ग़द्दार- राकेश अचल

किसी भी काम को करने या ना करने के पीछे हर एक की अपनी अपनी वजहें..अपने अपने तर्क..कुतर्क हो सकते हैं। साथ ही यह भी ज़रूरी नहीं कि हमारे किए से दूसरा भी हमारी ही तरह सहमत हो या हम भी दूसरे के किए से उसी की तरह इत्फ़ाक रखते हों। अपनी अपनी जगह सभी खुद को सही और दूसरे को ग़लत समझते हैं। जैसे कि अगर रामायण का उदाहरण लें तो जो श्रूपनखा के साथ लक्ष्मण ने किया, उसे लक्ष्मण ने सही माना जबकि शूर्पणखा ने ग़लत या फिर रावण ने सीता का हरण करते वक्त खुद को सही माना जबकि राम समेत बहुतों ने इसे ग़लत करार दिया। इसी तरह विभीषण ने राम का साथ दे कर खुद को सही माना जबकि रावण, मेघनाथ और कुम्भकरण समेत कइयों ने इसे ग़लत करार दे, उसे ग़द्दार तक कह दिया। याने के अपने अपने नज़रिए से सभी खुद को सही और दूसरे को ग़लत मानते हैं।

ऐसा ही एक दृष्टांत सुनने एवं पढ़ने को मिलता है जब हम सन 1858 में ग्वालियर रियासत के महाराज रहे 23 वर्षीय जयाजी राव सिंधिया की बात करते हैं। उस जयाजी राव सिंधिया की जिन्हें पूरा देश तब से ले कर आज तक इस वजह से ग़द्दार कहता आया है कि अँग्रेज़ों के साथ युद्ध में उन्होंने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का साथ देने के बजाय अँग्रेज़ों का साथ दिया। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ऐसा कर के उन्होंने सही किया अथवा ग़लत।

दोस्तों..आज मैं एक ऐसे लघु उपन्यास के बारे में बात करने जा रहा हूँ जिसमें महाराज जयाजी राव सिंधिया के नज़रिए से उस समय के पूरे घटनाक्रम का वर्णन किया गया है। इसे लिखा है राकेश अचल ने। देश के विभिन्न अखबारों के अतिरिक्त आज तक चैनल पर काम कर चुके राकेश अचल जी की इससे पहले कई किताबें आ चुकी हैं।
 
इस उपन्यास के मूल में एक तरफ कहानी है ग्वालियर और झाँसी के मध्य स्थित एक अन्य रियासत 'दतिया' के उस बालक भागीरथ की जिसे 8-10 वर्ष की उम्र में ही ग्वालियर रियासत का भावी वारिस मान उसके पिता सरदार हनुमंत राव से इसलिए गोद ले लिया गया कि ग्वालियर के महाराज जनकोजी राव और महारानी ताराबाई का अपना कोई पुत्र नहीं था जो उनके बाद गद्दी संभाल सके। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है ताकत और बुद्धि के बल पर देश की विभिन्न रियासतों को अपनी उंगलियों पर नचाने को आमादा ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके उन शातिर अफ़सरान की जिनका हस्तक्षेप रियासतों की दैनिक कार्यप्रणाली एवं कार्यपद्धति पर बढ़ता ही जा रहा था। 

इस उपन्यास में कहानी है महाराज जयाजी राव सिंधिया की बेबसी..असमंजस और लाचारी भरे पशोपेश की कि एक तरफ़ उन पर अँग्रेज़ अफसर मेजर जनरल कपर्सन का दबाव और दूसरी तरफ़ राज्य के दीवान दिनकर राव राजवाड़े की मनमानी। जयाजी राव सिंधिया के द्वारा किए जाने वाले तमाम फैसलों के पीछे दरअसल इन्हीं दोनों का हाथ था। 
अब ग्वालियर की दुविधा ये है कि वो लक्ष्मीबाई की मदद कर अँग्रेज़ों के कोप का भाजन बने या फिर अपने पूर्वजों की भांति शरणागत की रक्षा करने के लिए अँग्रेज़ों के साथ युद्ध में अपनी सेनाएँ भी झोंक दी। 

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस लघु उपन्यास के प्रारंभ में लेखक ने प्रसिद्ध कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी' दी है जो इस लघु उपन्यास को और ज़्यादा प्रभावी बनाती है। प्रूफरीडिंग के स्तर पर कुछ छोटी छोटी ग़लतियाँ दिखाई दी जैसे कि..

पेज नंबर 78 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'राजमाता बैजाबाई डेढ़ दशक तक सत्ता में वापस आने के लिए भटकरती रही।'

यहाँ 'भटकरती रही' की जगह 'भटकती रही' आएगा।

इसी तरह पेज नंबर 83 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'राजमाता ने बताया कि एक लेखिका फ़ैनी पार्केस उन्हें वहाँ मिली। फ़ैनी ने मराठा पोशाक पहन कर मराठा शैली में घुड़सवारी कर उन्हें आशीर्वाद दिया।'

यहाँ 'फ़ैनी' ने मराठा पोशाक पहनीं राजमाता की घुड़सवारी देख उन्हें आशीर्वाद दिया है जबकि इस वाक्य से भान हो रहा है कि फ़ैनी ने स्वयं ही मराठा पोशाक पहन कर घुड़सवारी की और राजमाता को आशीर्वाद दिया। अतः सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'फ़ैनी ने मराठा पोशाक पहन उन्हें मराठा शैली में घुड़सवारी करते देख कर आशीर्वाद दिया।'

आगे बढ़ने पर पेज नंबर 86 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जून महीने का पहल सप्ताह ऊहापोह में निकला।'

यहाँ 'पहल सप्ताह' के बजाय 'पहला सप्ताह' आएगा।

यूँ तो यह रोचक उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर फिर भी मैं अपने पाठकों की जानकारी के लिए बताना चाहूँगा कि 110 पृष्ठीय  इस बढ़िया उपन्यास के पैपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 160/- जो कि कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा नहीं है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को ढेरों ढेर शुभकामनाएं।

अपनी सी रंग दीन्ही रे- सपना सिंह

देशज भाषा..स्थानीयता और गांव कस्बे के हमारे आसपास दिखते चरित्रों से सुसज्जित स्त्रीविमर्श की कहानियों की अगर बात हो तो इस क्षेत्र में सपना सिंह एक उल्लेखनीय दखल रखती हैं। कई प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं तथा अंतर्जाल में छपने के अलावा उनके अब तक तीन एकल कहानी संग्रह और एक उपन्यास के अतिरिक्त उनके संपादन में वर्जित कहानियों का एक साझा संकलन 'देह धरे को दंड' भी आ चुका है। 

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ हमारे समय की समकालीन लेखिका सपना सिंह के नवीतम कहानी संग्रह 'अपनी सी रंग दीन्ही रे' की। स्त्री विमर्श और उससे जुड़े विभिन्न मुद्दों को अपने केंद्र में समेटे इस संकलन की शुरुआती कहानी मे एक युवती अपनी मान प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए किसी की पत्नी होते हुए भी, बिना किसी रिश्ते के, किसी अन्य युवक की बस नाम के लिए रखैल बनना स्वीकार कर लेती है। 

तो कहीं किसी कहानी में 'ना घर का ना घाट का' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए अवैध संबन्धों की अंतिम परिणति के रूप में दर्शाया गया है। इसी संकलन की एक अन्य कहानी कामवाली बाइयों पर हमारी निर्भरता जैसे आम मुद्दे के साथ साथ नशे की लत और उसके पीछे की वजहों जैसे विस्तृत एवं व्यापक मुद्दे पर भी नयी सोच और अलहदा नज़रिए से हमें सोचने को मजबूर करती है।

कहीं किसी कहानी में अपनी बड़ी बहन की असमय मृत्यु के बाद उसके छोटे छोटे बच्चों का ख्याल कर के ममतावश छोटी बहन अपने ही जीजा से ब्याह करने के लिए हामी भर देती है
मगर क्या पढ़ी लिखी, कमाऊ एवं ममतामयी होने के बावजूद उसे, उस घर में कभी माँ का दर्ज़ा मिल पाता है अथवा वह उन सबके साथ साथ अपने इकलौते बेटे के लिए भी महज़ एक दुधारू गाय बन कर रह जाती है?

तमाम विस्मय एवं आश्चर्य के किसी दिन कहानी में एक कम पढ़ी लिखी औरत अचानक फर्राटेदार अँग्रेज़ी बोलना शुरू कर देती है। तो घर के सदस्यों का एकदम चौंकना लाज़िमी हो जाता है। 

इस संकलन की कोई कहानी लड़के की चाह में कोख में ही होते लड़कियों के कत्ल की बात के साथ साथ देश दुनिया की तमाम बढ़ती आबादी और आसमान छूते खर्चों की बात करती है। जिसकी वजह से आज के युवा, पुरानी वंशवृद्धि वाली सोच को दकियानूसी करार दे..अब बस एक बच्चे में ही यकीन कर रहे हैं। मगर ऐसे भी लोगों की कमी नहीं जो ज़िम्मेदारी से बचने की चाह में एक भी बच्चा नहीं चाहते।  सपना सिंह जी की कहानी मानवता के लिए एक ऐसे ही बड़े खतरे की तरफ अभी से इशारा कर रही है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में औसत रंग रूप की एक 48 वर्षीय अध्यापिका को जब, अपनी कमाई पर, अपना हक़ चाहने की वजह से उसका पति छोड़ देता है। उसे अब कोई और उसके बच्चे समेत अपनाना चाहता है तो काफी झिझक..असमंजस और नानुकर के बाद वो आगे बढ़ने का फैसला करती है।

शीर्षक कहानी 'अपनी सी रंग दीन्ही रे' 
शुरुआती बिखराव के बाद अपनी पकड़ बना तो लेती है मगर इसमें काफ़ी किरदारों की कन्फ्यूज़ करती भरमार दिखी। जिनमें से कुछ की बिल्कुल भी आवश्यकता ही नहीं थी। इसके अतिरिक्त कहानी में गडमड करते किरदारों के आपसी रिश्तों को ठीक से समझने के लिए भी काफ़ी मशक्क़त करनी पड़ी। अगर यहाँ साथ में फ्लो चार्ट दिया जाता तो ज़्यादा बेहतर था। 

किसी भी रचना के सही संदर्भ एवं मायने में उसके पाठकों तक जस का तस पहुँचने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि उसमें वर्तनी की त्रुटियाँ बिल्कुल ना हों। इसके अतिरिक्त अल्पविराम, पूर्णविराम जैसे ज़रूरी चिन्ह भी सही जगह पर सही मात्रा में लगे हों। इस लिहाज से अगर देखें तो इस संकलन में प्रूफरीडिंग की कमी के चलते 
बहुत सी जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ दिखाई दी। इसके अतिरिक्त अलग अलग किरदारों के संवाद भी इनवर्टेड कौमा में नहीं दिखे। बहुत सी जगहों पर पूर्णविराम, अल्पविराम इत्यादि के चिन्ह भी नदारद दिखे। इन सब कमियों की तरफ ध्यान दिया जाना बेहद ज़रूरी है। 

96 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

शोमैन राज कपूर- रितु नंदा

कहा जाता है कि किसी को हँसाना सबसे मुश्किल काम है और वही लोग सबको हँसा पाते है जो स्वयं भीतर से बहुत दुखी होते है। सबको हँसा हँसा कर लोटपोट कर देने वाले महान अभिनेता चार्ली चैप्लिन ने भी एक बार कहा था कि..

"मैं अक्सर बारिश में भीगना पसंद करता हूँ कि उस वक्त कोई मेरे आँसू नहीं देख पाता है।"

दोस्तों..आज मैं आपके समक्ष चार्ली चैप्लिन को अपना आदर्श मानने वाले बॉलीवुड के एक ऐसे दिग्गज अभिनेता, निर्देशक, एडिटर, प्रोड्यूसर के बारे में लिखी गयी किताब के बारे में बात करने जा रहा हूँ जो कभी हमारे समक्ष शोमैन बन कर...तो कभी 'आवारा' बन कर तो कभी 'श्री 420' बन कर या फिर 'छलिया' बन कर हम सबके दिलों पर राज करता आया है। 

जी!...हाँ.. सही पहचाना आपने..मैं हरदिल अज़ीज़ अभिनेता राजकपूर के बारे में लिखी गयी उनकी एक ऐसी जीवनी की बात कर रहा हूँ जिसे शब्दों का जामा पहना..उनकी अपनी ही बेटी 'रितु नंदा' ने मूर्त रूप दिया है। 

जिस तरह 'चार्ली चैप्लिन' ने अपनी फिल्मों में एक तरफ़ लोगों को जी भर हँसाया तो वहीं दूसरी तरफ़ अपनी हर फिल्म में उन्होंने समाज में व्याप्त विभिन्न विसंगतियों एवं सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को भी ज़ोरदार ढंग से उठाया। कमोबेश यही सब बातें बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता, निर्देशक, एडिटर, प्रोड्यूसर राजकपूर पर भी लागू होती हैं कि सामाजिक सरोकारों से जुड़ी अपनी फिल्मों में उन्होंने खुद की इमेज एक मसखरे..एक जोकर के रूप में डवैल्प की और लोगों को जहाँ एक तरफ़ जी भर हँसाया तो वहीं दूसरी तरफ़ अहम मुद्दों के बारे में संजीदा हो कर सोचने को भी मजबूर किया।

इस किताब में कहीं अपने बचपन की यादों को ताज़ा करते हुए राजकपूर अपने चटोरेपन के बारे में बात करते नज़र आते हैं कि किस तरह दो आने का जेब खर्च भी उनके खाने के शौक के आगे कम पड़ जाता था और वे एक के बाद एक अलग अलग दुकानों से उधार ले कर खाना चालू कर देते थे। जब तक कि वह स्वयं ही उन्हें उधार देना बंद ना कर दे।

इसी किताब में एक जगह राजकपूर अपनी फिल्मों के चयन पर बात करते हुए नज़र आते हैं कि उन्होंने अपनी फिल्मों में कभी भी अपने गोरे रंग और नीली आँखों को बतौर खूबसूरती नहीं भुनाया अपितु इसके ठीक उलट वे अपनो फिल्मों में आम आदमी के उस तरह के किरदार निभाते रहे जिनसे देश की आम जनता उन्हें अपने में से ही एक समझ सके..कनैक्ट कर सके।। 

इस किताब में कहीं उनके कम पढ़े लिखे होने के की बात पता चलती है तो कहीं फिल्मों को ले कर उनकी ग़हरी समझ..ललक एवं प्रतिबद्धता के बारे में पता चलता है। कहीं फिल्मों के प्रति उनके जज़्बे और ज़ुनून के बारे में जानकारी मिलती है कि किस तरह साधन-संसाधन ना होने के बावजूद भी उन्होंने बतौर निर्माता, निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म 'आग' फ़िल्म का निर्माण कर दिखाया। जबकि उस वक्त स्वयं उनकी माँ अपने पति याने के राजकपूर के पिता, पृथ्वीराज कपूर से कटाक्ष स्वरूप यह व्यंग्योक्ति कहती थी कि..

"तुम थूक में पकोड़े नहीं तल सकते।"

अर्थात बिना साधनों और पैसे के कभी फ़िल्म नहीं बना सकते। मगर उनके पिता ने राजकपूर पर विश्वास जताते हुए दावा किया कि मेरा बेटा फ़िल्म बना कर रहेगा।

इसी फिल्म से जुड़े एक अन्य संस्मरण में पता चलता है कि राजकपूर अपनी आधी बनी फिल्म 'आग' के प्रिंट ले कर एक वितरक से दूसरे वितरक के यहाँ धक्के खाते थे कि कोई उनकी फिल्म खरीदने के लिए तैयार हो जाए मगर फ़िल्म के प्रिव्यू देख कर जहाँ एक तरफ़ सभी वितरकों से अपने हाथ खड़े कर दिए कि..'ये एक बेकार..वाहियात फ़िल्म है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य वितरक ने फ़िल्म के बजाय उनकी काबिलियत पर अपना विश्वास जताया और बतौर फ़िल्म के सौदे के उन्हें चाँदी का एक सिक्का एडवांस स्वरूप दिया। इसी विश्वास के बलबूते पर उस वितरक राजकपूर की फिल्में जीवनपर्यंत मिलती रही।

इसी किताब में कहीं अपनी फिल्मों के ज़रिए खुद पर अश्लीलता फैलाने के आरोपों के मद्देनजर वे यह स्वीकारोक्ति करते हुए नज़र आते हैं कि उन्हें अपनी माँ, जो कि काफ़ी खूबसूरत थी, के साथ बचपन में कई बार नहाते हुए उन्हें निर्वस्त्र देखने का मौका मिला। जिससे उनके ज़हन में खूबसूरत महिलाओं की वैसी ही इमेज कैद हो कर गयी। इसी वजह से फिल्में बनाते वक्त नायिकाओं की खूबसूरती को दर्शाने का यह उनका एक तरीका हो गया कि उन्हें कम वस्त्रों में या फिर बारिश में भीगते अथवा स्नान करते हुए दिखाया जाए। 

फिल्मों के प्रति उनके ज़ुनून की एक अन्य कड़ी के रूप में 'शशि कपूर' के बेटे 'कुणाल कपूर', राजकपूर के बारे में बात करते हुए बताते हैं कि 'आवारा' फ़िल्म की शूटिंग के दिनों में वे बादलों से संबंधित एक दृश्य फिल्माना चाहते थे लेकिन उन्हें उसका सही तरीका नहीं सूझ रहा था। उन्हीं दिनों एक बार उनके 'आर.के.स्टूडियो' में अचानक आग लग गयी तो लोग बाल्टियों में पानी ला ला कर आग बुझाने का प्रयास करने लगे जबकि राजकपूर ने अग्निशामक यंत्र  के ज़रिए आग बुझाने के अपने प्रयास के दौरान पाया कि इसे चलाने से धुएँ और धूल के गुबार से हवा में ठीक वैसा ही बादलों का दृश्य उत्पन्न हो रहा है जैसे वे अपनी फ़िल्म के लिए चाहते थे। बस फिर क्या था..वे आग बुझाना भूल, उसी अग्निशामक यंत्र से खेलते हुए मन ही मन फ़िल्म के दृश्य की कल्पना करते रहे। 

इस किताब के ज़रिए अपनी फिल्मों में विश्वसनीयता की चाह रखने वाले राज कपूर के फिल्मों के प्रति ज़ुनून की बात का इस तरह पता चलता है कि वे 'श्री 420' फ़िल्म के निर्माण के दौरान सूर्यास्त के एक सीन को फिल्माने के लिए 'खंडाला' से शुरू होने के बाद वहाँ से सैकड़ों मील दूर 'ऊटी' तक अपनी पूरी यूनिट के साथ पहुँच गए थे जब तक कि उन्हें, उनकी फिल्म के लिए  परफेक्ट शॉट नहीं मिला। इसी तरह फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के लिए उन्होंने अपनी साँस की दिक्कत के बावजूद उसे गंगा के उद्गम स्थल याने के 'गंगोत्री' में ही फिल्माने का निर्णय लिया जबकि वे यह भली भांति जानते थे कि ऊँचाई वाले स्थानों पर जाने से उनकी साँस की दिक्कत और ज़्यादा बढ़ने वाली है। 

इसी किताब में और आगे बढ़ने पर पता चलता है कि फ़िल्म बनाने के ज़ुनून में अपना सब कुछ झोंक देने वाले राजकपूर को अक्सर आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा मगर बाज़ार के चक्कर में उन्होंने कभी भी अपनी रचनात्मकता अथवा अपनी रचनाधर्मिता से समझौता नहीं किया और हर फिल्म..हर हाल में वैसी ही बनाई जैसी वे उसे बनाना चाहते थे। 

फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के निर्माण के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ कि वे अपने सभी वितरकों से पूरे पैसे एडवांस में ले चुके थे और फ़िल्म का काम अभी पूरा नहीं हुआ था कि बैंक से कुर्की की चेतावनी आने लगी। लेकिन वितरकों के इनके काम..इनके हुनर पर विश्वास होने की वजह से सबने जैसे तैसे मिल कर इस दिक्कत को दूर किया और अब तो खैर.. इतिहास गवाह है कि 'राम तेरी गंगा मैली' उस साल की सबसे बड़ी हिट साबित हुई। 

इसी किताब में सुपरहिट फिल्म 'संगम' से जुड़े एक रोचक संस्मरण में राजकपूर बताते हैं कि 'संगम' फ़िल्म को मूलतः 'घरौंदा' के नाम से लिखा गया था और इसी फिल्म के लिए राज कपूर चाहते थे कि एक खास हीरोइन उनकी इस फिल्म में काम करे जो कि उस वक्त मद्रास में किसी अन्य फ़िल्म की शूटिंग कर रही थी। उन्होंने उसे तार भेजा कि..

'बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं?'

कुछ दिनों बाद प्रत्युत्तर में जवाब आया कि..

'होगा..होगा..होगा।'

जिस वक्त यह तार आया उस समय गीतकार शैलेंद्र राज कपूर के साथ बैठे थे और उन्होंने तुरंत इस गीत को लिखा कि..

'मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमना का..बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं'

 प्रत्युत्तर में नायिका कहती है कि..
 
'होगा..होगा..होगा।'


इसी किताब में एक जगह गायक 'नितिन मुकेश' 'राजकपूर' को याद करते हुए बताते हैं कि किस तरह उनके पिता गायक 'मुकेश' का निधन हो जाने के बाद राज कपूर ने उनकी तथा उनके परिवार की मदद की। उन्हें अपनी फिल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम' में गाने का मौका दिया जिसकी वजह से उनके नाम के साथ यह जुड़ गया कि नितिन मुकेश ने राजकपूर की फिल्म के लिए गाना गाया है। साथ ही एक बार नितिन मुकेश के एक म्यूजिकल शो में अध्यक्ष बनने के लिए उन्होंने अपनी उस दिन की शूटिंग तक रोक दी थी कि इस कार्यक्रम से नितिन मुकेश को इतने पैसे मिल जाएँगे कि उसके घर का एक साल तक का खर्चा बड़े आराम से निकल जाएगा। इसी संस्मरण में नितिन मुकेश आगे बताते हैं कि औरों की देखा देखी उनके पिता गायक मुकेश ने भी वितरक बनने की ठानी और 'मेरा नाम जोकर' फ़िल्म के राजस्थान के अधिकार खरीद लिए। जिसमें उन्हें बुरी तरह से नुकसान झेलना पड़ा और जिसकी भरपाई बाद में राज कपूर ने अपनी फिल्म 'बॉबी' के सुपरहिट हो जाने के बाद की जबकि मुकेश का बॉबी फिल्म से कोई लेना-देना भी नहीं था।

संस्मरणों से जुड़ी इस किताब में राजकपूर के बारे में बात करते हुए देव आनंद बताते हैं कि किस तरह वे अपनी खोज, 'ज़ीनत अमान' को 'राजकपूर' के द्वारा उनके सामने ही किस किए जाने से आहत हो उठे थे जबकि उस समय तक वे उसके प्रेम में पड़ चुके थे और उसे अपने दिल की बात बताना चाहते थे। उन्होंने 'ज़ीनत अमान' को प्रपोज़ करने के लिए दिन.. जगह और समय भी तय कर लिया था। मगर उससे ठीक एन पहले एक पार्टी में उन्हें यह देख कर झटका लगा कि उनकी नायिका, ज़ीनत तो राजकपूर की फ़िल्म, 'सत्यम शिवम सुंदरम' के लिए अपना स्क्रीन टैस्ट भी दे चुकी है और उनके साथ काम करने के लिए उतावली हुई जा रही है। 


इसी किताब में एक जगह लता मंगेशकर, राजकपूर के बारे में बात करते हुए बताती हैं कि उन्होंने याने के राजकपूर ने खुद उनसे, उनके भाई 'हृदयनाथ मंगेशकर' को फ़िल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम' का संगीत तैयार करने के लिए कहा था जबकि उनके भाई की इसमें बिल्कुल भी रुचि नहीं थी। बड़ी मुश्किल से उनके भाई इसके लिए तैयार हुए और जब फ़िल्म का संगीत लगभग अपने अंतिम चरणों पर था तो अचानक उन्हें पता चला कि फ़िल्म 'हृदयनाथ मंगेशकर' के बजाय संगीतकार 'लक्ष्मीकांत- प्यारेलाल' की जोड़ी को दे दी गयी है। इस वजह से लता मंगेशकर, राजकपूर से बेहद खफ़ा रही और उन्होंने राजकपूर की फिल्मों के लिए गाने तक से इनकार कर दिया। साथ ही उन्होंने उनसे अपने गए गानों के बदले रॉयल्टी माँगनी भी शुरू कर दी। ख़ैर.. बाद में काफ़ी मान मनौव्वल के बाद वे अपनी शर्तों पर मानी और उन्होंने बहुत नखरों और लंबे समय तक लटकाने के बाद आखिरकार उनकी फिल्मों के लिए फिर से गाना शुरू किया।


इसी किताब में रशिया और चीन में राजकपूर की फिल्मों को मिली अपार सफलता  के बारे में पता चलता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्टॅलिन के नेतृत्व में 14 अलग अलग गणतंत्रों को मिला कर बने सोवियत संघ ने एक तरह से खुद को बाहरी दुनिया से अलग थलग कर लिया था। 1954 में पहली बार अपने खोल से बाहर निकल कर सोवियत संघ ने भारतीय फिल्मकारों को लेखक..निर्देशक 'ख्वाजा अहमद अब्बास' के नेतृत्व में उनके यहाँ आ..अपनी फिल्मों के प्रदर्शन करने के लिए आमंत्रित किया। जिनमें एक सदस्य के रूप में राजकपूर भी शामिल थे। उससे पहले सोवियत संघ के सिनेमा और टेलिविज़न पर सरकारी नियंत्रण होने की वजह से सिर्फ वही दिखाया जाता था जो वहाँ की सरकार चाहती थी।  वहाँ की आम जनता ने जब प्यार मोहब्बत, गीत संगीत और नृत्य से भरी हमारे यहाँ की फिल्में देखी तो वे उन पर दीवानों की तरह टूट पड़े। एक समय वहाँ पर राजकपूर के प्रति लोगों की दीवानगी इतनी ज़्यादा बढ़ गयी कि हमारे प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू तक उनसे रश्क करने लगे। 

इसी किताब में यश चोपड़ा, राजकपूर की प्रसिद्धि के बारे में बात करते हुए बताते हैं कि 1976 में रूस में हुए ताशकंद फिल्म समारोह के दौरान उन्होंने पहली बार किसी भारतीय को दूसरे देश में इतना ज़्यादा सम्मानित होते हुए देखा मानो वे उनकी धरती के सम्राट हों। जहाँ एक तरफ़ बाकी सभी फिल्मकारों के लिए विशेष बस का प्रबंध था मगर राज कपूर को एक निजी कार और एक दुभाषिया प्रदान किया गया था। इसी तरह जहाँ बाकी सभी फिल्मकारों को लंच और डिनर के लिए नाम लिखवाने पर खाने के कूपन दिए गए वहीं राजकपूर के लिए ऐसी कूपन प्रथा न थी। बाकी सभी फिल्मकारों को ताशकंद से समरकंद तक के सफर के लिए ट्रेन में एक साथ जगह दी गयी जबकि राजकपूर एक अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें एक अलग से कूपा दिया गया। उन्हीं की वजह से एक जगह फ्लाइट पर देर से पहुँचने के बावजूद भी हवाई जहाज़ तब तक उनका इंतज़ार करता रहा जब तक कि वे पहुँच नहीं गए। 

इस पूरी किताब में कहीं राज कपूर से जुड़े उनके पारिवारिक सदस्य उनके बारे में बात करते दिखे तो कहीं उनके सहकर्मी अथवा प्रतिस्पर्धी उनके साथ अपने रिश्तों के बारे में बात करते दिखाई दिए। कहीं वे स्वयं अपने पुराने साक्षत्कारों के ज़रिए अपनी फिल्मों पर बात करते दिखाई दिए। लेखिका रितु नंदा ने इस किताब के लिए राजकपूर से जुड़े हर व्यक्ति से निजी तौर पर संपर्क कर राज कपूर के प्रति उनके विचारों को सबके समक्ष रखने का श्रमसाध्य कार्य को कर के दिखाया। जिसके लिए वे बधाई की पात्र तो हैं। मगर इसके साथ ही अगर लेखिका का अपना लेखन कौशन भी पाठकों के समक्ष आता तो ज़्यादा बेहतर था।

राज कपूर के द्वारा विभिन्न पत्र पत्रिकाओं अथवा टीवी चैनलों को दिए गए उनके साक्षत्कारों को यहाँ.. इस किताब में जस का तस छाप दिया गया। जिससे उनकी फिल्मों के प्रति एक जैसी काफ़ी बातें बार बार रिपीट होती भी दिखी। राज कपूर के देखे-अनदेखे चित्रों से सुसज्जित इस रोचक किताब को मूल रूप से रितु नंदा ने अँग्रेज़ी में लिखा है और जिसका हिंदी में अनुवाद किया है 'सुरेश कुमार सेतिया' ने। अनुवाद थोड़ा और ज़्यादा बेहतर होता तो बढ़िया था। कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला।

अगर आप भारत के प्रसिद्ध निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, शोमैन राज कपूर के जीवन को नजदीक से जानना चाहते हैं तो यह किताब आपके मतलब की है। 288 पृष्ठीय इस रोचक किताब के पैपरबैक संस्कारंबको छापा है प्रभात पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 400/- रुपए। अमेज़न पर फिलहाल इसका पैपरबैक संस्करण 319/- रुपए और हार्ड बाउंड संस्करण 519/- रुपए में उपलब्ध है। अगर आप इसका किंडल वर्ज़न खरीदना चाहें तो आप इसे 303/- रुपए में खरीद सकते हैं। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक को ढेरों ढेर शुभकामनाएं।

*असका- उसका
*छत्रच्छाया- छत्रछाया
*मजबूज- मजबूर
*मुसकराया- मुस्कुराया
*पंख (मैंने ऐसा कभी नहीं किया) - पर (मैंने ऐसा कभी नहीं किया)
*महारत- महारथ
*दरशाने- दर्शाने
*दरशा- दर्शा 

SHOWMAN : RAJ KAPOOR (PB) https://www.amazon.in/dp/9353225418/ref=cm_sw_r_apan_i_GJE85VARR7FJTST7QK3M

कोई खुशबू उदास करती है- नीलिमा शर्मा

आमतौर पर मानवीय स्वभाव एवं सम्बन्धों को ले कर बुनी गयी अधिकतर कहानियों को हम कहीं ना कहीं..किसी ना किसी मोड़ पर..खुद से किसी ना किसी बहाने कनैक्ट कर लेते हैं। कभी इस जुड़ाव का श्रेय जाने पहचाने या देखे भाले किरदारों को मिलता है तो कभी इसमें किसी देखी सुनी कहानी का भी थोड़ा बहुत योगदान नज़र आता है। 

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ कई कहानी संग्रहों में बतौर संपादक अपनी धाक जमा चुकी नीलिमा शर्मा जी के प्रथम संपूर्ण कहानी संग्रह 'कोई खुशबू उदास करती है' की। स्त्री मन के विभिन्न मनोभावों एवं आयामों को अभिव्यक्त करती इस संकलन की किसी कहानी में कोरोना काल में दुबई से लौटने पर एक फैशनेबल..गुस्सैल युवती को जबरन 14 दिनों के लिए क्वरैंटाइन कर किसी छोटे से होटल में शिफ़्ट कर दिया जाता है। हताशा..निराशा और अवसाद के बीच उसका खास दोस्त भी उससे मिलने..बात करने से कतराने लगता है। ऐसे में अकेलेपन से जूझती एक दिन वो अपने घर के सीसीटीवी कैमरे में अपनी नौकरानी को, अपने ही कपड़े पहने..अपनी ही तरह मौजमस्ती करते..नाचते कूदते देख, उसे डाँटने डपटने के बजाय, उससे ही जीने के लिए संबल प्राप्त करती है मगर...

अगली कहानी बेटे की चाह में खोख में ही अजन्मी बेटियों को मार देने की प्रवृति और भविष्य में इसकी वजह से उत्पन्न होने वाले भयावह दृश्यों के प्रति अभी से हमें आगाह करती है। 

एक अन्य कहानी में एक युवती को जब अपने मायके के व्हाट्सएप ग्रुप में अपने दिवंगत पिता के खास क़रीबी..पिता समान दोस्त की तबियत खराब होने और फिर उनके देहांत की ख़बर मिलती है। अफ़सोस के लिए मायके पहुँचने पर घर के सदस्यों के आम मानवीय व्यवहार एवं धारणा के ठीक विपरीत, वो दुखी हो..अफ़सोस प्रकट करने या सांत्वना देने के बजाय हर समय पुलकित एवं खुश नज़र आती है।

एक अन्य कहानी में घर बाहर के हर काम मे अहम दखल रखने वाले अनुशासनप्रिय गुप्ता जी के घर में उनकी टोकाटाकी और धौंस भरे दबदबे की वजह से बच्चों समेत डरी सहमी रहने वाली बेढब पत्नी भी अचानक खुश रहने और, जहाँ तक संभव हो, खुद में बदलाव लाने का प्रयास करने लगती है। विवाह के इतने सालों बाद होने वाली इस बदलाव को क्या गुप्ता जी आसानी से स्वीकार कर पाते हैं अथवा...

अगली कहानी में अस्पताल की लिफ़्ट में अचानक इशिता की मुलाक़ात एक अनजान युवती रेनू से होती है जो दावा करती है कि वो उसे अपने बीमार पति शेखर की वजह से जानती है। वो शेखर, जो कि उसकी बहन की रिश्तेदारी से है और फिलहाल मृत्यु शैय्या पर लेटा उसी अस्पताल में अपनी अंतिम घड़ियों का इंतज़ार कर रहा है। शेखर का हाल जानने के लिए उसके साथ जाने पर इशिता को पता चलता है कि शेखर ने अपने मोबाइल में उसका नम्बर 'माय लाइफ' के नाम से सेव किया हुआ है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी, विवाह के बाद बेटी/बहन का असली घर कौन सा? के महत्त्वपूर्ण सवाल को उठाती है। जिसमें विवाहित बहन जायदाद में हिस्सा ना माँग ले कहीं, इस डर और आशंका में जीता हुआ युवक, मेहमान बन, घर आने वाली अपनी बहन की खास ख़ातिर करने के लिए अपनी पत्नी को निर्देश तो देता है मगर...

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अगर  अस्पताल के आई.सी.यू वार्ड में मृत शैय्या पर लेटी पत्नी को याद कर के एक बुजुर्ग, उसके साथ अपने अब तक के किए गए बुरे बर्ताव पर, पछताता हुआ पुरानी बातों को याद कर पश्चाताप की आग में जल रहा है। तो किसी अन्य कहानी में नाकारा पति से तंग आ चुकी पत्नी और अपनी अक्खड़ पत्नी से आज़िज़ आ चुके जेठ के बीच आपस में समय और हालात को देखते हुए परिस्थितिवश अवैध सम्बंध बन तो जाते हैं मगर...

प्रयोगात्मक कहानी के रूप में अनचाहे कन्या भ्रूण के गर्भ में पनपने..पलने से ले कर उसके पैदा होने और बाद में जन्म लेने वाले अपने छोटे भाई को ले कर सदा पक्षपात झेलती युवती की कहानी को उसी के माध्यम से कहने का तरीका लेखिका ने अपनाया है। जिसमें बड़े होने पर युवती अपने पैरों पर खड़े हो..अपने जीवन के फैसले खुद करने का प्रण लेती है। 

अगली कहानी में अपने हनीमून पर प्यार में अँधी नवविवाहिता, अपने पति के बार बार आग्रह पर झूठ सच कुछ भी बोल कर उसे अपने क्रश के बारे में अनाप शनाप बता देती है। नतीजन.. शादी के बरसों बाद भी उसका शक्की पति हर बात में उसे तब तक ताने देना नहीं छोड़ता जब तक किसी कार्यक्रम में उस युवक की उपहास उड़ाती बेढब हालात को स्वयं नहीं देख लेता। मगर इसके बाद भी क्या सब कुछ शांत एवं सही हो पाता है? 

यूँ तो इस संकलन की हर कहानी अपने आप में अहम है मगर मेरे पाठकीय नज़रिए से कुछ कहानियाँ मुझे बेहद उम्दा लगी। उनके नाम इस प्रकार हैं..

*टुकड़ा-टुकड़ा ज़िंदगी
*कोई रिश्ता ना होगा तब
*इत्ती-सी खुशी
*कोई खुशबू उदास करती है
*अंतिम यात्रा और अंतर्यात्रा
*लम्हों ने ख़ता की
*मन का कोना
*आखिर तुम हो कौन?
*उधार प्रेम की कैंची है

धाराप्रवाह शैली में कहानी कहने के अपने शिल्प और अनूठे भाषायी प्रयोगों से कहीं कहीं नीलिमा शर्मा चौंकाती है। कुछ जगहों पर वाक्य थोड़े टूटते से लगे। साथ ही एक सार्थक होती कहानी का अचानक से नाकारात्मक हो जाना थोड़ा खला। किसी भी कहानी में उसके प्रभावी शीर्षक की भूमिका बड़ी ही अहम होती है। इस नज़रिए से मुझे कहानियों के शीर्षक थोड़े कमज़ोर लगे। उन्हें और अधिक आकर्षक एवं क्रिस्प होना चाहिए था। 

11 कहानियों के इस 144 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। किताब का कवर अगर थोड़ा मोटा एवं मज़बूत होता तो ज़्यादा बेहतर था। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

स्वप्नपाश- मनीषा कुलश्रेष्ठ

कई बार हमें पढ़ने के लिए कुछ ऐसा मिल जाता है कि तमाम तरह की आड़ी तिरछी चिंताओं से मुक्त हो, हमारा मन प्रफुल्लित हो कर हल्का सा महसूस करने लगता है मगर कई बार हमारे सामने पढ़ने के लिए कुछ ऐसा आ जाता है कि हमारा मन चिंतित हो, व्यथा एवं वेदनाओं से भर जाता है और लाख चाहने पर भी हम उसमें व्यक्त पीड़ा, दुख दर्द से खुद को मुक्त नहीं कर पाते। कहानी के किरदार, हम में और हम उसके किरदारों में, कुछ इस कदर घुल मिल जाते हैं कि किताब की दुनिया को ही हम एक हद तक असली दुनिया समझने लगते हैं। ऐसा ही कुछ मुझे आभास हुआ जब मैंने मनीषा कुलश्रेष्ठ जी का उपन्यास "स्वप्नपाश " पढ़ने के लिए उठाया।  

इसमें कहानी स्किज़ोफ़्रेनिया नामक बीमारी से पीड़ित एक मरीज़ और उसका इलाज करने वाले मनोचिकित्सक डॉक्टर की है जो तमाम तरह की जटिलताओं के बावजूद अपने व्यवसाय के एथिक्स को ध्यान में रख, उसका उपचार करने का प्रयास करता है। इस बीमारी के अंतर्गत मरीज़ को मतिभ्रम के चलते कुछ ऐसे किरदार अपने आसपास डोलते और बात करते दिखाई देते हैं जो असलियत में कहीं हैं ही नहीं। 

इस बीमारी के दौरान मरीज़ में मतिभ्रम तथा भूलने की बीमारी जैसे लक्षण उभरने लगते हैं। सामान्य अवस्था में होते हुए भी अचानक मनोदशा परिवर्तन की वजह से क्रोध, हिंसा, चिंता, उदासीनता और शक जैसी चीजें उभरने लगती हैं। उचित-अनुचित की समझ का लोप होने लगता है। मरीज़ की दैनिक गतिविधियों में भागीदारी कम हो जाती है तथा एकाग्रता में कमी जैसे लक्षण उत्पन्न होने लगते है। व्यवहार अव्यवस्थित,आक्रामक एवं अनियंत्रित होने लगता है।संयम की कमी के साथ स्वभाव में हिंसा जैसे लक्षणों के चलते खुद को नुकसान पहुंचाने की संभाबनाएँ बढ़ने लगती हैं। 

 इस उपन्यास को लिखने के लिए लेखिका द्वारा किए गए शोध और मेहनत की तारीफ करनी होगी कि किस तरह उन्होंने इस जटिल विषय को साधा है। ये सोच के ही ज़हन में एक झुरझुरी सी उतर जाती है कि इस उपन्यास को रचते वक्त लेखिका किस तरह की मानसिक यंत्रणा एवं तनाव से गुज़री होंगी? कोई आश्चर्य नहीं कि कभी आपको इस उपन्यास पर बिना किसी कट या दखलन्दाजी के कोई फ़िल्म बनती दिखाई दे। 
 
मेरे अब तक के जीवन में पढ़े गए कठिनतम उपन्यासों में से ये एक है। इस उपन्यास को मैंने पढ़ तो लगभग 4-5 दिन पहले ही लिया था लेकिन विषय की गहनता और इसका ट्रीटमेंट देख कर इस पर आसानी से लिखने की मेरी हिम्मत नहीं हो पा रही थी। 

135 पृष्ठीय इस संग्रहणीय उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है किताबघर प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹240/-..आने वाले भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

मेघना- कुसुम गोस्वामी

मीडिया और मनोरंजन के तमाम जनसुलभ साधनों की सहज उपलब्धता से पहले एक समय ऐसा था जब हमारे यहाँ लुगदी साहित्य की तूती बोलती थी। रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों और मोहल्ले की पत्र पत्रिकाओं की दुकानों तक..हर जगह इनका जलवा सर चढ़ कर बोलता था। बुज़ुर्गों के डर..शर्म और लिहाज़ के बावजूद जवानी की दहलीज चढ़ते युवाओं, विवाहितों एवं अधेड़ हाथों में या फिर उनके तकियों के नीचे चोरी छिपे इनका लुकाछिपी खेलते हुए मौजूद रहना एक आम बात थी। 

इनमें मुख्यतः प्रेम, बिछोह या किसी सामाजिक बुराई जैसे तमाम मसालों का इस प्रकार से घोटा लगा..फॉर्म्युला तैयार किया जाता था कि हर कोई इन्हीं का दीवाना हुआ जाता था। उस समय उन पर बहुत सी ब्लॉक बस्टर फिल्में जैसे कटी पतंग, दाग़, आराधना इत्यादि बनी। जिनमें मुख्यतः राजेश खन्ना, शर्मिला टैगोर और आशा पारेख सरीखे दिग्गज अभिनय किया करते थे और उनके कामयाब रचनाकारों में से एक गुलशन नंदा को तो एक स्टार राइटर तक का दर्जा प्राप्त था। 

ऐसी ही मन को मोहने वाली कहानी अगर आपको आज के दौर में पढ़ने को मिल जाए तो ज़ाहिर सी बात है कि आप थोड़े नॉस्टैल्जिक तो हो ही जाएँगे। दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ नवोदित लेखिका कुसुम गोस्वामी के पहले उपन्यास 'मेघना' की। जिसमें उन्होंने बलात्कार जैसे ज्वलंत मुद्दे को उठाया है। 

इस उपन्यास में मुख्यतः कहानी है बेहद खूबसूरत..स्वाभिमानी मेघना और उसकी नटखट.. चुलबुली छोटी बहन नैना की जो अपने पिता की मृत्य के बाद अपनी माँ योगिता के साथ रह रहीं हैं। तमाम तरह की आशांका और सावधानी के बावजूद एक दिन धोखे से नशा पिला कर मेघना का बॉस अपने साथी के साथ मिल कर उसका बलात्कार करता है। 

बुरी तरह आहत हो..टूट चुकी मेघना अपनी छोटी बहन की जल्द होने वाली शादी, धमकी, ब्लैकमेल, बैंक लोन और नौकरी छूटने जैसी अनेक समस्याओं के डर से उस वक्त चुप तो रह जाती है मगर अन्दर ही अन्दर घुटने के बाद एक दिन विद्रोह कर उठती है।

 तमाम तरह के लटके झटकों से सुसज्जित मैलोड्रामा एक तरफ सशक्त कोर्टरूम सीन्स हैं तो दूसरी तरफ़ शनै शनै पनपना प्यार भी है। इसमें एक तरफ़ छोटी बहन नैना की शोखी भरी चुहलबाज़ीयाँ एवं शरारतें हैं तो दूसरी तरफ़ बड़ी बहन की धीर गंभीर सोच का फ़लसफ़ा भी है। तमाम तरह के चक्रों..कुचक्रों और साजिशों के बीच क्या मेघना अंत में सफल हो पाती है अथवा नहीं? यह सब जानने के लिए तो आपको उपन्यास पढ़ना होगा।

पाठकीय नज़रिए से अगर देखूँ तो शुरुआती शिथिलता के बाद सरल भाषा में लिखा गया बॉलीवुडीय शैली का यह रोचक उपन्यास अपनी पकड़ को मज़बूत बनाता हुआ आसानी से पाठकों को उसके अंत याने के क्लाइमेक्स तक पहुँचाने में सफल हो जाता है।

बतौर लेखक मुझे इसमें कुछ छोटी छोटी कमियाँ भी दिखाई दी। जिन पर आने वाली रचनाओं में ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। 

*साहित्यिक नज़रिए से प्रवाह में लिखे गए लंबे संवाद या वाक्य, लेखक की दक्षता को पाठकों के सामने परिलक्षित करते हैं। ऐसे ही कुछ प्रयास इस उपन्यास में भी दिखाई दिए मगर उनमें सहज एवं सरल प्रवाह की कमी दिखी। साथ ही कुछ जगहों को जबरन संवादों को लंबा खींचा गया सा भी प्रतीत हुआ। 

*वर्तनी की त्रुटियों के अलावा कुछ जगहों पर
प्रचलित/मानक हिंदी से इतर वाक्य दिखाई दिए जैसे कि..

1. पेज नम्बर 23 पर लिखा दिखाई दिया..

 "दी, तेरी रेड गाउन प्रेस करा दी है, वही पहननी है।"

यह वाक्य सही नहीं है। सही वाक्य इस प्रकार होगा..

"दी, तेरा रेड गाउन प्रैस करा दिया है, वही पहनना है।"

साथ ही आगे यह भी लिखा दिखाई दिया कि..

"अरे! अभी यहीं हो। मेघु! तुझे बाल भी धुलने है ना! जल्दी कर गीजर ऑन है।

यह वाक्य भी सही नहीं है। सही वाक्य इस प्रकार होगा..

"अरे! अभी यहीं हो? मेघु.. तुझे बाल भी तो धोने हैं ना? जल्दी कर..गीज़र ऑन है।"

2. कई बार किसी वाक्य में अगर भूलवश भी किसी एक शब्द का हेरफेर हो जाए तो उसका अर्थ बदलते देर नहीं लगती। ऐसा ही कुछ इस उपन्यास के पेज नम्बर 36 पर लिखा दिखाई दिया..

"एक्सक्यूज मी सर! मैम कहाँ हैं? मेघना ने भाटिया का ध्यान बाँटते हुए पूछा।

मेरे हिसाब से यह वाक्य सही नहीं बना। इसे इस प्रकार होना चाहिए था..

"एक्सक्यूज मी सर, मैम कहाँ हैं?" मेघना ने भाटिया का ध्यान बँटाने की गर्ज़ से पूछा। 

या फिर..

मेघना ने भाटिया का ध्यान बँटाते हुए पूछा।

आगे लिखा दिखाई दिया..

"आर यू श्योर! मेघना।" भाटिया चौंककर नाटक करते हुए बोला। 

यह वाक्य भी मेरे हिसाब से इस प्रकार होना चाहिए..

"आर यू श्योर! मेघना?" भाटिया चौंकने का नाटक करता हुआ बोला। 

3. पेज नंबर 76 पर एक जगह पंजाबी टोन वाले संवाद के तौर पर दिखाई दिया कि..

"अकेले जाएगा मुंड़ें! मुझे संग नहीं ले जाएगा?" 

इसमें 'मुंड़ें' कोई शब्द नहीं है। यहाँ 'मुंडे' अर्थात लड़के आएगा। 

मेरे हिसाब से जब तक कहानी की माँग या किरदार के हिसाब खास ज़रूरत ना हो, स्थानीय भाषा के संवादों से बचा जाना चाहिए। साथ ही शुद्ध रूप में अंत तक उनका सफलतापूर्वक निर्वाह होना भी बेहद ज़रूरी है।

4. इसी तरह पेज नंबर 80 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"जैसे ही उसे अंदेशा हुआ कि मयंक के दिल में दोस्ती ने प्यार की जगह लेनी शुरू कर दी है, वो उससे कतराने लगी।"

यहाँ पर कहानी के सिचुएशन के हिसाब से 'दोस्ती ने प्यार की जगह' नहीं बल्कि 'प्यार ने दोस्ती की जगह' होना चाहिए था। 

5. लगभग तीन चौथाई उपन्यास खत्म होने के बाद अचानक पेज नंबर 133 पर एक महत्वपूर्ण किरदार का सरकारी वकील के बहाने प्रकट हो जाना थोड़ा अजीब लगा। इस ज़रुरी किरदार या इसकी कहानी को फ्लैशबैक में आने के बजाय कहानी के साथ चलना चाहिए था। 

197 पृष्ठीय इस रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

ठौर- दिव्या शुक्ला

पिछले लगभग तीन- सवा तीन वर्षों में 300+ किताबों के पठन पाठन के दौरान मेरा सरल अथवा कठिन..याने के हर तरह के लेखन से परिचय हुआ। 
जहाँ एक तरफ़ धाराप्रवाह लेखन से जुड़ी कोई किताब मुझे इतनी ज्यादा रुचिकर लगी कि उसे मैं एक दिन में ही आसानी से पढ़ गया तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी किसी किताब को पूरा करने में मुझे दस से बारह दिन तक भी लगे। ऐसा कई बार किताब की दुरह भाषा भाषा की वजह से हुआ तो कई बार विषय के कठिन एवं कॉम्प्लिकेटिड होने की वजह से। 

इस बीच मनमोहक शैली में लिखी गयी ऐसी दुरह किताबें भी मेरे सामने आयी। जिन्हें मुझे..' आगे दौड़ और पीछे छोड़' की तर्ज़ पर बीच में ही अधूरा छोड़ आगे बढ़ जाना पड़ा कि पढ़ते वक्त तो उनकी भाषा बड़ी मनमोहक एवं लुभावनी लगी लेकिन मेरी समझ का ही इसे कसूर कह लें कि मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। 

इस पूरे सफ़र के दौरान मुझे कहीं किसी नए लेखक की किताब की भाषा में सोंधापन लिए हुए थोड़ा कच्चापन दिखा तो कहीं किसी अन्य नए/पुराने लेखक की परिपक्व लेखन से सजी कोई किताब रोचकता के सारे मापदण्डों को पूरा करती दिखाई दी।

दोस्तों..आज मैं परिपक्व लेखन से सजे एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'ठौर' के नाम से लिखा है दिव्या शुक्ला ने। कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कहानियाँ छप चुकी हैं। आइए..अब चलते हैं इस संकलन की कहानियों की तरफ़।

इस संकलन की पहली कहानी में जहाँ लेखिका कहानी की नायिका के माध्यम से सभ्य समाज के मनुष्यों का मुखौटा ओढ़े, उन तथाकथित गिद्धों की बात करती है जिनकी गर्म ज़िंदा माँस की चाह में हर नारी देह को देखते ही लार टपक पड़ती है। भले ही वह छोटी..बड़ी..अधेड़ या वृद्धा याने के किसी भी उम्र की क्यों ना हो। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ ठाकुर केदारनारायण सिंह के घर, जश्न का माहौल है कि शादी के दस वर्षों बाद उनकी बड़ी बहू चंदा, पहली बार माँ बन रही है। तो वहीं दूसरी तरफ़ अपनी पत्नी के प्रति सदा उदासीन रहने वाले..उसकी अवहेलना करने वाले..उसे दुत्कारने वाले उसके दबंग पति, रुद्रप्रताप की बौखलाहट का कोई सानी नहीं कि बिना अपनी पत्नी से शारिरिक संबंध बनाए वह बाप बन गया है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ अपने पीछे एक प्रश्न छोड़ कर चलती दिखाई देती है कि..

'जब बाड़ ही खेल को खाने लगे तो फ़सल कहाँ जाए?'

जिसमें मायके गयी नायिका अपनी जिज्ञासा एवं उत्कंठा की वजह से उस वक्त परेशान हो उठती है जब उसे तीन तीन जवान बेटियों के ऐय्याश पिता, जोकि उसका मौसा है, के बारे में पता चलता है कि  पत्नी के देहांत के बाद भी उसके स्वभाव में रत्ती भर भी फ़र्क नहीं आया और उन्होंने अपनी जवान और खूबसूरत छोटी बेटी का ब्याह कहीं और करने के बजाय बाप-बेटी के जैसे पवित्र रिश्ते को कलंकित कर उसे याने के बेटी को अपने घर में ही रख लिया। तो वहीं एक अन्य कहानी  में पत्नी को सिर्फ़ मादा देह समझने वाले पति की अकर्मण्यता से आहत पत्नी जब अपने कामुक ससुर की लोलुप नज़रों से बचने में स्वयं को असफल पाती है तो अपने बेटे के साथ ससुराल को हमेशा हमेशा के लिए त्याग वो  अपने पति से तलाक़ ले लेती है। अब बरसों बाद सास के बीमार होने की खबर तथा पोते को देखने की उनकी दिली इच्छा पर वो अपने बेटे को उसकी दादी के पास मिलने के लिए भेजने को राज़ी तो हो जाती है मगर मन ही मन आशंकाओं से घिरी रहती है कि कहीं वे सब मिल कर उसके बेटे को बहला फुसला कर बरगला ना लें। 

इसी संकलन एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ वृद्धाश्रम में रह रहे विभिन्न वृद्धों के वर्णित दुखों..तकलीफों से यही सीख मिलती दिखाई देती है कि किसी को भी अपने जीते जी अपना सब कुछ अपने वारिसों तक को सौंपने की ज़रूरत नहीं है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में पति की मृत्यु के बाद देवर द्वारा लगातार तीन सालों तक शादी का झांसा दे यौन शोषण की शिकार हुई जवान..खूबसूरत युवती को उस वक्त अपमानित हो..ससुराल छोड़ कर दरबदर हो निकलना पड़ता है जब अपने छोटे बेटे से उसकी शादी करने के बजाय उसकी सास उसे, उसकी रखैल बनने का सुझाव देती है। ऐसे में अपनी बेटी के साथ जगह जगह अपमानित होती..ठोकरें खाती वह युवती क्या कभी सम्मान और इज़्ज़त के साथ कभी साथ जी पाएगी?

धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी इस संकलन की कुछ कहानियों में क्षेत्रीय माहौल होने की वजह से वहीं की स्थानीय भाषा में संवादों को दिया गया है। जो कहानी की विश्वसनीयता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होते हैं मगर इससे दुविधा मुझ जैसे उन पाठकों के लिए हो जाती है जो उस भाषा को बिल्कुल नहीं समझते हैं या थोड़ा बहुत समझते हैं। बेहतर होता कि उन संवादों का हिंदी अनुवाद भी साथ ही दिया जाता। साथ ही एक कहानी का अंत थोड़ा फ़िल्मी एवं खिंचा हुआ सा भी प्रतीत हुआ।

ज्वलंत समस्याओं से लैस इस कहानी संकलन में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ जगहों पर कुछ शब्द ग़लत छपे हुए या ग़लत मतलब दर्शाते दिखाई दिए। 

यूँ तो बढ़िया क्वालिटी में छपा यह कहानी संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 114 पृष्ठीय हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है रश्मि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 275/- रुपए। जो कि मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। ज़्यादा पाठकों तक पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि जायज़ दामों पर किताब का पैपरबैक संस्करण भी बाज़ार में लाया जाए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

कुछ तो बाकी है- रजनी मोरवाल

कई बार जब कभी हम लिखने बैठते हैं तो अमूमन ये सोच के लिखने बैठते हैं कि हमें आरंभ कहाँ से करना है और किस मोड़ पर ले जा कर हमें अपनी कहानी या उपन्यास का अंत करना है मगर कई बार ऐसा होता है कि बिना सोचे हम लिखना प्रारंभ तो कर देते हैं लेकिन हमें अपनी रचना की मंज़िल..उसके अंत का पता नहीं होता। ऐसी मनोस्तिथि में हम अपनी कथा को जहाँ..जिस ओर सहजता से वह खुद ले जाए के हिसाब से, उसे बहने देते हैं। खुद रजनी मोरवाल जी का भी मानना है कि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के इस कहानी संग्रह "कुछ तो बाकी है" में उनकी कहानियाँ स्त्री विमर्श वाली हो गयी हैं। 

उनके कहानी संग्रह "कुछ तो बाकी है" को पढ़ने से पता चलता है कि अगर गंभीर कहानियाँ भी सधी हुई भाषा और नपे तुले अंदाज़ में लिखी गयी हों तो उन्हें आसानी से पढ़ा जा सकता है। इस संग्रह की एक कहानी में नायिका अपनी अलग पहचान बनाने के लिए अपने पति से तलाक ले, अलग शहर में रहने का फैसला करती है और अपने अहम के चलते पति से गुज़ारा भत्ता लेने से भी इनकार कर देती है। क्या अपने बलबूते पर वह जीवन में एक अलग मुकाम हासिल कर पाती है?

इसी संग्रह की अन्य कहानी अपने में राजस्थानी कलेवर को समेटे हुए है। जिसमें बूढ़े हो चुके एक कालबेलिया नर्तकी और उसके पति के उत्थान और पतन की कहानी का वर्णन किया गया है कि किस तरह अपने पतन के बाद फिर से वो अपनी लगभग लुप्तप्रायः हो चुकी नृत्य शैली 'कालबेलिया'  को औरों को सिखाने का जज़्बा अपने मन में पैदा करते हैं। इसी संग्रह की एक कहानी में नायिका, कैंसर के आखिरी पड़ाव पर खड़े मरीज़ की सेवारत पत्नी है जिसका, उसके शहर से दूर मुम्बई के एक अस्पताल में इलाज चल रहा है। वहाँ से अचानक एक दिन उसका पति गायब हो जाता है और लाख कोशिशें करने के बाद भी नहीं मिल पाता। अब सवाल उठता है कि आखिर उसका पति गया कहाँ? क्या अपनी बीमारी से तंग आ वह स्वत: ही कहीं चला गया अथवा... सच्चाई केवल उसकी पत्नी ही जानती है।

इन संग्रह कहानियों में किसी ना किसी रूप में विद्रोही  स्त्रियों को कहानी को केंद्र बना कर पूरी कथा का ताना बाना रचा गया है। भले ही वह समाज के दकियानूसी विचारों से विद्रोह कर अपना अलग रास्ता बनाने की बात हो अथवा तथाकथित समाज द्वारा तय किए गए मापदंडों को धता बताते हुए अपनी अलग पहचान..अपने अलग वज़ूद को ज़िंदा बचाए रखने की जद्दोजहद हो। मनोवैज्ञानिक विवेचना से भरी इस संग्रह की कहानियों के पात्र किसी भी...कैसी भी परिस्तिथि में रोते बिलखते नहीं हैं और ना ही हालात से समझौता करने को झटपट उतावले हो उठते हैं। इसके ठीक उलट, अपने फ़ायदे के लिए वे वक्त ज़रूरत के हिसाब से स्वार्थी होने से भी नहीं चूकते। 

इस संग्रह में कुल 25 कहानियाँ सम्मिलित हैं जो ज़्यादा बड़ी नहीं होने की वजह से आसानी से पढ़ी जाती हैं। इस संकलन की कुछ कहानियों ने मुझे प्रभावित किया, जिनके नाम इसप्रकार हैं:

*आत्म दीपो भव:
*रिंग-अ-रिंग ओ' रोज़ेज़
*गुलाबो ढेर नहीं हुई
*कसूर किसका
*पीर पराई
*सीज़न की भीड़
*खाली पेट
*प्रणय का ठीकरा
*मरीन ड्राइव की खाली बोतल
*बैसाखियां
*छत की आस
*दो जीवां
*रक्षा कवच

हालांकि सभी कहानियाँ आसान भाषा में लिखी गयी हैं लेकिन फिर भी कहीं कहीं एक पाठक के तौर पर मुझे ऐसा लगा जैसे कुछ कहानियाँ सिर्फ बुद्धिजीवी वर्ग के लिए ही लिखी गयी हों। एक खास बात और कि अब ये तो पता नहीं कि नुक्तों की ग़लतियों के प्रति आजकल लेखक/प्रकाशक के द्वारा जानबूझ कर ध्यान नहीं दिया जाता अथवा भूलवश ऐसा हो रहा है। इस पर थोड़ा ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। 

संकलन के शीर्षकानुसार लेखिका का कहना है कि..."कुछ तो बाकी है" लेकिन मेरे ख्याल से कुछ नहीं बल्कि बहुत कुछ लेखिका की लेखनी से निकलने को अभी बाकी है। उनकी आने वाली रचनाओं का इंतज़ार रहेगा।

176 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है सामयिक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹ 300/-..आने वाले भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को ढेरों ढेर शुभकामनाएं।

राजनटनी- गीताश्री

बचपन से ही आमतौर पर ऐसे किस्से या कहानियाँ हमारे आकर्षण, उत्सुकता एवं जिज्ञासा का सदा से ही केंद्र बनते रहे हैं जिनमें किसी राजा की अद्वितीय प्रेम कहानी अथवा शौर्य गाथा का विशुद्ध रूप से तड़केदार वर्णन होता था। ऐसे ही किस्से कभी कहानी/उपन्यास या फिर फिल्म के रूप में हमें रोमांचित..उत्साहित करने को अब भी यदा कदा हमारे सामने आते रहते हैं। 

अभी कुछ दिन पहले इसी तरह की राजघरानों से जुड़ी एक अद्वितीय प्रेम कहानी मुझे पढ़ने को मिली प्रसिद्ध लेखिका गीताश्री के उपन्यास 'राजनटनी' में। इसमें मूलतः कहानी है एक बंजारे परिवार के अपने घुमंतू जीवन से आज़िज़ आ..मिथिला में स्थायी रूप से बसने और उसे ही अपना देश..अपना सब कुछ मान.. उसके लिए अपनी जान तक दे देने की।

इसमें बात है गांव-गांव...गली- गली घूम कर अपनी नट विद्या, कला और मनमोहक नृत्य से करतब दिखा..सर्व साधारण का दिल जीत लेने वाली, रूप, गुण, ज्ञान और बुद्धि की खान, मीना उर्फ मीनाक्षी के साधारण नटी से, अपनी शर्तों पर, राजनटनी के ओहदे तक पहुँचने के सफ़र की।

इसमें बात है पिछली हार का बदला लेने को आतुर राजा और उससे किए वादे को पूरा करने के बेटे के दृढ़ संकल्प की। इसमें बात है बंग देश के सेन वंशीय राजकुमार बल्लाल के, अपने पिता को दिए वचन और मिथिला की राजनटनी मीनाक्षी की प्रेम कहानी के बीच डांवाडोल होते मन की। 

इस उपन्यास में बात है माँ की ममता और पिता के स्नेह के बीच फँसी उनकी मजबूरी और बेबसी की। इसमें एक तरफ़ बात है ज्ञान..प्रेम..ईर्ष्या..द्वेष..गद्दारी और बदले से ओतप्रोत मिल जुली भावनाओं की। तो दूसरी तरफ़ इसमें बात है साहित्य..प्रेम..ज्ञान और देशप्रेम की। इसमें बात है भावुकता और विवेक के बीच निरंतर होती रस्साकशी की। इसमें बात है साहित्यिक पोथियों की लूट और उन्हें बचाने से जुड़ी सारी कवायद के सफ़ल असफ़ल होते प्रयास की। 

किस्सागोई शैली में लिखे गए बारहवीं शताब्दी के इस रोचक उपन्यास में एक जगह लिखा दिखाई दिया कि..

" मिट्टी पर लिखा, हवा में उँगलियाँ घुमाई... कपड़ों पर लिपियों का डिज़ाइन बनाया, बस लगन थी, सो कुछ-कुछ काम भर सीख लिया। 

उस समय के समयानुसार मेरे हिसाब से यहाँ पर 'डिज़ाइन' शब्द का प्रयोग सही नहीं है क्योंकि यह एक अँग्रेज़ी शब्द है। इसके साथ ही इसी तरह पेज नम्बर 97 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"इस तरह लाइन खींच..."

'लाइन' भी अंग्रेजी शब्द है। 

साथ ही उपन्यास का अहम किरदार 'सौमित्र' अचानक या फिर अंत में अस्पष्ट रूप से समेटा गया सा लगा। ये अहम किरदार मेरे हिसाब से एक स्पष्टता वाला वाजिब अंत माँगता था।

हालांकि बहुत ही रोचक एवं धाराप्रवाह शैली में लिखा गया यह उपन्यास अपने आप में संपूर्ण है लेकिन फिर भी वो कहते हैं ना कि..

"ये दिल माँगें मोर।"

तो उसी 'मोर' के मद्देनज़र मेरे पाठकीय नज़रिए से कुछ सुझाव जैसे कि..

*इस उपन्यास की मूल कहानी में बंग देश और मिथिला के बीच युद्ध एक अहम स्थान रखता है जबकि युद्ध के दृश्यों को साधारण ढंग से बस निबटा भर दिया गया जैसा मुझे प्रतीत हुआ।  युद्ध के दृश्यों को और अधिक रोचक एवं रोमांचक ढंग से अगर लिखा जाता तो इसकी पठनीयता में और अधिक वृद्धि होना तय था। 

*पूरी कहानी पढ़ते वक्त वाक्यों के अंत में 'था' या 'थे' अथवा 'थी' लगा दिखाई दिया। जिससे यह भान हो रहा था कि भूतकाल की इस कहानी को कोई और जैसे कि ..सूत्रधार कह रहा हो लेकिन कहीं भी ऐसा कोई सूत्रधार दिखाई नहीं दिया।  कहानी को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए मेरे ख्याल से इसमें सूत्रधार को भी स्थान दिया जाता या फिर कहानी को इस तरह लिखा जाता कि सब कुछ मानों अभी याने के वर्तमान बारहवीं शताब्दी में ही घट रहा हो, तो कहानी और ज़्यादा प्रभाव छोड़ती। 

*किताब के अंत तक आते आते पहले से ही संकेत मिलने शुरू हो जाते हैं कि अब मीनाक्षी कोई चाल चलने वाली है। संकेत के पहले से ही मिल जाने से पाठक अपने मन में पहले से ही कयास लगाने में जुट जाता है कि..अब आगे क्या होगा या हो सकता है?

तमाम पठनीयता..रोचकता एवं उत्सुकता जगाने वाला होने के बावजूद, उपन्यास का अंत याने के क्लाइमेक्स, पहले से सांकेतिक होने के बजाय अगर आकस्मिक एवं हतप्रद करते हुए चौंकाने वाला होता तो यह एक लेवल और ऊपर चढ़ गया होता।  

बतौर पाठक मेरे हिसाब से होना यह चाहिए था कि नायिका के किसी क्रियाकलाप से बिल्कुल भी संकेत नहीं जाना चाहिए था कि उसके मन मे क्या चल रहा है? उसे अगर एकदम भोली..काम से वशीभूत हो..प्रेम में आकंठ डूबी दिखाया जाता और उसके अंत समय में एक रहस्यमयी मुस्कान छोड़, आगे सोचने का काम पाठकों को के जिम्मे ही छोड़ दिया जाता। 

160 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्ज़ ने और इसका मूल्य रखा गया है 225/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

अकाल में उत्सव- पंकज सुबीर

कई बार कुछ ऐसा मिल जाता है पढ़ने को जो आपके अंतर्मन तक को अपने पाश में जकड़ लेता है। आप चाह कर भी उसके सम्मोहन से मुक्त नहीं हो पाते। रह रह कर आपका मन, आपको उसी तरफ धकेलता है और आप फिर से उस किताब को उठा कर पढ़ना शुरू कर देते हैं जहाँ से आपने उसे पढ़ना छोड़ा था। ऐसा ही इस बार मेरे साथ हुआ जब मैंने पंकज सुबीर जी का उपन्यास "अकाल में उत्सव" पढ़ने के लिए उठाया। इस उपन्यास को पढ़ कर पता चलता है कि पंकज सुबीर जी ने विषय को ले कर कितना गहन..कितना विस्तृत चिंतन एवं शोध किया होगा कि हर बात एकदम सटीक, कहीं कोई वाक्य..कहीं कोई शब्द बेमतलब का नहीं। 224 पृष्ठ का लंबा उपन्यास होने के बावजूद कहीं कोई भटकाव नहीं। सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ते हुए उपन्यास अपनी तयशुदा मंज़िल तक बिना किसी अवरोध, हिचकिचाहट अथवा दिक्कत के पहुँचता है।

इस उपन्यास के ज़रिए उन्होंने बताया है हमारे देश में अफसरशाही किस तरह अपने मतलब के लिए सबका इस्तेमाल करती है। किस तरह किसी राज्य में शासन तंत्र काम करता है। पक्ष विपक्ष सब वक्त और ज़रूरत के हिसाब से एक ही थैली के चट्टे बट्टे हो जाते हैं। इस उपन्यास से ज़रिए उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक अफसरों और दलालों की आपसी मिलीभगत से होने वाले किसान क्रेडिट कार्ड जैसे घोटालों को उजागर किया है। जिनमें जाली दस्तावेजों के आधार पर किसानों के नाम से सीमित समयावधि के लिए, उन्हें बताए बिना, अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु  चुपके से लोन ले लिए जाते हैं और समय सीमा पूरी होने से पहले ही उन्हें, अपने इस्तेमाल में लेने के बाद,  उसी तरह चुपचाप भर भी दिया जाता है मगर कई बार लोन ना चुकाने पर बैंक की शिकायत पर एक्शन लेते हुए सरकार गरीब किसानों के यहाँ कुर्की का नोटिस भेज किसान का घर, खेत-खलिहान सब कुछ जब्त कर नीलामी करने से भी नहीं चूकती है। ऐसे स्तिथि में दलाल तो चुपचाप खिसक जाता है और बैंक अधिकारी ऐसे घोटालों को छुपाने या फिर लीपापोती करने में जुट जाते हैं।

इस उपन्यास के ज़रिए उन्होंने ये भी बताया है कि किस तरह सरकार द्वारा किए जा रहे सांस्कृतिक कार्यक्रम के बजट को बड़े अफसरों द्वारा अपने निजी हितों के लिए मोबिलाइज़ किया जाता है और अपने रसूख एवं दबाव से कार्यक्रमों को क्रियान्वित करवाने की ज़िम्मेदारी दूसरों के कंधों पर जबरन डाल दी जाती है। 

इसी उपन्यास के ज़रिए उन्होंने छोटे गरीब किसानों की व्यथा को भी प्रभावी ढंग से दिखाया है कि किस तरफ दिन रात जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी उसका परिवार को दाने दाने के लिए तरसने को मजबूर होना पड़ता हैं। इस उपन्यास के ज़रिए उन्होंने किसानों और फसलों को लेकर बनाई गयी समर्थन मूल्य की धांधली को भी स्पष्ट किया है। इसी उपन्यास में किसान बनाम मल्टी नैशनल कंपनी में कंपनियों के हितों को पूरा करने में साथ देती आढ़तों और अनाज मंडियों की काली नीयतों, अकाल के समय मुआवज़ा निर्धारित करने में मनमर्ज़ी तथा भेदभाव की बात को भी ज़ोरदार तरीके से उठाया है।

कम शब्दों में अगर कहना चाहें तो इस उपन्यास में उन्होंने गरीब किसानों की खेत, फसल, सिंचाई, खाद,ऋण,सूद,भूख तथा मरने जीने पर रखे जाने वाले भोज जैसी समग्र समस्याओं का अपनी रचना में इस तरह समावेश किया है कि आप भावावेश में व्याकुल हो उठते हैं। इसी उपन्यास में उन्होंने कलेक्टर से लेकर पटवारी तक के उनके सभी मातहतों की कार्यशैली, उनकी भाषा, उनकी चालढाल का इस तरह सजीव एवं हूबहू वर्णन किया है कि ऐसा लगता है जैसे सबकुछ आपके सामने विश्वसनीय ढंग से घटित हो रहा हो। कोई आश्चर्य नहीं कि आपको जल्द ही इस पर कोई सीरियल , फ़िल्म अथवा वेब सीरीज़ बनती दिखाई दे।

224 पृष्ठीय इस संग्रहणीय उपन्यास को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसके अब तक कई हार्ड बाउंड एवं पेपरबैक संस्करण आ चुके हैं। इस पेपरबैक संस्करण का मूल्य ₹ 150/- मात्र रखा गया है जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही कम है। कम कीमत पर अच्छी किताब देने के लिए प्रकाशक को बहुत बहुत धन्यवाद एवं आने वाले भविष्य के लिए लेखक (जो कि स्वयं प्रकाशक भी हैं) को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

लिट्टी चोखा- गीताश्री

कुछ का लिखा कभी आपको चकित तो कभी आपको विस्मृत करता है। कभी किसी की लेखनशैली तो कभी किसी की धाराप्रवाह भाषा आपको अपनी तरफ खींचती है। किसी की किस्सागोई पर पकड़ से आप प्रभावित होते हैं तो किसी की रचनाधर्मिता के आप कायल हो उठते हैं। कभी किसी का अनूठे ट्रीटमेंट तो कभी किसी की कसी हुई बुनावट आप पर अपना असर छोड़ जाती  है। अगर अपने समकालीन रचनाकारों के लेखन पर हम नज़र दौड़ाएँ तो उपरोक्त दिए गए गुणों में से अधिकांश पर हमारे समय की चर्चित रचनाकार गीताश्री जी भी खरी उतरती हैं। 

उनकी लेखनशैली में उनकी किस्सागोई, स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग और विषय को ले कर किया गया उनका ट्रीटमेंट शुरू से ही मुझे प्रभावित करता है। अभी फिलहाल में मुझे उनका कहानी संग्रह "लिट्टी चोखा" पढ़ने का मौका मिला। इस संग्रह में उनकी कुल 10 कहानियाँ सम्मिलित हैं।

शीर्षक कहानी 'लिट्टी चोखा' में सालों बाद गांव आयी युवती अपने बचपन में सुने एक लोकगीत को फिर से सुन कर पुनः उसी दुनिया..उसी बचपन के दोस्त से मिलने को उतावली हो उठती है जो बचपन में ही उससे बिछुड़ गया था। इसी संकलन की एक अन्य कहानी में किसी के मरने के बाद दिए जाने वाले भोज में भांडों द्वारा मरने वाले की स्तुति गाने की एक लुप्त हो चुकी रीत का वर्णन है। इस रीत के माध्यम से बेटी किस तरह घर से अपमानित कर निकाल दिए गए अपनी माँ के मित्र को उसका खोया हुआ आत्मसम्मान लौटाती है।

एक कहानी श्रीलंका की एक ऐसी युवती की कहानी है जो एक बिहारी युवक से प्रेम विवाह करने से पहले लड़के के परिवार वालों से अपनी तथा अपनी माँ की तसल्ली के लिए मिलना चाहती है और अनजान भाषा की वजह से होने वाली दिक्कतों से बचने के लिए एक दुभाषिए की मदद लेती है जिसे उस युवक ने पहले से ही पट्टी पढ़ा का उसके साथ भेजा है कि झूठ- सच कुछ भी बता कर लड़की को राज़ी करे। 

इसी संकलन की एक कहानी में शादी करते ही घर छोड़ कर भाग चुका युवक अचानक 12 सालों बाद वापिस अपनी पत्नी के पास फिर लौट कर जब घर आता है तो क्या तब तक परिस्तिथियाँ उसके अनुकूल होती हैं या पूरी तरह बदल चुकी होती हैं?

एक अन्य कहानी में एक युवती अपने बचपन से एक अजीब तरह की गंध से इस कदर परेशान है कि उसे  इलाज के लिए मनोचिकित्सक तक की मदद लेने के बारे में सोचना पड़ता है मगर क्या वो उस गंध से...अपनी बीमारी से मुक्त हो पाती है? 

इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे बहुत बढ़िया लगी जिनके नाम इसप्रकार हैं:

• लिट्टी चोखा
• नजरा गईली गुईंयां
• स्वाधीन वल्लभा 
• कब ले बीती अमावस की रतिया
• गंध-मुक्ति 

112 पृष्ठीय इस संग्रहणीय कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्ज़ ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹ 160/- जो कि किताब की क्वालिटी और कंटैंट के हिसाब से बहुत ही जायज़ है। लेखिका तथा प्रकाशक को आने वाले भविष्य के लिए अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

वायरस मारेगा- अंकित वर्मा


किसी ने भी नहीं सोचा था कोरोना महामारी के कहर से भयभीत हो..हम सब इसके मकड़जाल में इस कदर घिर जाएँगे कि हमें आपस में ही एक दूसरे से हमेशा इस बात का डर सताता रहेगा कि कहीं इसकी या उसकी वजह से हम भी वायरस के लपेटे में ना आ जाएँ। उस वक्त कमोबेश दूसरे की भी हालत हमारे जैसी ही हो रही होती है कि कहीं हमारी वजह से वह खुद इस कमबख्त कोरोना की चपेट में ना आ जाए। 

दरअसल यही डर बने बनाए काम बिगाड़ भी सकता है और यही डर, बिगड़े हुए काम बना भी सकता है। अगर किसी चीज़ या व्यक्ति से हम डर गए तो वो कमज़ोर होते हुए भी हम पर हावी होने की कोशिश करेगा और अगर किसी के आगे हमने अपने डर को हावी ना होने दिया तो हम से बढ़ कर सूरमा और कोई नहीं।

दोस्तों..आज मैं इसी डर को केन्द्र बना कर लिखे गए एक तेज़ रफ़्तार थ्रिलर उपन्यास की बात कर रहा हूँ जिसे 'वायरस मारेगा' के नाम से लिखा है अंकित वर्मा ने। 

इस उपन्यास में मूलतः कहानी है शहर के विभिन्न अस्पतालों में रहस्यमयी जानलेवा वायरस से संक्रमित दस लोगों की एक लिस्ट के साथ  सलंग्न धमकी भरी गुमनाम ईमेल के एक प्रतिष्ठित टीवी चैनल एवं पुलिस मुख्यालय में पहुँचने की। एक ऐसा रहस्यमयी वायरस जिसके बारे में धमकी में दावा किया जा रहा है कि वो किसी भी टैस्ट में डिटेक्ट नहीं होगा और उससे लगातार लोग मरते रहेंगे। 

इस रहस्यमयी वायरस की गुत्थी को सुलझाने की ज़िम्मेदारी एसीपी राघवेन्द्र राठौड़ के साथ इंस्पेक्टर जयकिशन एवं इंस्पेक्टर मीरा को सौंपी तो जाती है मगर परत दर परत खुलती इस रहस्यमयी कहानी में तहक़ीक़ात के दौरान स्वयं एसीपी राठौड़ भी उस वक्त शक के घेरे में आ जाता है जब सड़क दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल एक मुजरिम मरने से ठीक पहले एसीपी राठौड़ का नाम ले कर मर जाता है। 

** ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ख़तरनाक वायरस से अपनी पत्नी तक को गंवाने वाला डीसीपी राठौड़ सच में गुनहगार है अथवा वह स्वयं भी किसी गहरी चाल का शिकार?

** क्या एसीपी के दोनों जूनियर साथी इस बात को यहीं दबा अपने अफ़सर का साथ देंगे या फिर अपने कर्तव्य का पालन करेंगे? 

ऐसी ही कई छोटी बड़ी गुत्थियों को सुलझाती यह तेज़ रफ़्तार कहानी कब खत्म हो जाती है..पता ही नहीं चलता। हालांकि अंत से पहले ही क्लाइमैक्स का कुछ कुछ अंदाज़ा पाठकों को होने लगता है मगर फिर भी यह कहानी अपने आरंभ से ले कर अंत तक पाठकों को बाँध कर रखने में सक्षम है। 

कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ जगहों पर ग़लत शब्द छपे हुए दिखाई दिए। जिन्हें ठीक किया जाना जरूरी है।

हालांकि यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूंगा कि इस 150 पृष्ठीय थ्रिलर उपन्यास के पैपरबैक संस्करण को छापा है राजमंगल प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 209/- रुपए जो कि कंटैंट के हिसाब से मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।



 
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