वाग्दत्ता- मंजू मिश्रा

आमतौर पर जब भी कोई नया नया लिखना शुरू करता है तो उसके मन में सहज ही यह बात अपना घर बना लेती है कि उसे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक इस प्रकार पहुँचना है कि सब उसकी लेखनी को जानें..समझें और उसकी प्रतिभा..उसके मुरीद होते हुए उसके लेखन कौशल को सराहें। इसी कोशिश में वह चाहता है कि जल्द से जल्द छप कर रातों रात प्रसिद्धि की नयी ऊँचाइयों.. नयी मंज़िलों..नयी कामयाबियों को प्राप्त करे। 

इसी उतावलेपन में छपने के लिए जहाँ वह 'सहज पके सो मीठा होय' के पुराने ढर्रे वाले नीरस..उबाऊ और समय खपाऊ तरीके को अपनाने के बजाय अपने सामर्थ्यनुसार सेल्फ पब्लिशिंग के तुरत फुरत वाले जुगाड़ से खुद को दस बीस हज़ार से ले कर लाख..दो लाख रुपए तक का फटका लगवा इस छपास के हवनकुण्ड में अपने हाथ जला लेता है याने के अपना पैसा और समय बरबाद कर बैठता है। 

वहीं दूसरी तरफ़ कुछ समझदार लोग समय के साथ अपने लेखन को मांजते हुए इस परिपक्व अंदाज़ में सामने आते हैं कि उनके लेखन को देख कर आश्चर्य होने लगता है कि यह इनकी चौथी पाँचवीं नहीं बल्कि महज़..पहली ही किताब है। दोस्तों..आज मैं ऐसे ही परिपक्व अंदाज़ में लिखे गए मंजू मिश्रा जी के पहले कहानी संकलन 'वाग्दत्ता' की बात करने जा रहा हूँ। इस संकलन में एक छोटी और तीन बड़ी याने के कुल मिला कर चार कहानियाँ हैं।

 इस संकलन की पहली कहानी का ताना बाना, गृहस्थी का त्याग कर स्पिरिचुअल पर्सनैलिटी बन चुके व्यक्ति के नाम उसकी पत्नी के पत्र के रूप में बुना गया है। जिसमें पति से अलग रह रही पत्नी अपने पति को बेटे के ब्याह में आमंत्रित करने के बहाने बरसों से मन में दबी भड़ास को बाहर निकाल रही है। इस पत्र में पति के ज़िद भरे लापरवाह रवैये और ज़िम्मेदारियों से कतराने की उसकी आदत को निशाना बना.. वह उसे इन सब बातों के लिए उलाहना दे रही है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में एयरफोर्स में बतौर फ्लाइट कैप्टन कार्यरत बेटी जब एक फंक्शन के दौरान अपनी माँ को अपने अफ़सर से मिलाती है तो अचानक 30 साल पुरानी यादें..पुरानी बातें..प्यार..नफ़रत से ले कर बिछोह तक सब ज़हन में फिर से ताज़ा हो खलबली मचाने लगता है।

इस कहानी में बातें हैं कचहरी में बतौर क्लर्क काम करने वाले मध्यमवर्गीय पिता की उस बेटी की, जिसका रिश्ता तय होने के बाद भी इस वजह से टूट जाता है कि किसी और लड़की का प्रभावशाली पिता अपने प्रभुत्व और मोटे दहेज के बल पर अपनी बेटी की शादी उसी लड़के से करवाना चाहता  है। इस रिश्ते के टूटने की वजह से भावी पति के प्रेम में डूबी उस युवती का कॉलेज.. पढ़ाई और शहर तक सब छूट जाता है। मगर होनी के गर्भ में क्या लिखा है। ये भला कौन जानता है? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में दो भाइयों और दो बहनों में सबसे छोटी बेटी के ब्याह से पहले ही दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद बीमार हुआ पिता चल बसता है। जिसके बाद भाई..भाभी..बहन..नाते रिश्तेदार तक सब छोटी बेटी के प्रति अपनी अपनी ज़िम्मेदारियों को नकारते हुए उससे मुँह फेर लेते हैं। मगर हाँ.. ना..हाँ.. ना के बीच पैंडुलम से डोलते भविष्य के गर्भ में क्या पल रहा था? यह तो बस उस ऊपर बैठे भाग्यविधाता को ही पता था। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अपने प्रेम विवाह में हुई परेशानियों..दिक्कतों से आज़िज़ आयी माँ को जब पता चलता है कि उसका पति अपनी बेटी के प्रेम विवाह करने के निर्णय का समर्थन कर रहा है। तो बेटी के भविष्य से चिंतित माँ बौखला जाती है।

पत्नी की नाराज़गी को ज़ाहिर करने के लिए लेखिका ने इसमें लगभग 50-51 पेज लंबे मोनोलॉग का सहारा लिया है। जिसमें कभी उनके बचपन की शरारतें..आपसी लड़ाई झगड़े..नोकझोंक इत्यादि की बातें नज़र आती हैं। तो कभी बढ़ती उम्र के साथ उनमें प्रेम के पनपने का मीठा मीठा सा अहसास जगता दिखाई देता है। कहीं इनके प्रेम के बीच दीवार बन कर पारिवारिक कट्टरता सामने आती है। तो कहीं इसमें वे सब्र..धैर्य और शांति से काम लेते हुए चरणबद्ध तरीके से प्यार की राह में आगे बढ़ विवाह करने में कामयाब तो हो जाते हैं मगर...

धाराप्रवाह लेखन से सजी इस किताब में पत्र के माध्यम से पति को बेटे के ब्याह जैसे खुशी के मौके पर आमंत्रित करते वक्त पत्नी का अपने पति के प्रति इस तरह अपनी भड़ास निकालना थोड़ा अजीब..तर्कसंगत एवं सही भी नहीं लगा। अगर भड़ास ही निकालनी थी तो सिर्फ़ पत्र से ही काम चल जाता। ब्याह के आमंत्रण जैसी बात इस कहानी में अनावश्यक लगी। इसके बिना भी कहानी अपने मंतव्य को व्यक्त करने में पूरी तरह सक्षम थी।

लंबे वक्त के अंतराल को एक कहानी में समेटने के लिहाज़ से आजकल की कहानियों में पुरानी यादों और फ्लैशबैक का आना मानों एक चलन..एक ढर्रा सा हो गया है कि इसके बिना कहानी सही तरीके से मुकम्मल नहीं होगी। भूत और वर्तमान को एक कहानी में समेटने के हिसाब से तो खैर..यह अच्छा ही है मगर कई बार लंबे फ्लैशबैक से पाठक उकताने लगता है कि यह सब कब जा के खत्म होगा? मेरे ख्याल से लंबी यादों या फ्लैशबैक से बीच बीच में बाहर आना पाठकों को राहत देने के रूप में एक अच्छा उपाय साबित हो सकता है। 

साथ ही इस संकलन की एक कहानी में 50-51 पेज का लंबा मोनोलॉग एक तरह से पाठकों के धैर्य की परीक्षा लेता हुआ प्रतीत हुआ कि कब यह खत्म हो। वह बेचारा तो आस करता रहा गया कि कब राहत के छींटों के रूप में उसे बीच बीच में पति के संवाद..बेशक छोटे छोटे से ही सही मगर पढ़ने को मिलें।

इसके अतिरिक्त पेज नंबर 9 पर लिखा हुआ दिखाई दिया कि..

"कितने साल हो गए मुझे अपने को यूँ ही चलते हुए बिना खुशी दुःख के उन सबके ऊपर निर्लिप्त सा चलते हुए।"

मेरे ख्याल से यह वाक्य सही नहीं बना।

इसी तरह पेज नंबर 33 पर लिखा दिखाई दिया कि..

विनी बोली ' डिफेंस के काफ़ी प्रोटोकॉल आ गए हैं तुझे।'

यहाँ यह संवाद विनी के माध्यम से कहा जा रहा है जबकि इसे उसकी माँ द्वारा कहा जाना चाहिए। या फिर 'विनी बोली'... पहले वाक्य का यह बचा हुआ हिस्सा नए वाक्य के साथ जुड़ कर भ्रम पैदा करने लगा।

एक अल्पविराम के चिन्ह के बिना, कैसे किसी बात का मतलब मीठे से नमकीन में बदल जाता है। इसका उदाहरण पेज नंबर 50 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"बाद में मौसी ने रास्ते के लिए नमकीन बर्फी और खीर भी पैक कर दी और उन्हें गेट तक छोड़ने चली गई।"

यहाँ नमकीन और बर्फी के बीच में अल्पविराम का चिन्ह आना चाहिए था। 

इसी तरह एक पैराग्राफ़ की कुछ कन्फ्यूज़ करती पंक्तियाँ पेज नंबर 51 पर भी दिखाई दी जैसे कि..

"मैंने जाकर खाने की ज़िम्मेदारी ले ली। और मौसी पूजा करने चली गई। इस बीच डोर बेल बजी, मौसी जी उस समय नहा धोकर पूजा कर रहे थे। 

यहाँ 'नहा धो कर पूजा कर रहे थे।' के बजाय 'नहा धो कर पूजा कर रही थी।' होना चाहिए था क्योंकि वाक्य से पहले 'मौसा जी' नहीं बल्कि 'मौसी जी' लिखा है और वही तो पूजा करने गयी थी जबकि मौसा जी तो उस वक्त घर में नहीं थे जैसा कि अगली कुछ पंक्तियों में पता चलता है। 

कुछ जगहों पर पूर्णविराम या अल्पविराम के चिन्ह की आवश्यकता होते हुए भी वे ग़ायब दिखे। दो किरदारों के संवाद बिना गैप दिए एक साथ..एक ही पंक्ति में जुड़े हुए दिखाई दिए। जिसकी वजह से बार बार कंफ्यूज़न होता रहा कि असल में संवाद बोल कौन रहा है। वाक्यों में कुछ शब्दों की बिना ज़रूरत पुनरावृति भी कहीं कहीं खली। इस किताब की कम से कम एक बार और सही तरीके से प्रूफरीडिंग की जानी चाहिए थी।

यूँ तो धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित यह कहानी संकलन मुझे लेखिका से उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ मगर फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है बुक्स क्लीनिक ने और इसका दाम रखा गया है 180/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

2 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

संकलन के प्रति उत्सुकता जगात आलेख... पढ़ने की कोशिश रहेगी...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-11-2021) को चर्चा मंच        "छठी मइया-कुटुंब का मंगल करिये"  (चर्चा अंक-4244)       पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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छठी मइया पर्व कीहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

 
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