कथा चलती रहे- स्नेह गोस्वामी

कई बार कोई खबर..कोई घटना अथवा कोई विचार हमारे मन मस्तिष्क को इस प्रकार उद्वेलित कर देता है  कि हम उस पर लिखे बिना नहीं रह पाते। इसी तरह कई बार हमारे ज़ेहन में निरंतर विस्तार लिए विचारों की एक लँबी श्रंखला चल रही होती है। उन बेतरतीब विचारों को श्रंखलाबद्ध करने के लिए हम उपन्यास शैली का सहारा लेते हैं और कई बार जब विचार कम किंतु ठोस नतीजे के रूप में उमड़ता है तो उस पर हम कहानी रचने का प्रयास करते हैं। मगर जब कोई विचार एकदम..एक छोटे से विस्फोट की तरह झटके से हमारे जेहन में उमड़ता है तो तात्कालिक  प्रतिक्रिया के रूप में लघुकथा का जन्म होता है।

दोस्तों आज लघुकथा से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं परिपक्व लेखन से लैस एक ऐसे लघुकथा संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'कथा चलती रहे' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखिका स्नेह गोस्वामी ने। कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपने एवं अनेक पुरस्कारों से सम्मानित होने के अतिरिक्त अंतर्जाल पर भी स्नेह गोस्वामी जी अपनी कविताओं..कहानियों..लघुकथाओं एवं उपन्यासों के ज़रिए लगातार सक्रिय बनी हुई हैं। 

इसी संकलन की एक लघुकथा में जहाँ ज्ञान को छिपा कर रखने वाले गुरुओं पर कटाक्ष होता दिखाई देता तो वहीं एक अन्य लघुकथा इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि राजनीतिज्ञ और बड़े अफ़सरान ही देशों के बीच नफ़रत बोने का काम करते हैं बाकी आम जनता तो सभी देशों की एक जैसी ही होती है।

इसी संकलन की किसी अन्य रचना में व्यवसायीकरण की अँधी दौड़ में डॉक्टर/अस्पताल मानवता की साख़ पर बट्टा लगाते नज़र आते हैं। तो कहीं किसी अन्य रचना में बचपत से ले कर बड़े होने तक हर जगह लड़की की ही इच्छाओं पर अंकुश लगाने की प्रवृति पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य रचना में किसी कुशल गृहणी के सुबह से ले कर देर रात तक घर के कामों में ही खटते रहने की दिनचर्या का वर्णन किया जाता नज़र आता है तो कहीं कोई अन्य रचना आने वाले समय के भयावह मंज़र का वर्णन करती दिखाई देती है कि अब आने वाले समय में शोषण से ना लड़कियाँ और ना ही लड़के मुक्त रहने वाले हैं। 

इसी संकलन की किसी रचना में जहाँ ब्याह के बाद घर आयी नवविवाहिता के उसके शौहर से मोहभंग होने की प्रक्रिया सिलसिलेवार तरीके से वर्णन किया जाता दिखाई देता है। एक वहीं एक अन्य रचना बाहर दफ़्तर में बड़े ओहदे पर काम करने वाली उन स्त्रियों की व्यथा को व्यक्त करती नज़र आती है जिनकी उपलब्धियों को उनके घर में ही कम कर के आंका जाता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना अपने लोगों को फिट करने के चक्कर में सिफ़ारिश के बावजूद भी किसी व्यक्ति को सरकारी नौकरी न मिल पाने की बात करती नज़र आती है। तो कहीं किसी रचना में निजी फ़ायदे के लिए सरकारी प्रॉपर्टी को औने पौने में बेचा जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना में सास-जेठानियों के साथ हुए कटु अनुभवों को सहती आयी युवती अपनी बहू को हर संभव सुख देने का प्रयास तो करती है मगर...

इसी संकलन की कुछ अन्य रचनाओं में ग़रीबी की चर्चा से अपना नाम चमकाया जाता दिखाई देता तो कहीं किसी अन्य रचना में मामूली सी बात पर हुए झगड़े को सांप्रदायिक रंग दे कर अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकी जाती दिखाई देती हैं। कहीं घोंसला बनाने की जुगत में डूबे कबूतर- कबूतरी के ज़रिए शहरों के कंक्रीट के जंगलों तब्दील होने पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है कि शहरों में साफ़ हवा भी मिल पाना मुमकिन नहीं रह गया है। इसी संकलन की एक रचना जहाँ इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि सरकारी दफ्तरों का हर कर्मचारी कामचोर या बेईमान नहीं है। तो वहीं एक अन्य रचना बाल मज़दूरी पर बात करती नज़र आती है। 

इसी संकलन में कहीं दफ्तर में मातहत,अफ़सर की चमचागिरी करते नज़र आते हैं। तो कहीं नेताओं की मौकापरस्ती पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। कहीं आने वाले खर्चों की चिंता पति-पत्नी को मन मार उस जगह काम पर जाने के लिए मजबूर करती दिखाई देती जहाँ उनका शोषण होना तय है। तो कहीं किसी रचना में गाँव की शांत जिन्दगी से अपने बेटे के पास शहर आयी माँ वहाँ की व्यस्त और बेतरतीब जीवन शैली देख कर बेचैन हो उठती है। 
कहीं किसी रचना में कोई थाली के बैंगन सा अपनी ही बात से पलटता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक रचना में जहाँ एक तरफ़ सुनीता खुद को और अपनी कामवाली को कमोबेश एक जैसी ही स्थिति में पा, उसकी ही तरह अपने पति का विरोध करने की ठान लेती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना पारिवारिक बँटवारे से पैदा हुई रंजिश की बात करती नज़र आती है कि किस तरह आपसी झगड़े में परिवार के परिवार बरबाद हो जाते हैं। कहीं किसी रचना में पिछले दस सालों से लगातार अपमानित और प्रताड़ित होती रही पत्नी भी अपने स्वाभिमान की ख़ातिर आख़िर एक दिन कड़ा कदम उठाने का फ़ैसला कर ही लेती है। तो कहीं किसी अन्य रचना में नए प्रयोग के तौर पर लघुकथा को बेटी समान माना जाता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक अन्य रचना फ़िर चुहिया की चुहिया वाली पुरानी कहानी की तर्ज़ पर आजकल की दफ़्तरी लालफीताशाही की पोल खोलती नज़र आती है। तो कहीं किसी अन्य रचना में ग़रीब झोंपड़ी वालों को मोहरा बना भर्ष्टाचार के ज़रिए बड़े नेता नोट कूटते दिखाई देते हैं। इसी संकलन की एक अन्य रचना मध्यमवर्गीय परिवारों की व्यथा व्यक्त करती नज़र आती है कि इनमें बरसों पुरानी हसरतों के पूरा होने पर भी अफ़सोस होता कि पैसे व्यर्थ के काम में बेकार कर दिए। कहीं किसी रचना में हिंदी की ज़रूरत और महत्ता को दर्शाया गया नज़र आता है। तो कहीं किसी रचना में घर में बुजुर्गों के होने की महत्ता को दर्शाया जाता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य रचना में हिंदी ही अपने देश में अपनी बेकद्री होते देख विदेश में बस जाने का प्रयास करती दिखाई देती है। 


इसी संकलन की कुछ रचनाएँ मुझे बेहद प्रभावी लगीं। जिनके नाम इस प्रकार हैं...

* कथा चलती रहे
* एक सुर
* विशेषज्ञ
* द्विदाम्नी
* ये शहर तो...
* तीन तलाक़
* पत्थर में दूब
* नो प्रॉब्लम
* काम
* आँखों की ज्योति
* विश्वास की न्यूज़
* छोटी बहू का स्वागत
* रंग बदलता गिरगिट
* विद्रोहिणी
* अपराजेय
* नया सच
* समर्था
* बड़ा होता बचपन
* चक्र-दुष्चक्र
* पत्थर
* फ़ुर्सत
* हसरत
* सुक़ून


इसी संकलन की एक रचना 'कोटा' मुझे थोड़ी तर्कसंगत नहीं लगी कि क्लर्क जैसी छोटी नौकरी पर शिक्षामंत्री जैसा बड़ा नेता अपने बेटे को फिट करवा रहा है। 

पेज नंबर 22 के प्रथम पैराग्राफ में दिखा दिखाई दिया कि..

'मायके से आया सारा उपहार के नाम पर घर भर का सामान बेदर्दी से बिखरा पड़ा था।'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'मायके से आए उपहार के नाम पर सारा घर का सामान बेदर्दी से बिखरा पड़ा था'
या फ़िर..

'उपहार के नाम पर मायके से आया सारा घर का सामान बेदर्दी से बिखरा पड़ा था'

हालांकि धाराप्रवाह शैली में लिखा गया है यह लघुकथा संग्रह मुझे लेखिका की तरफ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

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