वो क्या था- गीताश्री (संपादन)

समूचे विश्व में इस बारे में तरह तरह की भ्रांतियां...विवाद एवं विश्वास विद्यमान हैं कि ईश्वर..आत्मा या रूह नाम की कोई अच्छी बुरी शक्ति इस दुनिया में असलियत में भी मौजूद है या नहीं। इस विषय को ले कर हर किसी के अपने अपने तर्क..अपने अपने विश्वास हैं जो कहीं ना कहीं..किसी ना किसी मोड़ पे दूसरे की बात को काटते हुए पुख्ता रूप से अपनी बात..अपने विश्वास/अविश्वास को सही साबित करने...मनवाने का प्रयास करते हैं।

दरअसल हमारी पृथ्वी इतने अधिक रहस्यों से भरी पड़ी है कि ये दावा करना मुमकिन और तर्कसंगत नहीं है कि..

"हमें...सब कुछ पता है।"

कई बार हम ऐसे आभासों से रूबरू होते हैं कि हमें लगने लगता है कि कोई बिना दिखे अपने अदृश्य स्वरूप के साथ हमसे बात करना चाहता है या किसी संकेत..किसी इशारे के द्वारा अपने मन की बात बताना अथवा समय रहते किसी अनजाने ख़तरे से हमें चेताना चाहता है। मेरा अपना मानना है कि ऐसी कोई ना कोई शक्ति अवश्य इस दुनिया में मौजूद है जो हवा, पानी,आग और आसमान के साथ साथ हमारे संपूर्ण जीवन को अपने हिसाब से  नियंत्रित करती है। ऐसी शक्ति का भान मुझे एक नहीं कई कई बार हुआ है जब तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हर मुश्किल से मैं किसी ना किसी तरीके सकुशल बाहर निकल आया। उनका जिक्र फिर कभी किसी अगली पोस्ट या फिर अगली किसी किताब में। 

फिलहाल मैं बात करना चाहता हूं एक ऐसी किताब..एक ऐसे संकलन की जिसे सुप्रसिद्ध लेखिका गीताश्री के संपादन में अपने निजी अनुभवों से संवारा है हमारे समय के प्रसिद्ध साहित्यकारों ने। 
इन निजी अनुभवों को पढ़ते वक्त कभी रोमांच के दौर से तो कभी डर से भी रूबरू होना पड़ा। कई जगहों पर अंधविश्वास या फिर अविश्वास जैसा भी कुछ महसूस हुआ। 

कहीं इसमें बोलने वाले भूत से जुड़ा अनुभव है तो कहीं अस्पताल में भूतों को साक्षात देखने की बात है। अब वो हैलुसिनेशन्स (भ्रम) था या एनेस्थीसिया का ओवरडोज़?...पता नहीं। इसमें कहीं पूर्वाभास के चलते होनी वाली घटना/दुर्घटना का पता चल रहा है तो कहीं इसमें एडिनबर्ग के कब्रिस्तान और वहाँ के लगभग भुलाए जा चुके भूमिगत शहर में मौजूद भूतों की बात है। कहीं इसमें साक्षात तो कहीं किसी सुगंध..खुशबू या सुवास के ज़रिए भूतों या फिर किसी अदृश्य शक्ति का भान हुआ है। 

कहीं इसमें कोई पक्षी आश्चर्यजनक रूप से मददगार साबित हुआ है तो कहीं इसमें बैंड बाजे और जोशोखरोश से भूतों की आती हुई बारात का विवरण है। कही अचानक बिना किसी जान पहचान और उम्मीद के कोई अचानक मदद करने के उपस्थित हो जाता है तो कहीं सही राह से भटकने से बचाने के लिए मरने के बाद भी कोई आ के सीख दे जाता है। कहीं सपनों में बुजुर्गों के आ..आने वाले कष्ट की चेतावनी या फिर उससे बचने की जुगत के उनके द्वारा बताने की बात है। कहीं इसमें सपनों में काले चींटों की आमद से स्वास्थ्य संबंधी चेतावनी की बात है तो कहीं इसमें मर चुकी सहेली के आ कर मिलने की बात है।

कहीं इसमें ब्रिटिशकालीन बँगले में भूतों के रहने..तंग करने और हिम्मत से उनका मुकाबला करने की बात है तो कहीं इसमें आने वाले समय में होने वाली मौत का पूर्वाभास है। कहीं भविष्य में होने वाले कष्टों और उनसे बचे रहने की चेतावनी भी है। 

कुछ संस्मरण बढ़िया किस्सागोई शैली में रोचक ढंग से लिखे गए हैं तो कुछ को बस औपचारिकतावश निभा भर दिया गया है। कुछ संस्मरण असलियत के आसपास तो कुछ में कल्पना का अतिरिक्त समावेश दिखा। कुछ में रहस्य, रोमांच और अनहोनी होने का पूर्वाभास इस कदर विश्वसनीय कि पढ़ते वक्त कई जगहों पर रौंगटे तक खड़े होने को आते हैं। संपूर्ण पैकेज की दृष्टि से अगर देखें तो इस किताब में एक कमी भी खटकी कि सभी भूत या प्रेत साकारत्मकता लिए हुए थे जबकि नाकारात्मक के पक्ष भी उसी शिद्दत के साथ इस संकलन में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता दिखना चाहिए था। खैर...ये तो अपने अपने अनुभव एवं विश्वास की भी बात हो सकती है। कुछ संस्मरणों के शीर्षक लंबे और थोड़े उबाऊ भी लगे। मेरे हिसाब से शीर्षक ऐसे होने चाहिए कि मन करे...सबको छोड़ कर पहले इसे ही पढ़ा जाए। कुछ जगहों पर थोड़ी बहुत मात्रात्मक ग़लतियाँ भी दिखाई दी जिन्हें अगले संस्करण में आसानी से दूर किया जा सकता है। इस संकलन के कुछ संस्मरण मुझे बेहद रोचक और पठनीय लगे। जिनके नाम इस प्रकार हैं: 

* मायाजाल- दिव्या माथुर
* एडिनबर्ग के भूमिगत भूत- मनीषा कुलश्रेष्ठ
* तर्क से परे, सारा खेल विश्वास का है- लक्ष्मी शर्मा
* वह मेरे साथ था- पंकज सुबीर
* वह आवाज़- आशा प्रभात
* मुझे जाने दे- अनिल प्रभा कुमार
* जब एक तारा ज़मीं पर उतर आता है- शिखा वार्ष्णेय
* स्वप्न-लोक- पंकज कौरव
* इस दुनिया से परे नक्षत्र की भाषा में- योगिता यादव
* वो तुम ही तो थे- सुनीता शानू
* टेलीपैथी या सपनों का रहस्य- अंजू शर्मा
* ब्रिटिशकालीन बंगले की अलौकिक आहट- वंदना यादव
* सफ़ेद चुन्नियाँ- नीलिमा शर्मा
* वो मुझसे मिलने आई थी- गीताश्री

208 पृष्ठीय संस्मरणों के इस संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 200-/- रुपए। एक अलग तरह का संकलन उपलब्ध कराने के लिए सभी रचनाकार, संपादक एवं प्रकाशक बधाई के पात्र हैं। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए सभी सहयोग कर्ताओं को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

1 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

संस्मरणों की यह पुस्तक रोचक लग रही है। पढ़ने की कोशिश रहेगी।

 
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