वाया मीडिया- गीताश्री

सतही लेखन में क्या होता है कि विषय पर इधर उधर से थोड़ा बहुत मालूमात करो और फिर तुरत फुरत में उस पर अपनी कलम घसीटी कर जय राम जी की करते हुए आप उससे निज़ात पा लो लेकिन अगर किसी भी विषय पर आपको व्यापक रूप से तथ्यों एवं प्रमाणिकता के साथ लिखना है तो  उस पर आपका गहन शोध या फिर सालों का तजुर्बा बहुत मायने रखता है। ऐसा ही अनुभव एवं शोध झलकता है जब आप गीताश्री जी का उपन्यास "वाया मीडिया"  पढ़ने के लिए उठाते हैं। शुरू के पन्नों से ही उपन्यास अपनी पकड़ बनाता हुआ चलता है और अंत तक पाठक को कहीं भी निराश नहीं करता है। 

इस उपन्यास में नायिका के माध्यम से उन्होंने एक तरह से प्रिंट मीडिया की ढकी छिपी..अच्छी-बुरी सब तरह की परतों को उधेड़ कर रख दिया है। ऊपर से चकाचक चमकते हुए इसके खोल के पीछे की दुनिया कितनी गंदी, कितनी मतलबी, कितनी मौकापरस्त है...यह इस उपन्यास को पढ़ कर जाना जा सकता है। इस उपन्यास के ज़रिए उन्होंने दिखाया है कि किस तरह जोश से भरपूर..कुछ करने का माद्दा रखने वाले...नए भर्ती हुए पत्रकारों  के अरमानों, महत्त्वाकांक्षाओं एवं लगन पर उनके ही वरिष्ठों द्वारा किस तरह कुठाराघात किया जाता है। 

किस तरह महिला पत्रकारों के साथ भेदभाव कर उन्हें जानबूझ कर ऐसे मुश्किल काम सौंपे जाते हैं कि जिन्हें करना नामुमकिन तो नहीं लेकिन हाँ..मुश्किल बहुत होता है। सॉफ्ट टार्गेट समझ कर उन्हें कभी भावनाओं के द्वारा तो कभी सरासर दबंगई के ज़रिए इस तरह निशाना बनाया जाता है कि वे हार मान घुटने टेकने को मजबूर हो जाएँ।

स्वार्थवश वरिष्ठों द्वारा अपना उल्लू सीधा करने की नीयत से एक महिला पत्रकार को नीचा दिखाते हुए जानबूझ कर दूसरी महिला पत्रकार को पदोन्नति के अधिक तथा उत्तम अवसर प्रदान किए जाते हैं। तब प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप उत्पन्न हुई कुदरती डाह के चलते वे कठपुतली के माफ़िक उनके इशारों पर चलने लगती हैं जो उनसे फायदा उठाना चाहते हैं। 

प्रवाहमयी भाषा के साथ रोचकता एवं उत्सुकता बनाए रखते हुए पूरा उपन्यास कहीं पर भी अपनी तयशुदा मंज़िल से भटकता नहीं है। प्रिंट मीडिया को अंदर से जानने के इच्छुक पाठकों के लिए यह एक रोचक शैली में लिखा गया जानकारी से परिपूर्ण...दस्तावेजी टाइप का उपन्यास है जिसमें भावनाओं के साथ साथ साजिशों एवं चालाकियों का भी प्रचुर मात्रा में समावेश है। आने वाले समय में  निर्धारित लक्ष्य को लेकर लिखा गया उनका यह उपन्यास इस क्षेत्र में अगर मील का पत्थर भी साबित हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। 

183 पृष्ठीय इस समय और पैसा वसूल टाइप के संग्रणीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है वाणी प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹225/- जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से बिल्कुल भी ज़्यादा नहीं है। आने वाले भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

1 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

उपन्यास के प्रति उत्सुकता जगाता आलेख। पढ़ने की कोशिश रहेगी। गीताश्री जी की कुछ पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं और वह मुझे पसंद आई हैं।

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz