दिल है छोटा सा- रणविजय

जहाँ एक तरफ कुछ कहानियों को पढ़ते वक्त हम उसके किरदारों से भावनात्मक तौर पर खुद को इस तरह जोड़ लेते हैं कि उसके सुख..उसकी खुशी को अपना समझ खुद भी चैन और सुकून से भर उठते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ कुछ कहानियॉ मन को उद्वेलित करते हुए हमें इस कदर भीतर तक छू जाती हैं कि हम किरदार की पीड़ा..उसके दुःख दर्द को अपना समझ..उसी की तरह चिंतायुक्त हो..उसी बारे में सोचने को मजबूर होने लगते हैं। 

अमूमन एक किताब में एक ही कलेवर की रचनाएँ पायी जाती हैं लेकिन कई बार एक ही पैकेज में कई कई रंग जैसी ऑफर्स भी तो मिलती ही हैं ना? ऐसा ही पैकेज मुझे इस बार मिला जब एक ही किताब में अलग अलग कलेवर की कहानियाँ पढ़ने को मिली।

दोस्तों... आज मैं बात कर रहा हूँ लेखक रणविजय जी के कहानी संग्रह "दिल है छोटा सा" की। यतार्थ के धरातल पर मज़बूती से खड़ी हुई इनकी रचनाएँ अपनी अलग पहचान दर्ज करवाने में पूरी तरह सक्षम हैं।। इस संकलन की पहली कहानी थोड़ी कॉम्प्लिकेटेड याने के जटिल प्रेम कहानी है जिसमें एक युवक, अपना विवाह तय हो जाने के बावजूद किसी और युवती के आकर्षण(प्रेम नहीं) में बँध, उसे पाना चाहता है। उधर युवती भी किसी और के साथ पहले से ही अंगेज्ड होने के बावकूद उससे प्यार करने लगती है और उससे भी प्रेम में संपूर्ण समर्पण चाहती है मगर युवक क्या ऐसा करने की हिम्मत कर पाता है? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी है इंजीनियरिंग कर रही अमनदीप और शिशिर की दोस्ती के बीच लगातार टाँग अड़ाते दिलफेंक..लंपट प्रोफ़ेसर विक्रांत की। जिसमें एक की ज़िद और दूसरे की  हताशा ऐसी कुंठा और अवसाद को जन्म देती है कि सिवाय बदनामी के किसी के हाथ कुछ नहीं आता। नतीजन तीन ज़िंदगियाँ शहर से दरबदर हो, बरबाद हो जाती हैं।

"मजबूरी जो ना कराए..अच्छा है।" इस बात की तस्दीक करती अगली कहानी है बेरोज़गारी की मार झेलते युवा दंपत्ति रामजीत और श्यामा की। जिन पर एहसान कर उनका एक पुराना परिचित, किशन, उसे नौकरी तो दिलवा देता है मगर एहसान भी आजकल भला कहाँ निस्वार्थ भाव से किए जाते हैं?

इससे अगली कहानी है 42 वर्षीय शादीशुदा वरिष्ठ अधिकारी अरविंद और उनसे पार्क में सैर के दौरान मिली विनीता के बीच शनै शनै पनपते प्रेम और लगाव भरे सफ़र की जिसे एक खूबसूरत मोड़ पर किसी और जन्म के लिए फिलहाल अधूरा छोड़ दिया जाता है। 

इसी संकलन की अन्य कहानी है गांव में रहने वाले दो भाइयों केदारनाथ और बदरीनाथ की। बड़े भाई बदरी के लालच के चलते पक्षपातपूर्ण बंटवारा हो जाने के बावजूद भी उसे छोटे भाई की मेहनत और किस्मत से अर्जित हुई संपन्नता देख कर चैन नहीं है। जलन इस हद तक बढ़ जाती है कि हताशा के मारे कुएँ में छलांग लगा उसे आत्महत्या का प्रयास करना पड़ता है। 

अगली कहानी है जेपी एसोसिएट्स नामक हाइवे निर्माण कंपनी में बतौर प्रोजेक्ट मैनेजर कार्यरत तेजस मिश्रा और नयी नयी पोस्टिंग हो कर उस इलाके में आयी एसडीएम मानसी गुप्ता की है।  जिसके पास एक ज़रूरी काम निकलवाने के तेजस का जाना बेहद ज़रूरी है। उस पढ़ाई में औसत मानसी गुप्ता के पास जो कभी उससे बेहद प्रेम करती थी मगर उसने, उसका दिल तोड़ते हुए उसे साफ़ इनकार कर दिया था। अब उसकी समृद्धि.. उसकी शान और रुआब से प्रभावित हो, वो उसे फिर से पाने..अपनाने के मंसूबे बाँधने की सोचने लगता है मगर गया वक्त क्या कभी लौट के आता है? 

अगली कहानी है गरीबी...अभाव...शोषण और बुरे हालातों में जी रहे बदलू और किसुली की। वहाँ उनके साथ ऐसा क्या होता है कि अपने उज्ज्वल भविष्य के सपने को देख उनकी आंखें खुशी से चमक उठती हैं। 

जैसा कि मैंने पहले कहा कि इस एक संकलन में आप कई कई रंगों से वाबस्ता होंगे तो कहीं इसमें प्यार की मद भरी  रोमानी बातें हैं तो कहीं दुख..ग़रीबी..कटुता एवं बेरोज़गारी की मार झेलते लोग भी। कहीं इसमें विवाहेतर संबंधों की बातें हैं तो कहीं इसमें भाइयों की आपसी फूट..जलन और लालच भी है। कहीं इसमें खुद श्रधेय तो दूसरे को हेय समझने की मानसिकता है। कहीं इसमें इस किताब में कहीं कोई ऊँचे बोल बोल, हवा हवाई बातों से अपनी हवा बनाते दिखता है तो कहीं ठग..लंपट मौका देख, अपने रंग दिखाने से नहीं चूकता है। 

एक आध जगह कुछ छोटी छोटी मात्रात्मक ग़लतियाँ दिखाई दी। इसके अलावा मुखर्जी नगर का जिक्र आने पर एक जगह "वाजीराम एकैडमी" लिखा दिखाई दिया जबकि असलियत में वह "वाजीराव अकैडमी" है। 

सच कहुँ तो रणविजय जी के लेखन को पढ़ कर अफ़सोस हुआ कि..जनाब..इतना बढ़िया हुनर ले कर अब तक आप कहाँ खोए रहे? मानवीय स्वभाव एवं अपने आसपास के माहौल को देखने..समझने और परखने का उनका ऑब्जर्वेशन बहुत बढ़िया है।

यूँ तो यह कहानी संकलन बतौर उपहार मुझे लेखक से मिला लेकिन अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस 160 पृष्ठीय उम्दा कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 150/- रुपए जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

1 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

संग्रह रोचक लग रहा है। पढ़ने की कोशिश रहेगी।

 
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