एक बेचारा
***राजीव तनेजा***
"बधाई हो तनेजा जी...सुना है कि आपको रौद्र रस के प्रख्यात कवि श्री गुस्सेश्वर सिंह धन..धनाधन द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में प्रथम पुरस्कार मिला है"...
"जी हाँ!...सही सुना है और वो भी किसी छोटी-मोटी हस्ती के हाथों नहीं बल्कि चिर कुँवारी...'श्रीमति क्रुद्ध कुमारी' के हाथों"मैँ गर्व से अपनी छाती फुलाता हुआ बोला...
"चिर कुँवारी...और श्रीमति?...मैँ कुछ समझा नहीं"...
"पागल की बच्ची!...'गर्मागर्म 'मल्लिका' के ज़माने में भी ठण्डी 'श्रीदेवी' की फैन है"...
"तो?"...
"जैसे मिस्टर इंडिया के बाद उसका दिमाग फिर गया था और उसने 'अनिल कपूर' के बजाय 'बोनी कपूर' से शादी कर ली थी"...
"तो क्या इसने भी किसी बुड्ढे से?"...
"अजी कहाँ?...शादी कर ली होती तो सब इसे कुँवारी थोड़े ही कहते?"...
"तो फिर?"...
"उसकी देखादेखी एक दिन इसका भी दिमाग फिर गया और इसने भी 'श्री' को अपना...उसे अपना तखलुस्स बना डाला"...
"ओह!...
"लोगों ने 'श्री' के साथ 'मति' और जोड़ दिया"...
"वो भला क्यों?"...
"मति जो फिर गई थी स्साली की"...
"ओह!...
"अब तो वो खुद भी अपने इस नाम को भरपूर एंजॉय करती है"...
"ओ.के"...
"हाँ!...तो हम बात कर रहे थे कि आपको कवि सम्मेलन में प्रथम पुरस्कार मिला है"...
"जी!...मिला तो है"मैँ ठण्डी साँस लेता हुआ बोला
"लेकिन इससे पहले तो किसी मंच पे आपकी उपस्तिथि देखी नहीं हमने"..
"जी!...एक्चुअली ये पहला ही अटैम्पट था और उसी में...
"अरे वाह!...इसका मतलब आपने तो पहली ही बॉल पे छक्का जड़ दिया"...
"जी!..सार्वजनिक तौर पर तो ये मेरी पहली ही कोशिश थी लेकिन घर के बॉथरूम वगैरा में तो मैँ बचपन से ही चौके-चक्के लगा रनों की बरसात करता रहा हूँ...याने के गाता रहा हूँ"...
"गुड!...वैरी गुड...पूत के पाँव तो वैसे भी पालने में ही नज़र आ जाया करते हैँ"...
"जी"...
"आपको बॉथरूम वगैरा में गाने की प्रेरणा कहाँ से मिली?"...
"अपने पिताजी से"...
"तो क्या वो भी?"....
"दरअसल क्या है कि जब मैँ छोटा था तब मेरे पिताजी कानस्टीपेशन(कब्ज़) नामक बिमारी से पीड़ित थे"....
"ओह!...
"यू नो कानस्टीपेशन?"...
"जी!...अच्छी तरह..मैँ खुद भी...सेम टू सेम...इसी बिमारी से पीड़ित हूँ"...
"तो क्या आप भी कुछ गाने...गुनगुनाने वगैरा का शौक रखते हैँ?"..."रखते हैँ?....अजी!...बिना आलाप लगाए तो बेशक मैँ दिन-रात टोयलेट में बैठ कुण्डी खड़काता रहूँ लेकिन पेट स्साला!...इतना ज़िद्दी है कि साफ होने का नाम ही नहीं लेता".....
"यही!...बिलकुल यही....मेरे पिताजी के साथ भी ऐसा ही हुआ करता था"...
"सुबह बिना कुछ खाए-पिए जब तक दो-चार घंटे रियाज़ ना कर लें ... पेट साफ ही नहीं होता था"..."तो क्या वो भी टॉयलेट में?"...
"ऑफकोर्स!...उन्हीं के देखादेखी मुझे भी ये लत लग गई"...
"कानस्टीपेशन की?"...
"जी नहीं!...गाने की"...
"थैंक गॉड!....तो इसका मतलब आप कानस्टीपेशन से मुक्त हैँ?"...
"अजी!...ऐसे कैसे मुक्त हैँ?"...आपने कह दिया और हो गया?"...
"हमारे घर में सबको...सबको यही तकलीफ है"मैँ गर्व से सीना फुला उन्हें समझाता हुआ बोला...
"ओह!...
"एक्चुअली!...पूरे मोहल्ले में हमारा घराना...कानस्टीपेशन वालों का घराना ...के नाम से मशहूर है"...
"ओह!...
"लेकिन हमारी हिम्मत...हमारे हौंसले..हमारे जज़्बे की दाद दीजिए कि टॉयलेट सीट पे बैठ के भी हम कभी दूसरों की तरह वेल्ले नहीं बैठे...उलटे हमेशा इसी उधेड़बुन में लगे रहे कि कैसे अपने हुनर...अपनी कला...अपने टैलेंट को... अपने सतत प्रयासों द्वारा जनहित के लिए निखारें?"...
"गुड"...
"जहाँ एक तरफ टॉयलेट में बैठ...बेकार की मगज़मारी में लोग अपनी ज़िन्दगी के कई-कई साल गंवा बैठते हैँ...वहीं दूसरी तरफ हमने अपने एक-एक मिनट...एक-एक क्षण का सदुपयोग किया"....
"वो कैसे?"...
"वहाँ पर भी हम सुर...ताल और लय के साथ आलाप लगा अपने हुनर को परिपक्व बना दिन-रात उसे निखारते रहे"...
"गुड"....
"आप जैसे कर्मयोगी तो विरले ही इस दुनिया में पैदा होते हैँ"...
"थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट...लेकिन जैसे इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है...ठीक वैसे ही मैँ भी पूरी तरह मुकमल्ल नहीं हूँ"...
"मतलब?"...
"मुझ में भी कई कमियाँ है"...
"क्यूँ मज़ाक करते हैँ तनेजा जी?"...
"कमियाँ?...और आप में?...हो ही नहीं सकता"...
"मानों मेरी बात...सच कह रहा हूँ...इस दुनिया में कोई पूर्ण नहीं है....असल में संपूर्ण तो स्वंय भगवान भी नहीं है"...
"मतलब?"...
"उन्हें भी तो अर्धनारीश्वर कहा गया है ना?"...
"लेकिन वो तो....
"अरे!...जब वो खुद कभी पूर्ण नहीं हो पाया तो क्या खाक मुझे पूर्ण करेगा?"...
"जी!...लेकिन मुझे तो आप में कोई कमी नहीं दीखती"...
"अब अपने मुँह मियाँ मिट्ठू कैसे कहूँ कि मुझ में भी कमियाँ हैँ?"...
"ये क्या कम बड़ी कमी है?...कि इतना बड़ा कवि होने के बावजूद आज भी मुझे अपनी कोई कविता मुँह ज़बानी याद नहीं है...हमेशा पढकर ही गुनगुनाता हूँ"...
"ओह!...तब तो टॉयलेट वगैरा में आपको बड़ी ही परेशानी का सामना करना पड़ जाता होगा?"...
"और नहीं तो क्या?"..
"अब सच का सामना करना हो तो और बात है...कोई भी आसानी से कर ले लेकिन टॉयलेट में ऊकड़ूँ बैठ के...गीत गुनगुनाना..बिलकुल भी...तनिक भी आसान बात नहीं है"....
"ऐसी भी कोई खास मुश्किल बात नहीं है ये...मैँ खुद एक-दो बार ट्राई कर चुका हूँ"...
"ट्राई तो बेटे!...सिग्रेट पी...धुआँ उड़ा...छल्ले बनाने की मैँ भी कई बार कर चुका हूँ लेकिन हर बार खाँस-खाँस के ऐसा अधमरा हुआ कि बस पूछो मत"...
"लेकिन...
"लेकिन क्या?...खुलेआम मेरा चैलेंज है हर खास औ आवाम को कि....
"है कोई ऐसा मर्द का बच्चा जिसने बोर्नवीटा युक्त माँ का दूध पिआ हो"...या फिर ..
"है कोई ऐसा महाबलि वानर जिसकी धमनियों में रक्त के बजाय 'पैप्सी' या फिर बीयर के किटाणू कुलबुला रहे हों?"...या फिर...
"है कोई ऐसा जांबाज़?...जो अपनी मौत की परवाह किए बिना सर पे कफन बाँध 'मायावती' के आगे इधर-उधर मटक रहा हो"...
"मैँ पूछता हूँ कि है कोई ऐसा अफ्लातून?..जो एक हाथ में कागज़ थाम...दूजी हथेली को कान से सटा ...लम्बे और ऊँचे सुर में...सधे गले से...नपा-तुला आलाप लगा...टॉयलेट में बैठने के असली मकसद को बिना किसी बाधा के निर्विध्न रूप से पूरा कर...उसे उसके अंजाम तक पहुँचा सके?"...
"अगर ऐसा कोई मर्द है तुम्हारी नज़र में तो जब कहो..जहाँ कहो...मैँ उसकी टाँगो के नीचे से निकल खुद को अनुग्रहीत करने को तैयार हूँ"...
"ल्ले...लेकिन....
"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं...मुझे सब पता है....बड़ी ही टेढी खीर है ये सब"...
"जी"...
"कई बार तो मुझे खुद को ही बड़ी मुश्किल और दुश्वारियों का सामना करना पड़ जाता है"...
"क्या बात करते हैँ तनेजा जी?"...
"आपको भी?"...
"मैँने पहले कहा ना...मैँ भी इनसान हूँ...और मुझ में भी कई कमियाँ हैँ"...
"जी"...
"ज़रा सा भी...तनिक सा भी आपका कानफीडैंस लूज़ हुआ नहीं कि समझो आप गए काम से"...
"मतलब?"...
"सारी क्रिया में एकदम परफैक्ट एकूरेसी बनाए रखनी पड़ती है कि कब आलाप लगाना है...और कब पेट दबा...ज़ोर लगाना है...वगैरा..वगैरा"...
"ओह!...
"अगर एक क्रिया की टाईमिंग भी ज़रा सी इधर की उधर हो गई तो समझो भैंस गई पानी में"...
"मतलब?"...
"सारा का सारा गुड़ गोबर हो जाता है"...
"ओह!....आपका मतलब टॉयलेट में जाने का असली मकसद ही इधर का उधर हो जाता है?"...
"जी हाँ!.....कई बार तो ऊकड़ूँ बैठ...दिमाग पे ज़ोर डाल खुद को ही सोचना पड़ जाता है कि..."आखिर मैँ यहाँ बैठा हूँ तो क्यों?...और किस वजह से बैठा हुआ हूँ?"...
"ओह!...
"ओह मॉय गॉड!...मेरा ध्यान पहले इस तरफ क्यों नहीं गया?"...
"किस तरफ?"...
"यही कि आपका कुर्ता तो फटा हुआ है"...
"तो?"...
"और ये चेहरे पे सूजन?"...
"हाँ!...मेरे चेहरे पे सूजन भी है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है?"...
"अरे!..आपने तो चप्प्ल भी टूटी हुई पहन रखी है"...
"तो?"...
"क्या किसी से गुत्थमगुत्था हो के आ रहे हैँ?"...
"नहीं!...बिलकुल नहीं"...
"कमाल है!...आप कुछ और कह रहे हैँ...और आपकी हालत कुछ और ब्याँ कर रही है"..
"वो दरअसल क्या है कि पहली-पहली बार जीत हासिल हुई है ना"..
"तो?"...
"उसी का हैंगओवर है"...
"तो इसका मतलब ये सारी चोट-चाट उसी कवि सम्मेलन की देन है?"...
"हाँ भी और ना भी"...
"तो क्या?..वहाँ पर भीड़ ने...
"अरे!...वहाँ भला किसमें हिम्मत थी जो मुझ पर जूते-चप्पल उछाल सके?"...
"तो फिर?"...
"वहाँ तो मेरा ऐसा स्वागत हुआ...ऐसा स्वागत हुआ कि पूरा पंडाल तालियों की गूंज से गूंज उठा था"...
"वाकयी?"...
"और नहीं तो क्या मैँ झूठ बोल रहा हूँ?"...
"तो फिर ये चोट-चाट?"...
"ये तो वो स्साला!...गंजे की औलाद....
"अब ये गंजा कहाँ से आ गया आपकी राम कहानी के बीच में?"...
"इसके लिए तो यार मुझे सारी कहानी शुरू से सुनानी पड़ेगी"...
"तो फिर सुनाईए ना"...
"जैसे कि तुम जानते ही हो मुझे शुरू से ही लिखने-पढने और कविताएँ गुनगुनाने का बड़ा शौक है"....
"जी!...आपने बताया भी था कि एक दिन आपके इसी शौक के चलते आपकी श्रीमति जी को शॉक लगा था और वो कोमा में चली गई थी"...
"यार!...वो तो कई बरस पुरानी बात हो गई...अब तो वो मेरी रचनाओं को शिद्दत से सुनती है और भरपूर एंजाऑय करती है"...
"रियली?"...
"जी!...
"बड़ी हिम्मतवाली है बेचारी"...
"जी!...मेरी कविताओं को सुनते वक्त उसके चेहरे से जो बेचारगी जाहिर होती है...उसे मैँने खुद महसूस किया है"...
"ओ.के"...
"तो पन्द्रह अगस्त वाले दिन गुस्सेश्वर सिंह धन धनाधन जी का फोन आया कि फटाफट दो घंटे में आ जाओ...एक कवि कम पड़ रहा है....तुम्हें वीर रस की कविता सुनानी है"...
"ओ.के"...
"मैँ तो डर के मारे परेशान हो उठा"...
"अरे!..आप तो इतने बड़े कवि हैँ...आप भला क्यों परेशान होने लगे?"...
"अरे यार!..बताया तो था कि मुझे मुँह ज़बानी अपनी कोई भी कविता याद नहीं है"...
"ओह!...तो फिर रट लेनी थी"...
"अरे!...अगर मैँ इतना ही बड़ा रट्टू तोता होता तो आठवी में पाँच बार फेल क्यों होता?"...
"ओह!...तभी मैँ कहूँ कि हमारे खयालात इतने मिलते-जुलते क्यों हैँ?"...
"तो क्या तुम भी?"...
"जी!...सही पहचाना...मैँ भी छटी क्लास में चार बार फेल हो चुका हूँ"...
"गुड!...वैरी गुड"...
"हाँ!..तो मैँ कह रहा था कि मुझे मुँह ज़बानी तो कोई भी कविता याद नहीं थी"...
"जी"...
"तो फिर पढकर ही कविता बाँच देते"...
"हुँह!..पढ कर ही कविता बाँच देते"...तुमने कह दिया और मैँने मान लिया?"...
"नाक ना कट जाती भरी पब्लिक के सामने मेरी कि इतना बड़ा और होनहार कवि चन्द लाईनों की कविता तक याद नहीं कर सकता?"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"होना क्या था?...मन मसोस कर लगा हर जगह रट्टे लगाने कि...
गर मिल जाए सत्ता इन्हें...
तोड़ डालें सारे नियम...
रच डालें नित नए प्रपंच
खींचे कुरसी तोड़ें मंच
"हर जगह?...मतलब?"...
"अरे!...अभी तो बताया था कि पन्द्रह अगस्त वाले दिन ही तो फोन आया था उनका कि अभी आ जाओ फटाफट...एक कवि कम पड़ रहा है"...
"ओ.के"...
"कुल मिला के सिर्फ दो घंटे का टाईम था मेरे पास...इतने में मुझे नहाना-धोना भी था और तैयार हो के कवि सम्मेलन वाली जगह पे पहुँचना भी था जो की घर से पूरे बारह किलोमीटर दूर थी"....
"ओह!...सिर्फ दो घंटी का टाईम?...ये तो बहुत बड़ी नाईंसाफी की उन्होंने आपके साथ"...
"जी!...लेकिन किया क्या जा सकता था?"....
"सो!...मैँ रटता रहा...रटता रहा...और बस रटता रहा"...
"गुड!...आफ्टर ऑल कमिटमैंट इज़ कमिटमैंट...वाद तो वादा होता है"...
"ये बिलकुल ठीक किया आपने"...
"अजी!...काहे का ठीक किया?"...
"जल्दबाज़ी में मैँने अपने पायजामे के बजाय पड़ोसी का तम्बू पहन लिया"...
"तम्बू?"...
"अरे!...उस मोटे का पायजामा था ही इतना बड़ा कि उसे तम्बू ना कहूँ तो फिर क्या कहूँ?"...
"लेकिन आपने अपना छोड़ उसका पायजामा कैसे पहन लिया?"....
"सब मेरी जल्दबाज़ी का नतीजा है"...
"मतलब?"...
"हम दोनों के पायजामे बाहर एक ही तार पे सूख रहे थे...जल्दी-जल्दी में ध्यान ही नहीं रहा कि मैँने किसका पायजामा पहन लिया है?"...
"ओह!...तो क्या आपको बिलकुल भी पता नहीं चला कि आप क्या पहने हैँ और क्या नहीं?"...
"अरे यार!...पहलेपहल तो मुझे लगा कि पहली बार कवि सम्मेलन से न्यौता आया है...उसी की खुशी की वजह से ये खुला-खुका सा....मीठा-मीठा सा.....हवादार एहसास हो रहा है"...
"ओह!...तो फिर आपको पता कब चला?"...
"जब मैँ हैलमेट पहन स्कूटर स्टार्ट करने के लिए किक मारने लगा"...
"इधर किक मारूँ और उधर पायजामा सरक कर धड़ाम से नीचे"...
"ओह!...
"अब कभी मैँ एक हाथ से पायजामा सँभालूँ और दूजे हाथ से...ऊप्स सॉरी पैर से किक मारूँ"....
"ओ.के...तो क्या स्कूटर आराम से स्टार्ट हो गया?"...
"आराम से?...ऐसा ज़िद्दी और निकम्मा स्कूटर तो मैँने अपनी ज़िन्दगी में आज तक नहीं देखा...उल्लू का पट्ठा भीष्म प्रतिज्ञा पे अड़ गया कि जब तक मैँ दोनों हाथों से हैण्डिल नहीं पकड़ूँगा...स्टार्ट ही नहीं होऊँगा....लाडला जो ठहरा"...
"ओ.के!...फिर क्या हुआ?"...
"ना चाहते हुए भी मन मसोस कर उसकी बात माननी पड़ी"...
"लेकिन इतने में तो...
"करैक्ट!...सही पहचाना...किक मारते ही पूरा का पूरा पायजामा सर्र से सर्र-सर्र करता हुआ धड़ाम से नीचे जा गिरा"...
"ओह मॉय गॉड...वैरी क्रिटिकल सिचुएशन"...
"जी"...
"फिर क्या हुआ?"...
"होना क्या था?...पडॉस वाले शर्मा जी की बीवी बाहर खड़ी सब्ज़ी खरेद रही थी...उसी को रिकवैस्ट करनी पड़ी"...
"पायजामा ऊपर करने की?"...
"पागल हो गए हो क्या?...मैँ इतना भी निर्लज्ज नहीं कि महिलाओं से अपने पायजामे ऊपर करवाता फिरूँ"...
"तो फिर किस चीज़ की आपने रिकवैस्ट की?"...
"मैँने उन्हें कहा कि प्लीज़!...कुछ देर के लिए आप मेरी तरफ यूँ कातिल नज़रों से ना देखें"..
"ओ.के"...
"लेकिन आपका पायजामा?...वो कैसे ऊपर हुआ?"..
"ये तो भला हो उस सब्ज़ीवाले का...जिसने मेरी परेशानी को समझा और तुरंत मेरी मदद के लिए आ मेरे पायजामे को ऊपर कर उसे बाँध दिया"...
"गुड!...भले आदमियों की दुनिया में कमी नहीं है"..
"जी"...
"फिर क्या हुआ?"...
"होना क्या था?...मैँने बिना एक पल भी गवाएँ अपना स्कूटर सीधा मंज़िल की तरफ दौड़ा दिया"...
"गुड"...
"लेकिन इस सारे आपाधापी से भरे चक्कर में मैँ अपनी रटी रटाई कविता ही भूल गया"...
"ओह!...ये तो बहुत बुरा हुआ"...
"लेकिन मैँ भी बड़े जीवट वाला आदमी हूँ...अंत समय तक हार नहीं मानता"...
"स्कूटर दौड़ाते-दौड़ाते मैँ अपनी कविता याद करता जा रहा था...
"ना पंचायत को पंच मिलेगा
ना शातिर को अब महादण्ड
मिलकर लूटेंगे खुलकर खाएंगे
मचाएँगे हल्ला और हुड़दंग"
"गुड"...
कविता बस पूरी याद हो जाने ही वाली थी बीच में स्पीड ब्रेकर आ गया"...
"कविता के बीच में स्पीड ब्रेकर?"...
"अरे बुद्धू!...कविता के बीच में नहीं...सड़क के बीच में स्पीड ब्रेकर याने के जाम लगा हुआ था...लाल बत्ती खराब पड़ी हुई थी और एक दूसरे से पहले निकलने की होड़ में सब जाम पर जाम लगाते जा रहे थे"..
"ओह!...
"सब की सब गाड़ियाँ एक दूसरे के सामने अड़ के खड़ी हो गई थी कि पहले मैँ निकलूँगी...पहले मैँ निकलूँगी"....
"कोई अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं और इन बेवाकूफों के चक्कर में मेरा बुरा हाल कि कैसे पहुँचूँगा?...कब पहुँचूँगा?"...
"ओह!...
"जैसे कि तुम जानते हो मुझे समय का दुरप्योग बिलकुल पसन्द नहीं"...
"जी!...आपने बताया था"...
"तो बस मैँ ज़ोर-ज़ोर से शुरू हो गया....
"गर मिल जाए सत्ता इन्हें...
तोड़ डालें सारे नियम...
रच डालें नित नए प्रपंच
खींचे कुरसी तोड़ें मंच"...
"ज़ोर-ज़ोर से क्यूँ...आराम से क्यूँ नहीं?"...
"अरे!...ज़ोर से नहीं गाता तो और क्या करता?...वहाँ इतनी चिल्लमपों मची हुई थी कि अपनी खुद की आवाज़ भी खुद को नहीं सुनाई दे रही थी"...
"ओह!...
"तो मैँ ज़ोर-ज़ोर से ...हाँफ-हाँफ अपनी कविता गा ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा...
"पेट हैँ इनके बड़े-बड़े..
खाल सख्त गैंडे सी मोटी
समझा है देश को अपना
जायदाद हुई ये बपौती"
"लेकिन आप हाँफने क्यूँ लगे?"...
"अरे!..अगर हाँफता नहीं तो वीर रस वाला इफैक्ट कैसे आता?"...
"गुड!...ये आपने अच्छा किया जो हाँफ-हाँफ के कविता गाने लगे लेकिन एक बात समझ नहीं आई कि आप कविता गाते-गाते हँसने क्यों लगे?"...
"अरे!...हँस तो मैँ इसलिए रहा था कि मुझे पूरी कविता याद हो गई थी"...
"गुड!...आपने अच्छा किया जो हँस पड़े...अपनी खुशी का इज़हार करने में पीछे नहीं रहना चाहिए"...
"अजी छोड़िए!...काहे का अच्छा किया?"...
"ये टूटा हुआ दाँत और ये फटी हुई कमीज़ ...सब मेरे हँसने की देन है"...
"मतलब?"...
"मुझे हँसता हुआ देख सामने जाम लगाए खड़ा वो पहलवान का बच्चा....स्साला!...गंजे की औलाद...पता नहीं क्या का क्या समझ बैठा? और मुझे घूर-घूर कर देखने लगा"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"..
"अब भला मुझे उसके घूरने या ना घूरने में क्या इंटरैस्ट?"...
"मैँ तो अपना मस्त हो के अपनी रिहर्सल करता रहा"...
"ओ.के!...ये आपने अच्छा किया...ऐसे फालतू लोगों को मुँह नहीं लगाना चाहिए"...
"आप मुँह लगाने की क्या बात कर रहे हैँ?....उस उल्लू के पट्ठे को पता नहीं अचानक क्या सूझी कि सीधा अपनी गाड़ी से बाहर निकल मेरी तरफ आया और बिना कुछ सोचे-समझे आठ-दस घूंसे मेरे चौखटे पे जड़ दिए"...
"ओह!...ये तो बहुत बुरा हुआ"...
"अरे!...पहले पूरी कहानी तो सुनो...फिर बताना कि बुरा हुआ के अच्छा हुआ?"..
"आपकी पिटाई हो गई....अब इसमें अच्छा क्या हो सकता है?"....
"तुम सुनों तो".....
"ओ.के!...आगे बताएँ कि उसके बाद क्या हुआ?"...
"होना क्या था?..थोड़ी देर बाद पुलिस आ गई और उसने सारा जाम खुलवा दिया"....
"ओ.के"...
"वहाँ से मैँ गिरता-पड़ता किसी तरह आयोजन स्थल तक पहुँचा....लेट तो मैँ हो ही चुका था...इसलिए बिना किसी फॉरमैलिटी के सीधा मंच पर जा चढा"...
"ओ.के"...
"ऊपर पहुँच के क्या देखता हूँ कि पूरा का पूरा मंच जूतों...चप्पलों से भरा पड़ा है और पब्लिक बेकाबू होती हुई सड़े हुए अण्डों और टमाटरों की बारिश कर हूटिंग पे हूटिंग किए जा रही है"..
"ओह!...
"मैँने सोचा कि मैँ वीररस से भरी अपनी ओजपूर्ण कविता के जरिए पब्लिक का मनोरंजन कर उसे शांत करने की कोशिश करता हूँ लेकिन...
"लेकिन क्या?"...
"लेकिन अचानक मैँ महसूस करता हूँ कि मुझे तो कविता याद ही नहीं...
"ओह!...माई गुडनैस....फिर क्या हुआ?"...
"फिर क्या?...जैसे ही मैँने महसूस किया कि मुझे कुछ भी याद नहीं...मेरे तो हाथ पाँव फूल गए"...
"जानता था कि मेरा सब कुछ लुट चुका है लेकिन फिर भी मैँने अपनी ज़िन्दादिली का परिचय देते हुए अपने माथे पे एक शिकन तक ना आने दी और अपने दोनों हाथों से माईक को पकड़ मैँ जैसे ही कुछ बोलने को हुआ कि अचानक शोर शराबा करती हुई सारी भीड एकदम शांत हो कर एकटक मेरी तरफ देखने लगी"...
"ओ.के"...
"मैँ गर्व से मुस्कुराया"...
"मुझे देख पब्लिक भी मुस्कुराने लगी...मुस्कुराने नहीं बल्कि खिलखिलाने लगी"...
"गुड"...
"उन्हें मुस्कुराता देख मैँ ज़ोर से खिलखिलाने लगा और मेरी अपेक्षा के अनुरूप पब्लिक भी खिलखिलाने लगी"...
"वाह!...बहुत बढिया...वाह...वाह"...
"और हैरानी की बात कि वो अब खिलखिलाने के बजाय मेरी तरफ इशारे कर ठहाके लगाने लगी"...
"?...?...?..?...
?...?..?..?..
"आपकी तरह मुझे भी कुछ शंका सी हुई ...मैँने नीचे झुक कर देखा तो वही पाया..जिसका मुझे अन्देशा था"....
"किस चीज़ का अन्देशा था?"...
"मेरा पायजामा कब नीचे सरक चुका था...मुझे कुछ खबर नहीं"...
"ओह!...
"अब मैँ काटो तो खून नहीं वाली कंडीशन में पहुँच चुका था"...
"फिर क्या हुआ?"...
"खैर!...बात को किसी ना किसी तरीके से संभालना तो था ही...सो मैँ माईक पर ज़ोर से चिल्लाया... "हमारा देश!...हमारा देश बहुत नीचे गिरा हुआ है"...
और नीचे झुक गया
"ओ.के!...उसके बाद क्या हुआ?"..
"उसके बाद मैँ पायजामे को सँभाल ऊपर ला....नाड़ा बाँधते हुए बोला कि....
"इसे इस तरह ऊपर उठा कर एक सूत्र में पिरोना होगा....जय हिन्द"...
"गुड!...फिर क्या हुआ?"....
"फिर क्या?...पूरा का पूरा माहौल ...जय हिन्द...जय हिन्द के नारों से गूंज उठा"...
"और इसी चक्कर में सारी पब्लिक ने बैस्ट परफारमैंस ऑफ दा फंक्शन के लिए मेरे नाम को रैफर किया...जिसे ना चाहते हुए भी श्री गुस्सेश्वर सिंह धन धनाधन को मानना पड़ा"...
"गुड!...वैरी गुड"...
***राजीव तनेजा***
नोट:हो सकता है कि ये कहानी आपको कुछ कमज़ोर सी लगे...दरअसल इस कहानी को मैँने रात 11.00 बजे से लेकर सुबह 6.00 बजे तक बिना रुके लगातार आठ घंटे लिख कर नॉन स्टाप पूरा किया है
Rajiv Taneja
Delhi(India)
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