दर्द माँजता है- रणविजय


अमूमन जब भी हम किसी नए या पुराने लेखक का कोई कहानी संकलन पढ़ते हैं तो पाते हैं कि लेखक ने अपनी कहानियों के गुलदस्ते में लगभग एक ही तरह के मिज़ाज़..मूड..स्टाइल और टोन को अपनी कहानियों में बार बार दोहराया है जैसे कि किसी लेखक की कहानियाँ ट्रीटमेंट और विषय के हिसाब से आपको उदासी..अवसाद और निराशा से भरे मंज़र से हर पल रूबरू कराती चलेंगी। तो वहीं किसी अन्य लेखक की कहानियाँ अपने हल्के फुल्के सहज ढंग से आपका मनोरंजन कर बिगड़ी बातों को संभालती चलेंगी। किसी लेखक की कहानियों में आपको पल पल..हर पल गुदगुदाते रोमानी पल बहुतायत में मिलेंगे तो किसी की कहानियों अपने व्यंग्य की मार से सामाजिक एवं राजनैतिक ढाँचे पे सामान्य..माध्यम अथवा तीखा कटाक्ष करती दिखेंगी। लेकिन कई बार अपवाद स्वरूप कुछ ऐसे हरफनमौला लेखकों का लिखा भी पढ़ने को मिल जाता है जिनकी हर कहानी का ट्रीटमेंट और विषय पहले से हट कर होता है। 

दोस्तों..आज मैं एक ऐसे रोचक कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'दर्द माँजता है...' के नाम से पहले कहानी संग्रह के रूप में लिखा है रणविजय ने। इस संकलन की पहली कहानी 'आगे दौड़..पीछे छोड़' की तर्ज़ पर चलती हुई फ्लर्टी नेचर के बैंक अफ़सर विनीत के साथ उसकी असिस्टेंट मानसी के बीच पद..पैसे..गरिमा और यौवन के लालच में पनपे उस अफ़ेयर की बात करती है। जिसमें से मानसी तो अपना मतलब निकलने के बाद पल्ला झाड़ने में देर नहीं लगाती जबकि विनीत उसके बाद ना घर का..ना ही घाट का रह पाता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी भारतीय रेलवे में व्याप्त लालफीताशाही का जिक्र करती है तो वहीं दूसरी तरफ़ लेबर यूनियनों की खामख्वाह की दखलंदाज़ी की भी बात करती है। इसमें कहीं भारतीय अदालतों के ढुलमुल रवैये की बात आती है तो कहीं यह कुदरती और कागज़ी इंसाफ़ के बीच के फ़र्क की बात करती है। कहीं बहकावे में आए लोगों की कमअक्ली की बात करती है तो कहीं वक्त ज़रूरत के मौके पर लेबर यूनियनों के वंचितों से पल्ला झाड़ने की भी बात करती दिखाई देती है।

इसी संकलन की एक अन्य भावनात्मक कहानी लातूर में आयी भूकंप की भयावह आपदा और उसके बाद की उन परिस्थितियों की बात कहती है। जिनमें दिल्ली के क्षितिज की प्रेरणा से उसके साथ तीन और दोस्त मिल कर राहत कार्य के लिए मिलेट्री..प्रशासन एवं स्थानीय लोगों की मदद से घायलों..वंचितों का सहारा..संबल बनने का प्रयास करते हैं। इस सबके बीच क्षितिज का भूकंप में अपने माँ बाप गंवा चुकी वंदना से एक आत्मीय रिश्ता बन रहा है जिसके तहत क्षितिज उसे इलाज के लिए अपने साथ दिल्ली चलने के लिए कहता है। मगर क्या वंदना का एक निपट अनजान व्यक्ति पर भरोसा कर..उसके साथ अकेले दिल्ली तक चले जाना सही रहेगा जिसे वह अभी कुछ दिनों पहले तक जानती भी नहीं थी? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी इस सत्य की तस्दीक करती नज़र आती है कि किसी अपने के अचानक चले जाने से हम दुःखी हो..लाख शोक मना सकते हैं मगर उसके साथ उसी दुख में शरीक हो..मर नहीं सकते। साथ ही ऐसे शोक के दुख भरे मौके पर भी हमारे शरीर को ज़िंदा रहने के लिए ईंधन के रूप में भोजन की आवश्यकता होती है जिसे किसी भी कीमत पर लंबे समय के लिए नकारा नहीं जा सकता।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में बैंकिंग में PO के लिए होने वाले साक्षात्कार के दौरान इंटरव्यू लेने वाले अफ़सर की निगाह में चुने जाने वाले अभ्यर्थी को ले कर कुछ असामान्य या अनियमित सा खटकता है। शक़ होने पर वह उसके डॉक्युमेंट्स की फिर से वैरिफिकेशन के लिए आगे सिफ़ारिश कर देता है। गोपनीय जाँच से पता चलता है कि  अनजाने में ही पुलिस के हाथ एक बड़ी मछली लग गयी है।

इसी संकलन की एक कहानी बिजली ट्रांसफार्मर के फुंक जाने पर स्थानीय निवासियों के द्वारा रेलवे ट्रैक पर धरना दे..हंगामा मचाते हुए पूरे आवागमन को पंगु बना देने की बात करती है। जिसमें हड़बड़ाए अफ़सर आनन फानन में इधर का माल इधर करने की तर्ज़ पर एक जगह का ट्रांसफार्मर उखड़वा कर दूसरी जगह लगवा देते हैं। इसके बाद आरोप प्रत्यारोप की झड़ी के बीच अपने मातहतों को गरियाते हुए अफ़सर आपदा में अवसर ढूँढ नए भ्रष्टाचार की नींव रख देते हैं। 

इसी संकलन में कहीं प्रेम..प्यार..विश्वास की सीधी डगर पर चलती हुई रोमानी कहानी अचानक छल..फरेब और धोखे की फिसलन भरी रपटीली राह पर चल पड़ती है। क्या आगे चल कर उनकी ज़िन्दगी में पुनः स्नेह..मोह का समतल रास्ता आ पाएगा? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में मजबूरीवश खेत गिरवी रख कर्ज़ लिए गए रुपए को वापिस ना चुका पाने की स्थिति में एक किसान को अपमानजनक परिस्थितियों में परिवार समेत गाँव छोड़..शहर में अपना ठोर ठिकाना बनाना पड़ता है। बाद में बच्चों के पढ़ लिख लेने और साधन संपन्न हो जाने के बाद उस घर का बेटा क्या गाँव में उनके हुए अपमान को भूल..सब कुछ जस का तस चलने देगा अथवा अपमान की आग में जलते अपने चित्त को शांत करने का जतन करेगा? यह सब जानने के लिए तो आपको इस रोचक कहानी संकलन को पढ़ना होगा।

भाषा की रवानगी के लिहाज़ से अगर देखें तो धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी सभी कहानियाँ अंत तक अपनी पकड़ बनाए चलती हैं। मगर 'मेरे भगवान' नामक कहानी मुझे अति भावुकता की शिकार एवं 'ट्रेन..बस और लड़की' तथा 'छद्म' नामक कहानियों में कहानियों जैसी कोई बात नहीं लगी।

अब अगर प्रूफरीडिंग की कुछ कमियों की बात करें तो पेज नंबर 25 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'अब विनीत का मोबाइल एक किनारे रख उठा था और फिर उसने बार से निकलकर होटल आने तक मोबाइल उठाया ही नहीं।'

यह वाक्य सही नहीं बना क्योंकि इसके पहले हिस्से में लेखक बताना चाह रहा है कि..'बार में विनीत, फोन को एक किनारे रख चुका था।' इसके बाद के हिस्से में लेखक ने बताया कि 'बार से होटल आने(?) तक उसने फोन उठाया ही नहीं।

अब पहले तो यहाँ यही बात क्लीयर नहीं हो रही कि 'विनीत, होटल से बार आया है' या फिर 'बार से होटल आया या गया है।' पहले की परिस्थिति को अगर देखें तो विनीत अपने दोस्तों के साथ बार में बैठा हुआ है और उसने वहीं अपना फोन एक किनारे पर रखा था लेकिन इसके बाद इसी वाक्य में आगे बताया गया कि वह 'बार से होटल आया' जबकि वह असल में 'होटल से बार में आया है।' खैर..यहाँ साहूलियात से समझने के लिए हम यह मान लेते हैं कि "विनीत, बार से होटल गया।"

मगर इसके बाद दिमाग़ मथने को एक सवाल और उठ खड़ा होता है कि..फोन साइड में रखने के बाद विनीत ने बार से होटल जाने तक फोन उठाया ही नहीं। इससे तो ये मतलब निकल रहा है कि विनीत का फोन बार में ही छूट गया जबकि हक़ीक़त में ऐसा बिल्कुल नहीं था। 

ख़ैर.. इतनी माथापच्ची करने के बाद अगर क़ायदे से देखा जाए तो यहाँ इस पंक्ति के होने या ना होने से कोई बड़ा फ़र्क नहीं पड़ने वाला था।

😊

कुछ जगहों पर मुझे वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों मसलन..

** सिफान- शिफॉन
** सिकन- शिकन
** मंझा- मांझा के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला।


इसके आगे बढ़ने पर पेज नंबर 114 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'पिछले 10 सालों में दुकान की अच्छी शाख हो गयी थी और अब उसकी अच्छी आमदनी थी।'

यहाँ 'अच्छी शाख हो गयी थी' के बजाय 'अच्छी साख हो गयी थी' आएगा। 

** कुछ लेखक आमतौर पर एकवचन- बहुवचन तथा स्त्रीलिंग- पुल्लिंग के बीच के फ़र्क को सही से नहीं पकड़ पाते हैं। ऐसी ही कुछ कमियां इस संकलन में भी दिखाई दी। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 93 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'डी.आर.एम साहब ने सरसरी निगाह से पूरी कथा पढ़ डाला।'

यहाँ 'कथा पढ़ डाला' के बजाय 'कथा पढ़ डाली' आएगा। हाँ.. अगर कथा के बजाय यहाँ उपन्यास पढ़ने की बात होती तो यकीनन 'उपन्यास पढ़ डाला' ही आता।

** इसी तरह पेज नंबर 108 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'मालदहिया, किसूली, बहेरिया, मिट्ठू, गोलिया, जैसे विभिन्न नाम आम के पेड़ों को गाँव वालों ने दे रखा है।'

अब जब आम की किस्मों की संख्या एक से ज़्यादा है तो इसमें 'गाँव वालों ने दे रखा है' की जगह 'गाँव वालों ने दे रखे हैं' आएगा। 

**इसके बाद पेज नंबर 113 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"तुमने खेत गिरवी रखे हैं, इसलिए अब तुम्हारा उन पर कोई दावा नहीं बनता।"

इसके बाद इसी पैराग्राफ है और आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'स्वयं से, समाज से एक बड़ी ग्लानि की बाधा तय करनी है इस सौदा को पूरा करने के लिए।'

यहाँ ' इस सौदा को पूरा करने के लिए' के बजाय 'इस सौदे को पूरा करने के लिए आएगा। 

** तथ्यात्मक ग़लती के रूप में मुझे पेज नम्बर 108 में लिखा दिखाई दिया कि.. 

'उत्तर प्रदेश के नक्शे में 'सहरसा' केवल एक बिंदु भर हो सकता है।' 

लेकिन जहाँ तक मुझे जानकारी है उसके हिसाब से 'सहरसा' उत्तर प्रदेश में नहीं बल्कि बिहार में आता है। हो सकता है कि इसी नाम का कोई और इलाका उत्तर प्रदेश में भी हो लेकिन अगर ऐसा है उसे इसी कहानी में साफ़ साफ़ मेंशन किया जाना चाहिए था।  

हालांकि यह उम्दा संकलन मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है 'साहित्य संचय' ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटेंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को शुभकामनाएं।


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