आजकल जहाँ एक तरफ़ बॉलीवुड की फिल्में अपनी लचर कहानी या बड़े..महँगे..नखरीले सुपर स्टार्स की अनाप शनाप शर्तों के तहत जल्दबाज़ी में बन बुरी तरह फ्लॉप हो.. धड़ाधड़ पिट रही हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ कसी हुई कहानी के साथ मंझे हुए अभिनय एवं निर्देशन के बल पर अनजान अथवा अपेक्षाकृत नए कलाकारों को ले कर बनीं वेब सीरीज़ लगातार हिट होती जा रही हैं।
कहने का तात्पर्य ये कि बढ़िया दमदार अभिनय एवं निर्देशन के अतिरिक्त लेखन की परिपक्वता भी किसी फिल्म या वेब सीरीज़ के हिट होने के पीछे का एक अहम कारक होती है। दोस्तों..आज वेब सीरीज़ से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं वेब सीरीज़ की ही तर्ज़ पर लिखे गए एक तेज़ रफ़्तार उपन्यास 'CIU- क्रिमिनल्स इन यूनिफ़ॉर्म' का जिक्र करने जा रहा हूँ। जिसे लिखा है क्राइम इन्वेस्टिगेशन पत्रकारिता में दो दशक बिता चुके लेखकद्वय संजय सिंह और राकेश त्रिवेदी ने।।
इस लेखकद्वय जोड़ी की ही लिखी कहानी पर जल्द ही सोनी लिव के ओटीटी प्लैटफॉर्म पर एक वेब सीरीज़ आ रही है। जो बहुचर्चित स्टैम्प पेपर घोटाले के मुख्य अभियुक्त अब्दुल करीम तेलगी के जीवन पर बनी है। आइए..अब सीधे सीधे चलते हैं उपन्यास की मूल कहानी और उससे जुड़ी बातों पर।
हालिया ताज़ातरीन घटनाओं को अपने में समेटे इस उपन्यास में मूलतः कहानी है देश के सबसे अमीर कहे जाने वाले व्यवसायी 'कुबेर' के बहुचर्चित आवास 'कुबेरिया' के बाहर एक लावारिस गाड़ी के मिलने की। जिसमें कुबेर के नाम धमकी भरे पत्र एवं कुछ अन्य चीज़ों के साथ बिना डेटोनेटर के जिलेटिन की बीस छड़ें भी मौजूद थीं।
कभी आतंकवाद तो कभी माफ़िया एंगल के बीच झूझती इस चौंकाने वाली घटना में पेंच की बात ये है कि बिना डेटोनेटर के जिलेटिन की छड़ी किसी काम की अर्थात विस्फ़ोट करने के काबिल नहीं। लेकिन अगर ऐसा था इस गाड़ी को वहाँ छोड़.. सनसनी या अफरातफरी फैलाने का असली मकसद..असली मंतव्य क्या था?
केन्द्र और राज्य सरकार के बीच की रस्साकशी और आपसी खींचतान का उदाहरण बनी इस घटना में केस की तहकीकात से जुड़ी तफ़्तीश का जिम्मा काफ़ी जद्दोजहद और लंबी बहस के बाद राज्य सरकार की इकाई CIU के जिम्मे आता है। जिसका हैड असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर यतीन साठे है। जो खुद 17 साल सस्पैंड रहने के बाद ख़ास इसी केस के लिए बहाल हुआ है। मगर यतीन साठे स्वयं भी तो दूध का धुला नहीं।
इस उपन्यास में कहीं सरकारी महकमों की आपसी खींचतान अपने चरम पर दिखाई देती है तो कहीं नेशनल सिक्योरिटी, पाकिस्तान, आई एस आई और इस्लामिक मिलिटेंट्स के नाम पर सरकार एवं पुलिस द्वारा देश को बरगलाया जाता दिखाई देता है। इसी उपन्यास में कहीं मौकापरस्त पुलिस का गठजोड़ सत्ता पक्ष के साथ तो कहीं विपक्ष के साथ होता नज़र आता है।
इसी उपन्यास में कहीं करोड़ों रुपयों की घूस दे कर पुलिस की बड़ी पोस्ट्स को हथियाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई पुलिस का नामी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नौकरी छोड़ पैसे..पॉवर और शोहरत के लालच में चुनाव लड़ता नज़र आता है। इसी किताब में कही किसी संदिग्ध को पुलिस अमानवीय तरीके से टॉर्चर करती दिखाई देती है। तो कहीं एजेंसियों की कोताही से असली मुजरिमों के बजाय समान नाम वाले निर्दोष प्रताड़ित होते नज़र आते हैं ।
इसी उपन्यास में कहीं दफ़्तरी सबूतों का इस्तेमाल अपने निजी फ़ायदे के लिए होता दिखाई देता है तो कहीं शक की बिनाह पर मातहत ही घर का भेदी बन अपने अफ़सर की लंका ढहाता दिखाई देता है।
इसी किताब में कहीं पुलिस महकमे में आपसी खींचतान और पावर बैलेंस की राजनीति होती दिखाई देती है तो कहीं खुद को फँसता पा बड़े अफ़सरान अपने मातहत को बलि का बकरा बनाते दिखाई देते हैं। कहीं अपनी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते मीडिया और पुलिस की आपसी खुंदक सर उठाए खड़ी नज़र आती है। तो कहीं बड़े नेताओं और पुलिसिया शह पर अवैध वसूली का खेल बड़े स्तर पर साढ़े हुए ढंग से खेला जाता दिखाई देता है।
इसी किताब में कही गहन जाँच के नाम पर यतीन साठे जैसे राज्य सरकार के पुलिस अफ़सर को एनआईए जैसी केंद्रीय एजेंसी के अफ़सर सरेआम ज़लील ..बेइज़्ज़त कर प्रताड़ित करते नज़र आते हैं।
इसी उपन्यास में कहीं अपने फ़ायदे के चलते सीनियर अफसरों के ओहदे और रुतबे को दरकिनार कर छोटे अफ़सर को सभी महत्त्वपूर्ण केसेज़ का हैड बनाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई जॉइंट कमिश्नर रैंक के अफ़सर अपने ही कमिश्नर के ख़िलाफ़ अपने मन में दबी भड़ास राजनैतिक आकाओं के आगे उजागर करते दिखाई देते हैं।
इसी किताब में कहीं नहले पर दहले की तर्ज़ पर चल रही जाँच में लंबी तफ़्तीश के बाद केन्द्र सरकार की एजेंसियां पाती हैं कि उस गाड़ी को लावारिस छोड़ने वाला स्वयं CIU का हैड यतीन साठे ही था। क्या महज़ यतीन साठे अकेला ही इस सारे काँड का मास्टर माइंड था या फ़िर इस पूरे षड़यंत्र का वह एक छोटा सा मोहरा मात्र था? यह सब जानने के लिए तो आपको इस कदम कदम पर चौंकाते तेज़ रफ़्तार उपन्यास को पढ़ना होगा।
■ प्रूफरीडिंग की के रूप में मुझे पेज नंबर 52 की शुरुआत में बोल्ड हेडिंग में 2004 लिखा दिखाई दिया। उसके तुरंत बाद लिखा दिखाई दिया कि..
'बुलावा आने पर वह तुरंत निकला था'
यहाँ लगता है कि ग़लती से कुछ छपने से रह गया है क्योंकि इस वाक्य का कोई मतलब नहीं निकल रहा है।
■ इस उपन्यास के चैप्टर नंबर 10 के पेज नम्बर 175 में एटीएस अफसर नित्या शेट्टी आईपैड पर स्टेशन के सीसीटीवी में यतीन साठे के चेहरा, सिर ढंक कर जाने और लोकल ट्रेन में सवार होने के फुटेज होम मिनिस्टर सरदेशपांडे को दिखाते हुए उन्हें पूरे घटनाक्रम के बारे में बताता है कि सब कुछ किस प्रकार घटा।
इसी घटनाक्रम के दौरान नित्या शेट्टी बताता है कि..
'साठे एक बार फिर से हंसमुख को CIU के ऑफिस में बुलाता है। जहाँ साठे समेत कुछ पूर्व और मौजूदा एनकाउंटर स्पेशलिस्ट मिल कर हंसमुख पर भारी दबाव बनाते हैं। बदहवास हंसमुख कुछ मिनटों के लिए बाहर आता है तब वह इस योजना के बारे में अपने आप से बड़बड़ा रहा होता है, जिसे CIU ऑफिस के बाहर बैठा एक बार मालिक सुन लेता है। इस बार मालिक को हफ़्ता देने के लिए साठे ने बुलाया था और वह बाहर बैठा इंतजार कर रहा था। हंसमुख बड़बड़ा रहा होता है कि वह क्यों अपने सिर पर झूठी ज़िम्मेदारी ले जब उसने कुछ किया नहीं और उस पर ज़बरदस्ती दबाव डाला जा रहा है। इस बात की पुष्टि बाद में उस बार मालिक ने एटीएस से की।'
यहाँ लेखक द्वय के अनुसार एक बार मालिक ने हसमुख की बड़बड़ाहट सुनी और फ़िर इस बात की पुष्टि एटीएस वालों के सामने भी की जबकि पूरा उपन्यास फ़िर से खंगालने के बावजूद भी मुझे ऐसा कोई दृश्य देखने को नहीं मिला।
हालांकि 269 पृष्ठीय यह रोचक उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है आर.के.पब्लिकेशन, मुंबई ने और इसका मूल्य रखा गया है 395/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आम हिंदी पाठकों तक किताब की पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि किताब के दाम आम आदमी की जेब के हिसाब से ही रखे जाएँ। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखकद्वय एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
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