धोखा- सुरेन्द्र मोहन पाठक

अगर आपको कभी लगे कि जो कुछ भी आप अपनी खुली आँखों से एकदम चकाचक देख रहे हैं..कानों से साफ़ साफ़ सुन रहे हैं..उसे शिद्दत के साथ महसूस भी कर रहे है, उसी चीज़.. बात या उसी आपकी आँखों देखी घटना को हर कोई आपके मुँह पर ही सिरे से नकार रहा है..आपके  दिमाग़ का खलल कह कर सिरे से ख़ारिज़ कर रहा है..उसके वजूद से ही इनकार कर रहा है। तो सोचिए कि उस वक्त आप के दिल..आपके दिमाग ..आपके ज़हन पर क्या बीतेगी?

 क्या आपके सामने इसके सिवा और कोई चारा नहीं होगा कि आप सीधे सीधे उन्हें पागल करार दे दें? मगर सोचिए कि तब क्या होगा जब यही इल्ज़ाम..यही तोहमत लगा कर वो सब भी आपको पागल करार कर दें और दिमाग़ी संतुलन को सही करने के इरादे से किसी मनोचिकित्सक के पास जाने या सीधे एवं साफ़ तौर पर खरे खरे आपको किसी सैनिटोरियम अर्थात पागलखाने में भर्ती होने की सलाह दे डालें। 
 
दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ थ्रिलर उपन्यासों के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक के 'विवेक अगाशे' सीरीज़ के एक रोचक उपन्यास 'धोखा' की। जिसे मैंने दिल्ली के दरियागंज इलाके में लगने वाले पुरानी किताबों के साप्ताहिक बाज़ार या फिर फेसबुक एवं व्हाट्सएप पर चल रहे पुरानी किताबों के किसी ग्रुप से अंदाज़न 40/- रुपए में प्राप्त किया था। 

विवेक अगाशे सीरीज़ का यह मेरे द्वारा पढ़ा गया पहला उपन्यास है। विवेक अगाशे, फौज का रिटायर्ड लेफ्टिनेंट कर्नल है जो कि अब एक प्राइवेट डिटेक्टिव है और दिल्ली में ही 'क्राइम क्लब' नाम की की एक संस्था चलाता है। 

इस उपन्यास में कहानी है रोहित सूरी नाम के एक ऐसे नौकरीपेशा युवक की जो स्टॉक्स में डील करने वाली एक फर्म में बतौर असिस्टेंट कार्यरत है। एक दिन फर्म के एक महत्त्वपूर्ण बुज़ुर्ग क्लाइंट की उनके दफ़्तर के सामने ही उस वक्त बस के नीचे आ.. कुचले जाने से मौत हो जाती है जब वो दफ़्तर से फर्म के इंचार्ज के साथ बाहर घर जाने के लिए निकला था। इस घटना के बाद रोहित सूरी के साथ कुछ ऐसी घटनाएँ घटने लगती हैं कि जैसे कोई युवती दारुण हालत में उसे मदद के लिए पुकार रहा है। कभी उसे खून से लथपथ कोई लाश दिखाई देती है या फिर बुरी तरह से  घायल कोई युवती उससे मदद की गुहार लगाती दिखाई देती है। मगर हैरानी की बात यह कि पुलसिया तफ़्तीश में ना कभी कोई लाश मिलती है और ना ही कोई घायलावस्था में तड़पती युवती। यहाँ तक कि पुलसिया जाँच  में भी ऐसी किसी वारदात के होने का कोई संकेत तक नहीं मिलता। 

क्या यह सब उसके मन का वहम या महज़ ख्याली पुलाव भर था? या फिर इन सारी घटनाओं के पीछे खुद उसी की कोई गहरी साजिश? क्या एक के बाद एक कंफ्यूज़न क्रिएट करती इन तमाम गुत्थियों को विवेक अगाशे सुलझा पाएगा? या फिर वह भी पुलिस की ही तरह इनमें उलझ कर रह जाएगा? यह सब जानने के लिए तो आपको इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास को पूरा पढ़ना पड़ेगा।

हालांकि लेखक की प्रतिष्ठानुसार उपन्यास में ज़्यादा पेंचों से भरी कहानी के ना होने की वजह से मन थोड़ा मायूस हुआ लेकिन बेहतरीन क्लाइमैक्स ने इस कमी की तरफ़ ज़्यादा ध्यान नहीं जाने दिया। 

348 ओरिष्ठीय इस तेज़ रफ़्तार बढ़िया उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को राजा पॉकेट बुक्स ने 2009 में छापा था और तब इसका मूल्य 60/- रुपए रखा गया था। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।


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