डार्क हॉर्स- नीलोत्पल मृणाल- समीक्षा

कई बार कुछ कहानियाँ या उपन्यास अपनी भाषा...अपने कथ्य..अपनी रोचकता..अपनी तारतम्यता के बल पर  आपको निशब्द कर देते हैं। उनको पूरा पढ़ने के बाद भी आप उसी कहानी..उसी परिवेश और उन्हीं पात्रों के साथ खुद को उसी माहौल में विचरता पाते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ इस बार हुआ जब मैंने नीलोत्पल मृणाल का उपन्यास "डार्क हॉर्स" पढ़ने के लिए उठाया।

इस उपन्यास में कहानी है दिल्ली के एजुकेशन हब माने जाने वाले इलाके मुखर्जी नगर और उसके आसपास के सटे इलाकों की जहाँ पर पूरे साल देश भर से गाँव देहात के हज़ारों लाखों युवा कुछ कर दिखाने का सपना, ज़ुनून और माद्दा ले कर आते हैं। वो साल दर साल इसी उम्मीद में जीते चले जाते हैं कि एक ना एक दिन वो अपना...अपने परिवार का सपना पूरा कर सफल होते हुए आई.ए.एस या फिर आई.पी.एस बन के दिखाएँगे।

इसमें कहानी उन युवाओं की है जो भेड़चाल के तहत गांव देहात से ऊँचे ऊँचे सपने पाल यहाँ शहर में आ तो जाते हैं मगर तमाम तरह की जद्दोजहद और जीतोड़ मेहनत के बाद भी क्या उनके सपने  पूरा हो पाते हैं या फिर बीच में ही हार मान अपना रस्ता बदलते हुए दम तोड़ देते हैं। 

इसकी कहानी में जहाँ एक तरफ कोचिंग सैंटर्स के गोरखधंधे हैं तो दूसरी तरफ प्रॉपर्टी डीलर्स की मनमानी भी है। इसमें युवाओं के खिलंदड़पने के किस्से हैं तो मनचले..रोमियों टाइप के उत्साही युवाओं की मस्तियां भी हैं। इस कहानी में लड़की देख लार टपकाते नवयुवक हैं तो बढ़ती उम्र के अधेड़ होते युवा भी किसी मामले में उनसे कम नहीं हैं। इसमें गरीब माँ- बाप का प्यार, मोहब्बत और उम्मीदें है तो उनकी बेबसी का त्रासद खाका भी है। इसमें आज़ादी की चाह में हर बंधन को नकारने वाले अगर हैं तो एक तयशुदा सीमा तक इसका मर्यादित समर्थन करने वाले भी अपनी जगह पर अडिग खड़े नज़र आते हैं।

इसमें असफलता के चलते हार मान चाय का ठियया लगाने वाला पढ़ाकू युवा अगर है तो टिफिन सप्लाई करने वाला ब्रिलियंट प्रोफेसर भी है। इसमें हँसने खिलखिलाने के पल हैं तो दुखदायी मौके भी कम नहीं है। इसमें मस्ती के आलम हैं तो संजीदगी के पल भी अपने पूरे शबाब पर हैं।

पहले ही उपन्यास से अपनी लेखनी की धाक जमाने वाले नीलोत्पल मृणाल ने कोई ऐसी कहानी नहीं रची है जो अद्वितीय हो या फिर ऐसे अनोखे पात्र नहीं गढ़े हैं कि जिनके मोहपाश से बच  निकलना नामुमकिन हो या फिर उनका कोई सानी ना हो मगर इस उपन्यास में उनका कहानी कहने का ढंग, उसका ट्रीटमेंट, कसी हुई पटकथा, अपने आसपास दिखते...बोलते बतियाते किरदार, कहीं कहीं भोजपुरी कलेवर से सजी सीधी..सरल आम बोलचाल की भाषा...सब का सब एक दम सही नपे तुले अनुपात में। कहीं भी किसी चीज़ की अति नहीं।

एक खास बात और कि हो सकता है कि पुरानी साहित्यिक भाषा के मुरीदों को इसकी भाषा थोड़ी असाहित्यक लगे और इसे देख व पढ़ के उनकी त्योरियां चढ़ने को उतारू हो उठें लेकिन यही तो नयी वाली हिंदी है जनाब। अगर युवाओं को हिंदी और साहित्य से जोड़ना है तो इस तरह के प्रयोग भी ज़रूरी हैं। अगर आप आई.ए.एस या आई.पी.एस करने के इच्छुक हैं या फिर उनकी ज़िंदगी को करीब से जानना चाहते हैं तो यह उपन्यास आपके मतलब का है। अच्छी व रोचक कहानी के इच्छुक पाठकों को भी ये उपन्यास बिल्कुल निराश नहीं करेगा।

176 पृष्ठीय के इस सहेज कर रखे जाने वाले उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म और वेस्टलैंड पब्लिकेशंस प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹175/- मात्र जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटेंट को देखते हुए बहुत ही कम है। आने वाले भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

2 comments:

Sunil "Dana" said...

पढ़ना चाहूंगा ।

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर = RAJA Kumarendra Singh Sengar said...

अभी तक इस बन्दे को पढ़ा नहीं, उसके पीछे इस प्रकाशन से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों की कहानी में दम समझ न आई. बाजार के हिसाब से पॉलिसी बनाकर, रणनीति से किताबें बिकवाई तो जा सकती हैं, लाख पाठक वर्ग में कथित तौर पर शामिल मान ली जा सकती हैं मगर कथा को कैसे सही साबित किया जायेगा.
नई वाली हिन्दी के शब्दजाल में फंसना सहज होता जा रहा है युवाओं का.
चलिए, आपकी समीक्षा से इस घोड़े पर दाँव लगाया जायेगा.

 
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