कुछ तो बाकी है- रजनी मोरवाल

कई बार जब कभी हम लिखने बैठते हैं तो अमूमन ये सोच के लिखने बैठते हैं कि हमें आरंभ कहाँ से करना है और किस मोड़ पर ले जा कर हमें अपनी कहानी या उपन्यास का अंत करना है मगर कई बार ऐसा होता है कि बिना सोचे हम लिखना प्रारंभ तो कर देते हैं लेकिन हमें अपनी रचना की मंज़िल..उसके अंत का पता नहीं होता। ऐसी मनोस्तिथि में हम अपनी कथा को जहाँ..जिस ओर सहजता से वह खुद ले जाए के हिसाब से, उसे बहने देते हैं। खुद रजनी मोरवाल जी का भी मानना है कि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के इस कहानी संग्रह "कुछ तो बाकी है" में उनकी कहानियाँ स्त्री विमर्श वाली हो गयी हैं। 

उनके कहानी संग्रह "कुछ तो बाकी है" को पढ़ने से पता चलता है कि अगर गंभीर कहानियाँ भी सधी हुई भाषा और नपे तुले अंदाज़ में लिखी गयी हों तो उन्हें आसानी से पढ़ा जा सकता है। इस संग्रह की एक कहानी में नायिका अपनी अलग पहचान बनाने के लिए अपने पति से तलाक ले, अलग शहर में रहने का फैसला करती है और अपने अहम के चलते पति से गुज़ारा भत्ता लेने से भी इनकार कर देती है। क्या अपने बलबूते पर वह जीवन में एक अलग मुकाम हासिल कर पाती है?

इसी संग्रह की अन्य कहानी अपने में राजस्थानी कलेवर को समेटे हुए है। जिसमें बूढ़े हो चुके एक कालबेलिया नर्तकी और उसके पति के उत्थान और पतन की कहानी का वर्णन किया गया है कि किस तरह अपने पतन के बाद फिर से वो अपनी लगभग लुप्तप्रायः हो चुकी नृत्य शैली 'कालबेलिया'  को औरों को सिखाने का जज़्बा अपने मन में पैदा करते हैं। इसी संग्रह की एक कहानी में नायिका, कैंसर के आखिरी पड़ाव पर खड़े मरीज़ की सेवारत पत्नी है जिसका, उसके शहर से दूर मुम्बई के एक अस्पताल में इलाज चल रहा है। वहाँ से अचानक एक दिन उसका पति गायब हो जाता है और लाख कोशिशें करने के बाद भी नहीं मिल पाता। अब सवाल उठता है कि आखिर उसका पति गया कहाँ? क्या अपनी बीमारी से तंग आ वह स्वत: ही कहीं चला गया अथवा... सच्चाई केवल उसकी पत्नी ही जानती है।

इन संग्रह कहानियों में किसी ना किसी रूप में विद्रोही  स्त्रियों को कहानी को केंद्र बना कर पूरी कथा का ताना बाना रचा गया है। भले ही वह समाज के दकियानूसी विचारों से विद्रोह कर अपना अलग रास्ता बनाने की बात हो अथवा तथाकथित समाज द्वारा तय किए गए मापदंडों को धता बताते हुए अपनी अलग पहचान..अपने अलग वज़ूद को ज़िंदा बचाए रखने की जद्दोजहद हो। मनोवैज्ञानिक विवेचना से भरी इस संग्रह की कहानियों के पात्र किसी भी...कैसी भी परिस्तिथि में रोते बिलखते नहीं हैं और ना ही हालात से समझौता करने को झटपट उतावले हो उठते हैं। इसके ठीक उलट, अपने फ़ायदे के लिए वे वक्त ज़रूरत के हिसाब से स्वार्थी होने से भी नहीं चूकते। 

इस संग्रह में कुल 25 कहानियाँ सम्मिलित हैं जो ज़्यादा बड़ी नहीं होने की वजह से आसानी से पढ़ी जाती हैं। इस संकलन की कुछ कहानियों ने मुझे प्रभावित किया, जिनके नाम इसप्रकार हैं:

*आत्म दीपो भव:
*रिंग-अ-रिंग ओ' रोज़ेज़
*गुलाबो ढेर नहीं हुई
*कसूर किसका
*पीर पराई
*सीज़न की भीड़
*खाली पेट
*प्रणय का ठीकरा
*मरीन ड्राइव की खाली बोतल
*बैसाखियां
*छत की आस
*दो जीवां
*रक्षा कवच

हालांकि सभी कहानियाँ आसान भाषा में लिखी गयी हैं लेकिन फिर भी कहीं कहीं एक पाठक के तौर पर मुझे ऐसा लगा जैसे कुछ कहानियाँ सिर्फ बुद्धिजीवी वर्ग के लिए ही लिखी गयी हों। एक खास बात और कि अब ये तो पता नहीं कि नुक्तों की ग़लतियों के प्रति आजकल लेखक/प्रकाशक के द्वारा जानबूझ कर ध्यान नहीं दिया जाता अथवा भूलवश ऐसा हो रहा है। इस पर थोड़ा ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। 

संकलन के शीर्षकानुसार लेखिका का कहना है कि..."कुछ तो बाकी है" लेकिन मेरे ख्याल से कुछ नहीं बल्कि बहुत कुछ लेखिका की लेखनी से निकलने को अभी बाकी है। उनकी आने वाली रचनाओं का इंतज़ार रहेगा।

176 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है सामयिक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹ 300/-..आने वाले भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को ढेरों ढेर शुभकामनाएं।

0 comments:

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz