गाँव गुवाड़- डॉ. नरेन्द्र पारीक

स्मृतियों के जंगल से जब कभी भी गुज़रना होता है तो अनायास ही मैं फतेहाबाद(हरियाणा) के नज़दीक अपनी नानी के गाँव 'बीघड़' में पहुँच जाता हूँ। जहाँ कभी मेरी नानी गोबर और मिट्टी के घोल से फर्श और दीवारें लीपती नज़र आती तो कभी बकरी से दूध निकलते मेरे नाना। जिनकी बस यही एक स्मृति मेरे ज़हन में अब भी विद्यमान है। कभी गाँव के एक कमरे में बनी लाइब्रेरी से मुझे किताबें ना देने पर लाइब्रेरियन को धमकाती मेरे मामा की बड़ी बेटी नज़र आती। तो कभी एकादशी के मौके पर गाँव के गुरुद्वारे की दीवार के साथ ठिय्या जमाए मेरे मामा के लड़के चने के दानों के बदले खरबूजे बेचते नज़र आते।

दोस्तों..आज गाँव देहात की बातें इसलिए कि आज मैं ऐसे ही गाँव देहात की स्मृतियों को ताज़ा करती एक संस्मरणों की किताब के बारे में बात करने जा रहा हूँ। जिसे 'गाँव गुवाड़' के नाम से लिखा है डॉ. नरेन्द्र पारीक ने। पेशे से शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. साहब के इन संस्मरणों में कहीं कंटीली झाड़ियों से घिरे घास फूस से बने कच्चे घर दिखाई देते हैं। तो कहीं झाड़ियों को जला चूल्हे पर खाना बनता दिखाई देता है। कहीं इसमें दूध, दही, घी और छाछ के साथ मोटे अनाजों जैसे 'जौ'..'बाजरा' इत्यादि की बातें दिखाई दी। तो कहीं इसमें 'सहज पके सो मीठा होय' की तर्ज़ पर पुरानी पतलून अल्टर हो.. फिर से नयी बनती दिखाई दी। कहीं एक दूसरे की मदद की तत्पर गाँव के सीधे साधे लोग दिखाई दिए। तो कहीं इस किताब में गोबर से लिपी पुती दीवारें और फर्श दिखाई दिए। 

कहीं इसमें अपनी मिट्टी के मोह में डूबा कोई अशक्त हो चुका वृद्ध नज़र आता है। तो कहीं इसमें स्वार्थी बेटा सब कुछ अपने नाम करवाता नज़र आता है। कहीं इसमें किसी भी न्योते का अधीरता से इंतज़ार कर रहा अबोध बालक नज़र आता है। तो कहीं कोई जीमण में पानी पीने के लिए गिलास भी घर से ले जाने को तैयार दिखता है। कहीं इसमें जीमण के बाहर चप्पल चुराने वाले की पौ बारह होती दिखाई देती हैं तो कहीं कोई अपनी पुरानी चप्पल को नयी चप्पल से बदलने की फ़िराक में वहीं आसपास ही मंडराता दिखाई देता है।

कहीं किसी रेडियो से जुड़े संस्मरण में उसके सबसे शक्तिशाली मनोरंजन का साधन होने की बात पढ़ने को मिलती है। तो कहीं रेडियो के लिए लाइसेंस ज़रूरी होने की अहम बात। कहीं ख़बरों के लिए बीबीसी रेडियो के सबसे विश्वसनीय होने की बात आती है। तो कहीं इसमें रेडियो सीलोन के अलग अंदाज़ का जिक्र आता है। कहीं इसमें ओलंपिक क्रिकेट..हॉकी के आंखों देखे प्रसारण की बात होती नज़र आती है। तो कहीं इसमें रेडियो पर फरमाइशी गीतों के कार्यक्रम आने की बात दिखाई देती है।

कहीं इस किताब से गांवों में अब भी बच्चों को उनके पिता या दादा के नाम से पहचाने जाने की बात का पता चलता है। तो कहीं काठ पट्टी( तख्ती) को समर्पित एक आलेख में स्कूलों से तख्ती(काठ पट्टी) के विलुप्त होने की बात नज़र आती है। कहीं किसी संस्मरण में गाँव के कुओं पर भी जातिप्रथा के हावी होने की बात का पता चलता है। कहीं 'उगते सूरज को सलाम' की तर्ज़ पर गांवों में पानी की आपूर्ति के लिए टैंकरों के आ जाने से, कभी गाँव की जीवन रेखा रहे, कुओं को भुला दिए जाने का दर्द लेखक को सालता दिखाई देता है। 

कहीं इस किताब में मदारी और साँप-नेवले की लड़ाई का किस्सा आता है तो कही इसमें हाथ की सफ़ाई से सिक्के गायब होते या धड़ से सर अलग होता दिखाई देता हैं। कहीं किसी अन्य संस्मरण में नाटक मंडली द्वारा गाँव में रामलीला और अन्य नाटकों का मंचन होता दिखाई देता है। तो किसी अन्य संस्मरण में गांव की गलियों से बन्दर को कंकड़ पत्थर मार कर भागते बच्चों का हुजूम कूदता..फांदता और हुड़दंग मचाता दिखाई देता है।

 इसी संकलन में कहीं भड़भूजे के यहाँ भाड़ में 'चने' और 'जौ' भूने(भूजे) जाते दिखाई देते हैं तो कहीं देसी खाद्य पदार्थ 'खीचड़ा' बनता दिखाई देता है। कहीं किसी संस्मरण में गाँव के सादा रहन सहन के साथ वहाँ की देसी सब्ज़ियों को याद किया जाता दिखाई देता है तो कहीं किसी अन्य संस्मरण में कंचे, मार दड़ी और गिल्ली डंडे जैसे बचपन में खेले जाने वाले पुराने खेलों का फिर से स्मरण किया जाना दिखाई देता है। 

कहीं किसी गाँव के मेलों से जुड़े किसी अन्य संस्मरण में बताया जा रहा है कि पुराने वक्त में कम पैसों में भी किस तरह खुश रह कर मेलों का आनंद लिया जाता था। तो वहीं किसी अन्य संस्मरण में गाँव के शादी वाले घर में हफ़्ता दस दिन पहले से ही उत्सव का माहौल बनता दिखाई देता है। जिसके सौहाद्रपूर्ण वातावरण में सब गांव वाले आपस में मिल बाँट कर काम करते दिखाई देते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ उसी शादी के हर काम में मीन मेख निकालने को रिश्ते में बुआ और फूफा वगैरह के पहुँच जाने की बात पता चलती है। इसी संस्मरण में आगे कहीं ढोल नगाड़ों की लय पर गाँव की स्त्रियाँ और बच्चे नृत्य करते दिखाई देते हैं तो कहीं सब घर में बिठाए दर्ज़ी के आसपास नए कपड़ों की सिलाई हेतु मंडराते दिखाई देते हैं। कहीं इसमें शगुन के पैसे कॉपी में लिखवाते गांव वाले और रिश्तेदार नज़र आते हैं। तो कहीं सबको तंग कर नखरे दिखाते दूल्हे के यार दोस्त दिखाई देते हैं।

सीधे..सरल शब्दों में गाँव देहात की बातों को नॉस्टेल्जिया के ज़रिए फिर से ताज़ा करती इस किताब के साथ वहाँ के माहौल में रचे बसे चित्र किताब को और अधिक प्रभावी बनाते हैं।  कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियाँ मसलन..
*वर्तनी की त्रुटियाँ
*रेड़ियो- रेडियो
*पादान- पायदान
दिखाई देने के अतिरिक्त कुछ संस्मरणों में किसी किसी बात को थोड़ा बढ़ा चढ़ा कर लिखा गया प्रतीत हुआ। साथ ही कुछ एक संस्मरण थोड़े खिंचे हुए भी लगे जिन्हें आसानी से छोटा किया जा सकता था। अगर आप गाँव देहात की अपनी स्मृतियों को फिर से ताज़ा करना चाहते हैं तो यह किताब आपको पुनः उसी दौर..उसी माहौल में ले जाने में पूरी तरह से सक्षम है। 

यूँ तो यह किताब मुझे प्रकाशक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी के कागज़ पर छपी इस 140 पृष्ठीय किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है JAI3E Books & Publishing ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

2 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

किताब की विषय वस्तु रोचक लग रही है लेकिन कीमत खरीदने में बाधा बनेगी। पुस्तक के प्रति उत्सुकता जगाता आलेख।

राजीव तनेजा said...

डिस्काउंट पर 175 रुपए में मिल रही है।

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz