10वीं फेल- अजय राज सिंह

हर इम्तिहान में हर कोई अव्वल दर्जे से पास हो अपनी कामयाबी के झण्डे गाड़ ले...ये कोई ज़रूरी नहीं। असलियत में हमारा, ज़िन्दगी के इम्तिहान में पास होना ज़रूरी है कि हम उसमें पास होते या फिर फेल। आरंभिक शिक्षा की बात करें तो स्कूल वगैरह  की पढ़ाई हमें समाज में उठना बैठना..बोलना बतियाना सिखाती हुई उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारी नींव मजबूत करती है लेकिन अगर उच्च शिक्षा पाना मकसद ना हो तो ये ले के चलें कि इसमें ऐसा किताबी ज्ञान होता है जिसकी हमारे व्यवहारिक जीवन में हमें शायद ही कभी भूल भटके ज़रूरत पड़ती है। ढूँढने पर हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जिसमें कम पढ़ाई बावजूद भी बहुत से लोगों ने असल ज़िन्दगी में अत्यधिक कामयाब हो के दिखाया। सचिन तेंदुलकर ही अगर स्कूली किताबें पढ़..उन्हीं में अपना दिमाग खपाता रहता तो क्या कभी वो विश्व का  महानतम क्रिकेट खिलाड़ी बन पाता? या बिना कॉलेज की डिग्री के बिलगेट्स इतने बड़े व्यापारिक साम्राज्य का कभी मालिक बन पाता? 

अभी हाल फिलहाल ही मुझे लेखक अजय राज सिंह जी का लिखा उपन्यास "10वीं फेल" पढ़ने का मौका मिला और इसका भी संयोग कुछ ऐसा हुआ कि इधर मैंने अपनी छठी इंद्री से वशीभूत हो अमेज़न पर इस किताब को ऑर्डर किया और उधर उसके कुछ क्षणों बाद ही इसके लेखक की मेरे पास फ्रैंड रिक्वैस्ट आ गयी। 

शीर्षक के अनुसार मूल कहानी बिना किसी लाग लपेट अथवा उतार चढ़ाव के बस इतनी है कि इसमें एक दसवीं फेल लड़का अपने दो हुड़दंगी दोस्तों के साथ मिल कर उलटे सीधे रस्ते से बिल्डर के धंधे में कामयाब हो के दिखाता है। मगर रुकिए..इसमें हाँ.. ना के दुविधा पूर्ण असमंजस के बीच डोलती हुई एक प्रेम कहानी भी साथ साथ चलती है जो आपको अपने सम्मोहन..अपने पाश में जकड़ती हुई आपको मंत्रमुग्ध करती है। 

पूरी कहानी में लेखक अपने आत्मालाप के ज़रिए कहानी को आगे बढ़ाता और अपने पाठकों से साथ ही साथ..रूबरू बात करता हुआ चलता है। बीच बीच में संवादों की गुंजाइश निकलने पर माँ...बेटे...प्रेमिका और दो दोस्तों समेत कुल पाँच मुख्य पात्र मज़ेदार संवाद बोलने में एक दूसरे होड़ करते नज़र आते हैं।

आमतौर पर कहानी के फ्लो के साथ पाठक को पता चलता जाता है कि अब क्या होगा..अब क्या होगा लेकिन यहीं पर खुराफात ये कि लेखक भी आपके मन के कहे अनुसार बात को हूबहू लिखता है लेकिन अगले ही क्षण आपकी तयशुदा सोच से अचानक से पलटी मार, वो आपको चौंकाता हुआ झट से अपनी पटरी बदल अलग ही ट्रैक पे अपनी गाड़ी फट से दौड़ा लेता है। यूँ समझ लीजिए कि हर पहला या दूसरा पेज मुस्कुराने या फिर खिलखिला कर हँसने का कोई ना कोई मौका ज़रूर दे जाता है।

सीधी...सरल...प्रवाहमयी भाषा में लिखे मज़ेदार संवादों के ज़रिए उनके लिखने का अंदाज़ ऐसा है कि शुरुआती दो चार पृष्ठों ने ही मुझे उनकी लेखनी का मुरीद बना लिया। उनकी लेखनी में कब शातिराना तरीके से कोई पंच अचानक आ के आपके सामने धप्प से छलांग लगाते हुए, खड़ा हो आपको धप्पा याने के आउट कर जाए...कोई भरोसा नहीं। 

पाठकीय नज़रिए से मुझे लगा कि बाकी मसालों के अलावा  इसकी कहानी में थोड़े ट्विस्ट एवं उतार चढ़ाव और ज़्यादा होने चाहिए थे। उम्मीद है कि लेखक अपनी आने वाली रचनाओं में इस आग...इस ऊर्जा को बनाए रखेंगे।

उम्दा क्वालिटी के इस 138 पृष्ठीय मज़ेदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है नोशन प्रैस. कॉम ने। हालांकि खोजने पर भी मुझे इस किताब में कहीं पर भी इसका मूल्य लिखा नहीं दिया जो शायद त्रुटिवश छपने से रह गया है या फिर हो सकता है कि इस मामले में मुझसे ही चूक हो गयी हो। अमेज़न से चैक करने पर पता चला कि इसका मूल्य रखा गया है 188/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

0 comments:

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz