गांधी चौक- डॉ. आनंद कश्यप

किसी भी देश की व्यवस्था..अर्थव्यस्था एवं शासन को सुचारू रूप से चलाने में एक तरफ़ जहाँ सरकार की भूमिका बड़ी ही विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण होती है। अब ये और बात है कि वह भूमिका आमतौर पर थोड़ी विवादित एवं ज़्यादातर निंदनीय होती है। वहीं दूसरी तरफ़ सरकार की इच्छानुसार तय की गयी सही/ग़लत योजनाओं..परियोजनाओं और कानूनों का खाका बनाने..संवारने और उन्हें अमली जामा पहनाने में उच्च पदों पर आसीन नौकरशाहों का बहुत बड़ा हाथ होता है। 

इस तरह की उच्च पदों वाली महत्त्वपूर्ण सरकारी नौकरियों के प्रति देश के पढ़े लिखे नौजवानों में एक अतिरिक्त आकर्षण रहता है जो कि पद की गरिमा एवं महत्ता को देखते हुए स्वाभाविक रूप से जायज़ भी है।  साथ ही सोने पे सुहागा ये कि उन्हें गाड़ी..बंगला..सलाम ठोंकने एवं मातहती की क्षुद्धापूर्ति हेतु अनेकों नौकर चाकर भी बिना खर्चे के..बिन मांगें मुफ़्त ही मिल जाते हैं। 

अब जिस नौकरी के साथ इतने मन लुभावने आकर्षण एवं ख्वाब जुड़े होंगे तो स्वाभाविक ही है कि उस क्षेत्र में कोशिश करने वाले अभ्यर्थियों के बीच प्रतियोगिता भी उसके हिसाब से ही तगड़ी याने के अत्यधिक कठिन होगी। वजह इस सब के पीछे बस यही कि अफसरशाही से भरे इस दौर में नौकरशाहों का बोलबाला है। सब उन्हीं को..उनकी बड़ी कुर्सी को सलाम ठोंकते..उसी के आगे पीछे घूमते और उसी के आगे अपने शीश नवाते हैं। 

दोस्तों..आज सिविल परीक्षा और उससे जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं डॉ. आनंद कश्यप के द्वारा इसी विषय पर लिखे गए उनके उपन्यास 'गांधी चौक' की बात करने जा रहा हूँ। इस उपन्यास में कहानी है मध्यप्रदेश के विभाजन से बने छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर में स्थित एजुकेशन हब याने के गाँधी चौक इलाके में बने कोचिंग सेंटर्स एवं बतौर पी.जी आसपास के इलाके में दिए जाने वाले खोखेनुमा दड़बों की।

छत्तीसगढ़ राज्य की पृष्ठभूमि पर पनपती इस गाथा में कहीं कोई विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष कर शनै शनै मंथर गति से आगे बढ़ रहा है। तो कहीं कोई जंग जीतने के बावजूद भी निराशा और तनाव की वजह से अवसाद में आ..जीती हुई बाज़ी भी अनजाने में हार बैठता है। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है गरीबी समेत अनेक दुश्वारियों..दिक्कतों एवं परेशानियों से जूझते सैकड़ों..हज़ारों युवाओं के पनपते..फलीभूत होते सपनों की। इसमें बातें हैं तमाम तरह की मेहनत और कष्ट झेल आगे बढ़ने का प्रयास करते युवाओं के नित ध्वस्त होते सपनों एवं धराशायी होती उनकी उच्च महत्त्वाकांक्षाओं की। इसमें कहानी है हताशा से जूझने..लड़ने और हारने के बावजूद नयी राह..नयी मंज़िल तलाश खुद में नयी आभा..नयी ऊर्जा..नयी संभावनाएं खोजने एवं उन्हें तराश कर फिर से उठ खड़े होने वालों की। 

इस उपन्यास में कहीं कॉलेज की मस्तियाँ.. चुहलबाज़िययां..नोकझोंक एवं झड़प दिखाई देती है। तो कहीं कोई मूक प्रेम में तड़पता खुद को किसी के एक इशारे में बदल डालने को आतुर दिखाई देता है। इसमें कहीं कोई पद की गरिमा को भूल अहंकार में डूबा दिखाई देता तो कहीं कोई किसी के एक इशारे..एक आग्रह को ही सर्वोपरि मान खुद को न्योछावर करता दिखाई देता है।

कहीं इसमें मज़ेदार ढंग से शराबियों की विभिन्न श्रेणियों का संक्षिप्त वर्णन दिखाई देता है तो कहीं
सरकारी अस्पतालों में फैली अव्यवस्था और उनकी दुर्दशा की बात दिखाई देती है। इस उपन्यास में कहीं हल्के व्यंग्य की सुगबुगाहट चेहरे पर मुस्कान ले आती है। तो कहीं इसमें बतौर कटाक्ष, भारतीय रेलों के कम देरी से पहुँचने पर इसे एक उपलब्धि के रूप में लिया जाता दिखाई देता है। कहीं इसमें दबंगई के दम पर दूसरे की दुकान/मकान पर जबरन कब्ज़े होता दिखाई देता है। तो कहीं हल्के फुल्के अंदाज़ में पंडित जी की बढ़ी तोंद से उनकी फुल टाइम पंडिताई का अंदाज़ा लगाया जाता दिखाई देता है।

कहीं बेरोज़गारी के चलते छोटे भाई से घर के बाकी सदस्यों की बेरुखी नज़र आती है। तो कहीं मरे व्यक्ति की जेबें टटोलते..गहने उतारते नज़दीकी रिश्तेदार दिखाई देते हैं।

इस उपन्यास को पढ़ते वक्त एक जगह चाय वाले को एक चाय के पैसे ना देने पर चाय वाले समेत भीड़ का किसी को पीट देना थोड़ा नाटकीय लगा। तो वहीं पेज नंबर 106 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'अशवनी स्टेशन से चलकर अपने गाँव की ओर जाने वाली बस में बैठ गया। बस पगडंडियों से होकर गुजर रही थी।'

यहाँ यह गौरतलब बात है कि पगडंडी से पैदल गुज़रा जाता है ना कि उनसे बस।

उपन्यास में कहीं कहीं लेखक एक ही पैराग्राफ में कभी वर्तमान में तो भूतकाल में 'था' और 'है' शब्द के उपयोग से जाता दिखा। भाषा भी कहीं कहीं औपचारिक होने के नाते थोड़ी उबाऊ भी प्रतीत हुई। जिसे सरस वाक्यों एवं गंगाजमुनी भाषा के माध्यम से रोचक बनाया जा सकता था। साथ ही कहानी कभी सूत्रधार याने के लेखक के माध्यम से आगे बढ़ती दिखी तो कभी अपने पात्रों के माध्यम से। बेहतर होता कि शुरुआत में कहानी के सूत्रधार के माध्यम से शुरू करने के बाद पूरी कहानी को अगर पात्रों की ज़ुबानी ही बताया जाता। 

उपन्यास में कुछ जगहों पर छत्तीसगढ़ी भाषा में संवाद आए हैं। उनका सरल हिंदी अनुवाद भी अगर साथ में दिया जाता तो बेहतर था। कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना..थोड़ा खला। उपन्यास में अनेक जगह ऐसे छोटे-छोटे कनेक्टिंग वाक्य दिखाई दिए जिन्हें आसानी से आपस में जोड़ कर एक प्रभावी एवं असरदार वाक्य बनाया जा सकता था। 

इस 200 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ब्लू ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

0 comments:

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz