"काम हो गया है...हथोड़ा मार दो"
***राजीव तनेजा***
"हैलो'
"इज़ इट...+91 804325678 ?...
"जी"...
"सैटिंगानन्द महराज जी है?"
"हाँ जी!...बोल रहा हूँ"..
"आप कौन?"
"जी मैँ!...राजीव बोल रहा हूँ"
"कहाँ से?
"मुँह से"...
"वहाँ से तो सभी बोलते हैँ"...
"क्या आप कहीं और से भी बोलने में महारथ रखते हैँ?"
"जी?"...
"जी नहीं!...मेरा मतलब ये नहीं था"...
"फिर क्या तात्पर्य था आपकी बात का?"...
"जी!...मैँ कहना चाहता था कि मैँ शालीमार बाग से बोल रहा हूँ"
"ठीक है!...लेकिन पहले आप ये बताएँ कि आपको मेरा ये पर्सनल नम्बर कहाँ से मिला?..और...
उसके बाद फोन करने का मकसद बताएँ""
"जी!...मुझे श्री लौटाचन्द जी ने वाराणसी से लौटते समय आपका नम्बर दिया था"
"अच्छा!...अच्छा"...
"जी!...मुझे पता चला था कि इस बार दिल्ली में शिविर का आयोजन होना है"...
"आपने सही सुना है"...
"तो मैँ चाहता था कि इस बार का ठेका...
"देखिए!...आजकल हमारे फोनों के टेप-टाप होने का खतरा बना रहता है इसलिए अभी ज़्यादा बात करना उचित नहीं"...
"ऐसा करते हैँ...मैँ दो दिन बाद मैँ दिल्ली आ रहा हूँ...आप अपना पता और फोन नम्बर मुझे मेल कर दें"...
मैँ आपके घर पे ही आ जाता हूँ और फिर आराम से बैठ के सारी बातें...सारे मैटर विस्तार से डिस्कस कर लेंगे"...
"ठीक है!...जैसा आप उचित समझें"...
आप मेरी ई-मेल आई.डी नोट कर लें....
"जी!...बताएँ"...
आई.डी है व्यवस्थानन्द@नकदनरायण.कॉम
"ठीक है!...मैँ अभी मेल करता हूँ"...
"ओ.के...आपका दिन मँगलमय हो"
"आपका भी"
(दो दिन बाद)
ट्रिंग...ट्रिंग...ट्रिंग....
हैलो ...राजीव जी?...
"जी!...बोल रहा हूँ"...
"मैँ सैटिंगानन्द!.....बाहर खड़ा कब से कॉलबैल बजा रहा हूँ...लेकिन कोई दरवाज़ा ही नहीं खोल रहा है।"..
"ओह!...अच्छा....अभी खोल रहा हूँ।"...
"आईए...आईए"..
'यहाँ...यहाँ सोफे पे विराजिए"..
"वो दरअसल क्या है कि आजकल हमारी कॉलबैल खराब है।"...
"और ये पड़ोसियों के बच्चे ना!...पूरी की पूरी..आफत हैँ आफत"...
"एक से एक नौटंकीबाज ...एक से एक ड्रामेबाज भरा पड़ा है हमारे मोहल्ले में"...
"बच्चे हैँ...बच्चों का काम है शरारत करना"...
"ये बच्चे तो ऐसे हैँ कि बड़े-बड़ों के कान कतर डालें"...
"वक्त-बेवक्त तंग करना तो कोई इनसे सीखे"...
"ना दिन देखते हैँ ना रात....
फट्ट से घंटी बजाते हैँ और झट से फुर्र हो जाते हैँ"
"इसलिए इस बार जो घंटी खराब हुई तो ठीक करवाना उचित नहीं समझा"...
"बिलकुल सही किया आपने"...
"आजकल तो वैसे भी बच्चे-बच्चे के पास मोबाईल है"...
"जो आएगा...अपने आप कॉल कर लेगा"...
"क्यों?...है कि नहीं"
"खैर!...अब सुनाएँ.....कैसे हैँ आप?"...
"मैँ ठीकठाक!...आप सुनाएँ"...
"सफर में कोई दिक्कत..कोई परेशानी तो नहीं?"...
"नहीं!...ऐसी कोई खास दिक्कत या परेशानी नहीं लेकिन बस थकावट तो हो ही जाती है लम्बे सफर में...
सो!..बदन कुछ-कुछ टूट-टूट सा रहा है"...
"आपसे मिलने को मन बहुत उतावला था"...
इसलिए इधर स्टेशन पे गाड़ी रुकी और उधर मैँने ऑटो पकड़ा और सीधा आपके यहाँ पहुँच गया"....
"अच्छा किया"...
"पहले सोचा कि किसी होटल-वोटल में कोई आराम दायक कमरा ले के घंटे दो घंटे आराम करता हूँ...
उसके बाद आपसे मिलने चला आऊँगा"..
"लेकिन यू नो!...टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"
"और ऊपर से टू बी फ्रैंक!..मुझे पराए देस में होटल वगैरा का पानी रास नहीं आता है और...
"तो किसी धर्मशाला या सराय....
"नहीं जी!..धर्मशाला या सराय में रहने से तो अच्छा है कि बन्दा प्लैटफार्म पर ही लेट-लाट के कमर सीधी कर घड़ी दो घड़ी सुस्ता ले"
"दरअसल!..इन सस्ते होटलों के भिचभिचे माहौल से बड़ी कोफ्त होती है मुझे"...
"एक तो पैसे के पैसे खर्चो करो...ऊपर से दूसरों के इस्तेमालशुदा बिस्तर पे...
छी...
पता नहीं कैसे-कैसे लोग वहाँ आ के ठहरते होंगे?..और ना जाने क्या-क्या पुट्ठे-सीधे काम करते होंगे"...
"मैँ तो कहता हूँ आग लगी हुई है आजकल की नौजवान पीढी को.."...
"स्वामी जी!...ज़माना बदल गया है...ट्रैंड बदल गए हैँ"..
"जीने के सारे मायने....सारे कायदे बदल गए हैँ"...
"देश प्रगति की राह पर बाकी सभी उन्नत देशों के साथ कदम से कदम...कँधे से कँधा मिला के चल रहा है।"
"और वैसे भी ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है...इसलिए!..बाहरले देशों का असर तो आएगा ही"...
"राम...राम!...आग लगे ऐसे ग्लोबलाईज़ेशन को...ऐसी उन्नति को...ऐसी प्रगति को"...
"ऐसी भी क्या आगे बढने की...ऊँचा उठने की अँधी हवस....जो देश को...देश के आवाम को गर्त में ले जाए...पतन की राह पे ले जाए?"
"खैर!..छोड़ो इस सब को...जिनका काम है...वही गौर करेंगे इस सब पर"
"अपना क्या है?..हम तो ठहरे मलंग मस्तमौले फकीर"...
"जहाँ किस्मत ने धक्का देना है...वहीं झुल्ली-बिस्तरा उठा के चल देना है"...
"बस!..यही सब सोच कि किसी होटल-वोटल में डेरा जमा...धूनी रमाना अपने बस का नहीं"...
"सीधा!...आपके यहाँ चला आया कि दो-चार...दस दिन जितना भी मन करेगा....राजीव जी के साथ उन्हीं के घर पे
बिता लूँगा"
"आखिर!..हमारे लौटाचन्द जी के परम मित्र जो ठहरे"
"हे हे हे हे....कोई बात नहीं जी"...
"ये भी आप ही का घर है"...
"जब तक जी में आए ..तब तक अलख जगा धूनी रमाएँ"...
"ठीक है!...फिर कब करवा रहे हो कागज़ात मेरे नाम?..
"कागज़ात?"...
"अभी आप ही ने कहा ना"...
"क्या?"...
"यही कि ..ये भी आप ही का घर है"..
"हे हे हे हे"...
"स्वामी जी!...आपके सैंस ऑफ ह्यूमर का भी कोई जवाब नहीं"..
'खैर!...ये सब बातें तो चलती ही रहेंगी...पहले आप नहा-धो के फ्रैश हो लें...तब तक मैँ चाय-वाय का प्रबन्ध करवाता हूँ"...
"नहीं वत्स!...चाय की इच्छा नहीं है...आप बेकार की तकलीफ रहने दें"...
"महराज जी!...इसमें तकलीफ कैसी?"..
"दरअसल!...मैँ चाय पीता ही नहीं हूँ"...
"चाय नहीं पीते हैँ?"...
"ओ.के...जैसी आपकी मर्ज़ी"...
"लेकिन अपनी कहूँ तो...सुबह आँख तब खुलती है जब चाय की प्याली बिस्कुट या रस्क के साथ सामने मेज़ पे सज चुकी होती है और...
दिन भर तो किसी ना किसी का आया-गया लगा ही रहता है"...
"सो!... पूरे दिन में यही कोई आठ से दस कप चाय आराम से हो जाती है"...
""आठ से दस कप?"...
"वत्स!...क्या कर रहे हो?"..
"सेहत के साथ यूँ खिलवाड़ अच्छा नहीं"...
"जानते नहीं कि सेहत अच्छी हो..तो सब अच्छा लगता है"...
"वक्त-बेवक्त किसी और ने नहीं बल्कि तुम्हारे शरीर ने ही तुम्हारा साथ देना है"...
इसलिए...इसे संभाल कर रखो...स्वस्थ रखो"...
"मुझे देखो!...चाय पीना तो दूर की बात है ...मैँने आजतक कभी इसकी खाली प्याली को भी सूँघ के नहीं देखा"...
"ठीक है स्वामी जी!...कोशिश करूँगा कि चाय से दूर रहूँ"...
"कोशिश नहीं...वचन दो मुझे"..
"तुम्हें कसम है तुम्हारे आने वाले कल की....खेतों में चलते हल की...
जो तुमने आज के बाद कभी चाय को छुआ भी तो"...
"ठीक है स्वामी जी!....आपका मान तो रखना ही पड़ेगा"...
"मैँ आपके लिए दूध मँगवाता हूँ?"...
"ठण्डा या गर्म?"....
"कैसा लेना पसन्द करेंगे आप?"...
"दूध?"...
"वो तो मैँ दिन में सिर्फ एक बार....
सुबह चार बजे की पूजा के बाद...
दो चम्मच शुद्ध देसी घी या फिर...शहद के साथ लेता हूँ"...
"ये सब कष्ट आप रहने दें और एक काम करें"...
"जी"...
"वहाँ!....वहाँ उधर मेरा कमंडल रखा है...उसे मुझे ला के दे दें"...
"कमंडल?...अभी क्या करेंगे उसका?"..
"दरअसल!..क्या है कि उसमें एक 'अरिस्टोक्रैट' का अद्धा रखा है"...
"ट्रेन में ऐसे ही किसी श्रधालु का हाथ देख रहा था...तो उसी ने ...ऐज़ ए गिफ्ट प्रैज़ैंट कर दिया"...
"ओह!...
"आप उसे!...हाँ उसे ही मुझे पकड़ा दें और हो सके तो कुछ नमकीन वगैरा...स्नैक्स वगैरा भिजवा दें"...
"जब तक मैँ इसे गटकता हूँ तब तक आप खाने का आर्डर भी कर ही दें"...
"सोडा भी लेता आऊँ?"...
"नहीं!...यू नो...सोडे से मुझे गैस बनती है...और बार-बार गैस छोड़ना बड़ा अजीब सा लगता है...ऑकवर्ड सा लगता है"..
"गैस?"...
"पता नहीं इन कोला कम्पनियाँ को इस अच्छे भले...साफ-सुथरे पानी में गैस मिला के क्या मिलता है?"...
"ना जाने क्यों मिलावट कर वो इसे गन्दा कर देती हैँ...अपवित्र कर देती हैँ?"मेरी बात सुने बिना वो बोलते चले गए
"जी"...
"आप एक काम करें...
उधर!...हाँ उधर मेरे झोले में शुद्ध गंगाजल पड़ा है ..'
हाँ!...उसी...उसी 'बैगपाईपर' की बोतल में ही रखा है..
उसे ही दे दें...काम चल जाएगा"वो थैले की तरफ इशारा करते हुए बोले...
"ठीक है!...जैसी आपकी मर्ज़ी"...
"आप बताएँ कि सफर कैसे कटा?"...
"बस!...सफर की तो आप पूछें मत.....
"एक तो दुनिया भर का भीड़ भड़क्का..ऊपर से लम्बा सफर
धकम्मपेल में हुई थकावट के कारण सारा बदन चूर-चूर हो रहा था और ऊपर से भूख भी लगी हुई थी"...
सो!.. मैने सोचा कि स्टेशन पे उतरने के बाद किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में जा कर शाही पनीर के साथ 'चूर-चूर नॉन' खाए जाएँ...
"यू नो!...शाही पनीर और चूर-चूर नॉन का मज़ा ही कुछ और है"
"जी!...ये तो मेरे भी फेवरेट हैँ"...
"फिर मैँने सोचा कि बेकार में सौ दो सौ फूंक के क्या फायदा?"...
"लंच टाईम भी होने ही वाला है और...राजीव जी भी तो भोजन करेंगे ही"...
"सो!...क्यों ना उन्हीं के घर का प्रसाद चख पेट-पूजा कर ली जाए"
उन्होंने मेरे लिए भी तो बनवाया ही होगा"
"हे हे हे हे....क्यों नहीं..क्यों नहीं"
"बिलकुल सही किया आपने"...
"हाँ!...तो अब काम की बात करें?"...
"नहीं!...जब तक मैँ ये अद्धा गटकता हूँ...तब तक आप खाना लगवा दें क्योंके..
पहले पेट पूजा...बाद में काम दूजा"...
"जी!...जैसा आप उचित समझें"...
"भय्यी!...और कोई चाहे कुछ भी कहता रहे लेकिन अपने तो पेट में तो जब तक दो जून अन्न का नहीं पहुँच जाता....
तब तक कुछ करने का मन ही नहीं करता"...
"वो कहते हैँ ना कि भूखे पेट तो भजन भी ना सुहाए"
(खाना खाने के बाद)
"मज़ा आ गया...अति स्वादिष्ट....अति स्वादिष्ट"सैटिंगानन्द जी लम्बी डकार मारते हुए बोले
"हाँ!..अब बताएँ कि आप उन्हें कैसे जानते हैँ?"
"किन्हें?"...
"अरे!...अपने लौटाचन्द जी को और किन्हे?"...
"ओह!...अच्छा"...
"जी!...दरअसल वो हमारे और हम उनके लंग़ोटिया यार हैँ"...
"अभी कुछ हफ्ते पहले ही मुलाकात हुई थी उनसे"
"अभी आप कह रहे थे कि वो आपके लँगोटिया यार हैँ"...
"जी"...
"फिर आप कहने लगे कि अभी कुछ ही हफ्ते पहले मुलाकात हुई"
"जी"...
"लेकिन लँगोटिया यार तो उसे कहते हैँ जिसके साथ बचपन की यारी हो...दोस्ती हो"...
"ओह!...सॉरी....आई.एम वैरी सॉरी"...
दरअसल!...लंगोटिया यार से मेरा ये तात्पर्य नहीं था"
"फिर क्या मतलब था आपका?"...
"जी!...दरअसल बात ये है कि वो मुझे पहली बार हरिद्वार में गंगा मैय्या के तट पे नंगे नहाते हुए मिले थे"
"नंगे?"...
'अब!...वहाँ 'हर की पौढी' में तेज़ बहाव के चलते उनकी लंगोटी जो बह गई थी"...
"तो नंगे ही नहाएंगे ना?"...
"ओह!...अच्छा"...
"तो क्या घर से एक ही लंगोटी ले के निकले थे?"
"यही सब डाउट तो मुझे भी हुआ था और मैँने इस बाबत पूछा भी था लेकिन वो कुछ बताने को राज़ी ही नहीं थे"...
"मैँने उन्हें अपनी ताज़ी-ताज़ी हुई दोस्ती का वास्ता भी दिया लेकिन वो नहीं माने"...
"आखिर में जब मैँने तंग आ कर अपना लँगोट वापिस लेने की धमकी दी तो थोड़ी नानुकर के बाद सब बताने को राज़ी हुए"..
"अच्छा...फिर?"
"उन्होंने बताया कि घर से तो वो तीन ठौ लंगोटी ले के चले थे"...
"एक खुद पहने थे और दो सूटकेस में नौकर के हाथों पैक करवा दी थी"...
"फिर तो उनके पास एक पहनी हुई और दो पैक की हुई याने के कुल जमा तीन लँगोटियाँ होनी चाहिए थी?"...
"जी!..लेकिन...उनमें से एक को तो उनके साले साहब बिना पूछे ही उठा के चलते बने"...
"बाद में जब फोन आया तो पता चला कि वो तो 'मँसूरी' पहुँच गए हैँ 'कैम्पटी फॉल' में नहाने के लिए"...
"हाँ!...फिर तो लँगोटी ले जा के उसने ठीक ही किया क्योंकि सख्ती के चलते मँसूरी का प्रशासन वहाँ नंगे नहाने की अनुमति बिलकुल नहीं देता है"..
"लेकिन मेरे ख्याल से तो लौटाचन्द जी को साफ-साफ कह देना चाहिए था अपने साले साहब को कि वो अपनी लँगोटी खुद खरीदें"...
"किस मुँह से मना करते लौटाचन्द जी उसे?"...
"वो खुद कई बार उसी की लँगोटी माँग के ले जा चुके थे...कभी गोवा भ्रमण के नाम पर तो कभी काँवड़ यात्रा के नाम पर"...
"और ऊपर से ये जीजा-साले का रिश्ता ही ऐसा है कोई कोई इनकार करे तो कैसे?"...
"वो कहते हैँ ना कि सारी खुदाई एक तरफ और...जोरू का भाई एक तरफ"...
"जी"
"इसलिए मना नहीं कर पाए उसे"...
"आखिर लाडली जोरू का इकलौता भाई जो ठहरा"...
"लेकिन हिसाब से देखा जाए तो एक लँगोटी तो फिर भी बची रहनी चाहिए थी उनके पास"...
"बची रहनी चाहिए थी?"...
"वो कैसे?"..
"हाँ!..याद आया....आप तो जानते ही हैँ लौटाचन्द जी की पी के कहीं भी इधर-उधर लुड़क जाने की आदत को"...
"जी"...
"बस!...सोचा कि हरिद्वार तो ड्राई सिटी है...वहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं"...
"सो!...दिल्ली से ही इंग्लिश-देसी सबका पूरा इंतज़ाम कर के चले थे कि सफर में कोई दिक्कत ना हो"...
"ठीक किया उन्होंने...रास्ते में अगर मिल भी जाती तो बहुत मँहगी पड़ती"...
"उसके बाद तो बस सारे रस्ते...बस पीते गए....बस पीते गए"...
"नतीजन!...ऐसी चढी कि हरिद्वार पहुँचने के बाद भी ...लाख उतारे ना उतरी"...
"ओह"...
"रात भर पता नहीं कहाँ लुड़कते-पुड़कते रहे"...
"अगले दिन म्यूनिसिपल वालों को गंदी नाली में बेहोश पड़े मिले थे"....
"पूरा बदन कीचड़ से सना हुआ...बदबू के मारे बुरा हाल"...
"ओह:...
"बदन से धोती लँगोट सब गायब"...
"धोती..लंगोट सब गायब?"...
"कोई चोर-चार ले गया होगा"...
"अजी कहाँ?...हरिद्वार के चोर इतने गए गुज़रे भी नहीं कि किसी की इज़्ज़त...किसी की आबरू के साथ यूँ खिलवाड़ करते फिरें"...
"तो फिर?"...
"शायद!...रात भर चूहे डिनर में इन्हीं के कपड़े चबा गए होंगे"
"और बस तभी से हमारी उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई"...
"ओ.के...ओ.के"
"वैसे...एक राज़ की बात बताऊँ?"
"उनसे कहिएगा नहीं"...
"जी"...
"परम मित्र हैँ...बुरा मान जाएँगे"...
"जी!..आप चिंता ना करें"...
"बेशक सारी दुनिया इधर की उधर हो जाए लेकिन मेरी तरफ से इस बाबत आपको कोई शिकायत नहीं मिलेगी"...
"आप बेफिक्र हो के कोई भी राज़ की बात मुझ से कह सकते हैँ"...
"कहीं उनको पता चल गया तो?"...
" यूँ समझिए कि जहाँ कोई कॉंफीडैंशल बात इन कानों में पड़ी...वहीं इन कानों को शीला दीक्षित की सरकारी 'सील' लग गई"
"और साथ ही लगे हाथ..ये बड़ा....मोटा सा ...फुल साईज़ का ताला लग गया इस कलमुँही ज़ुबान पे"
"जहाँ बारह-बारह सी.बी.आई वाले भी लाख कोशिश के बावजूद कुछ उगलवा नहीं पाए...वहाँ ये लौटानन्द चीज़ ही क्या है?"...
"सी..बी.आई. वाले?"...
"अरे!...बस ऐसे ही!...
उल्लू के चर्खे...स्साले!..थर्ड डिग्री अपना के बाबा जी के बारे अंट-संट निकलवाना चाहते थे मेरी ज़ुबान से लेकिन मजाल है जो मैँने उफ तक की हो या ....एक शब्द भी मुँह से निकाला हो"..."...
"ये सब तो खैर!..आए साल चलता रहता है...
"कभी इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों के छापे...तो कभी पुलिस और 'सी.बी.आई' की रेड"...
"इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों का मामला तो अखबार और मीडिया में भी खूब उछला था कि इनकी फर्म हर साल लाखों करोड़ रुपयों की आयुर्वेदिक दवायियाँ बेचती है और एक्सपोर्ट भी करती है लेकिन उसके मुकाबले टैक्स आधा भी नहीं भरा जाता"...
"आधा?...
अरे!...हमारा बस चले तो आधा क्या हम अधूरा भी ना भरें"...
"लेकिन स्वामी जी!...टैक्स तो भरना ही चाहिए आपको"...
देश के लिए ...देश के लोगों के भले के लिए"...
"पहले अपना...फिर अपनों का...भला कर लें..
बाद में देश की..देश के लोगों की सोचेंगे"...
"एक आरोप और भी तो लगा था ना आप पर?"...
"कौन सा?"...
"यही कि आपकी दवाईयों में जानवरो की...
"ओह...अच्छा...वो वाला...
उसमें तो एक लाल झण्डे वालों की ताज़ी-ताज़ी बनी अभिनेत्री...
ऊप्स!...सॉरी ...नेत्री ने इलज़ाम लगाया था कि...
हम अपनी दवाईयों में जानवरों की हड्डियाँ मिलाते....गो मूत्र मिलाते हैँ"..
"उस उल्लू की चरखी को कोई जा के ये बताए तो सही कि बिना हड्डियाँ मिलाए...
आयुर्वेदिक या यूनानी दवाईयों का निर्माण नहीं हो सकता है"...
"और रही गोमूत्र की बात!...तो उस जैसी लाभदायक चीज़...उस जैसा एंटीसैप्टिक तो पूरी दुनिया में और कोई नहीं"...
"हाँ!..मैँने भी उसए कई बार देखा था टीवी....रेडियो वगैरा में बड़बड़ाते हुए"...
अरे!..औरतज़ात थी इसलिए बाबा जी ने मेहर की और...बक्श दिया...
वर्ना हमारे सेवादार तो उनके एक हलके से...महीन से इशारे का इंतज़ार कर रहे थे"...
पता भी नहीं चलना था कि कब उस अभिनेत्री...ऊप्स सॉरी नेत्री की हड्डियों का सुरमा बना ...
और कब वो सुरमा मिक्सर में पिसती दवाईयों के संग घोटे में घुट गया"...
"ये सब तो खैर आपके समझाने से समझ आ गया लेकिन ये पुलिस वाले बाबा जी के पीछे क्यों पड़े हुए थे?"....
"वैसे तो हर महीने...बिना कहे ही पुलिस वालों को और टैक्स वालों को उनकी मंथली पहुँच जाती है लेकिन...
इस बार मामला कुछ ज़्यादा ही पेचीदा हो गया था"...
"ओह!...क्या हुआ था?"...
"अभी दो महीने पहले ही एक पागल से आदमी ने पुलिस में झूठी शिकायत कर दी कि बाबा जी ने उसकी बीवी और जवान बेटी को
बहला-फुसला के अपनी सेवादारी में....अपनी तिमारदारी में लगा लिया है"...
"अरे!..उसकी बीवी या फिर उसकी बेटी दूध पीती बच्ची है जो बहला लिया...फुसला लिया?"
"वोही तो"...
"अब अपनी मर्ज़ी से कोई बाबा जी की शरण में आना चाहे तो क्या बाबा जी उसे दुत्कार दें... भगा दें?"...
"उसकी पागल की देखादेखी एक-दो और ने भी सीधे-सीधे बाबा जी पे ही अपनी बहन...अपनी बहू को अगवा करने का आरोप जड़ दिया"
"फिर?"...
"फिर क्या?...कोई और आम इनसान होता तो गुस्से से बौखला उठता...बदला लेने की नीयत से सोचता लेकिन....
बाबा जी महान हैँ...बाबा जी देवता हैँ"...
"जी!..ये तो है"...
"चुपचाप मौन धारण कर बिना किसी को बताए समाधि में लीन हो गए"....
"ओह"...
"बाद में मामला ठण्डा होने पर ही समाधि से बाहर निकले"...
"सहनशक्ति देखो बाबा जी की....विनम्रता देखो बाबा जी की
इतना ज़लील..इतना अपमानित...इतना बेइज़्ज़त होने के बावजूद भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा"...
"बस!...सबसे शांति बनाए रखने की अपील करते रहे"...
"जी"...
"और जब बचाव का कोई रास्ता नहीं दिखा तो अपने वकीलों..अपने शुभचिंतकों से सलाह मशवरा करने के बाद...
कोई चारा ना देख...पुलिस वालों से सैटिंग कर ली और उन्होंने ने जो जो माँगा...चुपचाप बिना किसी ना नुकुर के दे दिया"..
"बिलकुल ठीक किया...कौन कुत्तों को मुँह लगाता फिरे?"..
"बदले में पुलिस वालों ने शहर में अमन और शांति बनाए रखने की गर्ज़ से दोनों पक्षों में समझौता करा दिया"...
"जब शिकायतकर्ताओं ने आपसी रज़ामंदी और म्यूचुअल अण्डरस्टैडिंग के चलते अपनी सभी शिकायतें वापिस ले ली तो बाबा जी के
आश्रम ने भी उन पर थोपे गए सभी केस..सभी मुकदमे बिना किसी शर्त वापिस ले लिए"..
"खैर!...ये तो हो रही थी बाबा जी की दरियादिली की बात"...
"आप शायद कोई राज़ की बात बताने वाले थे?"...
"राज़ की बात?"...
"हाँ!...याद आया...
मैँ तो बस इतना ही कहना चाहता था कि उन्होंने याने के लौटाचन्द जी ने अभी तक मेरी लंगोटी वापिस नहीं की है"...
"हा...हा...हा"...
"वैरी फन्नी"...
"आप तो बहुत हँसाते हो यार"...
"क्या करू?..ऊपरवाले ने बनाया ही कुछ ऐसा है"
"ये ऊपरवाला!...कहीं आपसे ऊपरवाली मंज़िल पे तो नहीं रहता?"...
"ही...ही....ही"...
"यू ऑर आल सो वैरी फन्नी"...
"स्वामी जी!..एक जिज्ञासा थी"...
"पूछो वत्स"...
"ये जो स्वामी जी के शिविर वगैरा लगते रहते हैँ ...पूरे देश में"...
"जी"...
"इन्हें आर्गेनाईज़ करने वाले को भी कोई फायदा होता है"...
"फायदा?"...
"अरे!...उसके अगले-पिछले सब पाप मुक्त हो जाते हैँ...आज़ाद हो जाते हैँ"...
"मन शांत और निर्मल रहने लगता है"...
"ये बात तो ठीक है आपकी लेकिन मेरा मतलब था कि इतने सब इंतज़ाम करने में वक्त और पैसा सब लगता है"...
"वत्स!...हमारे बाबा जी का जो एक बार सतसंग या योग शिविर रखवा लेता है.....वो सारे खर्चे...सारी लागत निकालने के बाद आराम
से अपनी तथा अपने परिवार की छ से आठ महीने तक की रोटी निकाल लेता है"...
"सिर्फ रोटी?"...
'
"और नहीं तो क्या लड्डू=पेड़े?"...
"एक्चुअली टू बी फ्रैंक!...बचता तो बहुत ज़्यादा ही है लेकिन हमें ऐसा कहना पड़ता है.....
नहीं तो कभी-कभार कम टिकटें बिकने पर आर्गेनाईज़र लोगों के ऊँची परवान चढे सपने धाराशाई हो जाते हैँ ना"...
और हम ठहरे ईश्वर के प्रकोप से डरने वाले बन्दे...
इसलिए अपने भगतों को दुखी नहीं देख सकते...निराश नहीं देख सकते" ..
"वैसे आजकल बाबा जी का रेट क्या चल रहा है"...
"फॉर यूअर काईंड इंफार्मेशन बाबा जी बिकाऊ नहीं हैँ"...
"मेरा मतलब था कि वो अपने विज़िट के चार्जेज़ कितने लेते हैँ?"...
"सात दिनों के शिविर के पचास लाख"..
"लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो पाँच साल पहले तो बाबा जी का रॆट तीस लाख रुपए था"
"यू नो!...पाँच साल में मँहगाई कितनी बढ गई है?"...
"अगर बैंक में भी रुपए डालो तो लगभग दुगने हो जाते हैँ"..
"इस हिसाब से देखा जाए तो बाबा जी ने सबका ध्यान रखते हुए तीस के पचास किए हैँ...साठ नहीं"...
खैर!...बातें तो बहुत हो गई...अब क्यों ना हम काम की बात करते हुए असल मुद्दे पे आएँ?"...
"जी बिलकुल!...मुझे भी इसी का इंतज़ार था"..
"तो फिर आप बताएँ!...क्या कहना चाहते थे आप?"...
"एक्चुअली मुझे फाल्तू बात करने की आदत नहीं है ...
इसलिए मैँ टू दा प्बाईट बात करता हूँ कि इस बार उनके शिविर का ठेका मुझे मिलना चाहिए"...
"आप अपना बता दें कि आपको कितना चाहिए?"...
"लेकिन इस बार की डील तो शायद मेहरा ग्रुप वालों से फायनल होने जा रही है"...
"सब आपके हाथ में है...आप जिसे चाहेंगे...वही नोट कूटेगा"
"बात तो आपकी ठीक है लेकिन वो गैडगिल का बच्चा...
"अजी!...लेकिन वेकिन को मारिए गोली और टू बी फ्रैंक होके सीधे-सीधे बताईए कि आपका पेट कितने में भरेगा?
"मुझे वही लोग पसन्द आते हैँ जो फाल्तू बातों में टाईम वेस्ट नहीं करते और सीधे मुद्दे पे आते हैँ"...
"साफ-साफ शब्दों में कहूँ तो ज़्यादा लालच नहीं है मुझे"...
"फिर भी कितना?"...
"जो मन में आए...दे देना"....
"लेकिन बात पहले खुल जाए तो ज़्यादा बेहतर...बाद में दिक्कत पेश नहीं आती"...
"यू नो!...पैसा चीज़ ही ऐसी है कि बाद में बड़ों बड़ों के मन डोल जाते हैँ"
"मैँ तो यार!...तुच्छ सा..अदना सा प्राणी हूँ"...
"ज़्यादा ऊँची उड़ान उड़ने के बजाय ज़मीन पे चलना पसन्द करता हूँ मैँ"...
"बस!...आटे में नमक बराबर दे देना"...
"आप साफ-साफ कहें ना ...कितना?"...
"ठीक है!...बाबा जी का तो आपको पता ही है ...पचास लाख उनके और उसका दस परसैंट...याने के पाँच लाख मेरा"...
"टोटल हो गया पचपन लाख"...
"लेकिन मुझे पता चला है कि मेहरा ग्रुप वाले तो आपसे काफी कम में डील फाईनल करने जा रहे थे"...
"आपकी खबर सौ परसैंट सही है...सच्ची है लेकिन उनके मुँह से निवाला छीनने में यू नो...
"मुझे भी कोई ना कोई जवाब दे उन्हें टालना पड़ेगा"..
'साथ ही ऊपर से नीचे तक काफी उठा-पटक करने की ज़रूरत पड़ेगी"...
"कईयों के मुँह बन्द करने पड़ेंगे"
"जी!...वो लौटाचन्द जी ने कहा था किसी और से बात करने के बजाय सीधा 'सैटिंगानन्द' जी से ही बात करना"
इसलिए मैँने सीधे-सीधे आपको कांटैक्ट किया वर्ना वो गैडगिल तो बाबा जी से भी डिस्काउंट दिलाने की बात कह रहा था"
"उस स्साले!...गैडगिल की तो मैँ...
"कोई भरोसा नहीं उसका...कई पार्टियों से एडवांस ले भी मुकर चुका है"..
"आप चाहें तो खुद पता कर लें"...
"मैँ तो कहता हूँ कि ऐसे काम से क्या फायदा?...बाद में उसके चक्कर काटते रहोगे"...
"वैसे एक बात टू बी फ्रैंक हो के कहूँ?....
"जी!...ज़रूर"...
'खाना उसने भी है और खाना मैँने भी है लेकिन जहाँ वो आजकल मोटा होने के लिए ज़्यादा फैट्स...ज़्यादा प्रोटींन वगैरा ले रहा है...
वहीं मैँने आजकल पतला होने की ठानी है "...
इसलिए मार्निंग वॉक के अलावा 'रामदेव' जी का योगा शुरू कर दिया है"....
"कमाल के चीज़ है ये योगा भी"...
"यू नो!... पिछले बीस दिनों में...मैँ पंद्र्ह किलो वेट लूज़ कर चुका हूँ"...
"इसलिए आप फिट-फिट भी लग रहे हैँ"...
"ट्रिंग...ट्रिंग...."...
"हैलो...कौन?"...
"लौटाचन्द जी....
"नमस्कार"...
"हाँ जी!...उसी के बारे में बात कर रहे थे"...
"बस!...फाईनल ही समझिए"...
"ठीक है!...एडवांस दिए देता हूँ"...
"कितना?"...
"पाँच लाख से कम नहीं?"...
"लेकिन अभी तो मेरे पास यही कोई तीन...सवा तीन के आस-पास पड़ा होगा"...
"ठीक है!...आप दो लाख लेते आएँ"...
"आज ही साईनिंग एमाउंट दे के डील फाईनल कर लेते हैँ"...
"नेक काम में देरी कैसे?"...
"आधे घंटे में पहुँच जाएँगे?"...
"ठीक है!..मैँ वेट कर रहा हूँ"...
ओ.के..."...
"बाय-बाय"फोन रख दिया जाता है...
"अपने लौटाचन्द जी थे"...
"बस..अभी आते ही होंगे"..
"तो क्या लौटाचन्द जी भी आपके साथ?"...
"जी!...पहली बार आर्गेनाईज़ करने की सोची है ना"...
"इसलिए अभी पूरा कॉंफीडैंस नहीं है"...
"चिंता ना करो..राम जी सब भली करेंगे"...
"मैँ तो कहता हूँ कि ऐसा चस्का लगेगा कि सारे काम..सारे धन्धे भूल जाओगे"...
"लाखों के वारे-न्यारे होंगे..लाखों के"...
"एक मिनट!..आप बैठें ..मैँ पेमैंट ले आता हूँ"...
"ठीक है...गिनने में भी तो वक्त लगेगा..एण्ड यू नो.....
"टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"...
"हा हा हा हा..वैरी क्लैवर"...
"लीजिए...स्वामी जी!...गिन लीजिए..पूरे साढे तीन लाख है"...
बाकि के ढेढ लाख भी बस आते ही होंगे"...
और बाबा जी के पेमैंट तो डाईरैक्ट उनके आश्रम में पहुँचानी है ना?"...
"नहीं आजकल सख्ती चल रही है...
उड़ती-उड़ती खबर पता चली है कि कुछ 'सी,बी.आई' वाले सेवादारो के भेष में आश्रम के चप्पे-चप्पे पे नज़र रखे बैठे हैँ"...
"तो फिर?"...
"चिंता की कोई बात नहीं है...हम आपको एक कोड वर्ड बताएँगे"...
"जी"..
"जो कोई भी वो कोड वर्ड आपको बताए..आप रकम उसके हवाले कर देना"...
"वो उसे हवाला के जरिए बाहरले मुल्कों में बाबा जी के बेनामी खातो में जमा करवा देगा"..
"ठीक है जी...जैसा आप उचित समझें"...
"ठक...ठक..ठक.."
"लगता है कि लौटाचन्द जी आ गए"...
"जी!..यही लगता है"...
"एक मिनट!...मैँ दरवाज़ा खोल के आता हूँ...आप आराम से गिनिए"...
"ठीक है"...
"आईए!...आईए...'एस.एच.ओ' साहब और....
गिरफ्तार कर लीजिए इस ढोंगी और पाखँडी को"...
"धोखा"....
"सारे सबूत!...आवाज़ और विडियो की शक्ल में रिकार्ड कर लिए हैँ मैँने इसके खिलाफ"...
"और आपके दिए इन नोटों पर भी इसकी उँगलियों के निशान छप ही चुके होंगे"
"कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी पुलिस मेरा"...
"दो दिन भी अन्दर नहीं रख पाएगी तेरी ये पुलिस मुझे"..
"जानता नहीं!...पहचानता नहीं कि "बाबा जी महान है"...उनकी की पहुँच कहाँ तक है"...
"किंता ना कर...तेरे चहेते बाबा जी के आश्रम में भी रेड पड़ चुकी है"...
"क्या?"...
"इधर तेरा विडियो बन रहा था तो उधर उनका भी बन रहा था"...
"क्या?"...
"लौटाचन्द जी वहीं है और उन्हीं का फोन था उस वक्त कि....
काम हो गया है...हथोड़ा मार दो"
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
Delhi(India)
http://hansteraho.blogspot.com
+919810821361
+919896397625
5 comments:
bahut majedaar post. badhai
राजीव जी
सही जगह हथोड़ा मारा हैं। और आवाज भी हमारे तक पहुँच गई। राजीव चलाते रहो हथोडा।
बदिया पोस्ट हैं राजीव जी,
मुझे तो सबसे अच्छी लाइन वो लगी
"कहाँ से?
"मुँह से"...
"वहाँ से तो सभी बोलते हैँ"...
"क्या आप कहीं और से भी बोलने में महारथ रखते हैँ?"
हथौडा तो बज चुका है अदालत में कि मिस्टर तनेजा के उत्तेजक विषयों पर कलम चलाने के कारण तमाम पाठकों को हंसते हँसते पेट में अल्सर की शिकायत हो गई है,लिहाजा यह अदालत उन्हें ताजिंदगी सिस्टम की keys पर अंगुलियाँ घिसने का हुक्म देती है.
आलोक सिंह "साहिल"
इस बार के हथौड़े की मार
नहीं है मीठी गोली
सभी विषयों को लपेटा है
थोड़े थोड़ी
क्या खूब मिलाई है
बेजोड़ जोड़ी
यह है क्या
रपट तो लगती नहीं
मुझे तो एक जासूसी
उपन्यास लगता है
उसी का सारा आनंद
समाया हुआ है इसमें.
वैसे चाहो तो
बना सकते हो
एक टेली फिल्म
होली होली
यानी धीरे धीरे.
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