ज़िन्दगी 50 50- भगवंत अनमोल

जब भी कभी आपके पास किसी एक चीज़ के एक से ज़्यादा विकल्प हों तो आप असमंजस से भर.. पशोपेश में पड़ जाते हैं कि आप उनमें से किस विकल्प को चुनें? मगर दुविधा तब और बढ़ जाती है जब सभी के सभी विकल्प आपके पसंदीदा हों। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि आप मोटे ताज़े गन्नों से भरे एक खेत में खड़े हैं और आपको वहाँ से अपनी पसन्द का एक गन्ना चुनने के लिए बोल दिया जाए। तो यकीनन आप दुविधा में फँस जाऍंगे कि कौन सा गन्ना चुनें क्योंकि वहाँ आपको हर गन्ना एक से बढ़ कर एक नज़र आएगा। 

मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ तब होता है जब मैं पढ़ने के लिए अपनी संग्रहीत किताबों की तरफ़ जाता हूँ तो अक्सर पशोपेश अथवा धर्मसंकट में पड़ जाता हूँ कि उनमें से किस किताब को चुनूँ और किसको नहीं? उनमें से बहुत सी किताबों को मैंने बड़े चाव से इस उम्मीद में खरीदा होता है कि मैं जल्द से जल्द इनका पूरा लुत्फ़ उठा सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ बहुत सी अन्य किताबों को मुझे लेखकों अथवा प्रकाशकों द्वारा इस उम्मीद में प्रेमपूर्वक भेंट किया गया होता है कि मैं यथाशीघ्र उन पर अपने पाठकीय नज़रिए से कुछ टिप्पणी कर सकूँ। मगर चूंकि किताबों की फ़ेहरिस्त इतनी लंबी हो जाती है कि कई बार अच्छी किताबें भी नज़र में आने से चूक जाती हैं। 

दोस्तों..आज मैं किन्नर विमर्श से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का यहाँ जिक्र करने जा रहा हूँ। जिसे "ज़िन्दगी 50-50" के नाम से लिखा है भगवंत अनमोल ने। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के 'बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार 2017' से अलंकृत इस बेहतरीन उपन्यास के तीसरे संस्करण को मैंने आज से लगभग दो साल पहले 6 मार्च, 2021 में खरीदा था। पिछले दो सालों में कई बार उलटा पलटा जाने के बाद अंततः इसका नम्बर अब जा के आया लेकिन वो कहते हैं ना कि..'देर आए..दुरस्त आए' या 'जब जागो..तभी सवेरा'। आइए अब सीधे- सीधे चलते हैं इस उपन्यास की कथावस्तु की तरफ़। 

किन्नर विमर्श के नए आयाम खोलता यह उपन्यास अपने मूल में एक साथ तीन अलग अलग कहानियों के ले कर चलता दिखाई देता है। जिनमें कहानी का मुख्य पात्र, अनमोल कहीं किसी ऐसे बड़े भाई की भूमिका निभाता दिखाई देता है जिसका छोटा भाई अपने शारीरिक अधूरेपन की वजह से घर-बाहर हर जगह प्रताड़ित..शोषित और अपमानित होता दिखाई देता है मगर वो (अनमोल) चाह कर भी उसकी कोई मदद नहीं कर पाता। 

दूसरी कहानी में वह एक ऐसे पिता की भूमिका निभाता नज़र आता है, जिसका इकलौता बेटा, सूर्या भी उसके(अनमोल के) छोटे भाई हर्षा की तरह शारीरिक कमी का शिकार है। ऐसे में अब देखना यह है कि क्या अनमोल अपने अधूरे बेटे को देख कर अपने पिता, जिन्होंने समाज में अपनी मूँछों के नीचे हो जाने के डर से अपने दुधमुँहे बेटे को ज़हर दे मार डालने का प्रयास किया, की तरह क्रूर रवैया अपनाएगा या फ़िर समाज की परवाह ना करते हुए अपने बेटे के सामान्य जीवन जीने में संबल बन कर उसे प्रेरित करेगा।

 इसी उपन्यास की तीसरी कहानी में अनमोल एक ऐसे प्रेमी के रूप में सामने आता है जो लाख चाहने के बावजूद भी, चेहरे पर जन्मजात दाग़ ले कर पैदा हुई अपनी दक्षिण भारतीय प्रेमिका, अनाया को अपना नहीं पाता कि उससे शादी कर के वो, अपने  पहले से ही दुखी पिता को और ज़्यादा दुखी नहीं करना चाहता था कि वो उनकी जाति, धर्म एवं समाज की नहीं है। 

कभी वर्तमान तो कभी फ्लैशबैक के बीच घूमते इस उपन्यास में कहीं आजकल के युवा इंजीनियरों और उसकी वीकेंड पर होने वाली दारू पार्टियों की बात होती नज़र आती है। तो कहीं किसी शारीरिक अपंगता की वजह से ही किसी के साथ घर-बाहर दुर्व्यवहार होता नज़र आता है। कहीं उपन्यास शारीरिक विकलांगता के बजाय मानसिक विकलांगता के अधिक खतरनाक होने की बात करता नज़र आता है। तो कहीं इसी उपन्यास में किसी का इस हद तक दैहिक शोषण होता दिखाई देता है कि वो आहत हो.. उस समाज/ परिवार को ही छोड़ने का फैसला कर लेता है जो उसका साथ देने के बजाय मात्र मूक दर्शक बन बस तमाशा देखता रहा। 

इस उपन्यास में कहीं कोई बाप अपनी ही औलाद को बसों इत्यादि में कमर मटकाते हुए ताली बजा भीख माँगते देख शर्म से पानी पानी होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई बाप जीवन के हर छोटे बड़े फ़ैसले में अपने बेटे के साथ खड़ा नज़र आता है। 
इसी किताब में कहीं कोई अपनी तमाम शर्तों के साथ व्यवहारिक हो प्रेम करता दिखाई देता है तो कहीं कोई बिना शर्त संपूर्ण समर्पण करता नज़र आता है। कहीं इसमें कोई अपने पिता के दो मीठे बोलों को तरसता दिखाई देता है तो कहीं कोई पिता के वजूद से ही नफ़रत करता दिखाई देता है।

इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कोई इस वजह से विवाह नहीं करता कि जिसे वो चाहती है, वो उसका नहीं हो सकता। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई किसी और के साथ इस वजह से विवाह के बंधन में बंध जाता है कि जिसे वो चाहता है, उससे उसकी शादी नहीं हो सकती।

प्रभावी शैली में लिखे गए इस उपन्यास के शुरुआती कुछ पृष्ठ थोड़ी ढिलमुल करने के बाद अपनी पकड़ इस प्रकार बना लेते हैं कि अंत तक आते आते संवेदनशील पाठकों की भावुक हो..आँखें नम हो उठती हैं।

प्रूफरीडिंग की कमी के तौर पर मुझे पेज नंबर 7 पर लिखा दिखाई दिया कि एक तरफ हाथ में पकड़े फोन पर नज़र थी और दूसरी तरफ कंप्यूटर का माउस अपने बैग में डाल रहा था।

इससे पहले यहाँ उपन्यास में नायक लैपटॉप बैग में डालता दिखाया गया है जबकि अब उसी के लिए कंप्यूटर (की माउस) शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है जो कि पढ़ने में थोड़ा अजीब लग रहा है। 

 इस उम्दा उपन्यास के 208 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 265/- रुपए। किंडल सब्सक्राइबर्स के लिए यह फ्री में उपलब्ध है तथा अमेज़न पर डिस्काउंट के बाद 184/- रुपए में मिल रहा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 


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