आदम ग्रहण- हरकीरत कौर चहल, सुभाष नीरव (अनुवाद)

"कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता/
कहीं ज़मीं नहीं मिलती..कहीं आसमां नहीं मिलता"

ज़िन्दगी में हर चीज़ अगर हर बार परफैक्ट तरीके से..एकदम सही से..बिना किसी नुक्स..कमी या कोताही के एक्यूरेट हो..मेरे ख्याल से ऐसा मुमकिन नहीं। बड़े से बड़ा आर्किटेक्ट..शैफ या कोई नामीगिरामी कारीगर भी हर बार उम्दा तरीके से अपने काम को अंजाम दे..यह मुमकिन नहीं। 

कभी ना कभी..कहीं ना कहीं तो हर किसी से कोई ना कोई छोटी बड़ी चूक..कोताही या ग़लती हो ही सकती है। और इस बात का अपवाद तो खैर..वो ऊपर बैठा परवरदिगार भी नहीं जिसने हमारे समेत पूरी कायनात को उम्दा तरीके से सजा संवार कर बनाया..चमकाया है। उसी ऊपरवाले की एक नेमत याने के हम मनुष्यों को भी बनाने में कई बार उससे या हमसे ऐसी चूक हो जाती है कि संपूर्ण लड़का या लड़की बनने के बजाय कोई कोई तो अधूरा ही पैदा हो जाता है। 

खैर..ये सब बातें दोस्तों..आज इसलिए कि आज मैं ऐसे ही अधूरे पैदा हुए लोगों को ले कर मूल रूप से पंजाबी में लिखे गए एक उपन्यास 'आदम ग्रहण' की बात करने जा रहा हूँ जिसकी रचियता हैं 'हरकीरत कौर चहल' और उनके इस उम्दा उपन्यास का बढ़िया हिंदी अनुवाद किया है जाने माने लेखक/अनुवादक 'सुभाष नीरव' जी ने। जो अब तक 600 से ज़्यादा कहानियों एवं 60 अन्य साहित्यिक पुस्तकों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद कर चुके हैं। इस सब के अतिरिक्त इनकी अब तक खुद की भी कहानी/कविताओं एवं लघुकथाओं की पंद्रह से अधिक पुस्तकें आ चुकी हैं और यह सफ़र अब भी अनवरत जारी है।

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस रोचक उपन्यास में कहानी है एक ग़रीब मुस्लिम कुम्हार के घर तीन भाइयों के बाद पैदा हुई एक ऐसी जान की जो ना तो पूरा लड़का है और ना ही पूरी लड़की। इस उपन्यास में कहानी है माँ बाप की ममता..लाड़ प्यार और स्नेह के बीच पलते 'अमीरा' नाम के इस जीव की। बढ़ते वक्त के साथ इसमें कहानी है उस 'अमीरा' की जिसे गांव वालों की ही तरह अपने..खुद के भाइयों से..अपने ही घर में स्नेह..मोह..ममता और दोस्ती के बदले प्रताड़ना..उपहास..अपमान..नफ़रत और उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। और इस सबके बीच पैंडुलम सी निरंतर झूलती 'अमीरा' एक दिन तंग आ कर अपने माँ बाप की इच्छा के विरुद्ध स्वेच्छा से घर छोड़ ,लैची महंत (हिजड़ों के मुखिया) के डेरे में बसने का निर्णय लेती है।

इस उपन्यास में कहानी है समाज के अलग अलग वर्गों..इलाकों..राज्यों और धर्मों के द्वारा दुत्कारे गए..तिरस्कृत किए जा चुके आधे अधूरे जीवों की। इसमें कहानी है उनके एकसाथ आपस में परस्पर भाईचारे..स्नेह और एकता के साथ रहते हुए वक्त ज़रूरत के साथ बन या पनप चुके रीति रिवाज़ों को मनाने की। गुरु शिष्य की सौहाद्रपूर्ण परंपरा के बीच इसमें बातें हैं महंतों (हिजड़ों का मुखिया) की मर्ज़ी से पैसों के बदले नए रंगरूटों के आपसी लेनदेन या अदला बदली की।

इसी उपन्यास में बातें हैं तिरस्कृत समाज के इन बाशिंदों के बीच तमाम दुःखों..तकलीफ़ों के बावजूद इन्सानियत के निरंतर उमड़ते घुमड़ते जज़्बातों की। इसमें बातें हैं समाज द्वारा ठुकराए गए शारीरिक रूप/गुणों से एकदम ठीक मगर बदकिस्मत लोगों के शरणागत की तरह आ..इनके साथ ही रहने एवं इन्हीं में घुलमिल कर एक हो जाने की। इसमें एक तरफ़ डेरे में गुपचुप परवान चढ़ते लाली और कौड़ामल के इश्क की बातें हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें एक सामान्य..ठीकठाक अमीर युवक भी सब कुछ जानते हुए 'अमीरा', जो अब 'मीरा' बन चुकी है, के प्रेम में इस कदर डूब जाता है कि उसके साथ पूरा जीवन बिताने को तैयार हो उठता है। मगर क्या इस सब के लिए मानसिक 'मीरा' खुद को कभी तैयार कर पाती है? 

इस उपन्यास में बात है अभिभावकों द्वारा आधे अधूरे बच्चे को मोह..ममता सब भूल जन्मते ही त्याग देने की। इसके साथ ही इसमें बात है उसी त्याग दिए गए बच्चे को 'मीरा'  द्वारा स्नेह..लाड़ प्यार और मोहब्बत के साथ अपनाते हुए बढ़िया स्कूल कॉलेज में तालीम दिलवाने की। इसी उपन्यास में बातें हैं धोखे..छल और बहकावे द्वारा किसी के लगातार होते यौन शोषण और उसके मद्देनज़र एड्स जैसे गंभीर रोग के बढ़ते फैलाव की। इसमें बात है हताशा..शर्म से किसी के खुद को मिटा देने और किसी के किसी के वियोग में खुद मिट जाने की।

इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी होगी कि किरदारों के हिसाब से उनकी भाषा एवं संवाद शैली को बहुत ही बढ़िया ढंग से वे अपने लेखन में उतार पायी हैं। इसके साथ ही उम्दा अनुवाद के सुभाष नीरव जी भी बधाई के पात्र हैं 

*पेज नम्बर 37 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"ढोलण ने भी काला लंबा कुरता और पजामी पहनी। सिर पर महरूम रंग का दुपट्टा बाँधा,  महंत लैची भी पाकिस्तानी फैशन के कुरते और सलवार में सल्तनत का बादशाह लग रहा था।"

यहाँ 'महरूम' रंग का दुपट्टा आने के बजाय 'मेहरून(मैरून) रंग का दुपट्टा आना चाहिए था। 

142 पृष्ठीय इस बेहतरीन उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका, अनुवादक एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

3 comments:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज मंगलवार 26 अक्टूबर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है....  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

कविता रावत said...

आपके द्वारा 'हरकीरत कौर चहल' जी के 'आदम ग्रहण' उपन्यास की समीक्षा पढ़कर मन आंदोलित हुआ । निश्चित है आपका यह प्रयास उपन्यास की ओऱ ध्यान आकृष्ट कर पढ़ने की उत्सुकता जगाता है

उपन्यास की लेखिका और आप दोनों को हार्दिक शुभकामनाएं

राजीव तनेजा said...

शुक्रिया

 
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