसरा बोल पड़ा' अथवा 'ये कह कर तीसरे ने अपनी चोंच बीच में अड़ाई' इत्यादि की तरह अगर वाक्य का अंत किया जाता तो ज़्यादा बेहतर था।

आजकल के लेखकों में देखा गया है आमतौर पर वे एकवचन/ बहुवचन एवं स्त्रीलिंग/पुल्लिंग की बहुत ग़लतियाँ करते है। इस कमी से यह उपन्यास भी बचा नहीं रह पाया है। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 22 पर लिखा दिखाई दिया कि..

** 'किताब पढ़ते गए और वहाँ के छात्रों के खुराफातों के किरदारों में अपने आप को पाने लगे।'

यह वाक्य सही नहीं बना। यहाँ 'छात्रों के ख़ुराफातों' के बजाय 'छात्रों की ख़ुराफातों' आएगा।

इसी पेज के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

** 'रामाशीष राम ने मिलाप  की जान पहचान उसकी पसंद की लड़की से करा दिया था।'

यहाँ 'उसकी पसंद की लड़की से करा दिया था' के बजाय 'उसकी पसंद की लड़की से करा दी थी' आएगा। हाँ.. अगर 'जान पहचान'के बजाय 'परिचय' शब्द होता तो फिर 'परिचय करा दिया था' या 'परिचय करवाया दिया था' ही आता।
 
इसके बाद पेज नंबर 62 पर लिखा दिखाई दिया कि..

** 'अधिकांश ने अलजेब्रा, कैलकुलस और भौतिकी की समस्याओं में ही अपना समस्या बिताया था।'

यहाँ 'अपना समस्या बिताया था' कि जगह 'अपना समय बिताया था' आएगा।

पेज नंबर 79 पर लिखा दिखाई दिया कि..

** 'कोने में पड़ी कुर्सी पर वह धब्ब से बैठ गया और सर पकड़ कर सोचने लगा।'

यहाँ 'वह धब्ब से बैठ गया' की जगह 'वह धम्म से बैठ गया' आएगा। 

पेज नंबर 117 पर लिखा दिखाई दिया कि..

** 'उसके सीनियर प्रोजेक्ट मैनेजर की डांट ने उसे राह दिखा दिया था।'

यहाँ 'राह दिखा दिया था' की जगह 'राह दिखा दी थी' आएगा। हाँ.. अगर 'राह' की जगह 'रास्ता' शब्द होता तो 'रास्ता दिखा दिया था' ही आता। रहा दिखाई जाती है जबकि रास्ता दिखाया जाता है। 

अंत में चलते चलते एक ज़रूरी बात और कि पेज नम्बर 41 पर माँ द्वारा बेटे को कही गयी एक स्थानीय भाषा की एक उक्ति दी गयी है लेकिन उसका हिंदी में अर्थ उसी पेज पर ना छप कर अगले पेज याने के पेज नम्बर 42 के शुरू में छप गया है। जिसे उसी पेज पर होना चाहिए था जिस पर उसकी मूल पंक्ति छपी है।

हालांकि यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला पर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि नोशन प्रैस से छपे इस 145 पृष्ठीय उपन्यास का मूल्य 185/- रुपए रखा गया है। अंत में एक रोचक त्रुटि की बात और कि उपन्यास पर प्रकाशक का नाम ग़लती से छपने से रह गया है और मुझे अमेज़न पर सर्च करने से इसके प्रकाशक का नाम पता चला। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब के आने वाले संस्करणों एवं भविष्य की आने वाली कृतियों में इस तरह की कमियों से बचा जाएगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

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