बेरंग लिफ़ाफ़े- मनीष भार्गव

कई बार कुछ पढ़ते हुए अचानक नॉस्टेल्जिया के ज़रिए हम उस वक्त..उस समय..उस माहौल में पहुँच जाते हैं कि पुरानी यादें फिर से ताज़ा हो..सर उठाने को आमादा होने लगती हैं। दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ नॉस्टेल्जिया के ज़रिए फिर से पुराने समय..पुराने माहौल की तरफ़ ले जाते एक ऐसे ही उपन्यास 'बेरंग लिफ़ाफ़े' की। जिसे लिखा है मनीष भार्गव ने और यह उनकी पहली कृति है।

मेट्रो के सफ़र से शुरू हुई इस उपन्यास की कहानी के आरंभ में ही मुख्य किरदार से मध्यप्रदेश से दिल्ली आयी हुई वहाँ की पुलिस कुछ तफ़्तीश करती दिखाई देती है। उन्हें उसकी पिछली नौकरी के दौरान वहाँ के किसी पुराने मामले में उन्हें उस पर कुछ शक है।

फ्लैशबैक के ज़रिए आगे बढ़ती हुई इस कहानी में कहीं दफ़्तरी कार्यशैली और वहाँ की अफसरशाही की बातें हैं तो कहीं कम्प्यूटर और सर्वर हैकिंग से जुड़ी बातें कहानी कक आगे बढ़ाने का प्रयास करि दिखाई देती हैं।कहीं इस उपन्यास में शेयर मार्केट की गूढ़ बातें सरल अंदाज में पढ़ने को मिलती हैं। तो कहीं इसमें गाँव के कठिन जीवन का वर्णन महसूस करने को मिलता है।

कहीं इसमें बचपन की शरारटन से जुड़े किस्से दिखाई देते हैं तो कहीं उस समय के बच्चों का भोलापन दिखाई देता है। कहीं इसमें नवोदय(होस्टल) की पढ़ाई..शरारतें और विद्यार्थियों की अनुशासित दिनचर्या दिखाई देती है। कहीं इसमें 9th-10th के नाज़ुक दौर में हार्मोन्स में होने वाले बदलावों की वजह से कोई किसी की तरफ़ आकर्षित दिखता है। तो कहीं कोई इसमें इसी दौर में पढ़ाई को गंभीरता से लेने की सलाह देता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं चुनावों के वक्त कलैक्टर ऑफिस में अफ़सरों की पौबारह होती दिखाई देती है कि उस वक्त चुनाव की आपाधापी में ऑफिस में बजट का कोई मुद्दा नहीं होता जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। तो इसी उपन्यास में कहीं अफसरशाही खुद अपने मातहतों को भ्रष्ट होना सिखाती दिखाई देती है। 

कहीं यह उपन्यास इस बात की भी तस्दीक करता दिखाई देता है कि..

'भ्रष्टाचार सिर्फ़ सरकारी तौर पर ही नहीं बल्कि आम जनता के स्तर पर भी होता है।'
क्योंकि आम समर्थ लोग भी खुद को दीन हीन बता ग़रीबों के लिए चल रही सरकारी योजनाओं का मसलन BPl कार्ड, राशनकार्ड, वृद्धावस्था पेंशन, कृषि सब्सिडी इत्यादि का लाभ उठाना चाहते हैं।

कहीं यह उपन्यास बताता है कि कुछ होटल/रेस्टोरेंट वाले फ़ूड इंस्पेक्टरों को खुद उनके होटल या रेस्टोरेंट में छापा मारने का निमंत्रण देते हैं कि इससे अख़बार में उनके होटल या रेस्टोरेंट की ख़बर फोटो सहित आने से उनका प्रचार हो जाएगा। तो वहीं दूरी तरफ़ उपन्यास यह भी बताता है कि फूड इंस्पेक्टरों को कुछ तयशुदा होटलों पर छापे मारने की इजाज़त भी नहीं होती थी कि वे किसी मौजूदा राजनीतिज्ञ या फिर किसी बड़े अफ़सर के निजी प्रतिष्ठान होते हैं।

इसी उपन्यास में कहीं यह उपन्यास रिटायर होने के बाद बड़े IAS अफ़सर द्वारा  अपनी पेंशन के लिए रिश्वत देने के उदाहरण से इस बात को सही साबित करता दिखाई देता है कि..'सब कुर्सी को ही सलाम करते हैं।'

इसी उपन्यास में कहीं इस बात की तस्दीक होती दिखाई देती है कि किन्हीं बीत चुके लम्हों के ज़रिए किसी विशेष को याद करना, उससे प्रत्यक्ष मिलने से ज़्यादा आनंद देता है। तो कहीं इसी उपन्यास में प्याज़ के छिलकों और ज़िन्दगी के एक समान होने की बात भी पढ़ने को मिलती है।

कुछ जगहों पर प्रूफ रीडिंग की खामी के तौर पर ग़लत शब्द छपने से वाक्य भी सही ढंग से बने हुए नहीं दिखाई दिए। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 15 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'मुझे अपने गुरु, जो मेरे बड़े भाई की तरह थे उनकी एक बाद याद आई कि जब भी समस्या हो तो ध्यान रखना आपकी मदद सिर्फ आप ही कर सकते हो।'

यहाँ 'एक बाद याद आयी' की जगह 'एक बात याद आयी' होगा। 

*इसी तरह पेज नंबर 59 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसने आपने परिचय के 3-4 सीनियर का नाम भी बताया जिन्हें वो जानता था।' 

यहाँ 'आपने परिचय के 3-4 सीनियर' की जगह 'अपने परिचय के 3-4 सीनियर' आएगा।

इसके बाद अपने नवोदय (होस्टल) प्रवास के दौरान लेखक ने एक जगह पेज नंबर 63 पर लिखा कि..

'9th के बाद हम नीलगिरी हाउस में शिफ्ट हो गए। 

इसके एक पेज बाद ही पेज नंबर 65 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'धीरे-धीरे कई वर्ष निकल गए। हम 10th में आ चुके थे।'

9th से 10th में आने में जबकि सिर्फ़ एक साल लगना चाहिए लेकिन यहाँ लिखा है कि..9th से 10th में आने में कई वर्ष निकल गए। 

मेरे हिसाब से किसी भी कहानी या उपन्यास को लिखते वक्त उसके प्लॉट..थीम और कंटैंट को ले कर लेखक के ज़हन में एक स्पष्ट रूपरेखा होनी चाहिए कि आखिर..वह कहना क्या चाहता है। इस कसौटी पर अगर कस कर देखें तो लेखक मुझे थोड़ा कन्फ्यूज़्ड और एक साथ दो नावों की सवारी करता दिखा कि उसे एक तरफ़ इस उपन्यास की कहानी को रहस्य..रोमांच से भरपूर रखना है अथवा अपने जीवन के निजी संस्मरणों के लेखे जोखे को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना है।

एक तरफ़ इस उपन्यास की कहानी का आगाज़ एक ऐसी पुलसिया तफ्तीश से हो रहा है जिससे लेखक याने के कहानी का मुख्य किरदार बचना चाह कर भी बच नहीं पा रहा है लेकिन शुरुआती 38 पृष्ठों के बाद ही इस 122 पृष्ठीय उपन्यास में आगे के 75 पृष्ठों तक सिर्फ फ़्लैशबैक के ज़रिए लेखक, जो कि कहानी का मुख्य किरदार भी है, सिर्फ अपनी वह कहानी कह रहा है जिसका पुलिस या उसकी तफ़्तीश से कोई लेना देना नहीं। हालांकि कि पैचवर्क के रूप में आखिरी 2-3 पृष्ठों में पुलिस का जिक्र भी आनन फानन में कहानी को बस जैसे तैसे समाप्त करने को प्रयासरत दिखा।

लेखक की भाषा शैली और उनका धाराप्रवाह लेखन भविष्य में उनसे और अच्छे कंटैंट की उम्मीद जगाता है। हालांकि यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया कागज़ पर छपे इस 122 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 130/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-12-2021) को चर्चा मंच          "दूब-सा स्वपोषी बनना है तुझे"   (चर्चा अंक-4286)     पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

मन की वीणा said...

सटीक समालोचना के लिए हृदय से आभार।

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

पुस्तक के प्रति उत्सुकता जगाता आलेख।

 
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