"छोड़ो ना!...कौन पूछता है?"

"छोड़ो ना!...कौन पूछता है?"


***राजीव तनेजा***


"एक...दो...तीन....बारह...पंद्रह...सोलह...


"कितनी देर से आवाज़े लगा लगा के थक गई हूँ लेकिन जनाब हैँ कि अपनी ही धुन में मग्न पता नहीं क्या गिनती गिने चले जा रहे हैँ"...

"कहीं मुँशी से हिसाब लेने में तो गलती नहीं लग गयी?"...


"नहीं"..


"फिर ये उँगलियों के पोरों पर क्या गिना जा रहा है?"...


"क्क..कुछ महीं?"...


"हुँह!..सब बेफाल्तू के काम तुम्हें ही आते हैँ"....

"कुछ और नहीं सूझा तो लगे गिनती गिनने"....


"अब बीवी को कैसे बताता कि मैँ अपनी एक्स माशूकाओं को गिनने में बिज़ी था"...

"सो!...चुपचाप उसकी सुनने के अलावा और कोई चारा भी कहाँ था मेरे पास?"..


"अरे!..गिनती के बजाय अगर ढंग से पहाड़े रट लो तो कम से कम चुन्नू की ट्यूशन के पैसे तो बचें लेकिन...

जनाब को इन मुय्यी बेफाल्तू की कहानियों को लिखने से फुरसत मिले तब ना"...

"क्लास टीचर ने तो साफ कह दिया है कि इस बार अगर फाईनल टर्म में नम्बर अच्छे नहीं आए तो अगली क्लास में बच्चे को चढाना मुश्किल हो जाएगा"..


"पता भी है कि वो शारदा की बच्ची अपनी चम्पा को बरगला के वापिस झारखंड ले गयी है"...


"कौन शारदा?"...


"अरे वही!..प्लेसमैंट एजेंसी वाली कलमुँही...और कौन"...

"अब ये मत पूछ बैठना कि कौन चम्पा?"...


"हाँ!...कौन चम्पा?"मैँ कुछ सोचता हुआ बोला...


"अरे!...अपनी कामवाली बाई चम्पा को भी नहीं जानते?"...

"पता नहीं किन ख्यालों में खोए रहते हो कि ना दीन की खबर ना ही दुनिया का कोई फिक्र"..


"ओह!...क्या हुआ उसको?"...


"रोज़ तो फोन आ रहा था शारदा की बच्ची का कि...साल पूरा हो गया है"...

"नया एग्रीमैंट बनेगा और इस बार चम्पा को गाँव ले के जाऊँगी"...


"अरे यार!...तसल्ली करवानी होती है इन्हें इनके माँ-बाप को कि देख लो...ठीकठाक भली चंगी है"...

"तभी तो इनकी कमाई होती है और नई मछलियाँ फँसती हैँ इनके जाल में"..


"तो एक महीने बाद नहीं करवा सकती थी तसल्ली?"...

"लाख समझाया कि अगले महीने माँ जी की आँख का आप्रेशन होना है"...

"कम से कम तब तक के लिए तो रहने दे इसे लेकिन पट्ठी ऐसी अड़ियल निकली कि लाख मनाने पर भी टस से मस ना हुई"...

"ले जा के ही मानी"...


"तो क्या डाक्टर ने कहा था कि चम्पा की डाईरैक्ट फोन पे बात करवा दो शारदा से?"....


"और क्या करती?"...

"बार-बार फोन कर के मेरा सिर जो खाए जा रही थी कि बात करवा दो...बात करवा दो"...

"पता नहीं अब कैसे मैनेज होगा सब?"...


"क्यों?...क्या दिक्कत है?"...


"दिक्कत?"...

"एक हो तो बताऊँ...एक-एक दिन में दस-दस तो रिश्तेदार आते हैँ तुम्हारे यहाँ"..


"तो?"...


"कभी इसके लिए चाय बनाओ तो कभी उसके लिए शरबत घोलो"...

"इनसे किसी तरह निबटूँ तो पिताजी भी बिना सोचे समझे गरमागरम पकोड़ों की फरमाईश कर डालते हैँ"...


"अरे यार!..बचपन से शौक है उन्हें पकोड़ों का"...


"तो मैँ कहाँ मना करती हूँ कि शौक ना पूरे करें?"...

"कितनी बार कह चुकी हूँ कि 'माईक्रोवेव' ले दो...'माईक्रोवेव' ले दो लेकिन...

ना आप पर और ना ही पिताजी पर कोई असर होता है मेरी बातों का"...


"क्या करना है माईक्रोवेव का?"...


"पता भी है कि एक मिनट में ही सब चीज़ें गर्म हो जाती हैँ उसमें"...


"तो?"...


"अपना...एक ही बार में किलो...दो किलो पकोड़े तल के धर दिए और बाद में आराम से गरम किए और परोस दिए"....


"सिर्फ पकोड़ों भर के लिए ही माईक्रोवेव चाहिए तुम्हें?"...


"नहीं!...अगर मेरी चलने दोगे तो एक बार में ही चाय की पूरी बाल्टी उबाल के रख दूँगी कि....लो!..आराम से सुड़को"...

"सब स्साले!...मुफ्तखोर...ताश पीटने को यहीं जगह मिलती है"..


"तो?"...


"इतना भी नहीं होता किसी से कि कोई मेरी थोड़ी बहुत हैल्प ही कर दे"..

"सारा काम मुझ अकेली को ही करना पड़ता है"...


"क्यों?...कल जो पिताजी आम काटने में तुम्हारी हैल्प कर रहे थे...वो क्या था?"...


"हाँ!..वो काट रहे थे और तुम बेशर्मों की तरह ढीठ बन के दूसरी तरफ मुँह कर 'लाफ्टर चैलैंज' का आनन्द लेते हुए दीददे फाड़ रहे थे"...


"तो क्या?..मैँ भी उनकी तरह अपने हाथ लिबलिबे कर लेता?"...

"ये वेल्ला शौक नहीं पाला है मैँने कि कोई काम-धाम ना हुआ तो बैठ गए पलाथी मार के जनानियों की तरह मटर छीलने"...


"इसमें कौन सी बुरी बात है?"...


"कह दिया ना!...अपने बस का रोग नहीं है ये"...


"हुँह!...बस का रोग नहीं है"...

"मेरी शर्म नहीं है तो ना सही लेकिन पिताजी की ही थोड़ी मदद कर देते तो घिस नहीं जाना था तुमने"...

"मैँ तो तंग आ गई हूँ तुम से और तुम्हारे रिश्तेदारों से"...


"तुम तो यार!..ऐसे ही छोटी सी बात का बतंगड़ बनाने पे तुली हो"...


"छोटी सी बात?"...

"एक दिन चौके में गुज़ार के दिखा दो तो मानूँ"...

"पसीने से लथपथ बुरा हाल ना हो जाए तो कहना"...

"एक बात बताओ"...


"पूछो"...


"वैसे ऐसी बेहूदी राय तुम्हें किस उल्लू के चरखे ने दी थी?"..


"तुमसे शादी करने की?"...


"नहीं"...


"फिर?"...


"यही शमशान घाट के नज़दीक प्लाट खरीद अपना घर बनाने की"...


"तुम भी तो बड़ी राज़ी खुशी तैयार हो गयी थी कि चलो शमशान घाट के बाजू में घर होने से अनचाहे मेहमानों से छुटकारा तो मिलेगा"...


"वोही तो!...लेकिन यहाँ तो जिसे देखो मुँह उठाता है और सीधा हमारे घर चला आता है"...

"घर...घर ना हुआ ...सराय हो गई"...

"इस मुय्ये शमशान से तो अच्छा था कि तुम किसी गुरूद्वारे या मन्दिर के आसपास घर बनाते"...


"उससे क्या होता?"...


"सुबह शाम अपने इष्ट को मत्था टेक घंटियों की खनकार के बीच माला जपती और...

आए-गयों को प्रसाद में गुरू के लंगर छका खुश कर देती"....


"कम से कम रोटियाँ का ये बड़ा ढेर बनाने से तो तुम्हें मुक्ति मिल जाती"मैँ हाथ फैला रोटियों के ढेर का साईज़ बताते हुए बोला...


"और नहीं तो क्या?"...

"तुम तो अपना मज़े से काम पे चले जाते हो...पीछे सारी मुसीबतें मेरे लिए छोड़ जाते हो"...


"तो क्या काम पे भी ना जाऊँ?"...


"ये मैँने कब कहा?"...


"मेरे सामने कोई मेहमान आए तो मैँ कुछ ना कुछ कर के सिचुएशन को हैंडल भी कर लूँ लेकिन...

अब अगर कोई मेरी पीठ पीछे आ धमके तो इसमें मैँ क्या कर सकता हूँ?"...


"कर क्यों नहीं सकते?...साफ-साफ मना तो कर सकते हो अपने रिश्तेदारों को कि हमारे यहाँ ना आया करें"...


"क्या बच्चों जैसी बातें करती हो?"...

"ऐसे भी भला किसी को मना किया जाता है?"...

"ये तो अपने आप समझना चाहिए उन लोगों को"...


"साफ क्यों नहीं कहते कि तुम में हिम्मत नहीं है"...

"अगर तुम्हारे बस का नहीं है तो मैँ बात करती हूँ"...

"कुछ तो शर्म होनी चाहिए कि नहीं?"...

"ना दिन देखते हैँ और ना ही रात"...

"बाप का राज समझ के जब मन करता है...तब आ धमकते हैँ"...

"अभी परसों की ही लो...तुम्हारे दूर के चाचा आए तो थे अपने मोहल्ले के धोबी के दामाद की मौत पे लेकिन..

अपनी लाडली बहू को छोड़ गए मेरे छाती पे मूंग दलने"..


"अरे!..तबियत ठीक नहीं थी उसकी...अपने साथ ले जा के क्या करते?"..


"हुँह!...तबियत ठीक नहीं थी"... .

"अगर तबियत ठीक नहीं थी तो डाक्टर ने नहीं कहा था कि यूँ बन-ठन के किसी के घर जा के डेरा जमाओ"..

"सब ड्रामा है...निरा ड्रामा"...

"देखा नहीं था कि जब आई थी तो कैसे चुप-चुप......हाँ-हूँ के अलावा कोई और बोल-बचन ही नहीं फूट रहा था ज़बान से"...

"लेकिन ससुर के जाते ही पट्ठी चौड़ी हो के ऐसे पसर गई सोफे पे कि बस पूछो मत"...

"उसके बाद तो ऐसी शुरू हुई कि बिना रुके लगातार बोलती चली गई...चबड़...चबड़"...

"तब तक चुप नहीं हुई जब तक सामने ला के कचौड़ी और समोसे नहीं धर दिए"...

"बड़ी फन्ने खाँ समझती है अपने आपको"..


"आखिर कह क्या रही थी?"...


"ये पूछो कि क्या नहीं कह रही थी"..

"कभी अपने सास-ससुर की चुगली...तो कभी ननद जेठानी को लेकर हाय तौबा"...

"उनसे निबटी तो अपनी तबियत का रोना ले के बैठ गयी"..


"हाय!..मेरा तो 'बी पी'(ब्लड प्रैशर) लो हो गया है"...

"हाय!...मेरे घुटनों में दर्द रहने लगा है"...

"उफ!..मेरे सलोने चेहरे पे कहाँ से आ गया ये मुय्या पिम्पल?"...

"देखो!...मेरे चेहरे पे कोई रिंकल तो नहीं दिखाई दे रहे ना?"...


"अरे!...दिखण...भाँवे ना दिखण...मैणूँ अम्ब लैँणा है?(दिखें ना दिखें...मुझे आम लेना है?"

"कल की बुड्ढी होती आज बुड्ढी हो जाए...मेरी बला से"...

"मुझे क्या फर्क पड़ता है?"...


"फिर?"...

"उसके बाद जो मैडम जी ने जो अपनी तारीफें करनी शुरू की कि बस करती ही चली गई"...

"कभी अपने सुन्दर सलोने चेहरे की...तो कभी अपनी कमसिन फिगर की तारीफ"..


"तुम चुपचाप सुनती रही?"..


"मैँने भी उसे चने के झाड़ पे चढाने में कोई कसर नहीं छोड़ी"..


"कैसे?"...


"मैँने कह दिया कि तुम्हारी शक्ल तो बिलकुल कैटरीना कैफ से मिलती है"...


"अरे वाह!...क्या सचमुच?"...


"टट्टू..."...


"तो फिर?"..


"अरे!..'कैटरीना' वो...जो अमेरिका में तूफान आया था"...


"ओह!...और 'कैफ'?"मैँ हँसता हुआ बोला...


"अपना शुद्ध खालिस हिन्दुस्तानी क्रिकेटर 'मोहम्मद कैफ' ...और कौन"...



"हा...हा...हा"...



"इस से बड़ी ड्रामेबाज औरत तो मैँने अपनी ज़िन्दगी में आज तक नहीं देखी"...


"सीधी बात है!...काम ना करना पड़े किसी दूसरे के घर...इसलिए नौटंकी पे उतर आते हैँ लोग"..


"अरे यार!...क्यों बेकार में नाहक परेशान होती हो?"....

"शारदा कह तो गई है कि बीस दिन के अन्दर-अन्दर वापिस लौटा लाऊँगी"...


"क्यों झूठे सपने दिखा के मेरा दिल बहलाते हो?"..

"इतिहास गवाह है कि हमारे घर का गया नौकर कभी वापिस लौट के नहीं आया"...

"पूरे सवा ग्यारह रुपए की बूँदी चढाऊँगी शनिवार वाले दिन...बजरंगबली के पुराने मन्दिर में जो ये वापिस आ जाएगी"...


"फॉर यूअर काईंड इंफार्मेशन ...शनिवार वाले दिन शनिदेव को प्रसन्न किया जाता है ...ना कि बजरंगबली को"मैँ टोकता हुआ बोला...


"सत वचन!..लेकिन...जो एक बार बोल दिया...सो...बोल दिया"...

"अगली बार जब नौकरानी भागेगी तब मंगलवार वाले दिन शनिदेव को प्रसाद चढा के खुश कर देंगे...सिम्पल"...


"सही है!...अभी आयी नहीं है और तुम फिर से भगाने के बारे में पहले सोचने लगी"...

"गुड!...वैरी गुड"...

"इसे कहते हैँ एडवांस्ड प्लैनिंग...लगी रहो"...

"मुझे तो डाउट हो रहा है..कि कोई झारखंड-वारखंड नहीं ले के गई होगी उसे"...

"ज़्यादा पैसों के लालच में यहीं दिल्ली में ही किसी और कोठी में लगवा दिया होगा काम पे"...


"यही!...हाँ ..यही हुआ होगा....बिलकुल"...

"कोई भरोसा नहीं इनका"...


"छोड़ो उसे!...अच्छा हुआ जो अपने आप चली गई "...

"वैसे भी अपने काबू से बाहर निकलती जा रही थी आजकल"...


"हाँ!...ज़बान भी कुछ ज़्यादा ही टर्र-टर्र करने लगी थी उसकी"...

"एक-एक काम के लिए कई-कई बार आवाज़ लगानी पड़ती थी उसे"...


"जब आयी थी तो इतनी भोली कि बिजली का स्विच तक ऑन करना नहीं आता था उसे और अब...

टीवी के रिमोर्ट के साथ छेड़खानी करना तो आम बात हो गई थी उसके लिए"...

"याद है मुझे कि कैसे तुमने दिन रात एक कर के रोज़मर्रा के सारे काम सिखाए थे उसे"....


"और अब जब अच्छी खासी ट्रेंड हो गयी तो ये शारदा की बच्ची ले उड़ी उसे"...


"यही काम है इन प्लेसमैंट ऐजैंसियों का...अनट्रेंड को हम जैसों के यहाँ भेज के ट्रेंड करवाती हैँ....

"फिर दूसरी जगह भेज के मोटे पैसे कमाती हैँ"...

"मेरा कहा मानो तो बीति ताहिं बिसार के आगे की सोचो"...


"मतलब?"...


"भूल जाओ उसे और देख भाल के किसी अच्छी वाली को रख लो"..


"हाँ!..रख लूँ...जैसे धड़ाधड़ टपक रही हैँ ना आसमान से स्नो फॉल के माफिक"..

"पता भी है कि कितनी शॉर्टेज चल रही है आजकल"...

"जब से ये मुय्या 'आई.पी.एल'शुरू हुआ है ...काम वाली बाईयों का तो जैसे अकाल पड़ गया है"...


"वो कैसे?"..


"कुछ एक तो बढती मँहगाई के चलते दिल्ली छोड़ होलम्बी कलाँ और राठधना जा के बस गई हैँ"...

"और कुछ ने गर्मियों के इस सीज़न में अपने दाम दुगने से तिगुने तक बढा दिए हैँ"...

"और ऊपर से नखरे देखो इन साहबज़ादियों के कि सुबह के बर्तन मंजवाने के लिए दोपहर दो-दो बजे तक इनका रस्ता तकना पड़ता है"...

"इनके आने की आस में ना काम करते बनता है और ना ही खाली बैठे रहा जाता है "...

"ऊपर से बिना बताए कब छुट्टी मार जाएँ...कुछ पता नहीं"...


"लेकिन इस सब से 'आई.पी.एल'का क्या कनैक्शन?"...


"अरे!...ऊपर वाली दोनों तरह की कैटेगरी से बचने वाली छम्मक छल्लो टाईप बाईयों ने अपने ऊपरी खर्चे निकालने के चक्कर में ...

पार्ट टाईम में 'चीयर लीडर'का धन्धा चालू कर दिया है"...


"चीयर लीडर माने?"...


"अरे वही!...जो 'आई.पी.एल' के ट्वैंटी-ट्वैंटी मैचों में छोटे-छोटे कपड़ों में हर चौके या छक्के पर उछल-उछल कर फुदक रही होती हैँ"...


"तो क्या ये भी छोटे-छोटे कपड़ों मे?...और इनको इतने बड़े मैचों में परफार्म करने का चाँस कैसे मिल गया?"..


"अरे!...वहाँ नहीं"...


"तो फिर कहाँ?"...


"इंटर मोहल्ला ट्वैंटी-ट्वैंटी क्रिकेट मैचों में साड़ी पहन के ही ठुमके लगा रही हैँ"...

"बिलकुल आई.पी.एल की तर्ज पर ही मैच खेले जा रहे हैँ"...


"लेकिन 'आई.पी.एल' में तो पैसे का बोलबाला है...बड़े-बड़े सैलीब्रिटीज़ ने खरीदा है टीमों को"...


"तो क्या हुआ?"...

"अपने यहाँ की टीमों को भी कोई ना कोई स्पाँसर कर रहा है"...


"जैसे..?"...


"जैसे बगल वाले मोहल्ले की टीम को घासी राम हलवाई स्पाँसर कर रहा है और...अपने मोहल्ले की टीम को तो छुन्नामल ज्वैलर स्पाँसर कर रहा है"...

"घासी राम तो अपनी टीम को चाय समोसे फ्री में खिला-पिला रहा है"...


"तो क्या छुन्ना मल भी अपनी ज्वैलरी बाँट रहा है?"...


"उसे क्या अपना दिवालिया निकालना है जो ऐसी गलती करेगा?"..

"पूरे इलाके का माना हुआ खुर्राट बिज़नस मैन है वो"...

"उसके बारे में तो मशहूर है कि अच्छी तरह से ठोक बजा के जाँचने परखने के बाद ही वो अपने खीस्से में से नोट ढीले करता है"


"तो?"...


"क्रिकेट ग्राऊँड में अपने शोरूम के बैनर लगाने और मोहल्ले की दिवारों पर पोस्टर लगाने की एवज में....

अपनी क्वालिस दे दी है लड़कों को घूमने फिरने के लिए विद शर्त ऑफ पच्चीस से तीस किलोमीटर पर डे"...


"लेकिन कल ही तो मैँने अपने मोहल्ले के लौंडे लपाड़ों को टूटी-फूटी साईकिलों पे इधर-उधर हाँडते(घूमते) देखा था"...


"वोही तो!...घाटा तो उसे बिलकुल बरदाश्त नहीं है"...


"किसे?"...


"अरे!...अपने छुन्नामल को...और किसे?"...


"जहाँ अपनी टीम ने पहले मैच में ठीक से परफार्म नहीं किया...उसने फटाक से अल्टीमेटम दे दिया"...


"फिर?"...


"दूसरे मैच में भी कुछ खास नहीं कर पाने पर उसने अपने यहाँ के कैप्टन को अच्छी खासी झाड़ पिला और अपनी क्वालिस वापिस मँगवा ली"...


"अच्छा!..हमारे कप्तान का थोबड़ा सूजा-सूजा सा लग रहा था"...

"तो क्या बस दो ही टीमें भाग ले रही हैँ तुम्हारे उइस देसी 'आई.पी.एल' में?"...


"नहीं!...तीन टीमें भाग ले रही हैँ"...


"तीसरी टीम को कौन स्पाँसर कर रहा है?"...


"तीसरे टीम को जब कोई और नहीं मिला तो मजबूरी में नन्दू धोबी से ही अपने को स्पाँसर करवा लिया"...


"वो बेचारा तो अपना गुज़ारा ही बड़ी मुश्किल से करता होगा...वो क्या टट्टू स्पाँसर करेगा?"..


"अरे!...तुम्हें नहीं पता...पूरे तीन मोहल्लों में वही तो अकेला धोबी है जिसका काम चलता है बाकि सब तो वेल्ले बैठे रहते हैँ"...


"ऐसा क्यों?"...


"ज़बान का बड़ा मीठा है...हमेशा...जी.जी करके बात करता है...

"बाकि किसी को तो इतनी तमीज़ भी नहीं है कि औरतों से कैसे बात की जाती है...हमेशा तूँ तड़ाक से बात करते हैँ"..

"और आजकल वैसे भी एकता कपूर के सीरियलों की वजह से टाईम ही किस औरत के पास है कि वो खुद कपड़े प्रैस करती फिरे?"...

"सो!..सभी के घर से कपड़ॉं का गट्ठर बनता है और जा पहुँचता है सीधा धोबी के धोबी घाट में"...

"खूब मोटी कमाई है उसकी"...

"सुना है!...अब तो उसने नई आईटैन भी खरीद ली है" ...


"नकद?"....


"नहीं!...किश्तो पे"...

"आजकल उसी से आता-जाता है"....


"अरे वाह!...क्या ठाठ हैँ पट्ठे के"...


"और नहीं तो क्या".....

"उस दिन की याद है ना जब मैँ आपसे ज़िद कर रही थी अक्षरधाम मन्दिर घुमाने ले चलने के लिए और आपने गुस्से में साफ इनकार कर दिया था?"...


"तो?..."...


"पता नहीं इस मुय्ये धोबी के बच्चे को वो बात कैसे पता चल गई और बड़े मज़े से मुझसे कहने लगा कि...

"भाभी जी!...अगर राजीव जी के पास टाईम नहीं है तो मैँ ही आपको अक्षरधाम मन्दिर ही घुमा लाता हूँ"..

"हुँह!..बड़ा आया मुझे घुमाने वाला...शक्ल देखी है कभी आईने में?"


"तुमने ज़रूर किसी से जिक्र किया होगा इस बात का तभी उसे पता चला होगा"...


"मैँने भला किससे और क्यों जिक्र करना है?"...

"अपनी बाई ही पास खड़ी-खड़ी सब सुन रही थी..उसी ने कहा होगा"..


"इनका तो काम ही यही होता है...इधर की उधर लगाओ और...उधर की इधर"..


"जब से ये मुय्या 'आई.पी.एल' शुरू हुआ है..और दिमाग चढा गया है इन माईयों का"...

"मेरी राय में तो बैन लगा देना चाहिए इन चीयर लीडरों पर"...

"सारा का सारा माहौल खराब कर के रख छोड़ा है"...


"कौन सी वालियों ने?"...

"टी.वी वालियों ने या फिर ये अपनी देसी बालाओं ने?"...


"दोनों की ही बात कर रही हूँ"...

"उन्होंने क्रिकेट ग्राऊँड में माहौल बिगाड़ के रखा है तो इन्होंने यहाँ...गलियों में "...


"लोकल वालियों से तो तुम्हारी खुँदक समझ आती है लेकिन इन इन 'टी.वी'वालियों से तुम्हें क्या परेशानी है?"....

"अपना अच्छा भला खिलाड़ियों और दर्शकों...दोनों को जोश दिला रही हैँ"...


"वोही तो..."...

"वो वहाँ क्रिकेट ग्राऊँड में मिनी स्कर्टों में फुदक रही होती हैँ और यहाँ हम औरतों के दिल ओ दिमाग में हमेशा धुक्क-धुक्क होती रहती है"...


"हाथ में आए पँछी के उड़ चले जाने का खतरा?"...


"और नहीं तो क्या?"...

"क्या जादू कर जाएँ?...कुछ पता नहीं इन गोरी चिट्टी फिरंगी मेमों का"...

"और वैसे भी आजकल मन बदलते देर कहाँ लगती है?"...


"अरे!..सबके बस की कहाँ है?"...

"इतनी सस्ती भी नहीं है वे कि कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा फटाक से अपना बटुआ खोले और झटाक से ले उड़े इन्हें"...

"हाँ!...'आई.पी.एल'खिलाड़ियों की और बात है...बेइंतिहा पैसा मिला है उन्हें"...

"आराम से अफोर्ड कर लेंगे लेकिन...यहाँ अपने मोहल्ला छाप खिलंदड़ों का क्या?"...

"उनके पास तो अपने पल्ले से मूँगफली खाने के तक के पैसे नहीं मिलने के...वो भला क्या खाक खर्चा करेंगे?"...

"और सबसे बड़ी बात इन दोनों टाईप की आईटमों का आपस में क्या मुकाबला?"...

"कहाँ वो गोरी चिट्टी...एकदम मॉड...छोटे-छोटे कपड़ों में नज़र आने वाली सैक्सी बालाएँ और....

कहाँ ये एकदम सीधी-साधी सूट या फिर साड़ी में लिपटी निपट गाँव की गँवारने?"

"ना!...कोई मेल नहीं है इनका"...


"लेकिन जब गधी पे दिला आता है ना...तो सोनपरी की चमक भी फीकी दिखाई देने लगती है"...

"याद नहीं?...अभी पिछले हफ्ते ही तो सामने वाले शर्मा जी की मैडम अपने ड्राईवर के साथ उड़नछू हो गई थी और..

वो गुप्ता जी भी तो अपनी बाई के साथ खूब हँस-हँस के बाते कर रहे होते हैँ आजकल"...


"अच्छा!...तभी रोज़ नए-नए सूट पहने नज़र आती है"...


"तुमने कब से ताड़ना शुरू कर दिया उसे?"...


"वो तो!...ऐसे ही एक दिन वो सब्ज़ी ले रही थी...तभी अचानक नज़र पड़ गई"...


"सब समझती हूँ मैँ...अचनाक नज़र पड़ गयी"...

"जब मेरी नज़र किसी पे पड़ेगी ना बच्चू!...तब पता चलेगा"..

"कुछ तो अपनी उम्र का ख्याल करो...अगले महीने पूरे चालीस के हो जाओगे"...


"अब उसे कैसे बताता कि 'ऐट दा एज ऑफ फौर्टी...मैन बिकम्ज़ नॉटी?'"...


"एक बात और ...तुम्हारे इन सो कॉल्ड मॉड कपड़ों को पहन नंगपना करने मात्र से ही कोई सैक्सी नहीं हो जाता"...


"तो फिर कैसे हुआ जाता है...सैक्सी?"...

"ज़रा बताओ तो...एक्सप्लेन इट क्लीयरली"...


"देखो!...चैलैंज मत करो हमें"...

"हम हिन्दुस्तानी औरतें साड़ी और सूट में भी अपनी कातिल अदाएँ दिखा गज़ब ढा सकती हैँ"...


"सच ही तो कह रही है संजू!...तभी आजकल वो गुप्ता जी की कामवाली बाई...हर समय आँखों में छायी रहती है"मैँ मन ही मन सोचने लगा...

"तो क्या अपनी देसी चीयर लीडरस भी?"मैँ बात बदलते हुए बोला...


"अब किसी के चेहरे पे थोड़ी लिखा होता है"...

"पैसा देख मन बदलते देर कहाँ लगती है?"...


"बिलकुल सही बात!...पैसा बड़ा बलवान है"....

"अपना दर्विड़ भी तो अकृत पैसा मिलता देख ट्वैंटी-ट्वैंटी का हिमायती ना होने के बावजूद....

'माल्या जी' की डुगडुगी पे कलाबाजियाँ खाने को तैयार हो गया"


"जब ऐसे बड़े बड़े लोग पैसा देख फिसलने लगे तो इन बेचारी कामवाली बाईयों की क्या औकात?"...

"इन्होंने तो सीधे-सीधे छलांग ही लगा देनी है पैसे को जोहड़(तालाब) में"...


"हम्म!...ये बात तो है"...

"और ऊपर से दोनों जगह मैच देखने वाले तो हाड़-माँस के आम इनसान ही हैँ ना?...

"गल्ती हो भी सकती है"...

"वो वहाँ मैदान में जोश-जोश में उतावले होते हुए मतवाले हो उठेंगे और बाद में घर आ के नाहक अपनी बीवियों को परेशान करेंगे"...


"इसलिए मैँ कहती हूँ कि सभी पर ना सही लेकिन इन देसी चीयर लीडरस पर तो हमेशा के लिए बैन लगना चाहिए"..

"तभी अक्ल ठिकाने आएगी इनकी"...


"मेरा बस चले तो अभी के अभी कच्चा चबा जाऊँ इस शारदा की बच्ची को"...

"उल्लू की पट्ठी !...औकात ना होते हुए भी ऐसे बन ठन के अकड़ के चलती मानो किसी स्टेट की महरानी हो"...

"पता जो है उसे कि उसके बगैर गुज़ारा नहीं है किसी का"..

"एक मन तो करता है कि अभी के अभी जा के सीधा पुलिस में कम्प्लेंट कर दूँ उसकी"...


"अरे!...कुछ नहीं होगा वहाँ भी....उल्टे पुलिस ही चढ बैठेगी हम पर"...


"किस जुर्म में?"...


"अरे!...मालुम तो है तुम्हें...नाबालिग थी अपनी बाई और ऊपर से हमने उसकी पुलिस वैरीफिकेशन भी नहीं करवाई हुई थी"...


"हमने क्या?...पूरे मोहल्ले में सिर्फ सॉंगवान जी का ही घर है जिन्होंने सारी की सारी फारमैलिटीज़ पूरी की हैँ"...


"सही बात!...कभी मूड बना के थाने जाओ भी तो कहते हैँ...पहले लेटेस्ट फोटो ले के आओ"...


"पागल के बच्चे!...कभी पूछते हैँ....कि कौन कौन सी भाषाएँ बोलती है?"...

"तुमने इससे उपनिष्द पढवाने हैँ?...या फिर कोई गूढ अनुवाद कराना है?"...


"बेतुके सवाल ऐसे समझदारी से करेंगे मानों इन सा इंटलैक्चुअल बन्दा पूरे जहाँ में कोई हो ही नहीं"...


"उम्र कितनी है?"...

"पढी-लिखी है के नहीं?"...

"अगर है!...तो कहाँ तक पढी है?"...


"अरे!...तुमने क्या उस से डॉक्ट्रेट करवानी है जो ये सब सवालात कर रहे हो?"...

"स्साले!...सनकी कहीं के...कभी-कभी तो दोनों हाथों के फिँगर प्रिंट ला के देने तक का फरमान जारी कर देते हैँ"...

"अब इनके तुगलकी आदेश के चक्कर में अपने हाथ नीले करते फिरो"...


"हमें कोई और काम है कि नहीं?"...


"उनके कहे अनुसार सब कर भी दो तो कभी फलानी कमी निकाल देते हैँ तो कभी ढीमकी"...


"पहले तो कभी अपने यहाँ की पुलिस इतनी मुस्तैद नहीं दिखी थी...जैसी आजकल दिख रही है"...

"अच्छी भली को पता नहीं अचानक क्या बिमारी लग गयी?"...


"तुम्हारा कहना सही है!...आमतौर पर तो अपने यहाँ की पुलिस ढुलमुल रवैया ही अपनाती है लेकिन...

जब कभी कहीं कोई तगड़ी वारदात होती है...तब इन पर ऊपर से डण्डा चढता है और तभी ये पूरी फुल्ल फुल्ल मुस्तैदी दिखाते हैँ"...


"वैरीफिकेशन के काम में देरी लगाने की शिकायत करो तो जवाब मिलता है कि 'कानून' से काम करने में तो वक्त लगता ही है"...


"लेकिन कोई ये बताएगा कि ये सॉंगवान का बच्चा कैसे आधे घंटे में ही सारा काम निबटा आया था?"...


"पट्ठे ने!...ज़रूर चढावा चढाया होगा"...


"यही सब तो प्लेसमैंट एजेंसी वाले भी करते हैँ"...

"तभी तो पुलिस भी इनकी छोटी-मोटी गल्तियों को नज़र अन्दाज़ करती है और....

इसी कारण बिना किसी डर...बिना किसी खौफ के इनका धन्धा दिन दूनी रात चौगुनी तेज़ी से फलफूल रहा है"...


"अब तो कम समय में ज़्यादा कमाई के चक्कर में बहुत से बेरोज़गार मर्द-औरत इस धन्धे धड़ाधड़ उतरते जा रहे हैँ"...


"हम्म!...इसीलिए आजकल इन तथाकथित प्लेसमैंट ऐजेंसियों की बाड़ सी आ गई है"...


"घरेलू नौकरानियों की डिमांड ही इतनी ज़्यादा है कि पूरा ज़ोर लगाने पर भी पूर्ति नहीं हो पा रही है"...


"तभी तो आजकल इन प्लेसमैंट वालों के भाव बढे हुए हैँ"...


"कहने को तो ये कहते हैँ कि हम समाजसेवा का काम कर रहे हैँ"...

"गरीब...मज़लूमों को रोज़गार उपलब्ध करवा रहे हैँ लेकिन इनसा कमीना मैँने आज तक नहीं देखा"....


"वो कैसे?"...


"अरे!...इस प्लेसमैंट की आड़ में ये जो जो अनैतिक काम होता है ...उनके बारे में जो कोई भी सुनेगा तो हैरान रह जाएगा"...


"अनैतिक काम?"...


"और नहीं तो क्या?"...

"देह-व्यापार से लेकर स्मगलिंग तक कोई भी धन्धा इनसे अछूता नहीं है"...


"ओह!...


"जिन बच्चों की अभी पढने-लिखने की उम्र है उनसे ज़बर्दस्ती इधर का माल उधर कराया जाता है"...


"कैसा माल?"...


"यही!...स्मैक...ब्राऊन शुगर...पोस्त से लेकर छोटे-मोटे हथियार तक ...कुछ भी हो सकता है"...


"ओह!...स्मैक...ब्राऊन शुगर से लेकर हथियार तक...बाप रे"...


"अरे!...ये प्लेसमैंट का धन्धा तो अपनी घिनौनी करतूतों को छुपाने के लिए करते हैँ"...

"किसी से शादी करने या करवा देने का लालच देकर....

तो किसी को मोटी तनख्वाह पे आरामदायक नौकरी दिलवाने का झुनझुना थमा कर ये अपने प्यादे तैयार करते हैँ"...

"लाया गया तो उन बेचारों को किसी और काम के लिए होता है और झोंक दिया जाता है किसी और काम की भट्ठी में"...


"क्या सच?"...


"हो भी सकता है"...


"मतलब?"...अभी तो तुम ये सब कह रहे थे...वो सब क्या था?"...


"वो तो यार!...मैँ ऐसे ही...मज़ाक...


"तो इसका मतलब...इतनी देर से झूठ पे झूठ बके चले जा रहे थे?"...


"और क्या करता?"...

"तुम सुबह से कामवाली बाई को लेकर परेशान हुए बैठी थी"...


"तो?"...


"तुम्हारा ध्यान बटाने के लिए"...


"हुँह"..


"लेकिन मेरी सभी बातें झूठ नहीं हैँ और...बाकी भी सच हो सकती हैँ...कसम से"....


"वो कैसे?"...


"कलयुग है ये और इसमें कुछ भी हो सकता है क्योंकि....ज़माना बड़ा खराब है"...


"हाँ!...ये तो है"...

"सच में!..ज़माना बड़ा खराब है"...



"ट्रिंग..ट्रिग"...

"देखना तो!...किसका फोन है?"...


"हैलो.....

"कौन?"...

"अरे!...चम्पा....कहाँ है बेटा तू?"....

"दिल्ली में?"...

"लेकिन बेटा!...तू तो गाँव जाने की कह कर गई थी ना?"...

"अच्छा!...शारदा नहीं ले के गई"...

"अभी कहाँ है बेटा?"...

"क्या कहा?...पता नहीं"...

"बेटा!...रो मत...चुप हो जा"...

"यहीं आ जा हमारे पास"....

"पता मालुम है ना बेटा?"...

"अच्छी तरह तो याद करवाया था ना तुझे?"...

"हाँ!...ठीक है"...

"एक काम कर बेटा!...किसी रिक्शे या फिर ऑटो वाले को हमारे घर का पता बता दे"...

"ठीक है बेटा!...किराया हम यहीं दे देंगे"...

"तू चिंता ना कर"...

"हम तो तुझे पहले ही रोक रहे थे ना लेकिन...क्या करें?...वो शारदा नहीं मानी ना"...

"ठीक है!...ठीक है बेटा"....

"हैलो..हैलो...

"क्या हुआ?"...

"फोन क्यों काट दिया बेटा?"...


"क्या हुआ?"....

"चम्पा का फोन था"...


"अच्छा...क्या कह रही थी?"...


"यही दिल्ली में ही है"...

"किसी कोठी में काम कर रही है"....


"लेकिन वो तो गाँव जानी की कह कर गई थी ना?"...


"मैँ ना कहती थी कि सब ड्रामा है...यहीं कहीं लगवा दिया होगा"....

"कह तो रही है...कि आ रही हूँ"...


"कहाँ से फोन किया था?"...


"किसी 'पी.सी.ओ'से कर रही थी"...

"कह तो रही थी कि अभी आधे घंटे में पहुँच जाऊगी"...

"हे ऊपरवाले!...तेरा लाख-लाख शुक्र है"...


"अब तो खुश?"...


"बहुत"...


"एक मिनट!...फोन तो देना"...


"कहाँ मिलाना है?....मैँ मिला देती हूँ"...


"पुलिस स्टेशन"...


"किसलिए?"...


"वैरीफिकेशन..."...


"छोड़ो ना!...कौन पूछता है?"...


***राजीव तनेजा***

3 comments:

सुशील छौक्कर said...

सच को बयान करती एक अच्छी पोस्ट।

अविनाश वाचस्पति said...

Leave your comment के नीचे इतना और जोड़ लो ....... और बल खाते रहो

खैर ...

सब कुछ कह दिया इसमें आपने
फिर भी बहुत कुछ रह गया है
रहना इसलिए जरूरी है क्‍योंकि
अगली कहानी में बहुत कुछ कहना है
कहना ही आपका गहना है
आपने सच ही कहना है
झूठ तो सिर्फ सोचना है

आप शब्‍दों की ड्राइविंग में माहिर हो
किधर से किधर भी मोड़ लेते हो
कभी खुद चलाते हो शब्‍दों की गाड़ी
कभी भाभीजी को पकड़ा देते हो
शब्‍दों की गाड़ी का स्टियरिंग
वे भी अच्‍छा चलाती हैं
कहीं ऐसा तो नहीं
सभी कुछ वो ही आपको
बताती हैं.

पर कुल मिलाकर
स्‍पीड अच्‍छी आ रही है
एवरेज भी पसंद आ रही है
ब्‍लाग की गाड़ी चली जा रही है
सभी को पसंद आ रही है
लुभा रही है मस्‍त बना रही है.

Keerti Vaidya said...

really ...hans hans ke bure haal ho rahey ...kya subject chuna hai likhne ka..aur naam ..hahaaaaaa

 
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